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रविवार, 29 जून 2025

(Indian Shubhnshu Shukla in ISS) क्या कभी अंतरिक्ष भारत के लिए 'न्यू नॉर्मल' बन सकेगा?

By Jayjeet

बेशक, छोटी-छोटी उपलब्धियों पर हमें खुश होना चाहिए, गर्व करना चाहिए। लेकिन जब मामला देश का हो तो गर्व के साथ-साथ हमें चिंतन भी करना चाहिए।
41 साल बाद कोई भारतीय अंतरिक्ष में पहुंचा है। तो आइए, खुशी के साथ-साथ एक गंभीर विमर्श भी करें। यह धर्म, जाति, सम्प्रदाय के मुद्दों पर सत्ता पर काबिज होने वाली सरकारों के समक्ष सवाल उठाने का भी बेहतरीन मौका है। बड़ा सवाल यही है- दो अंतरिक्ष यात्रियों के बीच चार दशक का समय कैसे लग गया?
हम कितने सफल हैं या हम कितने पीछे हैं, इसका कोई तो पैमाना होना चाहिए। हमें चीन को इस पैमाने के तौर पर सामने रखना चाहिए, क्योंकि वह हमारा स्वाभाविक प्रतिद्वंद्वी भी है। अमेरिका से तुलना बेमानी होगी।
चीन के साथ भी तुलना करते समय हमें उसके क्षेत्रफल और वहां की अपेक्षाकृत स्थाई सरकारों के परिदृश्य को ध्यान में रखना होगा। इसलिए उसकी तुलना में हर क्षेत्र में भारत की तीन से पांच गुना तक की कमी को जायज मानना चाहिए। तो भारत के 2 अंतरिक्ष यात्रियों की तुलना में चीन के 8 से 10 अंतरिक्ष यात्रियों का आंकड़ा होता तो मान सकते थे कि हम पीछे कतई नहीं हैं।
लेकिन जब हम अंतरिक्ष में चीन के मिशनों को एक्सप्लोर करते हैं तो पता चलता है कि हम जमीन पर है और चीन आसमान में। वैसे तो चीन के कितने ही स्पेस मिशन हैं, लेकिन हम केवल अंतरिक्ष यात्रियों की ही बात कर लें, तब भी यह अंतर हमसे कहता है कि असल इतिहास रचने के लिए हमें लंबा सफर तय करना बाकी है।
चीन ने अपने मानवयुक्त अंतरिक्ष मिशन की शुरुआत 2003 में की थी। इस लिहाज से तो वह भारत से पिछड़ा हुआ ही माना जाएगा! भारत के राकेश शर्मा तो 1984 में ही अंतरिक्ष की तफरीह कर आए थे, मगर रूसी अंतरिक्ष मिशन के साथ। अब शुभांशु शुक्ला पूरे 41 साल बाद अंतरिक्ष में गए हैं, अमेरिकी मिशन के साथ।
इस दौरान चीन ने क्या किया? उसने अपने स्वदेशी मिशन ‘शेनझोउ' पर काम किया। बीते 22 साल में ही वह 26 अंतरिक्ष यात्रियों को अंतरिक्ष में भेज चुका है। सारे के सारे उसके स्वदेशी अंतरिक्ष यान ‘शेनझोउ' से गए हैं।
हमें ज्यादातर खबरें इंटरनेशनल अंतरिक्ष स्टेशन (ISS) की ही पढ़ने को मिलती हैं। शुभांशु भी वहीं गए हैं। लेकिन चीन का अपना अंतरिक्ष स्टेशन हैं - तियांगोंग स्पेस स्टेशन। ISS की तरह यह भी अंतरिक्ष में एक स्थाई स्टेशन है। उसके सारे यात्री वहीं जाते हैं, वहीं रहते हैं और वहीं प्रयोग करते हैं। वहां जाना अब चीन का ‘ओल्ड नॉर्मल' बन चुका है।
41 साल के सफर की यह पूरी कहानी देश को शर्मिंदा करने के लिए नहीं है। देश कभी शर्मिंदा नहीं होता। मगर हमारे महान देश के कर्णधारों को इस पर विचार करने के लिए काफी होनी चाहिए, जो अब भी धर्म और जाति को लेकर देश को हलाकान किए रहते हैं।

रविवार, 25 मई 2025

कराची बेकरी V/S बॉम्बे बेकरी...!

By Jayjeet

जैसे भारत के हैदराबाद में कराची बेकरी है, वैसे ही पाकिस्तान के हैदराबाद में बॉम्बे बेकरी है। इसको लेकर हाल ही में पाकिस्तान के सबसे बड़े अखबार डॉन ने लिखा, "जहां भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की पार्टी भाजपा के कुछ कार्यकर्ताओं ने हिंदुस्तान के हैदराबाद स्थित कराची बेकरी में तोड़-फोड़ की, वहीं (पाकिस्तानी) हैदराबाद स्थित बॉम्बे बेकरी में हमेशा की तरह उससे मोहब्बत करने वालों की भीड़ उमड़ी रही।"
करीब 114 साल पुरानी इस बॉम्बे बेकरी का स्वामित्व एक हिंदू थड्‌डानी परिवार के पास है। इसी अखबार की रिपोर्ट में कुछ लोगों को उद्धृत करते हुए कहा गया- 'बॉम्बे बेकरी हमारे पाकिस्तान की शान है और हमें इस पर गर्व है। कोई इसे हाथ भी नहीं लगा सकता...।' (और किसी ने हाथ लगाया भी नहीं)।
यह पाकिस्तान का अखबार है और इसलिए आप इसकी इस रिपोर्ट को पूरी तरह से खारिज करने को स्वतंत्र हैं। लेकिन यहां यह भी बता दूं कि इस अखबार ने हालिया टकराव को लेकर अपनी सरकार को उसी तरह आड़े हाथ लिया है, जैसे भारत में कुछ 'गद्दार' टाइप के पत्रकार और स्वतंत्र लेखक सरकार से सवाल पूछने की हिमाकत कर रहे हैं।
इस खबर को मैं केवल उस परिप्रेक्ष्य में रखने की कोशिश कर रहा हूं, जिसमें जयपुर और इंदौर में कुछ मिठाई वालों ने हमारी मिठाइयों की सांस्कृतिक पहचान को ही बदलने की नापाक कोशिश की है। मैसूर पाक, खोपरा पाक के नाम से 'पाक' शब्द हटाने जैसी हास्यास्पद हरकतें की गईं और कतिपय मूर्खों ने इसका समर्थन किया है।
एक तथ्य और जान लेते हैं। पाकिस्तान के कोट राधा किशन शहर में अमृतसर स्वीट्स है। इसी तरह कराची में दिल्ली स्वीट्स और इस्लामाबाद में अंबाला बेकर्स के नाम से मिठाई की दुकानें हैं। ये तमाम दुकानें आज भी अपना बिजनेस कर रही हैं और यहां किसी तरह की तोड़फाड़ नहीं की गई है। बेशक, वहां भी योगियों की कमी नहीं हैं, बल्कि ज्यादा ही होंगे, लेकिन ' कोट राधा किशन' जैसा नाम आज भी बरकरार है और यह चौंकाता भी है।
दिक्कत यह है कि हमने देशभक्ति और गद्दारी के बड़े आसान से मानक बना लिए हैं। किसी भी नाम से 'पाक' हटा दो, आप देशभक्त बन जाएंगे!!! क्या देशभक्ति के लिए कुछ थोड़े कठिन मानक नहीं रखे जाने चाहिए? ऐसा ही गद्दारी के साथ भी हो। 'कराची बेकरी' का समर्थन करने वाला क्या गद्दार हो जाएगा?
(तस्वीर : Dawn अखबार से...)

सोमवार, 12 मई 2025

‘मेड इन इंडिया’ नहीं, ‘मेड बाय इंडिया’ की दरकार


By A. Jayjeet

पहलगाम के क्रूर आतंकी हमले के बाद हमारी सेना ने जिस तरह पाकिस्तान स्थित आतंकवादियों के ठिकानों को नेस्तनाबूद किया, उस पर प्रत्येक भारतीय गर्व कर सकता है और कर भी रहा है। लेकिन जिस वक्त हर हिंदुस्तानी पाकिस्तान को समूल नष्ट किए जाने के जज्बे से लबरेज था, उसी समय दोनों मुल्कों ने सीजफायर का एलान कर दिया। समग्र मानवीय चिंताओं के मद्देनजर युद्ध कभी भी बेहतर विकल्प नहीं हो सकते। इसलिए बड़े हल्कों में राहत की सांस भी ली गई और इसका स्वागत भी किया गया।

सीजफायर के लिए अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने श्रेय लेने में तनिक भी देरी नहीं की। यहां तक कि उन्होंने यह भी दावा किया कि दोनों देशों के साथ व्यापार बंद करने की धमकी देकर उन्होंने उन्हें युद्धविराम के लिए राजी किया। इसका लाजिमी तौर पर भारत सरकार ने तुरंत खंडन भी किया। 

हमें मानना चाहिए कि ट्रम्प का यह दावा पूरी तरह से गलत ही होगा। लेकिन इसके बावजूद हमें कम से कम एक यह चिंता तो जरूर होनी चाहिए- अमेरिका आज भी भारत और पाकिस्तान दोनों को एक तराजू पर तौलता है। बीच संघर्ष के दौरान अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) पाकिस्तान को एक अरब डॉलर का लोन स्वीकृत कर देता है और हम लाचारी से इस कड़वे घूंट को पी जाने के लिए मजबूर हो जाते हैं। 

यह तथ्य इस बात की ओर स्पष्ट इशारा करता है कि हम भले ही दुनिया का सबसे बड़ा बाजार होने और बड़ी अर्थव्यवस्थाओं में एक होने के लाख दावे कर लें, लेकिन ये दावे हमें एक देश के तौर पर वे सम्मान नहीं दिलाते, जिसकी हर भारतीय आकांक्षा करता है। आखिर ऐसा क्यों? 

इसका एक सिरा राष्ट्र के नाम दिए गए प्रधानमंत्री के उसी सम्बोधन से खींचा जा सकता है, जिसमें उन्होंने बड़े ‘गर्व’ के साथ ‘मेड इन इंडिया’ की बात कही थी। उन्होंने कहा था कि आज भारत ‘मेड इन इंडिया’ हथियारों से लड़ाई रहा है। ऑपरेशन सिंदूर से दो दिन पहले प्रधानमंत्री ने एक कार्यक्रम में इसी तरह ‘गर्व’ के भाव के साथ यह भी कहा था कि आज भारत (‘मेड इन’ स्मार्टफोन की बदौलत) स्मार्टफोन का दूसरा सबसे बड़ा निर्यातक बन गया है। 

‘मेड इन इंडिया’ बड़ी आकर्षक शब्दावली है, जो कई लोगों को गर्व से भर देती है। लेकिन अब देश को ‘मेड इन इंडिया’ से आगे निकलकर ‘मेड बाय इंडिया’ की ओर बढ़ने की दरकार है। अगर युद्धक सामग्री की बात करें तो चाहे रफाल हो या एस-400 (जिसे हमने बड़ा सुंदर नाम दे दिया- 'सुदर्शन') या ब्रम्होस, इनमें से अधिकांश हमारे इनोवेट किए हुए नहीं हैं। या तो वे बाहर से खरीदे गए हैं (जैसे रफाल) या फिर टेक्नोलॉजी ट्रांसफर के तहत भारत में बनाए गए हैं (जैसे सुदर्शन और ब्रह्मोस)। बेशक, डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम की दूरदर्शी सोच के चलते आज भारत के पास अनेक स्वदेशी मिसाइलें हैं, लेकिन हम सब जानते हैं कि वे पर्याप्त नहीं हैं। बात केवल हथियारों तक सीमित नहीं है। न्यू एज इनोवेशन में हम कहां है? हमारे पास अपना एआई या अपना ऑपरेटिंग सिस्टम तो छोड़िए, स्वयं का एक स्मार्टफोन तक नहीं है।   

‘मेड इन इंडिया’ के लिए हमारा असेंबल कंट्री बनना पर्याप्त होता है, जो हम बन चुके हैं। लेकिन ‘मेड बाय इंडिया’ के लिए हमें इनोवेटर कंट्री बनना होगा। हमारे पास टैलेंट की कमी नहीं है, लेकिन टैलेंट और इनावेशन के बीच में फैला हुआ है ‘ब्यूरोक्रेटिक टेरोरिज्म' यानी करप्शन और असंगत टैक्स रिजीम। यह हमारी इनोवशन स्प्रिट को एक तरह से खत्म कर देता है। 

 हमें समझना होगा कि आज के दौर में दुनिया में असल सम्मान उस देश को मिलता है, जो इनोवेट करता है। असल रुतबा भी उसी का होता है। ट्रम्प ने हमें युद्धविराम के लिए एक रात में समझा दिया। क्या रूस को समझा पाए? या चीन ट्रम्प की धमकियों से डर गया? अब तो टैरिफ मसलों पर अमेरिका चीन के साथ वार्ता करने जा रहा है। 

इसलिए सीमा पार के टेरोिरज्म के साथ-साथ हमें अपनी सीमाओं के भीतर के इस ‘ब्यूरोक्रेटिक टेरोरिज्म' से भी निपटना होगा। तभी हम असल में एक इनोवेशन कंट्री बन सकेंगे। और तब कोई ट्रम्प हमें युद्धविराम के लिए मनाने या धमकाने की हिम्मत नहीं कर पाएगा। हो सकता है, तब हमें शायद युद्ध की भी जरूरत न पड़े। 


भारतीयों द्वारा प्रायोजित आतंकवाद से कौन लड़ेगा? (और ये भारतीय 'देशभक्त' की श्रेणी में आते हैं, 'गद्दार' की नहीं!)


By Jayjeet
कुछ अरसा पहले अपने अखबार के लिए स्टार्टअप्स पर एक स्टोरी करते समय भारत के बड़े स्टार्टअप प्रमोटरों में से एक के. गणेश से बात हो रही थी। भारत में इतना टैलेंट होने के बावजूद हम इनोवशन क्यों नहीं कर पाते हैं, इसको लेकर उन्होंने एक बहुत महत्वपूर्ण बात कही थी। उसका सार यह था कि भारतीय आंत्रप्रेन्योर और इनोवेटर जिस सबसे बड़ी समस्या से जूझ रहे हैं, वह है करप्शन और असंगत टैक्स रिजीम। उन्होंने इस विसंगति को ' ब्यूरोक्रेटिक टेरोरिज्म' नाम दिया था।
यह बात आज इसलिए प्रासंगिक है, क्योंकि बीते सप्ताह भर में टेरोरिज्म के मुद्दे पर पाकिस्तान के साथ हुए टकराव के दौरान दो शब्द सबसे ज्यादा सुनने को मिले हैं- रफाल और एस-400 (जिसे हमने बड़ा सुंदर नाम दे दिया- 'सुदर्शन')। बेशक, हमारी सेना की जांबाजी पर कोई शक नहीं है, लेकिन वह जिन हथियारों से लड़ रही है और लड़ती है, उनमें अधिकांश हमारे इनोवेट किए हुए नहीं हैं। या तो वे बाहर से खरीदे गए हैं (जैसे रफाल) या फिर टेक्नोलॉजी ट्रांसफर के तहत भारत में बनाए गए हैं (जैसे सुदर्शन और ब्रह्मोस)।
हम अक्सर इस बात पर इठलाते हैं कि हमारे पास एक बड़ा बाजार है और इसलिए कोई भी देश इसे नजरअंदाज नहीं कर सकता। हां, बिल्कुल, कोई नजरअंदाज नहीं कर सकता और इसीलिए तो अमेरिका ने भीषणता की ओर बढ़ते युद्ध को रुकवाने की कोशिश की ताकि बाजार को ठेस ना पहुंचे। लेकिन कड़वी हकीकत हमें स्वीकारनी चाहिए। दुनिया में असल इज्जत इनोवेटर कंट्री की होती है। असल रुतबा भी इसी का होता है। ट्रम्प ने हमें युद्धविराम के लिए एक रात में समझा दिया। क्या रूस को समझा पाए? क्योंकि रूस बाजार नहीं है, इनोवेटर है। उसका अपना रुतबा है। क्या चीन ट्रम्प की धमकियों से डर गया? नहीं, वह ट्रम्प की एक धमकी का जवाब दो धमकियों से देता है, क्योंकि चीन बड़ा बाजार होने के साथ-साथ इनोवेटर भी है। यदि आज पाकिस्तान का मुकाबला चीन या रूस से होता तो क्या ट्रम्प इस तरह से सरपंच बनते?
तो एक बड़ी जरूरत क्या है? बाजार बनने की या इनोवेटर बनने की? बेशक, इनोवेटर बनने की, लेकिन इसके लिए हमें पाकिस्तान प्रायोजित 'टेरोरिज्म' के साथ-साथ भारतीयों द्वारा प्रायोजित करप्शन और टैक्स टेरोरिज्म के आतंकवाद से भी लड़ना होगा।
पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवाद से लड़ने की राह में अमेरिका और चीन आड़े आ जाते हैं। पर भारतीयों द्वारा प्रायोजित आतंकवाद से लड़ने में क्या बाधा है? कम से कम उससे तो लड़िए।
तो अगली बार जब आप वोट देने घर से निकलें तो अपने उम्मीदवारों या उनके आकाओं से यह भी जरूर पूछिएगा कि आपके पास हमारे देशज आतंकवाद से लड़ने का कोई प्लान है या नहीं? नहीं तो बस फिर समय-समय पर सोशल मीडिया पर 'जय हिंद' लिखते रहिए और सीजफायरों पर खीजते रहिए।

रविवार, 20 अप्रैल 2025

दंगों का नियम : मरता आम आदमी है, उद्वेलित भी आम आदमी होता है...

 

(तो नेता क्या करता है? अपने बंगले में बैठकर अंगुर खाता है या पीता है, और क्या!!)

वैसे तो यह सवाल ही मूर्खतापूर्ण है कि भारत में साम्प्रदायिक दंगों के लिए कौन जिम्मेदार होते हैं? जवाब सबको मालूम है, फिर भी लिखता हूं - सियासी दलों के नेता...! (कोई शक? अगर है तो कृपया यहां तक पढ़ने के लिए धन्यवाद!)
दूसरा सवाल, जो थोड़ा कम मूर्खतापूर्ण है, और इसलिए मुझे एआई के कुछ चैटबॉक्स से पूछना पड़ा- क्या भारत में हाल के वर्षों में हुए दंगों में कोई नेता टाइप का आदमी मारा गया? जवाब मिला- ‘भारत में दंगों के संदर्भ में किसी प्रमुख सियासी नेता के मारे जाने की कोई जानकारी नहीं है।’ एक ने केवल गुजरात में एक नेता (एहसान जाफरी) का नाम दिया। बाकी एआई ने हाथ जोड़ लिए।
तीसरा सवाल, दूसरे से अधिक मूर्खतापूर्ण है - तो दंगों में कोई नेता वगैरह क्यों नहीं मारा जाता?
चौथा सवाल, तीसरे जितना ही मूर्खतापूर्ण, इस तरह के दंगों में क्या कभी किसी नेता वगैरह का घर जला है?
पांचवां सवाल, बताने की जरूरत नहीं कि कितना मूर्खतापूर्ण है, इन दंगों में कोई नेता वगैरह पलायन क्यों नहीं करता है?
और अंतिम सवाल, जो मूर्खतापूर्ण कतई नहीं है - हम, भारत के लोग, ये उपरोक्त सवाल पूछना कब शुरू करेंगे? याद रखिए, इसका जवाब किसी AI के पास नहीं है। इसलिए जरा अपनी फोकट की विचाराधाराओं को साइड में कीजिए, अपनी अंतरात्माओं को झिंझोड़िए और पूछना शुरू कीजिए...
अगर आपके सोशल मीडिया पर अच्छे-खासे फॉलोवर्स हैं तो सोशल मीडिया पर पूछिए, अगर आप पत्रकार हैं तो प्रेस कॉन्फ्रेन्स में पूछिए और अगर आप कुछ नहीं हैं तब खुद से पूछिए- यह भी पूछिए कि आखिर नेताओं के पीछे-पीछे 'भाई साहब' कहते-कहते हम कब तक चलते रहेंगे?
भागलपुर, नरौदा पाटिया, खरगोन (मेरा अपना शहर), संभल से लेकर मुर्शिदाबाद तक... आप अपने हिसाब से अपनी जगह जोड़ सकते हैं। मगर याद रखिए, जो भी लोग मरे हैं, चाहे वे हिंदू हों या मुस्लिम या सिख, उनमें कोई खास नेता शामिल नहीं है। शामिल हैं हमारे-आपके जैसे आम लोग।
तो तीन ही विकल्प हैं- नेता बन जाइए, बड़ा अच्छा विकल्प है। या मरने के लिए तैयार रहिए। या सवाल कीजिए। इस मुगालते में मत रहिए कि इनकी जगह मैं या मेरे बच्चे नहीं हो सकते... क्यों नहीं हो सकते?
(Disclaimer : तस्वीर में दिया गया नेता प्रतीकात्मक है। अगर कोई भी जीवित या मृत नेता उसके साथ अपना साम्य देखता है, तो इसके लिए वह स्वयं जिम्मेदार होगा! )

सोमवार, 14 अप्रैल 2025

हमें ऐसे ही स्टार्टअप मुबारक... AI, EV, Space का क्या करना...?

#abhinavarora #dhirendrakrishnashastriji #jayjeetaklecha

By Jayjeet

हाल ही में पीयूष गोयल ने भारतीय स्टार्टअप्स पर सवाल उठाए थे, चीनी स्टार्टअप्स की भूरि-भूरि तारीफ की थी। लेकिन वे भूल गए कि देश जैसा होता है, जैसी सरकारें होती हैं, जैसा राजनीतिक वातावरण होता है, स्टार्टअप्स भी वैसे ही होते हैं। अमेरिका और चीन भौतिकवादी देश हैं तो वहां AI और EV और Space जैसे स्टार्टप्स होंगे। हम विश्व गुरु हैं, अध्यात्म हमारे रौम-रौम में हैं तो हमारे स्टार्टअप्स जरा अलग होंगे... आध्यात्मिक टाइप के...
समझने के लिए साथ लगी तस्वीर देखिए। बायीं ओर एक बाल कथावाचक है। उसका स्टार्टअप हाल ही में शुरू हुआ है। प्रतिभासम्पन्न बालक है। उसके टैलेंट को नमन। दायीं ओर का स्टार्टअप अब 'यूनिकॉर्न' बन चुका है! यूनिकॉर्न मतलब? मूल परिभाषा के अनुसार जिस स्टार्टअप की वैल्यू एक अरब डॉलर को पार कर जाए। समझने के लिए समझ सकते हैं जो लाभ का सौदा बन जाए...
तो पीयूष जी, कृपया निराश ना हों... आप सियासत के जिस सेटअप के साथ काम करते हैं, वह भी ऐसे ही स्टार्टअप चाहता है... समझिए, धर्म के प्रति, जाति के प्रति आत्मगौरव सबसे बड़ी बात है। फिर बंगाल में वक्फ के नाम पर हो रही हिंसा हो या उप्र में किसी जातिवादी सेना का उग्र प्रदर्शन, हमें और आपको तो ऐसे ही स्टार्टअप्स का आनंद लेना चाहिए... ये स्टार्टअप्स रोजगार भले ना देते हों, लेकिन बेरोजगारी का एहसास भी नही करवाते। और क्या चाहिए?

रविवार, 6 अप्रैल 2025

एक बीमार इंसान की बॉडी शेमिंग करने वाले क्या ज्यादा बीमार नहीं?

 

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By Jayjeet Aklecha

आज हम कितने विचित्र विरोधाभासी दौर में जी रहे हैं। एक तरफ हम बेहद संवेदनशील हैं। नाजुक-सी भावनाएं। जरा सा किसी ने कुछ कहा नहीं कि चटक जाती हैं। वहीं दूसरी तरफ संवेदनाओं से विहीन। इसकी कई मिसालें तो हमें अपनी-अपनी अंतरात्माओं में ही मिल जाएंगी।

यहां संवेदनहीनता के जिस हालिया मामले का जिक्र कर रहा हूं, वह अनंत अंबानी का है। वो कुछ बीमारियों से ग्रस्त हैं। खबरों के मुताबिक, कुछ ऐसी गंभीर बीमारियां, जिनसे किसी भी सभ्य व विवेकशील इंसान को उनके प्रति संवेदना होनी चाहिए, भले ही वो भारत के सबसे धनकुबेर के पुत्र ही क्यों न हों।

हम अरसे से उनका मजाक उड़ते देख रहे हैं। स्टैंडअप कॉमेडियन कुणाल कामरा ने हाल ही में महाराष्ट्र के एक नेता का बिल्कुल उचित मजाक उड़ाया था। लेकिन जब वे अनंत जैसे बीमार व्यक्ति की बॉडी शेमिंग करते हैं तो ऐसे कॉमेडियन और उस भद्दी कॉमेडी पर हंसने वाले मानसिक बीमारों पर लज्जा आने लगती है।

ताजा मामला अपनी पदयात्रा के दौरान अनंत द्वारा कुछ चिकन को बचाने का है। ऐसी खबरें और इसकी तस्वीरें सामने आते ही कई लोग उन पर टूट पड़े। इनमें धुरंधर यूट्यूबर ध्रुव राठी भी हैं। उनका यह सवाल वाजिब है कि आखिर अनंत इससे कितने चिकन बचा लेंगे? लेकिन समस्या उनके पूछने के अंदाज से है। यह अंदाज बताता है कि मकसद सवाल उठाना नहीं, अनंत के इस प्रयास का मजाक उड़ाना है। और इससे यह भी पता चलता है कि बड़ी सेलेब्रिटी बनना और बड़ा दिलवाला बनना, दोनों में जमीन-आसमान का अंतर है। आपने नॉलेज तो अर्जित कर लिया, लेकिन विज्डम से दूर रहे। ज्ञानी होना आसान है, विवेकशील नहीं, क्योंकि इसके लिए ज्ञान के साथ 'शील' जरूरी है।

हो सकता है आपको मोदी पसंद न हो। और इसीलिए आपको उनके कथित दोस्त मुकेश अंबानी भी पसंद नहीं होंगे? ठीक है, भू-राजनीति का एल्गोरिदम आप इंसानी रिश्तों में भी ले लाइए कि दुश्मन का दोस्त दुश्मन! लेकिन इसके बावजूद किसी के बीमार बेटे का मजाक उड़ाने का हक कम से कम इंसानी सभ्यताओं में तो किसी ने किसी को नहीं दिया है... हां, अगर आप किसी एलियन सभ्यता में रह रहे हैं, तो अलग बात है... तब मुबारक हो ऐसी सभ्यता।

#anantambani Kunal Kamra Dhruv Rathee #jayjeetaklecha #जयजीत अकलेचा

 

गुरुवार, 3 अप्रैल 2025

यह डराने का डबल खेल है...! इस तरफ से भी, उस तरफ से भी...। डरना तो बनता है!!!

rahul with modi waqf board
By Jayjeet

हमारे यहां सत्ता पक्ष हो या विपक्ष, उन्हें तमाम ऐसे मसलों पर चर्चा करने में बड़ा आनंद आता है, जिनमें धर्म का जरा-सा भी एंगल हो.... वक्फ बोर्ड विधेयक पर सदन में सुचारू चर्चा होगी, इस बात की पूरी संभावना थी। और यही हुआ। 12 घंटे तक संसद इस मुद्दे पर चर्चा करती रही।
बेशक, यह भी एक महत्वपूर्ण मुद्दा है, लेकिन इस पर बेरोक-टोक चर्चा सिर्फ इसलिए नहीं हुई कि यह बेहद महत्वपूर्ण मुद्दा है। सुचारू रूप से चर्चा इसलिए हुई, क्योंकि इसमें सत्ता पक्ष और विपक्ष दोनों को अपने-अपने नरेटिव्स को और भी मजबूती देने में मदद मिली... मानों मिलीभगत हो... तुम भी कहो, हम भी कहें... गोया कि जनता के लिए तो हर दिन 1 अप्रैल है...!
सत्ताधारी दल, और कमोबेश सरकार भी, जिसे मुस्लिमों के प्रति अपनी घृणा को छिपाना कभी नहीं आया, के लिए यह अपने कोर सनातनी मतदाताओं के सामने इस नरेटिव को ताकतवर बनाने का मौका था कि देखो, हम अब किस तरह से मुस्लिम समुदाय के गिरेबान में हाथ डाल सकते हैं। कानून के जरिए उनके धार्मिक स्थलों तक हमारी पहुंच होगी। इससे उसे अपने मतदाताओं के बीच अपनी विश्वसनीयता को बढ़ाने का मौका मिला है।
विपक्षियों के बीच 'एक अनार, सौ बीमार' जैसी स्थिति रही। हर किसी में मुस्लिम समुदाय का पैरोकार दिखने की होड़ नजर आई (नागपुर इस पर मंद-मंद मुस्करा भी रहा होगा!)। सदन में बिल को फाड़ने की औवेसी की तस्वीर तो इतनी ऐतिहासिक बन गई कि वह उनकी अगली एक-दो पीढ़ियों को भी वोट दिलाती रहेगी।
खासकर कांग्रेस की समस्या बड़ी विकट है। मुस्लिमों का मसला अब उससे न निगलते बनता है, न उगलते। कांग्रेस करीब 55 साल तक केंद्र की सत्ता में रही है, लेकिन उसने मुस्लिमों को मुख्य धारा से इतना काटकर रखा कि आज न वह उनके असल मुद्दों को समझने की स्थिति में है, न उन्हें समझाने की स्थिति में। राहुल अब भी उस रटे-रटाए मुआवरे को दोहराते नजर आए कि ‘यह बिल मुसलमानों की सम्पत्ति को हड़पने के लिए बनाया गया।'
दरअसल, वक्फ वाला पूरा इश्यू डराने का डबल खेल है। भाजपा एंड पार्टी ने वक्फ बोर्ड के नाम पर यह नरेटिव सेट किया कि बोर्ड किसी की भी संपत्ति हड़प सकता है (वैसे ही जैसे हिंदू महिलाओं के मंगलसूत्र लूट लिए जाएंगे!)। विपक्षी दलों ने भी काउंटर में डराने का खेल खेला कि इससे मुस्लिमों का सबकुछ छीन लिया जाएगा। फिर उनसे कोई नहीं पूछ रहा कि आपने सत्ता में रहते ऐसा कुछ दिया भी है, जिसे छिना जा सके? शिक्षा, नौकरी, कारोबार! कांग्रेस तो 55 साल सत्ता में रही।
पुनश्च... हिंदू मुसलमान से डर रहा है, मुसलमान हिंदू से.... मगर हमें डरना चाहिए AI/AGI से, जलवायु परिवर्तन से। ये ईश्वर की सत्ता को चुनौती दे रहे हैं। मगर चूंकि ये कमबख्त हमें डराते नहीं हैं, इसलिए संसद की चर्चाओं में भी नहीं आते।
(तस्वीर : एआई से जनरेट की हुई)

मंगलवार, 18 मार्च 2025

हम Grok पर मजे ले रहे हैं, उधर हो सकता है, मस्क हमारे मजे ले रहे हों!

 

By Jayjeet Aklecha

पता नहीं क्यों, आज हम हर बात में खेल-तमाशे ढूंढ लेते हैं। अब लाखों-करोड़ों लोगों को ग्रोक (Grok) में मजा आ रहा है। कई लोग इस गलतफहमी में हैं कि देखिए कैसे ग्रोक ने मोदी और मोदीभक्तों की पोल खोल दी। हममें से किसी को इस बात का एहसास भी नहीं है कि इस कथित पोल-पट्‌टी पर अमेरिका में मस्क बैठे-बैठे हंस रहे हैं। आज मोदी विरोधी लोगों को आनंद आ रहा है, कल राहुल-गांधी परिवार के विरोधियों को आनंद आएगा।

 दरअसल, ग्रोक वह चैटबॉट है जो सीखने की प्रोसेस में है। कोई भी एआई बॉट रियल वर्ल्ड के डेटा से ही सीखता है। मस्क ने ट्विटर को खरीदा ही इसलिए था कि वे अपने आने वाले एआई मॉडल को उसके जरिये सिखा सकें (मस्क के लिए ट्विटर को खरीदना वैसा ही था, जैसे हम राह चलते कोई छोटी-मोटी चीज खरीद लेते हैं)। मस्क को ट्विटर की खरीदी से पहले ही एहसास हो गया था कि किसी भी एआई बॉट को सिखाने के लिए ट्विटर से बड़ा सोर्स कुछ और नहीं होगा। साल 2022 की शुरुआत में ही उन्होंने कह दिया था कि ट्विटर (अब X) की हर दिन की 50 करोड़ मानव पोस्ट किसी भी एआई को सीखने के लिए एक बहुत बड़ा खजाना है।

 मेरा अनुमान है कि उनके एआई बॉट को ट्विटर (X) की सामान्य पोस्ट्स से जितना सीखना था, सीख लिया। अब हो सकता है यह ग्रोक के लिए डायरेक्ट अग्रेसिव लर्निंग की प्रोसेस का दौर हो। और इसके लिए क्या करना था? बस, बाजार में एक पॉलिटिकल ट्रेंड फेंकना था। भारत में यह करना बहुत आसान है। यह दुनियाभर के समझदार लोगों को पता है। मस्क की कंपनी ने शायद यही किया है। करोड़ों लोगों ने दो-चार दिन में ही बैठे-ठाले, फ्री में ग्रोक को बहुत-सी बातें सिखा दी हैं। फिर हम सब मूर्ख फिर से एक कॉर्पोरेट घराने के टूल्स बन गए।

 

 

रविवार, 9 मार्च 2025

आखिर हमारे नेता लोग इतनी असहिष्णुता लाते कहां से हैं?

By Jayjeet Aklecha

लगता है हमारे नेताओं ने कबाड़ा करने का मानो बीड़ा उठा लिया है। हम धर्म और जाति के कटु बाणों से पहले से ही लहूलुहान हैं और अब नेताओं के तरकश में भाषा का एक नया तीर आ गया है (वैसे नया नहीं है, पर उसके फलक पर लगा जहर नया है)। बात तमिलनाडु के बाद महाराष्ट्र तक पहुंच गई है। आरएसएस के भैयाजी जोशी ने यह लाइन ‘पूरे मुंबई की भाषा मराठी नहीं है’ क्या कह दी, राजनीति का भाषाई वितंडा शुरू गया। सबसे पहले उद्धव बोले- ‘भैयाजी के खिलाफ देशद्रोह का केस दर्ज हो।'
फिर मुख्यमंत्री देवेंद्र फड़णवीस को लगा कि वे इस राजनीति में पीछे ना रह जाए। तो विधानसभा में कहा कि मुंबई और महाराष्ट्र में रहने वालों को मराठी सीखनी ही चाहिए। अगर भविष्य में फड़णवीस को महासचिव बनाकर तमिलनाडु का प्रभार सौंपा जाता है तो क्या वे वहां रहकर तमिल सीखेंगे! फिर कनार्टक तो कन्नड़ा सीखेंगे, फिर असम तो क्या असमिया सीखेंगे? सवाल यह है कि क्या भारत के प्रांतों में कोई भारतीय अपनी पसंद की भाषा बोलकर नहीं रह सकता?.. और अगर नहीं रह सकता तो 1857 के पूर्व वाली स्थिति बहाल कर दीजिए। वैसे भी राज्यों के कर्णधार तो अब राजाओं वाली भाषा व जीवन-शैली का ही निर्वाह कर रहे हैं।
शीर्षक में मेरा जो सवाल था, अब उस पर आते हैं- आखिर नेता इतनी असहिष्णुता लाते कहां से हैं? इसका सीधा-सा कटु जवाब है- जनता से। ये तमाम नेता हम जनता को धर्म, जाति और भाषा पर इसलिए मूर्ख बना पा रहे हैं, क्योंकि हम बनना चाह रहे हैं। जिस दिन हम उनसे कहने लगेंगे : नेताजी, धर्म, जाति और भाषा को छोड़िए..., आप तो ये बताइए मेरी नौकरी का, मेरी पेंशन का, मेरी सेहत का, मेरे बच्चे की शिक्षा का, मेरी फसलों का, मेरे पशुओं के बारे में आपने क्या सोचा है? यकीन मानिए, उस दिन से सबकी सहिष्णुता लौट आएगी।
पुश्नच… औरंगजेब पर एक नेता ने कोई टिप्पणी की तो एक राज्य के चुने हुए मुख्यमंत्री की टिप्पणी थी – ‘उन्हें हमारे प्रदेश में भिजवा दीजिए। हम उनका इलाज करवा देंगे...।’ औरंगजेब जैसे शासकों की तो यह भाषा हो सकती है, मगर लोकतांत्रिक तरीके से चुने हुए नेता भी अगर उसी तरह की असहिष्णुता का निर्वाह करने लगेंगे, तो फिर हमें सोचना होगा कि हमारा सबसे महान लोकतंत्र किस राह पर आगे बढ़ चला है।

शुक्रवार, 21 फ़रवरी 2025

हम नदियों को केवल पवित्र मानते हैं, मगर जरूरत उन्हें पवित्र रखने की है!

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By Jayjeet Aklecha

पता नहीं, केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड में ऐसे कौन-से वामपंथी अधिकारी बैठे हुए हैं, जिन्होंने पवित्र गंगा नदी के पानी को प्रदूषित बता दिया। खैर, महंत योगीजी ने उप्र विधानसभा में कह दिया कि गंगा का पानी इतना पवित्र है कि उसका आचमन भी किया जा सकता है तो हम मान सकते हैं कि हां, ऐसा ही होगा! उन्होंने इस रिपोर्ट को महाकुंभ को बदनाम करने की साजिश भी करार दिया (साजिश के इस आरोप का जवाब क्या केंद्र सरकार देगी?) वैसे अगर संगम के जिस आम एरिया में जहां आम लोग पवित्र स्नान वगैरह कर रहे हैं, वहां योगीजी अपनी पूरी कैबिनेट और वरिष्ठ अफसरों के साथ जाकर उस पानी का आचमन करके दिखाते तो यह बोर्ड के साजिशकर्ता अधिकारियों को मुंहतोड़ जवाब होता...!

 वैसे, योगीजी को ऐसा करने की जरूरत नहीं है। हालांकि उन्हें उस रिपोर्ट को खारिज करने की भी जरूरत नहीं थी। कोई भी समझदार आदमी इस सच को स्वीकार करता ही कि करोड़ों लोगों के पवित्र स्नान करने के बाद नदी तो क्या, विशालकाय समुद का पानी भी मानव मल-मूत्र के बैक्टीरिया से बच नहीं पाता। लेकिन शुतुरमुर्गी मानसिकता के चलते दिक्कत यह है कि हम समस्या को स्वीकारते नहीं और इसलिए समस्या सुलझती भी नहीं है। यही वजह है कि दुनिया की टॉप 10 या 15 शीर्ष स्वच्छ नदियों की सूची में हमारी कोई भी पवित्र नदी शामिल नहीं है (केवल मेघालय की छोटी-सी नदी डावकी नदी को छोड़कर। देखें तस्वीर)।


दिक्कत यह भी है कि हम नदियों को केवल पवित्र मानते हैं, उन्हें पवित्र रखने की कोशिश नहीं करते। अगर नदियों को पवित्र रखना हमारा मकसद होता तो महाकुंभ या ऐसे ही आयोजनों को लेकर हमारी सरकारों की रणनीति कुछ अलग होती। लेकिन भारत में ऐसी अलग नीति की उम्मीद नहीं कर सकते...इसलिए हमें ‘पूरब और पश्चिम’ के उस उस फिल्मी गीत को दोहराकर ही संतुष्ट रहना होगा कि ‘हम उस देश के वासी हैं, जहां नदियों को भी माता कहकर बुलाते हैं’ (फिर एक कड़वा विरोधाभास... महिलाओं के खिलाफ छोटे-बड़े अपराधों के मामले में भारत की स्थिति अनेक विकासशील देशों से बदतर है)

 तस्वीर : मेघालय की डावकी नदी। यह इसलिए भी इतनी स्वच्छ है, क्योंकि इसके पानी को ‘पवित्र’ नहीं माना जाता है।

#जयजीत अकलेचा

शुक्रवार, 7 फ़रवरी 2025

जब अगले सप्ताह ट्रम्प से मिलें मोदीजी तो सिकंदर-पोरस की कहानी जरूर सुनाएं…

By Jayjeet Aklecha

हमारे प्रधानमंत्रीजी की एक अच्छी खासियत यह है कि वे जब भी किसी दूसरे देश के राष्ट्रपतिजी या प्रधानमंत्रीजी से मिलते हैं, तो उनसे गले लगकर मिलते हैं। इससे समकक्ष होने का एहसास होता है। सवाल यह है कि जब अगले सप्ताह मोदीजी की ट्रम्पजी से मुलाकात होगी तो तब भी वे क्या ट्रम्प से वैसे ही गले लगकर मिलेंगे? और क्या ट्रम्प उनसे गले लगना चाहेंगे? और सबसे बड़ा सवाल यह भी कि क्या ट्रम्प उन्हें (या किसी और भी) अपना समकक्ष मानते भी हैं?
भारतीय आप्रवासियों (भले ही अवैध हों) को जिस तरह से आतंकियों की तरह भारत भेजा गया, उससे कोई घोर ‘गैर राष्ट्रवादी’ भी आहत हुए बगैर नहीं रह सकता। यह काम तो पाकिस्तान जैसा कथित शत्रु भी नहीं करता, जैसा अमेरिका जैसे कथित मित्र ने किया है। और विदेश मंत्री एस. जयशंकर का वह बयान तो और भी ज्यादा पीड़ादायक है, जिसमें वे कहते हैं कि यह कोई नई बात नहीं है। अमेरिका की यही रणनीति है। उनके बयान को पढ़कर ऐसा महसूस हो रहा है कि वे अमेरिका की ओर से ‘भारत देश’ को सफाई दे रहे हैं। और लगे हाथ वे यह जोड़ना भी नहीं भूले कि पहले भी (2012 में कांग्रेस सरकार के दौरान) ऐसा होता रहा है। तो क्या भविष्य में अगर कोई गैर भाजपा सरकार सत्ता में आती है तो क्या वह इतनी ही बेहयाई से यह कहकर आतंकियों को रिहा कर देगी कि पहले भी ऐसा हुआ है (1999, कंधार)! क्या भविष्य के ऐसे कृत्यों को अतीत के आधार पर जस्टिफाई किया जा सकता है?
खैर, जब मोदी जी अपने दोस्त ट्रम्प ने मिले तो उन्हें सिकंदर और राजा पोरस की वह कहानी जरूर याद करनी चाहिए और हो सके तो सुनाना भी चाहिए। कहानी आप सब जानते ही हैं कि जब परास्त पोरस ने भी सिकंदर जैसे बलशाली राजा से यह कहने की हिम्मत की थी- एक शासक को दूसरे शासक के साथ हमेशा शासक जैसा ही सलूक करना चाहिए... यह बात देशों पर भी लागू होनी चाहिए।

बुधवार, 5 फ़रवरी 2025

आठवें वेतन आयोग और टैक्स रिबेट से तो पैसा बाजार में आएगा, लेकिन गरीबों को मदद सिस्टम पर बोझ!

By Jayjeet

समाज में विषमता केवल पैसे से पैदा नहीं होती। सोच से भी होती है। बीते दिनों दो बड़ी घटनाएं प्रकाश में आईं- एक, सरकार द्वारा आठवें वेतन आयोग के गठन की घोषणा और दूसरी, 12 लाख रुपए तक की आय पर इनकम टैक्स में रिबेट का बजटीय एलान। बेशक, ये दोनों फैसले बहुप्रतीक्षित थे और इससे बड़े वर्ग को राहत मिलेगी। इन दोनों घटनाओं का सरकारी बाशिंदों की तरफ से, समाज के एक बड़े तबके की तरफ से और मीडिया की तरफ से भी यह कहकर अभिनंदन किया गया कि इनसे बड़ी धनराशि बाजार में आएगी और इकोनॉमी को गति मिलेगी। बेशक, काफी हद तक ऐसा होगा।
लेकिन एक बड़ा सवाल - अगर उक्त फैसले इकोनॉमी को गति देने वाले साबित होंगे तो फिर देश के विशालकाय गरीब तबके, खासकर गरीब वर्ग की महिलाओं को मिलने वाली वाली राशि बोझ कैसे हो सकती है? आज यह सवाल केवल इसलिए क्योंकि समाज के बड़े वर्ग की ओर इसे बोझ के रूप में प्रचारित किया जाता रहा है, और इसमें वह भी शामिल है, जिसे उक्त फैसलों से लाभ मिलने वाले हैं। यह उन्हीं लोगों से सवाल है कि अगर वो पैसा बाजार में आकर इकोनॉमी को बढ़ाएगा तो कि क्या गरीबों को दिया जाने वाला पैसा उनकी तिजोरियों में जमा हो रहा है या वह ब्लैक इकोनॉमी में जा रहा है?
सबसे आपत्तिजनक शब्द ‘रेवड़ी' है। क्योंकि अगर ये रेवड़ी है तो साल में 150 दिन छुटि्टयां लेने वाले सरकारी कर्मचारियों के वेतन और पेंशन की बड़ी राशि को क्या कहा जाएगा? (साल भर पहले एक अखबार द्वारा करवाए गए एक सर्वे में इसी वर्ग ने गरीबों को मिलने वाली कथित रेवड़ियों पर सबसे ज्यादा आपत्ति जताई थी)। इसलिए सबसे पहले तो ‘रेवड़ी’ शब्द से मुक्ति पाने की जरूरत है, क्योंकि न वो रेवड़ी है और न ये रेवड़ी है। इसी तरह एक व्यापक स्टडी की भी जरूरत है कि गरीबों को सरकारी मदद के बाद से आर्थिक और सामाजिक तौर पर क्या बदला। कुछ बदला भी या नहीं? हालांकि जिस देश में 15 साल से जनगणना तक ना हुई हो और फिर भी देश को या देशवासियों को कोई फर्क नहीं पड़ रहा हो, वहां इस तरह के असर को जानने के लिए भी कोई ललक होगी, इसकी संभावना कम ही होगी।
पुनश्च... ब्राजील में पिछले 20 साल से एक योजना चल रही है ‘बोल्सा फैमीलिया' योजना। इसमें भी महिलाओं को प्रतिमाह कुछ राशि नकद दी जाती है। इस पर विश्व बैंक की स्टडी कहती है कि इस योजना के तहत खर्च किए गए प्रत्येक एक डॉलर पर स्थानीय अर्थव्यवस्था में 1.78 डॉलर जनरेट हुए। जाहिर है, इकोनॉमी में जनरेट हुई असेट का फायदा तमाम लोगों को मिला होगा!!! बता दें, वहां न तो यह योजना (कमोबेश) राजनीति से प्रेरित है और न ही इसे ‘रेवड़ी’ माना जाता है।