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लगता है हमारे नेताओं ने कबाड़ा करने का मानो बीड़ा उठा लिया है। हम धर्म और जाति के कटु बाणों से पहले से ही लहूलुहान हैं और अब नेताओं के तरकश में भाषा का एक नया तीर आ गया है (वैसे नया नहीं है, पर उसके फलक पर लगा जहर नया है)। बात तमिलनाडु के बाद महाराष्ट्र तक पहुंच गई है। आरएसएस के भैयाजी जोशी ने यह लाइन ‘पूरे मुंबई की भाषा मराठी नहीं है’ क्या कह दी, राजनीति का भाषाई वितंडा शुरू गया। सबसे पहले उद्धव बोले- ‘भैयाजी के खिलाफ देशद्रोह का केस दर्ज हो।'
फिर मुख्यमंत्री देवेंद्र फड़णवीस को लगा कि वे इस राजनीति में पीछे ना रह जाए। तो विधानसभा में कहा कि मुंबई और महाराष्ट्र में रहने वालों को मराठी सीखनी ही चाहिए। अगर भविष्य में फड़णवीस को महासचिव बनाकर तमिलनाडु का प्रभार सौंपा जाता है तो क्या वे वहां रहकर तमिल सीखेंगे! फिर कनार्टक तो कन्नड़ा सीखेंगे, फिर असम तो क्या असमिया सीखेंगे? सवाल यह है कि क्या भारत के प्रांतों में कोई भारतीय अपनी पसंद की भाषा बोलकर नहीं रह सकता?.. और अगर नहीं रह सकता तो 1857 के पूर्व वाली स्थिति बहाल कर दीजिए। वैसे भी राज्यों के कर्णधार तो अब राजाओं वाली भाषा व जीवन-शैली का ही निर्वाह कर रहे हैं।
शीर्षक में मेरा जो सवाल था, अब उस पर आते हैं- आखिर नेता इतनी असहिष्णुता लाते कहां से हैं? इसका सीधा-सा कटु जवाब है- जनता से। ये तमाम नेता हम जनता को धर्म, जाति और भाषा पर इसलिए मूर्ख बना पा रहे हैं, क्योंकि हम बनना चाह रहे हैं। जिस दिन हम उनसे कहने लगेंगे : नेताजी, धर्म, जाति और भाषा को छोड़िए..., आप तो ये बताइए मेरी नौकरी का, मेरी पेंशन का, मेरी सेहत का, मेरे बच्चे की शिक्षा का, मेरी फसलों का, मेरे पशुओं के बारे में आपने क्या सोचा है? यकीन मानिए, उस दिन से सबकी सहिष्णुता लौट आएगी।
पुश्नच… औरंगजेब पर एक नेता ने कोई टिप्पणी की तो एक राज्य के चुने हुए मुख्यमंत्री की टिप्पणी थी – ‘उन्हें हमारे प्रदेश में भिजवा दीजिए। हम उनका इलाज करवा देंगे...।’ औरंगजेब जैसे शासकों की तो यह भाषा हो सकती है, मगर लोकतांत्रिक तरीके से चुने हुए नेता भी अगर उसी तरह की असहिष्णुता का निर्वाह करने लगेंगे, तो फिर हमें सोचना होगा कि हमारा सबसे महान लोकतंत्र किस राह पर आगे बढ़ चला है।
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