शुक्रवार, 3 जनवरी 2025

केवल अंग्रेजी नव वर्ष को ताना मारने से क्या होगा?

By Jayjeet

नए साल की शुभकामनाओं का सिलसिला अब तक जारी है। इस बार कतिपय शुभकामनाओं के आगे ‘अंग्रेजी' (नव वर्ष) जोड़कर यह संकेत दिए गए कि शुभकामनाएं तो ले लीजिए, लेकिन ज्यादा खुश मत होइए, क्योंकि ‘ये हमारा नव वर्ष नहीं है।’ और कुछ ने तो बाकायदा ‘हमारा नया साल तो चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से' तक के मैसेज प्रसारित किए। बीजेपी के तेज-तर्रार प्रवक्ता सुधांशु त्रिवेदी का बीजेपी मुख्यालय में इस तरह से नववर्ष की शुभकामनाएं देते हुए वह वीडियो भी खूब वायरल हुआ और किया गया कि ‘पोप ग्रेगरी 13वें द्वारा 1582 में करेक्टेड और अंग्रेजों द्वारा 1752 में अंगीकृत इस अंग्रेजी नववर्ष के प्रथम दिन की आप सभी को बधाई।'

ऐसे संदेशों और ऐसी भाषा के पीछे सांस्कृतिक उत्कर्ष की एक प्रबल आकांक्षा है, इससे इनकार नहीं। अपनी संस्कृति पर गर्व होना चाहिए और यह खूब बढ़े तथा निखरे, इसकी तमन्ना भी होनी चाहिए। लेकिन अंग्रेजी नव वर्ष को जिस तरह से एक धार्मिक संस्कृति से जोड़कर देखा गया और देखा जा रहा है, वह कितना उचित है, इस पर विचार करने की जरूरत है, ताकि इस कठिन आर्थिक दौर में देश किसी और राह पर ना निकल पड़े।

इस समय कथित राष्ट्रवादियों का एक तबका अंग्रेजी नव वर्ष को दबे-छिपे तौर पर धर्म विशेष से जोड़कर जरूर देख रहा है, लेकिन सच तो यह है कि इसका ज्यादा संबंध अर्थ से है, धर्म से नहीं। जिस दौर में ग्रेगेरियन कैलेंडर को सबसे पहले अपनाया गया, वह वो दौर था, जब ब्रिटेन की आर्थिक तरक्की व सियासी दबदबे का सूरज ऊपर चढ़ रहा था। 1600 से ब्रिटेन तरक्की की जिस राह पर आगे बढ़ा (बेशक इसमें ईस्ट इंडिया जैसी कंपनियों की औपनिवेशिक ब्लैक स्टोरीज भी शामिल हैं, मगर दबदबे का यह भी तो एक माध्यम था!), वह अठारवी सदी के उत्तरार्द्ध में वहां शुरू हुई पहली औद्योगिक क्रांति तक लगातार विस्तार पाती गई। यही वह समय था, जब दुनिया तेजी से ग्रेगेरियन कैलेंडर (अंग्रेजी कैलेंडर) को अपनाती गई।

कुछ ने बेहद ड्रैमेटिक अंदाज में अंग्रेजों को शुक्रिया अदा करते हुए कहा कि ‘अच्छा हुआ, आप पधार गए। नहीं तो भारत के घर-घर हिजरी कैलेंडर होते।’ यह भी कैलेंडर पर धार्मिकता का चोला पहनाने का ही एक क्रिएटिव तरीका था, जबकि तथ्य यह है कि आज ईरान और अफगानिस्तान को छोड़कर दुनिया के तमाम बड़े व महत्वपूर्ण मुस्लिम देशों में भी धार्मिक के अलावा अन्य सभी गतिविधियां अंग्रेजी कैलेंडर द्वारा ही संचालित होती हैं। इनमें मुस्लिम जगत के प्रभावी मुल्क सऊदी अरब, यूएई से लेकर दुनिया का सबसे बड़ा मुस्लिम बहुल राष्ट्र इंडोनेशिया भी शामिल है। वजह वही – आर्थिक, धार्मिक नहीं। अगर मुस्लिम देशों या कम्युनिटी का दुनिया में आर्थिक व सियासी दबदबा होता तो भारत तो क्या, ब्रिटेन में ही हिजरी संवत ही होता।

आज ब्रिटेन की वह आर्थिक हैसियत नहीं रही, लेकिन उसकी जगह अमेरिका ने ले ली है। वही अमेरिका जिसने भी 1752 में ब्रिटेन के साथ ही ग्रेगेरियन कैलेंडर को अपनाया था। आज उसका दबदबा है। वहां की एक सिलिकॉन वैली में मौजूद 6,500 कंपनियों में से केवल एक कंपनी एपल का ही बाजार मूल्य हाल ही में भारत की जीडीपी को पार कर गया है। आज अमेरिका भले ही कई मायनों में भ्रष्ट व पतित हो, लेकिन किसी के पास उसके आर्थिक राष्ट्रवाद का कोई तोड़ नहीं है।

सुधांशु जी जैसों से यह निवेदन तो बनता है कि वे हिंदुओं में सांस्कृतिक गर्व पैदा करने के साथ-साथ वैज्ञानिक व आर्थिक दृष्टिकोण भी पैदा करेंगे तो बेहतर रहेगा। वे लोगों को इनोवेशन, न्यू एज टेक्नोलॉजी में एक्सप्लोरेशन के लिए प्रेरित करें।और सबसे बड़ी बात, देश को भ्रष्ट सिस्टम से कैसे छुटकारा मिले, इसकी कोई राह अपनी सरकार को सुझाएं, क्योंकि इसके बगैर देश और संस्कृति का कल्याण नहीं हो सकता।

अगर हमने हमारे करप्ट सिस्टम को ठीक नहीं किया, न्यू एज इनोवेशन में काम नहीं किया, वैज्ञानिक दृष्टिकोण विकसित नहीं किया तो तय मानिए हमारी आने वाली अनेक पीड़ियों के घरों में भी बड़ी शान से अंग्रेजी कैलेंडर ही लटका मिलेगा; उन घरों में भी जो आज प्रेस कॉन्फ्रेंस करके ‘नव वर्ष’ को ताना मार रहे हैं।

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