यहां आपको कॉन्टेंट मिलेगा कभी कटाक्ष के तौर पर तो कभी बगैर लाग-लपेट के दो टूक। वैसे यहां हरिशंकर परसाई, शरद जोशी जैसे कई नामी व्यंग्यकारों के क्लासिक व्यंग्य भी आप पढ़ सकते हैं।
बुधवार, 10 अप्रैल 2024
शुक्र है, चुनाव होते रहते हैं... इससे विकसित देशों के बर-अक्स हमें हमारी जमीनी हकीकत पता चलती रहती है...!!!
सोमवार, 3 अक्तूबर 2022
जयजीत अकलेचा की व्यंग्य पुस्तक पांचवां स्तम्भ : व्यंग्य विधा में अनुपम प्रयोग
By ब्रजेश कानूनगो
हिंदी साहित्य में इन दिनों कुछ विधाओं में रचनाओं में एक तरह का उछाल सा महसूस किया जा रहा है। साहित्य की विशिष्ट पत्रिकाओं को छोड़कर खासतौर पर लोकप्रिय पत्रिकाओं और अखबारों में प्रकाशित रचनाओं की बात करें तो लघुकथा और व्यंग्य विधा के जरिए साहित्य संसार में प्रवेश के बड़े द्वार खुल गए हैं।
आधुनिक टेक्नोलॉजी से सम्पन्न और अभ्यस्त अनेक नए लेखक बारास्ता सोशल मीडिया भी कविता के बाद व्यंग्य और लघुकथा के क्षेत्र में ही अधिक सक्रिय नजर आ रहे हैं। ऐसे में व्यंग्य विधा में जो बहुतायत से लिखा हुआ आ रहा है उस पर कई सवाल भी खड़े किए जाते रहे हैं। विधा की लोकप्रियता और लेखकों की भीड़ के बीच रचनाओं की गुणवत्ता के पतन की बात भी उठती रही है।
व्यंग्य विधा के मानक सौंदर्यशास्त्र के अभाव में परसाई जी और शरद जोशी या अन्य विशिष्ठ व्यंग्यकारों द्वारा स्थापित व्यंग्य के मानकों पर आज भी नई रचनाओं को परखने की विवशता दिखाई देती है। प्रेमचंद के बाद कहानी और परसाई के बाद हिंदी गद्य व्यंग्य की कई पीढ़ियाँ तो निर्धारित की गईं किन्तु रचना की श्रेष्ठता का कोई मानक पैमाना तय नहीं है और न ही हो सकता है। यह अवश्य है कि रचना की विषय वस्तु के निर्वाह में किसी लेखक के जो विचार व सरोकार दिखाई देते हैं वे निश्चित ही महत्वपूर्ण हो जाते हैं। इसके बाद भाषा,शैली और व्यंग्य रचना के प्रारूप पर भी ध्यान जाता है।
युवा पत्रकार और व्यंग्यकार जयजीत ज्योति अकलेचा की पहली किताब 'पांचवा स्तम्भ' पर बात करने से पहले मुझे उपर्युक्त चर्चा जरूरी इसलिए भी लगती है कि जयजीत ने व्यंग्य विधा की अब तक कि परंपराओं को नए और अपने तौर तरीकों से आगे बढ़ाने का साहस किया है। यद्यपि कई बार अखबारी लेखन को साहित्यिक पत्रकारिता भी कहा गया है। मुझे याद आता है शरदजी के कॉलम लेखन को साहित्यिक पत्रकारिता कहा गया था और उन्हें पद्मश्री भी पत्रकारिता वर्ग में प्रदान किया गया। खबरों और अखबारों की सुर्खियों पर ही ज्यादातर कॉलमी व्यंग्य रचनाएं आ रही हैं जो तात्कालिक संदर्भों के होने से पाठकों को आकर्षित तो करती ही हैं पर संपादकों को भी उन्हें प्रकाशित करने में सुविधा हो जाती है।
थोक में लिखी जा रही ऐसी रचनाओं से इतर जयजीत अकलेचा की रचनाएं इसलिए अलग हो जाती हैं कि पत्रकार होने के कारण खबरों और सुर्खियों के भीतर उतरकर उसकी आत्मा तक पहुंच जाने की योग्यता उनमें पेशागत रूप से है। दूसरे वे जोखिम लेकर अपनी रचनाओं का प्रारूप बदलकर विधा के विकास में अगला महत्वपूर्ण कदम बढ़ा देते हैं।
जयजीत की किताब 'पांचवां स्तम्भ' की सबसे बड़ी खूबी यही है जैसा कि ब्लर्ब में चर्चित व्यंग्यकार आलोक पुराणिक ने कहा भी है, इनमें व्यंग्य विधा में नए प्रयोगों का साहस सचमुच स्पष्टतः परिलक्षित होता है। आवरण पर इसे व्यंग्य रिपोर्टिंग की पहली किताब कहा गया है। निसंदेह व्यंग्य रिपोर्टिंग पहले भी इक्का दुक्का देखने पढ़ने को मिलती रही है। जयजीत के अलावा भी कई पूर्ववर्ती लेखको नें इस प्रारूप को आजमाया है। जयजीत स्वयं 'हिंदी सेटायर' जैसे डिजिटल मंच पर इस तरह लिखते रहे हैं। पुस्तक में ज्यादातर तात्कालिक खबरों और प्रसंगों पर लेख, रिपोर्टिंग किस्से तो हैं हीं साथ ही 'इंटरव्यू' प्रारूप में भी बड़ी दिलचस्प रचनाएं देनें में वे सफल हुए हैं।
मैं इस पुस्तक की हर पंक्ति से ध्यानपूर्वक गुजरा हूँ और कह सकता हूँ कि हर शब्द और वाक्य पाठक को रोमांचित करता है और बहुत प्रभावी रूप से बांधे रखता है। पहले सोच रहा था कुछ पंक्तियों के उदाहरण देकर अपनी बात को पुष्टि दूँ किन्तु यह बिल्कुल भी सम्भव नहीं। हर पंक्ति देकर समीक्षा को लंबा खींचना न सिर्फ लेखक की प्रतिभा के प्रति बल्कि संभावित पाठकों की जिज्ञासा के प्रति भी गलत होगा। पाठक इस किताब को मंगवाकर अवश्य पढ़ें। लेखक की गहरी व्यंग्य समझ और रोचक, मारक प्रस्तुति के कायल हुए बगैर नहीं रहेंगे।
यद्यपि लेखक बड़ी विनम्रता से इब्ने इंशा के कथन को उद्धरित कर कहते हैं, हमने इस किताब में कोई नई बात नहीं लिखी है,वैसे भी आजकल किसी भी किताब में कोई नई बात लिखने का रिवाज़ नहीं है। परंतु मेरा मानना है नया और मौलिक तो कुछ दुनिया में होता ही नही है, हर नई बात एक लंबी परंपरा का नए तरीके से विकास होता है। जयजीत इस किताब में विधा के विकास में एक नया और सार्थक प्रयोग करते हैं। हिंदी व्यंग्य शैली में इन दिनों आई बोझिलता और एकरसता को तोड़ते हैं।
देश दुनिया में प्रजातंत्र के चार स्तंभों की स्थिति कुछ भी चल रही हो, जयजीत अकलेचा का 'पांचवां स्तम्भ' निसंदेह व्यंग्य विधा का ध्वज फहराने योग्य है। बहुत बधाई।
(पुस्तक: पांचवां स्तम्भ, लेखक :जयजीत ज्योति अकलेचा, प्रकाशक : मेंड्रेक पब्लिकेशन भोपाल, कीमत : 199 रुपये)
यह किताब अमेजन पर उपलब्ध है : https://amzn.to/3z543lm
(ब्रजेश कानूनगो वरिष्ठ कथाकार एवं व्यंग्यकार हैं।)
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शुक्रवार, 22 अप्रैल 2022
बुलडोज़र क्रांति के नायक यानी स्वयं 'बुलडोज़र महाराज' से बातचीत
इस समय सवाल, वह भी बुलडोज़र से, पूछने की हिम्मत भला किसमें होगी?
Bulldoze का एक अर्थ 'डराना' भी होता है। रिपोर्टर को यह सब मालूम है, फिर भी उसने
थोड़ी हिम्मत की और सुस्ताते हुए बुलडोज़र के सामने खड़ा हो गया कुछ सवाल लेकर...
रिपोर्टर : इस समय तो बड़े जलवे हैं? ख़ूब नेम-फ़ेम मिल रहा है।
बुलडोज़र : ले लो मज़े। भर गर्मी में इतना घूमना पड़ रहा है। खुद घूमो तो
पता चले। कितनी आसानी से कह दिया- जलवे हैं...!
रिपोर्टर : अच्छा, एक दौर वह भी था, जब लोग आपको खुदाई करते हुए घंटों
बड़े ही प्यार से निहारा करते थे और ख़ुश होते थे। आज आपको देखकर आदमी डर रहा है। इस
बदलाव पर क्या कहेंगे?
बुलडोज़र : कहीं तो लोग डरें? लोकतंत्र का मज़ाक़ बना रखा है लोगों ने।
रिपोर्टर : लेकिन लोकतंत्र में तो डर नहीं, विश्वास होना चाहिए। विश्वास
से चलता है लोकतंत्र, डर से नहीं। किसी ने ख़ूब कहा भी है - सबका साथ सबका विश्वास...
बुलडोज़र : नो कमेंट।
रिपोर्टर : आप पर आरोप है कि आप डर भी एक वर्ग विशेष में ही पैदा कर रहे
हैं। क्या आप हरे-केसरिया रंग के आधार पर फैसले नहीं कर रहे हैं?
बुलडोज़र : नो कमेंट।
रिपोर्टर : आरोप यह भी है कि आपको बड़े लोगों के बड़े-बड़े अतिक्रमणों को
ढहाने के बजाय ग़रीबों की छोटी-छोटी गुमठियाँ, दुकानें, झोपड़ियाँ ढहाने में ज्यादा
आनंद आ रहा है। भारी-भरकम से कौन भिड़े, हल्के-फुल्कों को हटा दो। क्या यह कामचोरी नहीं
है?
बुलडोज़र : नो कमेंट।
रिपोर्टर : दिल्ली के ज़हाँगीरपुरी में सुप्रीम कोर्ट ने भी आपको तुरंत
रुकने को कहा था, लेकिन आप दो घंटे तक मनमानी करते रहे। क्या यह अधिनायकवाद नहीं है?
अपने आप को सर्वोच्च समझने का अहंकार कि कुछ भी हो जाए, मैं रुकेगा नहीं स्साला!
बुलडोज़र : नो कमेंट।
रिपोर्टर : अगर जवाब ही नहीं देना चाहते तो चुनाव ही लड़ लो भाई? नेताओं
की जी-हुज़ूरी करते-करते अच्छी नेतागीरी आ गई है आपको भी।
बुलडोज़र : क्या यह भी आरोप है?
रिपोर्टर : आरोप नहीं, सच्चाई है, सौ टका।
बुलडोज़र : सर, ज्यादा हो गया। आप रिपोर्टर हो तो इसका मतलब यह नहीं कि
आय-बाय-शाय कुछ भी बके जाओ। सारे आरोप झेल लिए हैं। ये ना सहन करुँगा कि कोई मुझे नेता
कहें और चुनाव लड़ने का ज्ञान दें...
रिपोर्टर : तो आप जवाब क्यों नहीं दे रहें?
बुलडोज़र : जवाब हो तो दूँ? और झूठे या गोलमाल जवाब देना चाहता नहीं हूँ,
क्योंकि मैं नेता नहीं हूँ।
रिपोर्टर : वाह, दिल ख़ुश कर दिया। बस आख़िरी सवाल...
बुलडोज़र : आख़िर-वाख़िरी कुछ नहीं, अब सामने से हट जाओ, पहले ही खोपड़ा ख़राब
है। करे कोई, भरे कोई। काम वो करे, आरोप हमपे लगे। हट जाओ सामने से, बहुत झेल लिया...
अब झेलेगा नहीं स्साला।
(ए. जयजीत संवाद की अपनी विशिष्ट शैली में लिखे गए तात्कालिक ख़बरी व्यंग्यों के लिए चर्चित हैं। मूलत: पत्रकार जयजीत फिलहाल भोपाल स्थित एक प्रतिष्ठित मीडिया हाउस में कार्यरत हैं। प्रिंट, इलेक्ट्रॉनिक और डिजिटल मीडिया तीनों का उन्हें लंबा अनुभव रहा है।)
सोमवार, 15 नवंबर 2021
Satire : हे भगवान! सबकुछ तेरे भरोसे क्यों?
ए. जयजीत
वे नाजुक-सी आत्माएं अभी-अभी धरती पर उतरी ही थीं कि ईश्वर ने उन्हें फिर से वापस बुला लिया। ईश्वर के विशेष फरिश्ते उन्हें लेने आए। ईश्वर के खास निर्देश थे- उन्हें अपने हाथों में इस तरह नज़ाकत से थामकर लाना जैसे कमल के पत्ते किसी ओस की बूंद को थामते हैं। जैसी ईश्वर की आज्ञा, वैसा ही उन फरिश्तों ने किया। लेकिन इतनी बड़ी घटना पर वे चुप्पी भी भला कैसे साध लेते! आखिर वे हमारे सिस्टम का पार्ट तो थे नहीं...
'अचानक क्या हो गया? कुछ अरसा पहले ही तो हम इन्हें धरती पर छोड़कर गए थे? ये तो अभी ढंग से इस दुनिया-ए-फ़ानी को समझ भी नहीं पाए होंगे कि इन्हें वापस बुलाने के निर्देश हो गए।' भोपाल के हमीदिया हॉस्पिटल की छत से अपने गंतव्य की ओर कूच करते हुए पहले फरिश्ते ने कहा।
'शायद ईश्वर को एहसास हो गया होगा कि यह क्रूर दुनिया इन मासूम आत्माओं के लिए नहीं बनी है।' दूसरे फरिश्ते ने बहुत ही नपा-तुला जवाब दिया। ऐसे मौके पर वह भला और क्या कहता।
'लेकिन इन मासूम आत्माओं में से कुछ ने तो अभी अपनी आंखें भी नहीं खोली होंगी। इन्हें कम से कम कुछ दिन तो रहने देते। अपने मां-बाप को कुछ पलों की खुशियां भी ना दे पाईं ये आत्माएं।' पहले फरिश्ते ने अफ़सोस जताया।
'वैसे शुक्र मनाइए, ये मासूम आत्माएं धरती की तमाम कुव्यवस्थाओं को देखने से बच गईं।'
'अरे, ये तो खुद अव्यवस्थाओं का शिकार हो गईं और तुम कह रहे हो कुव्यवस्थाएं देखने से बच गईं। इतने असंवेदनशील तो मत बनो भाई। माना धरती पर आते रहते हो, तो क्या यहां के लोगों की संगत का तुम पर भी असर हो गया?'
'मेरे कहने का मतलब यही था कि जब शुरुआत ही इतनी कुव्यवस्थाओं के बीच हुई तो आगे ना जाने क्या-क्या भुगतना पड़ता।' दूसरे फरिश्ते ने अपनी बात, जो कि इस मौके पर उचित कतई नहीं थी, पर सफाई देने की विफल कोशिश की।
'इन कुव्यवस्थाओं के लिए तो जिम्मेदार तो पूरा सिस्टम है। तो सिस्टम का खामियाज़ा इन्हें क्यों भुगताना चाहिए? बताओ?' पहला फरिश्ता तर्क-वितर्क करने लगा है।
'शायद ईश्वर की यही मर्जी होगी।' दीर्घ श्वास छोड़ते हुए दूसरे फरिश्ते ने बात खत्म करने के मकसद से कहा। लेकिन बात तो अब शुरू हुई थी। इतनी जल्दी खत्म कैसे होती!
'अरे, यह क्या बात हुई। तुम क्या यह कहना चाहते हो कि पूरा सिस्टम भगवान भरोसे हैं? और जब सबकुछ भगवान भरोसे हैं तो इन मासूम आत्माओं के साथ जो कुछ भी हुआ, उसके लिए जिम्मेदार भी हमारे माननीय भगवान ही हैं?' पहला फरिश्ता थोड़े तैश में आ गया।
'ऐसा मैंने कब कहा? और तनिक धीरे बोलिए। ये मासूम आत्माएं सो रही हैं। जग न जाएं। बहुत तकलीफ़ से होकर गुजरी हैं। इसीलिए ईश्वर ने इन्हें बहुत ही नज़ाकत से लाने के निर्देश दिए हैं।' दूसरे फरिश्ते ने बात बदलने की कोशिश की।
'लेकिन भाई, धीरे बोलने से सच्चाई बदल तो नहीं जाएगी ना। तुम्हारे कहने का मतलब तो यही है ना कि जब पूरा सिस्टम भगवान भरोसे हैं तो फिर बेचारे इंसान कर भी क्या सकते हैं? चलिए मान लेते हैं कि सबकुछ हमारे भगवान भरोसे ही हैं। तो फिर सरकारों ने हॉस्पिटल्स क्यों खोल रखे हैं? क्यों न जगह-जगह मंदिर-मस्जिद खोल दिए जाएं। जब सब हमारे ईश्वर को ही देखना है तो फिर वह देख ही लेगा। हटाओ सारे दंद-फंद...।' पहला थोड़ा इमोशनल होने लगा है।
'देखो, सरकार कोई भी हो, किसी की भी हो, उसका हमेशा से भगवान पर भरोसा रहा है। इसलिए उसकी ज्यादातर चीजें भगवान भरोसे ही चलती हैं।'
'तो फिर 'भगवान भरोसे मंत्रालय' भी बना देना चाहिए। कम से कम देश के तमाम हॉस्पिटल्स को तो इसी मंत्रालय के अंडर में ले आना चाहिए।' पहले ने कटाक्ष किया जिसमें इमोशन थोड़ा ज्यादा था।
'इतना इमोशनल भी मत बनिए। बी प्रैक्टिकल...।'
'कैसे न बनूं? इन मासूमों की आत्माओं को साथ ले जाते हुए भी तुम कह रहे हो इमोशनल न बनूं? तुम अपनी आत्मा पर पत्थर रख लो, मैं नहीं रख सकता।'
'सरकार अपना काम कर तो रही है। घटना की जांच के आदेश दे दिए गए हैं। सरकार के प्रमुख ने भी कह दिया है कि दोषियों को बख्शा नहीं जाएगा। जांच होने तक तो सब्र रखो। सब साफ हो जाएगा कि इन मासूम आत्माओं की हत्याओं के लिए जिम्मेदार कौन हैं?'
'मुझे क्या न्यू कमर फरिश्ता समझा! धरती के और खासकर इंडिया के बहुत ट्रिप किए हैं मैंने भी। सब जानता हूं कि जांच रिपोर्ट्स-विपोर्ट्स का क्या टंटा होता है।'
'देखो भाई, हमारे-तुम्हारे बोलने से तो कुछ होगा नहीं। जो भी होगा, सिस्टम से ही होगा।'
'सिस्टम से तुम्हारा क्या मतलब है?'
'पहले जांच समिति बैठेगी, वह अपनी रिपोर्ट देगी। रिपोर्ट में कुछ लोगों को जिम्मेदार ठहराया जाएगा। जिम्मेदारों पर कार्रवाई क्यों नहीं हुई, इसके लिए फिर कुछ सालों के बाद एक उच्च स्तरीय जांच आयोग बैठेगा। वह जिम्मेदार लोगों के खिलाफ कार्रवाई न करने वाले जिम्मेदार लोगों को जिम्मेदार ठहराएगा। यही सिस्टम है। मैंने इंडिया के तुमसे ज्यादा ट्रिप किए हैं। ऐसे कई हादसों का साक्षी भी रहा हूं।' दूसरे फरिश्ते ने इमोशनल और बेचैन हो रहे पहले फरिश्ते तो समझाने की कोशिश की।
'लेकिन यह वह हादसा नहीं है, जिसे जांच समितियों, जांच रिपोर्टों में भुला दिया जाए।'
'अब होगा तो वही जो सिस्टम को चलाने वाले 'भगवान' चाहेंगे। और ये हमारे वाले भगवान नहीं हैं, भले ही पूरा सिस्टम हमारे वाले भगवान के भरोसा चलता हो।' दूसरे ने अंतत: बात खत्म की।
और फिर दोनों के बीच चुप्पी छा गई...
'हमारा गंतव्य आ गया है, चलो अब...' पहले ने गोद में सो रहीं मासूम आत्माओं की ओर देखकर कहा। उसकी आंख से आंसू का एक कतरा दूसरे फरिश्ते के हाथ पर टपक पड़ा।
'हां चलो, इन आत्माओं को ईश्वर को सौंपकर इनकी शांति की प्रार्थना करते हैं।'
'और तुम्हारे उस सिस्टम में बैठे लोगों में सद्बुद्धि आए, इसकी भी...'
(ए. जयजीत संवाद की अपनी विशिष्ट शैली में लिखे गए तात्कालिक ख़बरी व्यंग्यों के लिए चर्चित हैं। मूलत: पत्रकार जयजीत फिलहाल भोपाल स्थित एक प्रतिष्ठित मीडिया हाउस में कार्यरत हैं। प्रिंट, इलेक्ट्रॉनिक और डिजिटल मीडिया तीनों का उन्हें लंबा अनुभव रहा है।)
शनिवार, 13 नवंबर 2021
Satire : हिंदी के भक्तिकाल की तर्ज पर सिलेबस में जुड़ेगा नया अध्याय – राजनीति का भक्तिकाल
By Jayjeet
हिंदी सटायर डेस्क, नई दिल्ली। कंगना रनौत के बयान के बाद से ही इतिहासकारों ने साल 2014 में मिली आजादी, इस आजादी के लिए किए गए संघर्ष और इस संषर्घ में भागीदार बनने वाले आजादी के सिपाहियों पर इतिहास लिखना शुरू कर दिया है। लेकिन इस बीच, केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्रालय द्वारा एक नई पहल करते हुए हिंदी के भक्तिकाल की तर्ज पर पाठ्यक्रमों में ‘राजनीति का भक्तिकाल’ नाम से एक नया अध्याय जोड़ा जा रहा है। इस अध्याय की एक कॉपी hindisatire के भी हाथ लगी है। इसके मुख्य अंश हम अपने अपने पाठकों के लिए पेश कर रहे हैं :
‘राजनीति का भक्तिकाल’ पाठ के मुख्य अंश :
भारतीय राजनीति में भक्तिकाल का आरंभ ईस्वी 2014 यानी संवत् 2071 से माना जाता है। मोदी भक्त इतिहासकार, जो प्राय: साेशल मीडिया की देन रहे हैं, इसे भारतीय राजनीतिक शासन व्यवस्था का श्रेष्ठ काल मानते हैं। वैसे भक्तिकाल की धारा का उद्गम ईस्वी 2001 से प्रारंभ हो जाता है, जब नरेंद्र नाम के एक चमत्कारी सेनापति ने गुजरात नामक एक प्रांत की बागडोर संभाली थी। ईस्वी 2012 में उनके चौथी बार मुखिया बनने और ईस्वी 2013 में पीएम पद का उम्मीदवार घोषित करने के बाद से भक्तिकाल की यह धारा फूट-फूटकर बहने लगी। 2014 के बाद से तो सोशल मीडिया पर भक्ति की ऐसी धारा बही कि कृष्ण के सूरदास, राम के तुलसीदास जैसे दासों की भक्ति तक उसके सामने फीकी पड़ गई। भक्ति की धारा बहाते समय न जात का फर्क रखा, न पांत का।
जाति-पांति पूछे नहिं कोई।
मोदी को भजै सो मोदी का होई।
इस काल में मोदी भक्ति की कई रचनाएं रची गई हैं जो अविस्मरणीय है :
भक्ति जो सीढ़ी मुक्ति की, चढ़ै मोदी भक्त हरषाय।
और न कोई चढ़ि सकै, लात दे गिराय।।
यानी कवि कहता है कि मोदी का जो भक्त मोदी भक्ति नामक सीढ़ी चल लेता है, वह हमेशा प्रसन्नचित्त रहता है। लेकिन जो चढ़ने में हिचक करता है, तो सीढ़ी के ऊपरी पायदान पर बैठे मोदी भक्त उसे लात मारकर और भी नीचे गिरा देते हैं।
मोदी की भक्ति बिन, अधिक जीवन संसार।
धुवाँ का सा धौरहरा, बिनसत लगै न बार।।
यानी कवि कहता है कि मोदी की भक्ति के बिना संसार में जीना धिक्कार है। यह माया (वती) तो धुएं के महल के समान है। इसके खतम होने में समय नहीं लगता।
नेता ऐसा चाहिए, जैसा सूप सुभाय।
सार-सार को गहि रहै, थोथा देई उड़ाय।।
यहां कवि कहता है कि इस देश को ऐसे नेता की जरूरत है जैसे अनाज साफ़ करने वाला सूप होता है। जो ज्योतिरादित्य जैसे सार्थक को बचा लें और मार्गदर्शक मंडलों में बैठे अब निरर्थक हो चुके बूढ़ों को उड़ा दें।
इसी बात को दूसरे शब्दों में कवि इस तरह से भी कहता है :
पार्टी न पूछो नेता की, पूछ लीजिए वोट बैंक का ज्ञान।
मोल करो तरवार का, पड़ा रहन दो म्यान।
अर्थात नेता की पार्टी न पूछकर यह जानना चाहिए उसका वोट बैंक कितना है। जैसे तलवार का मूल्य होता है, न कि उसकी म्यान का।
इस काल में कड़वा और तीखा बोलने वाले मोदी विरोधी अभक्तों के प्रति कोई नरमाई भी नहीं बरती गई। कवि की ये पंक्तियां स्पष्ट कर देती हैं :
खीरा सिर ते काटि के, मलियत लौंन लगाय।
मोदीभक्त करुए मुखन को, चाहिए यही राजद्रोह की सजाय।
अर्थात जिस तरह खीरे का कड़वापन दूर करने के लिए उसके ऊपरी सिरे को काटने के बाद नमक लगाकर घिसा जाता है, उसी तरह कटु वचन बोलने वाले के लिए राजद्रोह की सजा को मोदीभक्त उचित मानते हैं।
दो तरह की होती है भक्ति :
इतिहासकारों ने मोदी के प्रति भक्ति को सगुण भक्ति माना है। यानी वह भक्ति जो गुणों की वजह से की जाती है। लेकिन इसी दौरान निर्गुण भक्ति का भी एक दौर चला है। राजनीति में एक खास परिवार के प्रति भक्ति को इतिहासकार निर्गुण भक्ति की संज्ञा देते हैं। यानी वह भक्ति, जो गुणों की वजह से नहीं, परिवार के कारण की गई।
(Disclaimer : यह खबर कपोल-कल्पित है। इसका मकसद केवल स्वस्थ मनोरंजन और राजनीतिक कटाक्ष करना है, किसी की मानहानि करना नहीं।)
# Modi-Bhakti
गुरुवार, 4 नवंबर 2021
Satire - नेता पटाखे : कोई अनगाइडेड रॉकेट तो कोई फुस्सी बम!
By Jayjeet
शुक्रवार, 29 अक्तूबर 2021
Satire : ख़बरदार, डरना सख़्त मना है!
ए. जयजीत
अगर देश के गृह मंत्री बोल रहे हैं कि अब किसी को डरने की जरूरत नहीं है तो फिर वाकई डरने की जरूरत नहीं ही होगी, सिद्धांत: ऐसा माना जा सकता है। पर ऐसे भी कैसे मान लें? इसकी ग्राउंड लेवल पर पुष्टि भी तो जरूरी है। तो यही पुष्ट करने के लिए रिपोर्टर सीधे पहुंच गया एक आम आदमी के पास। इतिहास गवाह है कि सबसे ज्यादा डर तो आम आदमी को ही लगता है। इसलिए डर के लेवल के बारे में असली पुष्टि आम आदमी से ही हो सकती थी।
'आप रिपोर्टर ही हो, इस बात की क्या गारंटी?' इधर-उधर देखकर आम आदमी ने पूछा। वह इंटरव्यू से बचने का कोई न कोई रास्ता तलाश रहा है। बेमतलब का लफड़ा नहीं चाहता।
'अजी इतना भी मत डरिए। मैं कोई पेगासस का जासूस नहीं हूं। बस, दो-चार सवाल पूछने हैं। अनुमति हो तो पूछ लूं।'
'अब अनुमति देने वाले हम कौन! हमसे कौन अनुमति लेता है! पूछ लीजिए। पर नाम मत छापना।' अंतत: नाम न छापने की शर्त पर आम आदमी डरते-डरते चर्चा के लिए राजी हुआ।
'हमारे केंद्रीय गृह मंत्रीजी ने कहा है कि अब लोगों को डरने की जरूरत नहीं है। कश्मीर में उन्होंने अपना बुलेटप्रूफ ग्लास तक निकाल फेंका था। तो जब देश के गृह मंत्री ऐसा कह रहे हैं तो कुछ तो डर कम हुआ होगा?' रिपोर्टर तुरंत अपने मूल सवाल पर आया।
'भाई साहब, कहां मुझ जैसे दो टके के आम आदमी के डर से गृह मंत्रीजी की निडरता की तुलना कर रहे हो! हम आम लोग तो पैदाइशी ही डरे हुए होते हैं।'
'वो तो देख ही रहा हूं। आप कुछ कांप से रहे हैं। कहीं से कुछ ताजे डरे हुए लगते हो।'
'क्या बताएं। कल रात को मोहल्ले में कुछ वर्दीवाले आए थे। किसी चोरी की गाड़ी के बारे में आम लोगों से तफ्तीश कर रहे थे, इतनी भयंकर वाली कि क्या बताएं। बस, उसी डर के थोड़े-बहुत अवशेष अब भी बाकी हैं। इसीलिए पैर कांप रहे हैं।'
'पर आप तो कानून की इज्जत करने वाले आम आदमी हो। आपको क्या डर?'
'भाई साहब, कानून की इज्जत करने वाले को ही वर्दी से डरना पड़ता है। जो कानून को अंगूठे पर लेकर घूमते हैं, बस वे ही नहीं डरते।'
'हां, वर्दी से तो हर आम आदमी का डरना लाजिमी है, नहीं तो वर्दी के पास काम ही क्या रह जाएगा। खैर, बाकी मामलों में तो आप निडर होंगे ही।'
'अरे कहां, उस दिन बिजली का बिल भरने में दो दिन लेट हो गया तो विभाग से दो कर्मचारी आ गए। डराने लगे कि चाय-पानी की व्यवस्था नहीं की तो चार-दिन अंधेरे में रहना होगा। तो डरकर चाय-पानी की व्यवस्था करनी पड़ी। अब क्या करें, डरना पड़ता है।'
'खैर, रिश्वत देने पर आपका बस नहीं। पर इस बात से तो खुश होते होंगे कि इस मामले में आप खुद तो बिंदास हो, अच्छे-भले ईमानदार हो। यह भी कम साहस का काम नहीं है।'
'ऐसा भी नहीं है। ऊपर वाले अफसरों के डर से थोड़ी बहुत रिश्वत लेनी पड़ती है। शुरू में मैंने मना किया तो बड़े साहब ने चमका दिया, तू स्साले, रिश्वत ना लेकर पूरे सिस्टम की वाट लगाना चाहता है? नौकरी करनी है कि नहीं? उसके बाद से डरकर रिश्वत लेने लगा।'
'अच्छा, पूजा करते हो या फिर...'। रिपोर्टर को अपनी चर्चा को सिस्टम पर से हटाकर धर्म पर लाना ज्यादा सुविधाजनक लगा। यह सवाल इसलिए भी परम आवश्यक था ताकि सामने वाले की धर्म-जाित का पता लग सके तो कुछ सवाल भी उसी के इर्द-गिर्द पूछे जा सकें।
'साहब, जरूरत पड़ने पर पूजा-पाठ ही करता हूं। कभी-कभी मंदिर भी चले जाता हूं।'
'चलो, कम से कम धर्म के मामले में आपको इस देश में कोई डर नहीं है। यह भी कम बात नहीं है।'
'अरे क्या खाक डर नहीं है!' आम आदमी कितना पक्का भीरू है, लगातार यही साबित करने पर उतारू है।
'क्यों?'
'चार दिन पहले की बात है। आप जानते ही हो कि मैं नियम-कायदों से डरने वाला आदमी हूं। सामने वाली सड़क के बीचों-बीच कुछ गायें खड़ी थीं। ट्रैफिक को रोक रही थीं। वैसे उसमें उन बेचारी गायों का कोई दोष नहीं था। तो मैंने सोचा कि चलो उनसे हटने की रिक्वेस्ट कर लेता हूं। मैं तो उन्हें बड़े ही प्यार से वहां से हटने का अनुरोध कर रहा था। लेकिन पता नहीं कहां से चार-छह गुंडे आ गए। वैसे प्योर गुंडे नहीं थे, मतलब गुंडे टाइप के थे। बस हाथों में लिए डंडों से गुंडे लग रहे थे। उन्हें लगा मैं गाय माताओं के साथ दुर्व्यहार कर रहा हूं। दो-चार लगा दिए।'
'पर आप तो पूजा-पाठी हों। आपको क्यों डरना चाहिए? बोल देते।'
'वो क्या था, उस दिन मेरी हल्की सी दाढ़ी थी। तो उन्हें गलतफहमी हो गई। कहने लगे, स्साले पहचान दिखा। अब मैं तो जनेऊ भी नहीं पहनता। एक कहने लगा, नंगा कर देते हैं स्साले को। अभी दूध का दूध पानी का पानी हो जाएगा। पर तभी पड़ोस से गुजरने वाले किसी परिचित ने आवाज लगा दी- शर्मा जी क्या हो रहा है? बस, उसी से बच पाया।'
'तो आप उस दिन लिंचिंग से बच गए। उसके बाद से ही अब दाढ़ी साफ कर ली। लगता है, जनेऊ भी पहन ली है। चलिए, ये डर भी अच्छा है। इससे अब कुछ डर कम हो सकेगा।'
'उम्मीद तो नहीं है।' एक डरा हुआ आम आदमी डरने की हर संभावना की तलाश मरने तक जारी रखता है।
'अच्छा, चार दिन पहले भोपाल में एक वेब सीरिज को लेकर भी हंगामा हुआ था। आपका तो छोटा मामला था, पर वह बड़ा मामला था तो खबर बन गई। खबर तो पढ़ी ही होगी ना?'
'बिल्कुल नहीं, मैं उस खबर में झांका तक नहीं। क्या पता अखबार से निकलकर ही दो-चार गुंडे, आई मीन गुंडे टाइप के लोग बाहर आ जाए और मैं जब तक अपनी पहचान बताऊं, दो-चार डंडे चला ही दे।' एक डरे हुए आम आदमी की सफलता इसी में है कि वह खबरों से भी डरने लगे।
'पर भाई, वे तो धर्म के रक्षक हैं। हमारे-तुम्हारे धर्म की रक्षा करने के लिए ही तो उन्हें डंडे उठाते पड़ते हैं। उनसे डरिए नहीं, उनका सम्मान करना सीखिए। अब देखिए, आगे से मप्र में जिस भी वेब सीरिज या फिल्म की शूटिंग होगी, फिल्म मैकर अपनी स्क्रिप्ट पहले सरकार को भेजेंगे और सरकार जो भी करेक्शन करने का आदेश देगी, उसका वे पूरा सम्मान करेंगे। आप भी सम्मान करना सीखिए शर्माजी। बेमतलब डर का नाम देकर देश को बदनाम ना कीजिए।' रिपोर्टर अक्सर इंटरव्यू लेते-लेते ज्ञान भी देने लग जाते हैं।
'जी सर, कोशिश करूंगा। पर अभी तो टाइम हो गया। अब प्लीज खतम करते हैं। लेट हो गया तो पत्नी की दो-चार बातें सुननी पड़ेंगी।'
'मतलब घर भी डरमुक्त नहीं! कितना डरेंगे आप?'
'बताया ना, आम आदमी पैदा ही डरने के लिए होता है।'
'बस एक आखिरी सवाल। कभी तो आप दूसरों को डराते होंगे? सालों में कभी-कभार?'
देर तक सोचने के बाद, 'हां, जब नेता वोट मांगने आते हैं। हालांकि जाति-धर्म के अनुसार वोट करने का एक प्रेशर हम पर रहता है। फिर भी तब लगता है कि कम से कम एक ताकत हमारे पास है। हां, हां याद आ गया।'
'इस ताकत को उस समय के लिए बचाकर रखिए। जब तक उनमें इस ताकत का डर रहेगा, तब तक डर का बैलेंस बना रहेगा।'
रिपोर्टर ने इस अंतिम ज्ञान के साथ अपना इंटरव्यू खत्म किया। लेकिन यह बेमतलब का ज्ञान शायद डरे हुए आम आदमी को रास नहीं आया। इसलिए वह कुछ देर तक विचलित भाव के साथ खड़ा रहा। फिर पत्नी याद आ गई तो सरपट दौड़ पड़ा घर की ओर।
(ए. जयजीत संवाद की अपनी विशिष्ट शैली में लिखे गए तात्कालिक ख़बरी व्यंग्यों के लिए चर्चित हैं। मूलत: पत्रकार जयजीत फिलहाल भोपाल स्थित एक प्रतिष्ठित मीडिया हाउस में कार्यरत हैं। प्रिंट, इलेक्ट्रॉनिक और डिजिटल मीडिया तीनों का उन्हें लंबा अनुभव रहा है।)
शुक्रवार, 15 अक्तूबर 2021
Humour : रात के अंधेरे में दो रावणों की मुलाकात!
ए. जयजीत
जैसे-जैसे विजयादशमी नज़दीक आती है, बड़े रावण की छोटे वाले से कोफ़्त बढ़ती जाती है। विजयादशमी के दिन तो वह फूटी आंख नहीं सुहाता। सोचता, यह जितनी जल्दी यहां से टले, उतना अच्छा। लाज़िमी भी है। मंच पर भाषण वो दे, समिति वालों को चंदा वो दे और सारा अटेंशन लूट ले जाए मैदान में खड़ा छटाक भर का रावण। कद बड़ा हुआ तो क्या हुआ, रावणत्व में तो छोटा ही है।
छोटे रावण ने कभी अपहरण कांड करके अपनी मतिहीनता का परिचय दिया था। अब
विजयादशमी की एक रात पहले ही छोटे वाले को निपटाने की प्लानिंग कर बड़ा रावण अपनी मतिहीनता
का परिचय दे रहा है।
बड़े रावण ने इस काम को सहयोगियों को सौंपने का जोख़िम नहीं लिया। आजकल
सहयोगियों का क्या भरोसा। कल विरोधियों के साथ मिलकर उसे सारे जहां में बदनाम कर दें।
बदनामी से ये अपने वाला बड़ा रावण नहीं डरता। एक से बढ़कर एक बदनामियां उसके खींसे में
हैं। लेकिन यह छोटी-सी बदनामी उसकी राजनीति पर दाग बन सकती है। वैसे तो दागों से भी
बड़े रावण का कोई दुराव नहीं। करप्शन से लेकर रैप टाइप के बड़े-बड़े दाग। लेकिन यह मामला
रिलेजियशली सेंसेटिव है। इसलिए किसी तरह का रिस्क लेना ठीक नहीं, यह सोचकर बड़ा रावण
विजयादशमी की एक रात पहले दशहरा मैदान में पसरी चुप्पी के बीच स्वयं ही मोर्चे पर जुट
गया। चुपचाप पेट्रोल की कैन हाथ में लिए सधे हुए कदमों से बीच मैदान में खड़े छोटे
रावण के पास पहुंच गया। कुंभकर्ण तो हमेशा ही तरह सो रहा था। उधर, इतने सालों से हर
साल मरते-मरते मेघनाथ भी किंकत्तर्व्यविमूढ़ हो चुका है। इसलिए वह भी 'कल मरना है तो
आज टेंशन क्यों लेना' टाइप की बातें सोचकर मजे से खर्राटे ले रहा था।
हमारे अपने इस बड़े रावण को वैसे भी कुंभकर्ण और मेघनाथ से कोई खास लेना-देना
नहीं था। उसे तो केवल छोटे रावण से ही इन्फीरियोरिटी कॉम्लेक्स रहा है। तो उसके निशाने
पर छोटा रावण ही था जो छोटा होने के बावजूद करीब 71 फीट ऊंचा था। छोटे रावण ने केवल
आंखें मूंद रखी थीं। उसकी आंखों में नींद कहां! बड़े रावण के कदमों की आहट सुनते ही
आंखें खोल लीं। नीचे छोटे कद के बड़े रावण को देखते ही बोल उठा- 'आओ गुरु, तुम्हारा
ही इंतज़ार कर रहा था।'
बड़ा रावण चौक गया। उसे छोटे रावण के बोलने से अचरज़ नहीं हुआ, पर अपनी
प्लानिंग का भांडाफोड़ होने का डर सताने लगा। बड़े रावण ने घबराकर पेट्रोल की कैन को
अपने सफेद कुर्ते के पीछे छिपाने की विफल कोशिश की।
'मुझे मारने की प्लानिंग, वह भी पेट्रोल से! इसे ही कहते हैं विनाश काले
विपरीत बुद्धि। मैं खुद एक बार इसका शिकार हो चुका हूं और उसी का ख़ामियाज़ा आज तक
भुगत रहा हूं। सोचो, मुझे समय से पहले मारने के मामले की अगर कल फोरेंसिक जांच हो जाती
तो तुम यूं ही फंस जाते। आखिर इन दिनों पेट्रोल कौन अफोर्ड कर सकता है? तुम जैसे गिने-चुने
लोग ही, जिनके पास ऑलरेडी कई-कई पेट्रोल पंप हैं।'
बड़े रावण ने चुपचाप पेट्रोल की कैन अपनी जिप्सी में रख दी। मन ही मन सोचा-
स्साला ऐसे ही ज्ञानी नहीं कहलाता है। और यह सोचकर छोटे रावण के प्रति उसका विषाद और
बढ़ गया। बड़ा रावण बखूबी जानता है कि वैसे तो उसने एक से एक नीच काम किए हैं, पर यह
धार्मिक आस्था का मामला है। खुलासा होते ही उसकी राजनीति ख़त्म समझो। कैन रखकर वापस
आने पर उसने अपनी सफाई देने की कोशिश की तो जबान लड़खड़ाने लगी। कोई कितना भी बेशर्म
हो, गलत काम पकड़ में आने पर शुरू में तो हकलाने का नैतिक साहस आ ही जाता है।
छोटा रावण बड़े रावण की चिंता समझ गया - 'मैं जानता हूं कि इतना नीच काम
तो तुमको ही शोभा देता है, फिर भी धर्म के मामले में तुमने यह गलती कैसे कर दी?'
इतना सुनते ही बड़ा रावण छोटे रावण के कदमों में गिर पड़ा - 'बताइए, मैं
आपकी क्या सेवा कर सकता हूं? बस, आज की इस घटना के बारे में किसी से कुछ मत कहना। पब्लिक
मेरे सौ गुनाह माफ़ कर सकती है, लेकिन धर्म के मामले में छोटी-सी गलती भी बर्दाश्त
नहीं करेगी। भाई साहब बचा लो। नहीं तो मेरी राजनीति डूब जाएगी।' बड़ा होकर भी छोटे को
कब भाई साहब कहना है, बड़े रावण इस मामले में ज्यादा ज्ञानी हैं।
'क्या कर सकते हो तुम?' छोटे रावण को थोड़ी दिल्लगी करने का मन हुआ। पूरी
रात बची थी। करता भी क्या तो सोचा कुछ टाइम पास ही कर लेते हैं।
'मैं आपके लिए सबकुछ कर सकता हूं। आपको अपने किसी रिश्तेदार के लिए कोई
एजेंसी-वेजेंसी चाहिए या किसी को दारू का ठेका दिलवाना हो तो बताइए।' बड़े रावण ने पहला
ऑफ़र पटका।
'मेरे दो प्रिय रिश्तेदार तो यहीं हैं। हमेशा की तरह ये भी कल मेरे साथ
ही जाएंगे।'
'फिर भी कोई भतीजा-भांजा। साला, बहनोई। अपन किसी को भी ओब्लाइज कर सकते
हैं। बस आप इशारा कीजिए।'
छोटा रावण चुप रहा। अंदर ही अंदर मंद-मंद अट्टहास करता रहा।
'या आप कहें तो आपकी यह रात सजा दूं? शराब-शबाब एक से बढ़कर एक। बताओ तो
सही।' बड़े रावण ने कुटिल मुस्कान के साथ कहा। काफ़ी अनुभवी रहे हैं इस मामले में बड़े
रावणजी।
अब छोटा रावण बड़े रावण की इस मूर्खतापूर्ण बात पर क्या कहें, मन ही मन
अट्टहास करने के सिवाय। इधर छोटे रावण की चुप्पी अब बड़े रावण को भयभीत कर रही है।
स्साला पता नहीं क्या चाह रहा है? लगता है ऑफ़र बढ़ाने होंगे।
'कोई केस हटवाना हो? रैप से लेकर मर्डर तक, कोई भी केस। किसी के भी ख़िलाफ़।
अपनी सब सेटिंग है। या किसी शत्रु के ख़िलाफ़ सीबीआई की कोई रेड डलवानी हो?' उसने एक
और ऑफ़र पटका।
छोटा रावण अब भी चुप है। बड़े रावण की बेचैनी बढ़ती जा रही है। और निकट आकर
उसने फुसफुसाते हुए कहा - 'इन दिनों अपन ड्रग्स के धंधे में भी आ गए हैं। भतीजा संभालता
है सबकुछ। बहुत चोखा धंधा है। आप कहो तो 15 टका आपका।'
इधर छोटा रावण भी बेचैन हो रहा है। बड़ा रावण नीच है, यह तो उसे पहले से
ही मालूम था, पर इतना नीच निकलेगा, इसका ज्ञान उस जैसे ज्ञानी को भी आज ही हुआ। उसने
कुंभकर्ण और मेघनाथ पर नज़रें दौड़ाई। यहां मैदान में इतनी बड़ी-बड़ी बातें हो रही हैं,
पर दोनों को कोई फिक्र नहीं। खर्राटे लेकर मजे से सो रहे हैं स्साले। काश मेघू ये सब
सुन पाता। गुस्से का तो शुरू से तेज रहा है। तो बड़े रावण का दहन यहीं इसी समय हो जाता।
पर क्या करें, सोने से फुर्सत मिले तब तो!
इधर बड़े रावण की बेचैनी का तो पूछो ही मत। 'भाई साहब, आप चाहते क्या हो?
खुद ही बता दो।' छोटे रावण को चुप देखकर एक और ऑफ़र पटका- 'चलिए, आपको पर्सनल फेवर नहीं
चाहिए, कोई बात नहीं। इन दिनों आपके लंकावालों की चीन के साथ बड़ी पींगे बढ़ रही हैं।
कोई गुप्त कागजात, नक्शे-वक्शे उपलब्ध करवाना हो तो वह बता दीजिए। आपके लिए यह भी करने
की कोशिश कर सकता हूं।'
बड़ा रावण और क्या करता। बेचारा कितनी कोशिश करता। ऑफ़र पर ऑफ़र। ऐसे ही सुबह
हो गई।
पौ फटते ही जब नाइट ड्यूटी वाले गार्ड्स आंखें मलते हुए मैदान पर आए तो
अनहोनी की ख़बर तुरंत समिति वालों को दी गई। समिति वाले भी आए तो छोटा रावण मैदान पर
आड़ा पड़ा हुआ था। बड़ी अनहोनी घट चुकी थी।
पहले तो गार्ड्स को फटकारा - स्सालो, सोते रहते हों! रात को क्या हुआ,
तुम्हें नहीं पता तो किसको होगा? फिर उन्होंने प्रश्नवाचक निगाहों से मेघनाथ की ओर
देखा। पर स्वयं मेघनाथ के चेहरे पर ही प्रश्नवाचक नज़र आया- पिताश्री हमसे पहले ही
कैसे निकल लिए? उधर कुंभकर्ण तो अब भी सो रहा था।
बहुत कोशिश की, लेकिन समिति वाले छोटे रावण को खड़ा नहीं कर पाए। समिति
के अध्यक्ष जो संयोग से डॉक्टर भी थे, ने कहा, रात को शायद कोई तगड़ा आघात लगा हो। इसलिए
अटैक आ गया होगा।
सचिव ने कहा - कोई बात नहीं सर। हम नेताजी से रिक्वेस्ट कर लेंगे। वे आड़े
रावण का ही अंतिम संस्कार कर देंगे। इस मामले में बड़े नेक हैं।
अब यह हकीकत शायद ही किसी को पता चले कि छोटे रावण ने सुबह होते-होते अपनी
दिव्य शक्तियों के बल पर सुसाइड कर लिया था।
(ए. जयजीत संवाद की अपनी विशिष्ट शैली में लिखे गए तात्कालिक ख़बरी व्यंग्यों के लिए चर्चित हैं। मूलत: पत्रकार जयजीत फिलहाल भोपाल स्थित एक प्रतिष्ठित मीडिया हाउस में कार्यरत हैं। प्रिंट, इलेक्ट्रॉनिक और डिजिटल मीडिया तीनों का उन्हें लंबा अनुभव रहा है।)
शनिवार, 9 अक्तूबर 2021
Satire : आजम खान की उसी भैंस का एक्सक्लूसिव इंटरव्यू जो मंत्री पुत्र की तरह "मिसिंग' हो गई थी!
By Jayjeet
केंद्रीय मंत्री अजय मिश्र के पुत्र के मिसिंग होने की खबर क्या आई, उसमें वैल्यू एडिशन करने के चक्कर में रिपोर्टर पहुंच गया सीधे उसी वर्ल्ड फेमस भैंस के पास जिसे उप्र की पुलिस ने सालों पहले बड़ी मशक्कत के बाद ढूंढ निकाला था। आजम साहब की तरह आज भैंस भी बूढ़ी हो चुकी है, वैसी निस्तेज भी। पर रिपोर्टर को देखते ही पूछा-
भैंस : क्यों आए हो भैया?
रिपोर्टर : मैं रिपोर्टर।
भैंस : रिपोर्टर हो, यह तो शक्ल-सूरत से ही पता चल जाता है। पर आए क्यों हो? दूहने के लिए कुछ ना बचा मेरे पास।
रिपोर्टर : मैं जानता हूं, आपमें और देश में कोई अंतर नहीं रहा है।
भैंस : गलत बात। देश पर नेताओं-अफसरों का भरोसा बाकी है। अब भी उसमें बहुत कुछ बाकी है दूहने के लिए। इसीलिए अपनी दूसरी पीढ़ी के भी हाथ मजबूत करने में लगे हैं ताकि दोहते-दोहते जान चली जाए, पर हाथ ना थके। खैर, मुद्दे पर आओ।
रिपोर्टर : आपने तो दूसरी पीढ़ी की बात कहकर मेरे लिए बात आसान कर दी। मैं माननीय मंत्रीजी के उस सुपुत्र के संदर्भ में ही आपसे चर्चा करने आया हूं जिसे उप्र पुलिस अब तक ढूंढ नहीं पाई है। किसी जमाने में आपने भी पुलिस की नाक में दम कर दिया था। अपने अनुभव बताइए ना जरा।
भैंस : (शर्माते हुए) अब क्या बताऊं। वो तो मैं भैंस कुमार के चक्कर में जरा घर से बाहर निकल गई थी। वह पूरा मामला पर्सनल था, पर मंत्रीजी की भैंस होने के कारण पब्लिक हो गया था। फिर शर्मिंदगी से बचने के लिए मेरी चोरी और मिसिंग की रिपोर्ट दर्ज करवानी पड़ी।
रिपोर्टर : तो फिर पुलिस ने आपको ढूंढा कैसे?
भैंस : हूम..पुलिस क्या खाक ढूंढती। वो तो मुझे पता चला कि पुलिस हमारी ही किसी दूसरी बहन के साथ मारपीट कर उससे यह कबूलवाने की कोशिश कर रही थी कि वह वही भागी हुई भैंस यानी मैं हूं। यह अन्याय मैं कैसे देख सकती थी! तो पुलिस के पास खुद ही आ गई।
रिपोर्टर : पर आरोप यह है कि जब आप मिसिंग हुई थी तो आपको ढूंढने के लिए उप्र का पूरा पुलिस महकमा लग गया था। और अब मंत्री पुत्र मिसिंग है तो पुलिस हाथ पर हाथ धरकर बैठी है। कुछ ना कर रही।
भैंस : आप पत्रकारों की यही दिक्कत है। दूसरों ने आरोप लगा दिया और आपने मान लिया। भाई, यहां भी तो पूरा महकमा लगा है मंत्री पुत्र के लिए। वो जिस बंगले में ठहरा है, उसके आसपास भारी संख्या में पुलिस बल तैनात कर रखा है। उससे बाहर आने का सविनय अनुरोध किया गया है। जल्दी ही बाहर आ जाएगा। अब अगर पुलिस जोर-जबरदस्ती करती तो तुम्हीं लोग उसका इश्यू बना देते।
रिपोर्टर : पर वो तो आरोपी है। उसकी इतनी सुरक्षा?
भैंस : पुलिस के लिए वह केवल मंत्री पुत्र है। आरोप है तो कोर्ट को तय करने दो। बेचारी पुलिस को क्यों इस झमेले में डाल रहे हो। वह अपना कर्त्तव्य निभा रही है, उसे निभाने दो।
रिपोर्टर : आपको पुलिस के साथ बड़ी हमदर्दी है?
भैंस : जिस दिन आप वीआईपी बन जाआगे तो उस दिन से आपको भी पुलिस के साथ पूरी हमदर्दी हो जाएगी। पुलिस को समझना हर किसी के लिए आसान नहीं है। वीआईपी या वीआईपी पुत्र या वीआईपी भैंस बनकर ही पुलिस को समझा जा सकता है। आप जैसे आम आदमी टाइप के लोग क्या समझोगे। अब फिनिश कीजिए, मेरे ख्याल से आपका वैल्यू एडिशन हो गया होगा। टीवी चैनलों से फोन आने लगे हैं।
(ए. जयजीत संवाद की अपनी विशिष्ट शैली में लिखे गए तात्कालिक ख़बरी व्यंग्यों के लिए चर्चित हैं। मूलत: पत्रकार जयजीत फिलहाल भोपाल स्थित एक प्रतिष्ठित मीडिया हाउस में कार्यरत हैं। प्रिंट, इलेक्ट्रॉनिक और डिजिटल मीडिया तीनों का उन्हें लंबा अनुभव रहा है।)
गुरुवार, 7 अक्तूबर 2021
Satire : मसख़रे ना होते तो भारतीय राजनीति का क्या होता?
By जयजीत
हम मसख़रों पर हंस सकते हैं, लेकिन उनकी अवहेलना नहीं कर सकते। क्योंकि इसका मतलब होगा देश की पूरी राजनीति और लोकतंत्र को ख़तरे में डाल देना। याद रखें, उन्हें लोकतंत्र को गाहे-बगाहे ख़तरे में डालने का अधिकार है, हमें नहीं। तो हम क्या करें? एक मसख़रे से बात ही कर लेते हैं।
- आप मसख़रे होकर भी राजनीति में हैं?
- (जोरदार ठहाका) बर्बाद गुलिस्तां करने को बस एक ही मसख़रा काफ़ी था, यहां तो मसख़रों की दुकान सजी है...। भाई, राजनीति में जिधर देखो, उधर मसख़रे ही मसख़रे हैं और तुम पूछ रहे हो मैं मसख़रा होकर भी राजनीति में क्यों हूं? इससे वाहियात सवाल नहीं हो सकता था क्या? मैं मसख़रा हूं, इसीलिए तो राजनीति में हूं।
- मतलब आप यह कहना चाहते हैं कि मसख़रा होना भी राजनीति की एक योग्यता है?
- (फिर जोरदार ठहाका) मसख़रा होना भी? अरे भाई, मसख़रा होना ही राजनीति की अनिवार्य योग्यता है। आज से नहीं हमेशा से यह अनिवार्य योग्यता रही है। मैं बहुत सारे नाम गिनवा सकता हूं, पर इसलिए नहीं गिनवा रहा हूं क्योंकि जिनके नाम नहीं लूंगा, उनके समर्थक-भक्त बुरा मान जाएंगे कि हमारे नेता का नाम क्यों नहीं लिया। क्या वे मसख़री में किसी से कम थे!
- आप एक अलग तरह के मसख़रे हैं और आपके जो विरोधी हैं, वे अलग तरह के मसख़रे हैं। तो मसख़रे-मसख़रे में भी अंतर होता है?
- (इस बार ठहाका नहीं) वैसे तो मसख़रों को बांटना नहीं चाहिए। मसख़रे धर्म-जात-पांत के भेदभाव से परे होते हैं। उनका मसख़रा होना ही पर्याप्त होता है। पर चूंकि बांटना हम नेताओं की फितरत होती है तो हमने मसख़रों को भी दो वर्गों में बांट रखा है। एक मसख़रे वे होते हैं जो पैदाइशी ही मसख़रे होते हैं। मसख़रापना उनके लिए गॉड गिफ्टेड की तरह होता है। ऐसे मसख़रे राजनीति में बड़े सहज होते हैं, बल्कि कहना चाहिए राजनीति उनके साथ कहीं ज्यादा सहज और सुरक्षित महसूस करती है। दूसरे प्रकार के मसख़रे वे होते हैं, जिनका जन्म तो सामान्य मनुष्य की तरह होता है। लेकिन उन्हें मसख़रा बनने के लिए कड़ी मेहनत करनी पड़ती है। जैसे-जैसे इनका मसख़रापना बढ़ता और निखरता जाता है, राजनीति में ये ऊंचे पायदानों पर पहुंचते जाते हैं। हमारी राजनीति में अधिकांश मसख़रे इसी श्रेणी के हैं।
- यह फर्जीवाड़े का दौर है। हर तरफ़ फेक ही फेक नज़र आता है। तो क्या इन दिनों राजनीति में फेक मसख़रों का ख़तरा बढ़ नहीं गया है?
- सच्चाई छुप नहीं सकती बनावट के उसूलों से। कि खुशबू आ नहीं सकती कभी कागज़ के फूलों से। यह शेर सुना ही होगा। यही स्थिति फेक मसख़रों के साथ होती है। राजनीति में ऐसे फेक मसख़रे ज्यादा दिन नहीं टिकते। जरा-सा गंभीर होते ही उनका फर्जीवाड़ा सामने आ जाता है। राजनीति के सच्चे मसख़रे केवल ईमानदारी की बात करते हैं, सिद्धांतों की बात करते हैं, अपने राज्य की प्रतिष्ठा की बात करते हैं, भ्रष्टाचार को मिटाने की बात करते हैं। अपनी इन बातों पर थोड़ा-सा भी अमल करते ही उनका पर्दाफाश हो जाता है। समझ लीजिए ऐसे फेक मसख़रे देश-समाज के लिए बड़े घातक हैं और हम सभी को इनसे बचकर रहने की ज़रूरत है। वैसे ईमानदारी की बात यह भी है कि भले ही हर जगह फेक चीजें बढ़ रही हैं, लेकिन राजनीति में फेक मसख़रे कम हो रहे हैं। अब तो कॉम्पीटिशन इस बात को लेकर है कि मेरा मसख़रापना तेरे मसख़रेपने से कितना खरा। इस बात पर ठोंको ताली।
- राजनीति में मसख़रेपने के क्या फायदे हैं?
- फायदे ही फायदे हैं। इसीलिए तो राजनीति में हर कोई मसख़रा होने के लिए मरा जाता है। इसका सबसे बड़ा फायदा तो यही है कि कोई भी आपको गंभीरता से नहीं लेता। गंभीरता से नहीं लेने के अनेक फायदे हैं। आप बिना बात के भी जोर-जोर से हंस सकते हैं। आपके इस हंसने पर भी कोई आप पर हंसेगा नहीं। आप कैसी भी शेरो-शायरी सुना सकते हैं। उसे सुनकर कोई अपने बाल नहीं नोंचेगा। आप चाहे बात-बात में तालियां बजा या बजवा सकते हैं। इसमें भी बेनिफिट ऑफ डाउट आपको ही जाएगा क्योंकि आप तो मसख़रे हैं।
- लेकिन जब आपको कोई गंभीरता से नहीं लेगा तो हाईकमान भी आपको गंभीरता से क्यों लेगा?
- (इस बार जोर का ठहाका) क्या कभी उल्लू को रात में सोते देखा है, क्या कभी मछलियों को साबुन से नहाते देखा है? अरे हाईकमान किसी भी पार्टी का हो, क्या उसे गंभीर होते देखा है? लगता है आपके पास सवाल खत्म हो गए हैं। अगर कोई हाईकमान में बैठा है तो वह मसख़रेपन की तमाम स्टेजों को पार करके ही तो वहां पहुंचा होगा ना। सिम्पल बात, लेकिन सिम्पल बातें ही आजकल बड़ी काम्प्लीकैटेड हो गई हैं।
- आखिरी सवाल। अगर आप मसख़रे ना होते तो क्या होते?
- यह तो वैसा ही सवाल है कि अगर कमला की मूंछे होतीं तो वह क्या होती? तो वह कमला नहीं, कमल होती। अगर मैं मसख़रा ना होता तो यूं आपके सामने ना होता। आप जनाब यूं मुझसे सवाल ना पूछ रहे होते। मैं भी आप जैसे आम लोगों की भीड़ का हिस्सा रहा होता। इसलिए मसख़रों को गंभीरता से लेना सीखिए। सवाल तो यह बनता है कि मसख़रे ना होते तो भारतीय राजनीति का क्या होता? चूंकि आपने यह पूछा नहीं तो इसका जवाब भी मैं नहीं दूंगा। आप खुद ही अंदाजा लगा लीजिए। ताली ठोंकिए और मुझे अनुमति दीजिए।
(ए. जयजीत संवाद की अपनी विशिष्ट शैली में लिखे गए तात्कालिक ख़बरी व्यंग्यों के लिए चर्चित हैं। मूलत: पत्रकार जयजीत फिलहाल भोपाल स्थित एक प्रतिष्ठित मीडिया हाउस में कार्यरत हैं। प्रिंट, इलेक्ट्रॉनिक और डिजिटल मीडिया तीनों का उन्हें लंबा अनुभव रहा है।)
रविवार, 19 सितंबर 2021
Satire : ग्राउंडवॉटर रिचार्ज करेंगी मप्र की ये सड़कें
By Jayjeet
मेरे शहर में दो सड़कें हैं। वैसे तो कई सड़कें हैं, लेकिन आज हम इन दो सड़कों की बात ही करेंगे। एक ख़ास सड़क है। वह उतनी ही ख़ास है जितना कि ख़ास कोई नेता या अफ़सर या जज या इनकी पत्नियां होती हैं। इसे कहने को वीआईपी रोड कह सकते हैं। वैसे ये ख़ास रोड है तो हुजूर, सरकार, जी मालिक, जी मालकिन टाइप के संबोधन अधिक फबते हैं। दूसरी आम सड़क है। ऐसी आम सड़कों की भरमार है। जिधर देखो उधर आम ही आम सड़कें। यह वैसी ही आम है, जैसे मैं और आप। चूंकि ये आम सड़क है तो आप इन्हें प्यार से अबे, ओए, स्साली जैसा कुछ भी कह सकते हैं। ये बुरा नहीं मानती हैं। आप इन पर थूक सकते हैं, कचरा फेंक सकते हैं। टेंट गाढ़ने के लिए कुदाली चला सकते हैं। मतलब वह सबकुछ कर सकते हैं, जो आप करना चाहें। बड़ी सहिष्णु होती हैं ये आम सड़कें। उफ्फ तक नहीं करतीं।
ये दोनों तरह की सड़कें किसी भी शहर में हो सकती हैं। होती ही हैं। ख़ासकर राजधानियों में। तो फिर आज अचानक इनकी याद कैसे आ गई? बताते हैं हम...
दरअसल, हुआ यूं कि चलते-चलते अचानक ख़ास और आम सड़क की मुलाकात हो गई। ख़ास सड़क ने बाजू ने गुजरती हुई आम सड़क को रोककर हालचाल पूछे। यह कोई मामूली बात है भला! वैसे हालचाल पूछे तो कुछ तो ख़ास बात होगी। कोई ख़ास यूं ही आम टाइप की चीजों से राब्ता नहीं बनाता...
'और कैसी हो आम सड़क?' ख़ास सड़क ने थोड़ी विनम्रता और थोड़े एटीट्यूड के साथ पूछा।
'ठीक ही हूं हुजूर। आज कैसे याद किया?' आम सड़क ने उतनी ही मिमियाती हुई आवाज में पूछा जितना कि एक आम से अपेक्षित होता है।
'इन दिनों तो बड़े जलवे हैं। हर जगह तुम्हारी ही चर्चा है। सुंदर-सुशील महिलाएं कैटवॉक कर रही हैं। अखबारों में तस्वीरें छपी थीं। देखी थी मैंने।' ख़ास सड़क ने बड़े ही ख़ास अंदाज में कहा।
यह एक सहज गुण है कि कभी किसी दिन गरीब को दो जून की रोटी से एक रोटी भी ज्यादा मिल जाती है तो अमीर के पेट में दर्द-सा उठ जाता है। ख़ास सड़क भी इससे परे नहीं है। दिनभर ख़ासों के साथ रहते-रहते यह ख़ासियत भी आ गई है उसमें।
'वो तो बस यूं ही...।' आम सड़क शर्म से तनिक गुलाबी लाल हो गई। फिर जोड़ा, 'मुझ पर से जो भी गुजरेगा, वह ऐसा ही लगेगा कि कैटवॉक कर रहा है। वे महिलाएं तो सिंपली मुझ पर चलकर गई थीं, लेकिन उनकी वह वॉक ही कैटवॉक बन गई। अख़बारों में तस्वीरें छप गईं। अब देखिए ना उस ