रविवार, 19 सितंबर 2021

Satire : ग्राउंडवॉटर रिचार्ज करेंगी मप्र की ये सड़कें


 

By Jayjeet

मेरे शहर में दो सड़कें हैं। वैसे तो कई सड़कें हैं, लेकिन आज हम इन दो सड़कों की बात ही करेंगे। एक ख़ास सड़क है। वह उतनी ही ख़ास है जितना कि ख़ास कोई नेता या अफ़सर या जज या इनकी पत्नियां होती हैं। इसे कहने को वीआईपी रोड कह सकते हैं। वैसे ये ख़ास रोड है तो हुजूर, सरकार, जी मालिक, जी मालकिन टाइप के संबोधन अधिक फबते हैं। दूसरी आम सड़क है। ऐसी आम सड़कों की भरमार है। जिधर देखो उधर आम ही आम सड़कें। यह वैसी ही आम है, जैसे मैं और आप। चूंकि ये आम सड़क है तो आप इन्हें प्यार से अबे, ओए, स्साली जैसा कुछ भी कह सकते हैं। ये बुरा नहीं मानती हैं। आप इन पर थूक सकते हैं, कचरा फेंक सकते हैं। टेंट गाढ़ने के लिए कुदाली चला सकते हैं। मतलब वह सबकुछ कर सकते हैं, जो आप करना चाहें। बड़ी सहिष्णु होती हैं ये आम सड़कें। उफ्फ तक नहीं करतीं।

ये दोनों तरह की सड़कें किसी भी शहर में हो सकती हैं। होती ही हैं। ख़ासकर राजधानियों में। तो फिर आज अचानक इनकी याद कैसे आ गई? बताते हैं हम...

दरअसल, हुआ यूं कि चलते-चलते अचानक ख़ास और आम सड़क की मुलाकात हो गई। ख़ास सड़क ने बाजू ने गुजरती हुई आम सड़क को रोककर हालचाल पूछे। यह कोई मामूली बात है भला! वैसे हालचाल पूछे तो कुछ तो ख़ास बात होगी। कोई ख़ास यूं ही आम टाइप की चीजों से राब्ता नहीं बनाता...

'और कैसी हो आम सड़क?' ख़ास सड़क ने थोड़ी विनम्रता और थोड़े एटीट्यूड के साथ पूछा।

'ठीक ही हूं हुजूर। आज कैसे याद किया?' आम सड़क ने उतनी ही मिमियाती हुई आवाज में पूछा जितना कि एक आम से अपेक्षित होता है।

'इन दिनों तो बड़े जलवे हैं। हर जगह तुम्हारी ही चर्चा है। सुंदर-सुशील महिलाएं कैटवॉक कर रही हैं। अखबारों में तस्वीरें छपी थीं। देखी थी मैंने।' ख़ास सड़क ने बड़े ही ख़ास अंदाज में कहा।

यह एक सहज गुण है कि कभी किसी दिन गरीब को दो जून की रोटी से एक रोटी भी ज्यादा मिल जाती है तो अमीर के पेट में दर्द-सा उठ जाता है। ख़ास सड़क भी इससे परे नहीं है। दिनभर ख़ासों के साथ रहते-रहते यह ख़ासियत भी आ गई है उसमें।

'वो तो बस यूं ही...।' आम सड़क शर्म से तनिक गुलाबी लाल हो गई। फिर जोड़ा, 'मुझ पर से जो भी गुजरेगा, वह ऐसा ही लगेगा कि कैटवॉक कर रहा है। वे महिलाएं तो सिंपली मुझ पर चलकर गई थीं, लेकिन उनकी वह वॉक ही कैटवॉक बन गई। अख़बारों में तस्वीरें छप गईं। अब देखिए ना उस ऑटो को। देखो तो, कैसे बचता-बचाता चला आ रहा है और ऐसा लग रहा है कि कैटवॉक कर रहा है। सब बरसाती गड्ढों की महिमा है।'

'हूम....।'

ख़ासों के साथ रहते-रहते ख़ास सड़क भी हूम, हम्म करना सीख गई है। जब कुछ जवाब नहीं सूझता तो हूम, हम्म से अच्छा कोई जवाब नहीं होता। ऐसे जवाब अक्सर ख़ास लोगों के मुंह से झरते रहते हैं। बहुत सुंदर लगते हैं। देखिएगा कभी ध्यान से...

'वैसे शिवराज भैया जब चार साल पहले अमेरिका गए थे और कहा था कि अमेरिका की सड़कों से अच्छी तो हमारे यहां की सड़कें हैं तो वे आपकी ही तो बात कर रहे थे।' आम सड़क ने भी अपनी तारीफ़ के जवाब में ख़ास सड़क की तारीफ़ कर बात आगे बढ़ाई।

'हां, वो तो है।' एक हल्की-सी मुस्कान ख़ास के चिकने-चुपड़े चेहरे पर तैर गई। पर बरसाती गड्ढों को देखकर मुस्कान फिर रश्क में बदल गई। इसी ईर्ष्या में गड्ढों को लेकर सुनी-सुनाई बात उसकी जुबान पर आ गई - 'सुना है तुम्हारे इन गड्ढों को लेकर सरकार एक पायलट प्रोजेक्ट पर काम कर रही है!'

'अब ख़ास लोगों के साथ तो आप ही रहती है। तो आपने सही ही सुना होगा। हम क्या कहें। पर गड्ढों पर पायलट प्रोजेक्ट, यह क्या नया तमाशा है?' आम सड़क हो या आम आदमी, उसके लिए सभी प्रोजेक्ट तमाशे से ज्यादा नहीं होते।

'एक्चुअली, कल दो अफ़सर अपनी कार में बैठकर जा रहे थे और तुम्हारे इन्हीं गड्ढों के बारे में बात कर रहे थे। कह रहे थे कि गड्ढों से ग्राउंड वॉटर रिचार्ज करने के प्रोजेक्ट को सरकार ने स्वीकार कर लिया है। बारिश में इन गड्ढों का इस्तेमाल भूजल स्तर में बढ़ोतरी के लिए किया जाएगा।'

'अच्छा? और क्या कह रहे थे?' आम सड़क की दिलचस्पी अचानक उसी प्रोजेक्ट में जाग गई है जिसे वह कुछ देर पहले तमाशा कह रही थी।

'कह रहे थे कि अब सरकार ठेकेदारों को उसी तरह की सड़कें बनाने को पाबंद करेगी जो पहली बारिश में ही पर्याप्त गड्ढेयुक्त हो जाए।'

'हां, यह तो ठीक रहेगा। अभी दो-तीन बारिश का पानी यूं ही बह जाता है। तब जाकर थोड़े बहुत गड्ढे होते हैं। सेटिस्फैक्टरी गड्ढे होने में तो आधा मानसून ही बीत जाता है। पर इस प्रोजेक्ट से सरकार को क्या फायदा होगा?'

हां, मुद्दे की बात तो थी ही। आखिर सरकार को इससे क्या फायदा होगा? क्यों अफ़सर, बड़े अफ़सर, मिनिस्टर, हेड ऑफ मिनिस्टर्स जैसे लोग इतनी मेहनत करें। उनके पास तो जनहित के और भी कई काम होते हैं।

'अफ़सर कह रहे थे कि जब प्रोजेक्ट लागू हो जाएगा तो झीलों-तालाबों में पानी इकट्ठा करने की ज़रूरत ख़त्म हो जाएगी। पूरा पानी जब सीधे ज़मीन के भीतर ही चला जाएगा तो झील-तालाब की ज़मीनों का इस्तेमाल बिल्डरों के कल्याण कार्य हेतु किया जा सकेगा।' ख़ास सड़क ने बात ख़त्म की। दरअसल, यही बताने के लिए ही तो ख़ास सड़क ने आम सड़क से बात शुरू की थी। गॉसिप्स किसी के भी पेट में टिकते नहीं, फिर वह इंसान हो या सड़क अथवा ख़ास हो या आम।

'वॉव! आज पहली बार मुझे आम सड़क होने पर गर्व हो रहा है।' आम सड़क ने केवल सोचा, लेकिन कहा नहीं। क्या पता, ख़ास सड़क बुरा मान जाए।

ख़ास सड़क पहली बार अपनी किस्मत को कोस रही है। वह गड्ढेयुक्त होती तो यह प्रोजेक्ट खुद ही हथिया लेती। हालांकि कहा उसने भी कुछ नहीं। मन मसोसकर रह गई।

दोनों ने अपनी-अपनी राह ली।

(ए. जयजीत संवाद की अपनी विशिष्ट शैली में लिखे गए तात्कालिक ख़बरी व्यंग्यों के लिए चर्चित हैं। मूलत: पत्रकार जयजीत फिलहाल भोपाल स्थित एक प्रतिष्ठित मीडिया हाउस में कार्यरत हैं। प्रिंट, इलेक्ट्रॉनिक और डिजिटल मीडिया तीनों का उन्हें लंबा अनुभव रहा है।)

