गुरुवार, 30 जनवरी 2025

गोडसे ने बापू की डायरी में यह क्यों लिखा : 1,10,234 …?

 

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By Jayjeet


गोडसे ने आज फिर बापू की डायरी ली और उसमें कुछ लिखा।

गांधी ने पूछा- अब कितना हो गया है रे तेरा डेटा?

एक लाख क्रॉस कर गया बापू। 1 लाख 10 हजार 234… गोडसे बोला

गांधी – मतलब सालभर में बड़ी तेजी से बढ़ोतरी हुई है।

गोडसे : हां, 12 परसेंट की ग्रोथ है। बड़ी डिमांड है …. गोडसे ने मुस्कराकर कहा…

गांधीजी ने भी जोरदार ठहाका लगाया…

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नए-नए अपॉइंट हुए यमदूत से यह देखा ना गया। गोडसे के रवाना होने के बाद उसने अनुभवी यमदूत से पूछा- ये क्या चक्कर है सर? ये गोडसे नरक से यहां सरग में बापू से मिलने क्यों आया था?

अनुभवी यमदूत – यह हर साल 30 जनवरी को नर्क से स्वर्ग में बापू से मिलने आता है। इसके लिए उसने स्पेशल परमिशन ले रखी है।

नया यमदूत – अपने किए की माफी मांगने?

अनभवी – पता नहीं, उसके मुंह से तो उसे कभी माफी मांगते सुना नहीं। अब उसके दिल में क्या है, क्या बताए। हो सकता है कोई पछतावा हो। अब माफी मांगे भी तो किस मुंह से!

नया – और बापू? वो क्यों मिलते हैं उस हरामी से? उसके दिल में भले पछतावा हो, पर बापू तो उसे कभी माफ न करेंगे।

अनुभवी – अरे, बापू ने तो उसे उसी दिन माफ कर दिया था, जिस दिन वे धरती से अपने स्वर्ग में आए थे। मैं उस समय नया-नया ही अपाइंट हुआ था।

नया – गजब आदमी है ये… मैं तो ना करुं, किसी भी कीमत पे..

अनुभवी – इसीलिए तो तू ये टुच्ची-सी नौकरी कर रहा है…

नया – अच्छा, ये गोडसे, बापू की डायरी में क्या लिख रहा था? मेरे तो कुछ पल्ले ना पड़ रहा।

अनुभवी – यही तो हर साल का नाटक है दोनों का। हर साल गोडसे 30 जनवरी को यहां आकर बापू की डायरी को अपडेट कर देता है। वह डायरी में लिखता है कि धरती पर बापू की अब तक कितनी बार हत्या हो चुकी है। गोडसे नरक के सॉफ्टवेयर से ये डेटा लेकर आता है।

नया – अच्छा, तो वो जो ग्रोथ बोल रहा था, उसका क्या मतलब?

अनुभवी – वही जो तुम समझ रहे हो। पिछले कुछ सालों के दौरान गांधी की हत्या सेक्टर में भारी बूम आया हुआ है।

नया – ओ हो, इसीलिए इन दिनों स्वर्ग में आमद थोड़ी कम है…

अनुभवी – अब चल यहां से, कुछ काम कर लेते हैं। वैसे भी यहां मंदी छाई हुई है। नौकरी बचाने के लिए काम का दिखावा तो करना पड़ेगा ना… हमारी तो कट गई। तू सोच लेना….


(Disclaimer : इसका मकसद गांधीजी को बस अपनी तरह से श्रद्धांजलि देना है, गोडसे का रत्तीभर भी महिमामंडन करना नहीं… )

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रविवार, 26 जनवरी 2025

एआई: नए अध्याय का सूत्रपात या आखिरी गलती? (Book Review of 'Nexus' )


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By जयजीत अकलेचा

आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस (एआई) के गॉडफादर कहे जाने वाले जैफ्री ई. हिंटन को बीते साल अक्टूबर माह में जब भौतिकी के क्षेत्र का नोबेल पुरस्कार दिया जा रहा था, तब उनके शब्द थे- ‘हमें एआई के बुरे असर को लेकर भी चिंतित होना चाहिए।’ जिस वक्त हिंटन अपनी ये चिंता व्यक्त कर रहे थे, लगभग उसी समय युवाल नोआ हरारी अपनी सद्य प्रकाशित किताब ‘नेक्सस' के जरिए इसी चिंता को और विस्तार दे रहे थे।

‘सेपियन्स’ के बेस्टसेलिंग लेखक हरारी की यह किताब, जिसका हाल ही में हिंदी संस्करण आया है , पाषाण युग से लेकर आधुनिक काल तक के सूचना तंत्रों का एक संक्षिप्त इतिहास प्रस्तुत करती है। लेकिन इसका सबसे रोचक और रोमांचक हिस्सा (और बेशक डरावना भी) वह तीसरा खंड है, जो एआई और उससे जुड़ी राजनीति पर विमर्श करता है।

दुनिया में एक वर्ग एआई को लेकर जितना उत्साहित या बेफिक्र है, हरारी उतने ही चिंतित नजर आते हैं। वे इसे वैश्विक संकट की आहट मानते हैं। वे लिखते हैं, ‘जिस तरह से जलवायु परिवर्तन उन देशों को भी तबाह कर सकता है, जो पर्यावरण के नियमों का पालन करते हैं, क्योंकि यह राष्ट्रीय समस्या नहीं है। उसी तरह एआई भी एक वैश्विक समस्या है। ऐसे में कुछ देशों का यह सोचना महज उनकी मासूमियत से ज्यादा कुछ नहीं होगा कि वो अपनी सरहदों के भीतर एआई को समझदारी के साथ नियंत्रित कर सकते हैं।’ वे साफ तौर पर आगाह करते हैं कि हमने जिस कृत्रिम मेधा का निर्माण किया है, अगर उसे ठीक से बरतते नहीं हैं तो यह न केवल धरती से मानव वर्चस्व को, बल्कि स्वयं चेतना के प्रकाश को भी खत्म कर देगी।

एआई के प्रति हरारी का दृष्टिकोण अत्यंत निराशावादी लग सकता है (‘गार्डियन’ के शब्दों में कहें तो ‘अपोकैलिप्टिक’ यानी सर्वनाश का भविष्यसूचक)। लेकिन जिन शब्दों तथा तथ्यों की रोशनी में वे बात करते हैं, वह यथार्थपरक भी प्रतीत होता है। वे एक टर्म ‘डेटा उपनिवेशवाद' का प्रवर्तन भी करते हैं और घोषित करते हैं कि जो भी डेटा को नियंत्रित करेगा, दुनिया पर भी उसी का वर्चस्व होगा, बशर्ते यह दुनिया अपने मौजूदा अस्तित्व को बनाए व बचाए रखे। वे दुनिया के अस्तित्व को लेकर बार-बार चिंताएं जताते हैं और बहुत ही वाजिब सवाल पूछते हैं, ‘अगर हम इतने विवेकवान हैं तो फिर इतने आत्मविनाशकारी क्यों हैं?’

हालांकि निराशाओं के बीच भी वे किताब की अंतिम पंक्तियों में, मगर छिपी हुई चेतावनी के साथ, क्षणिक-सी आशा बिखेरते हुए लिखते हैं, 'आने वाले वर्षों में हम सभी जो भी निर्णय लेंगे, उससे ही यह तय होगा कि इस अजनबी बुद्धि (एआई) का आह्वान करना हमारी आखिरी गलती है या इससे जीवन के विकास में एक नए अध्याय का सूत्रपात होगा।’

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शुक्रवार, 3 जनवरी 2025

केवल अंग्रेजी नव वर्ष को ताना मारने से क्या होगा?

By Jayjeet

नए साल की शुभकामनाओं का सिलसिला अब तक जारी है। इस बार कतिपय शुभकामनाओं के आगे ‘अंग्रेजी' (नव वर्ष) जोड़कर यह संकेत दिए गए कि शुभकामनाएं तो ले लीजिए, लेकिन ज्यादा खुश मत होइए, क्योंकि ‘ये हमारा नव वर्ष नहीं है।’ और कुछ ने तो बाकायदा ‘हमारा नया साल तो चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से' तक के मैसेज प्रसारित किए। बीजेपी के तेज-तर्रार प्रवक्ता सुधांशु त्रिवेदी का बीजेपी मुख्यालय में इस तरह से नववर्ष की शुभकामनाएं देते हुए वह वीडियो भी खूब वायरल हुआ और किया गया कि ‘पोप ग्रेगरी 13वें द्वारा 1582 में करेक्टेड और अंग्रेजों द्वारा 1752 में अंगीकृत इस अंग्रेजी नववर्ष के प्रथम दिन की आप सभी को बधाई।'

ऐसे संदेशों और ऐसी भाषा के पीछे सांस्कृतिक उत्कर्ष की एक प्रबल आकांक्षा है, इससे इनकार नहीं। अपनी संस्कृति पर गर्व होना चाहिए और यह खूब बढ़े तथा निखरे, इसकी तमन्ना भी होनी चाहिए। लेकिन अंग्रेजी नव वर्ष को जिस तरह से एक धार्मिक संस्कृति से जोड़कर देखा गया और देखा जा रहा है, वह कितना उचित है, इस पर विचार करने की जरूरत है, ताकि इस कठिन आर्थिक दौर में देश किसी और राह पर ना निकल पड़े।

इस समय कथित राष्ट्रवादियों का एक तबका अंग्रेजी नव वर्ष को दबे-छिपे तौर पर धर्म विशेष से जोड़कर जरूर देख रहा है, लेकिन सच तो यह है कि इसका ज्यादा संबंध अर्थ से है, धर्म से नहीं। जिस दौर में ग्रेगेरियन कैलेंडर को सबसे पहले अपनाया गया, वह वो दौर था, जब ब्रिटेन की आर्थिक तरक्की व सियासी दबदबे का सूरज ऊपर चढ़ रहा था। 1600 से ब्रिटेन तरक्की की जिस राह पर आगे बढ़ा (बेशक इसमें ईस्ट इंडिया जैसी कंपनियों की औपनिवेशिक ब्लैक स्टोरीज भी शामिल हैं, मगर दबदबे का यह भी तो एक माध्यम था!), वह अठारवी सदी के उत्तरार्द्ध में वहां शुरू हुई पहली औद्योगिक क्रांति तक लगातार विस्तार पाती गई। यही वह समय था, जब दुनिया तेजी से ग्रेगेरियन कैलेंडर (अंग्रेजी कैलेंडर) को अपनाती गई।

कुछ ने बेहद ड्रैमेटिक अंदाज में अंग्रेजों को शुक्रिया अदा करते हुए कहा कि ‘अच्छा हुआ, आप पधार गए। नहीं तो भारत के घर-घर हिजरी कैलेंडर होते।’ यह भी कैलेंडर पर धार्मिकता का चोला पहनाने का ही एक क्रिएटिव तरीका था, जबकि तथ्य यह है कि आज ईरान और अफगानिस्तान को छोड़कर दुनिया के तमाम बड़े व महत्वपूर्ण मुस्लिम देशों में भी धार्मिक के अलावा अन्य सभी गतिविधियां अंग्रेजी कैलेंडर द्वारा ही संचालित होती हैं। इनमें मुस्लिम जगत के प्रभावी मुल्क सऊदी अरब, यूएई से लेकर दुनिया का सबसे बड़ा मुस्लिम बहुल राष्ट्र इंडोनेशिया भी शामिल है। वजह वही – आर्थिक, धार्मिक नहीं। अगर मुस्लिम देशों या कम्युनिटी का दुनिया में आर्थिक व सियासी दबदबा होता तो भारत तो क्या, ब्रिटेन में ही हिजरी संवत ही होता।

आज ब्रिटेन की वह आर्थिक हैसियत नहीं रही, लेकिन उसकी जगह अमेरिका ने ले ली है। वही अमेरिका जिसने भी 1752 में ब्रिटेन के साथ ही ग्रेगेरियन कैलेंडर को अपनाया था। आज उसका दबदबा है। वहां की एक सिलिकॉन वैली में मौजूद 6,500 कंपनियों में से केवल एक कंपनी एपल का ही बाजार मूल्य हाल ही में भारत की जीडीपी को पार कर गया है। आज अमेरिका भले ही कई मायनों में भ्रष्ट व पतित हो, लेकिन किसी के पास उसके आर्थिक राष्ट्रवाद का कोई तोड़ नहीं है।

सुधांशु जी जैसों से यह निवेदन तो बनता है कि वे हिंदुओं में सांस्कृतिक गर्व पैदा करने के साथ-साथ वैज्ञानिक व आर्थिक दृष्टिकोण भी पैदा करेंगे तो बेहतर रहेगा। वे लोगों को इनोवेशन, न्यू एज टेक्नोलॉजी में एक्सप्लोरेशन के लिए प्रेरित करें।और सबसे बड़ी बात, देश को भ्रष्ट सिस्टम से कैसे छुटकारा मिले, इसकी कोई राह अपनी सरकार को सुझाएं, क्योंकि इसके बगैर देश और संस्कृति का कल्याण नहीं हो सकता।

अगर हमने हमारे करप्ट सिस्टम को ठीक नहीं किया, न्यू एज इनोवेशन में काम नहीं किया, वैज्ञानिक दृष्टिकोण विकसित नहीं किया तो तय मानिए हमारी आने वाली अनेक पीड़ियों के घरों में भी बड़ी शान से अंग्रेजी कैलेंडर ही लटका मिलेगा; उन घरों में भी जो आज प्रेस कॉन्फ्रेंस करके ‘नव वर्ष’ को ताना मार रहे हैं।

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