शनिवार, 18 सितंबर 2021

पुलिस ने कानून के लंबे हाथ तो ठाकुर को लौटा दिए ...!


satire-humor-on-police


by Jayjeet

बीते दिनों मप्र के एक शहर में 800 से भी अधिक पुलिसकर्मियों ने मार्चपास्ट किया। मकसद अपराधियों में ख़ौफ़ पैदा करना था। इससे अपराधियों में ख़ौफ़ पैदा हुआ होगा, ऐसा माना जा सकता है क्योंकि जिन क्षेत्रों के टीआई, पुलिसकर्मी इत्यादि उस रैलीनुमा मार्चपास्ट में शामिल हुए, उन क्षेत्रों में उस दिन एक भी अपराध न होने की ख़बर है। ख़बर के अलग-अलग अर्थ लगाने को पाठक स्वतंत्र हैं।

ख़ैर, वह वाकई बड़ा दिन था, कम से कम उस नए-नवेले रिपोर्टर के लिए। तो उसने रैली की व्यवस्था में लगे एक बड़े-से अफ़सर से बड़ी ही मासूमियत से पूछ लिया- "इतने सारे पुलिसकर्मी एक साथ क्यों? ख़ौफ़ पैदा करने के लिए तो आपका एक ठुल्ला ही काफ़ी होता है। हमारी बस्ती में आता है तो बहू-बेटियां घरों के अंदर हो जाती हैं। गली किनारे ठेले-खोमचे लगाने वाले सैल्यूट ठोंकने लगते हैं। पनवाड़ी पान लिए सेवा में पहुंच जाते हैं।' कच्चे से रिपोर्टर ने अपना टुच्चा-सा अनुभव उस अफ़सर के साथ शेयर किया।

अफ़सर अनुभवी था। इसलिए नए-नवेले रिपोर्टर की इतनी बेवकूफी भरी बात का भी उसने मजाक नहीं उड़ाया। ठुल्ला शब्द का भी बुरा नहीं माना। बस मुस्कुरा कर कहा - 'देखिए, आप जैसों की बस्तियों में ख़ौफ़ पैदा करने के लिए हमारा एक जवान तो क्या, उसका डंडा भी पहुंच जाए तो शरीफ़ लोग दंडवत हो जाते हैं। लेकिन बड़े अपराधियों में ख़ौफ़ के लिए बड़ा मार्चपास्ट जरूरी होता है। इससे उन्हें यह संदेश मिलता है कि राज तो कानून का ही चलेगा, भले ही कोई भी चलाएं। इससे अगले कुछ दिनों तक बड़े अपराधी, माफ़िया टाइप के सभी लोग कानून का विधिवत पूरा सम्मान करने लगते हैं। ख़ौफ़ बिन सम्मान नहीं, आपने सुना ही होगा। और जैसे ही सम्मान कम होता है, हम फिर मार्चपास्ट निकालकर थोड़ा बहुत ख़ौफ़ भर देते हैं।'

नए-नवेले रिपोर्टर ने दूसरा मूर्खतापूर्ण सवाल फेंका - 'पूरे शहर भर के पुलिस वालों को आपने एक जगह एकत्र कर लिया है। अगर किसी दूसरी जगह पर कोई क्राइम वगैरह हो गया तो आप क्या करेंगे? क्या यह मिस मैनेजमेंट नहीं है?'
अफ़सर, जो ऑलरेडी बहुत ही अनुभवी था और कई तरह की डील करते-करते इस तरह के मूर्खतापूर्ण सवालों को डील करना अच्छे से सीख चुका था, ने इस बार भी इस सवाल का मजाक नहीं उड़ाया। पर इस बार मुस्कुराया भी नहीं। गुस्से को पीते हुए उसने बड़ी ही गंभीरता से कहा - 'क्राइम कब होता है? जब वह दर्ज़ होता है। दर्ज़ कब होता है? जब पुलिस दर्ज़ करती है। जब पुलिस ही नहीं होगी तो क्राइम दर्ज़ कौन करेगा? और जब क्राइम दर्ज़ ही नहीं होगा तो क्राइम कहां से हो जाएगा? अपराधों और अपराधियों के मैनेजमेंट का यह सिंपल-सा फंडा है।'

बात तो बहुत सिंपल थी। पर रिपार्टर के समझ से परे थी। तो उसने अगला सवाल दागा जो उतना ही मूर्खतापूर्ण था, जितने पहले के दो सवाल थे। सुनिए - 'कानून-व्यवस्था के हाथ तो बड़े लंबे होते हैं। तो रैली निकालने की क्या ज़रूरत? बैठे-बैठे ही कानून अपने लंबे हाथों से अपराधियों को नहीं पकड़ सकता?'

अफ़सर कितना भी अनुभवी क्यों न हो, उसके धैर्य की भी सीमा होती है। अफ़सर चाहता तो इस सवाल पर अपने बाल नोंच सकता था, पर उसने ठहाके लगाने का ऑप्शन चुना। अब ठहाका, वह भी एक बड़े पुलिस अफ़सर का तो ऐसा ही होता है। इसमें उस अफ़सर की कोई गलती नहीं। पर क्या करें? रिपोर्टर ठहरा नया-नवेला, कोई शातिर-अनुभवी अपराधी तो नहीं कि ऐसे जालिम ठहाकों में वह भी ठहाके से ठहाका मिलाकर साथ दे। तो उस भयावह ठहाके से रिपोर्टर का दिल दहलकर वाइब्रेशन मोड में पहुंच गया। दो-चार मिनट में माहौल वाइब्रेशन मोड से नॉर्मल मोड में वापस आया तो रिपोर्टर का दिल भी सामान्य हुआ। उसने बड़ी मासूमियत के साथ अफ़सर की ओर देखा, इस उम्मीद के साथ कि उसे अपने उस सवाल जो बेशक मूर्खतापूर्ण था, का जवाब मिलेगा। लेकिन अफ़सर तो जवाब दे चुका था और अगले मूर्खतापूर्ण सवाल के इंतज़ार की मुद्रा में था।

पर रिपोर्टर अब भी अपने उसी मूर्खतापूर्ण सवाल पर अटका है। 'पर सर, कानून के हाथ ऑलरेडी इतने लंबे हैं तो पुलिस जवानों को पैर लंबे करने की क्या जरूरत थी?'

'देख भाई...' अफ़सर अब 'देखिए' से 'देख' पर और 'आप' से 'तुम' पर आ रहा है। संकेत साफ़ है कि मूर्खतापूर्ण सवाल कुछ ज्यादा ही हो रहे हैं। फिर भी जो पूछा है, उसका जवाब वह यथासंभव शालीनता से देने की कोशिश कर रहा है- 'देश की मूल समस्या ही यही है। तुम लोगों को कानून के लंबे-लंबे हाथ तो नज़र आते हैं, लेकिन यह भी देखो कि वे लंबे हाथ आपस में ही कितने उलझे हुए हैं। इसलिए बार-बार लंबे हाथों की दुहाई मत दो यार। ये हाथ अब हमारे किसी काम के नहीं हैं। हमने ठाकुर को लौटा दिए हैं...।' एक शॉर्ट टर्म ठहाका। अफ़सर अनुभवी है जो जानता है कि अपनी किसी तात्कालिक मूर्खतापूर्ण बात को किस तरह ठहाके में उड़ाया जा सकता है।

रिपोर्टर अब भी प्रश्नवाचक मुद्रा में है। उसकी मुद्रा को देखते हुए पुलिस अफसर ने बात पूरी की, 'इसलिए हम पैर फैलाने पर फोकस कर रहे हैं। मार्चपास्ट को उसी प्रोजेक्ट का हिस्सा मान लो, और क्या!'

'लेकिन पुलिस के कानून वाले लंबे हाथ तो रहे नहीं, जैसा आप कह रहे हैं। तो केवल पैर फैलाने से अपराध कैसे कम हो जाएंगे? नए-नवेले रिपोर्टर के इंटरव्यू का अंतिम समय निकट ही है।

'हमने कब कहा कि इससे अपराध कम हो जाएंगे? हम तो बस अपराधियों में ख़ौफ़ पैदा करने की बात कर रहे हैं। वही तो हमारा मकसद है।'

मार्च-पास्ट ख़त्म होने जा रही है। फिर ड्यूटी पर लगना है। तो अफ़सर के पास टाइम-पास का टाइम भी ख़त्म हुआ। नया-नवेला रिपोर्टर अब भी हेडलाइन की तलाश में है।

(ए. जयजीत संवाद की अपनी विशिष्ट शैली में लिखे गए तात्कालिक ख़बरी व्यंग्यों के लिए चर्चित हैं। मूलत: पत्रकार जयजीत फिलहाल भोपाल स्थित एक प्रतिष्ठित मीडिया हाउस में कार्यरत हैं। प्रिंट, इलेक्ट्रॉनिक और डिजिटल मीडिया तीनों का उन्हें लंबा अनुभव रहा है।)

# police march past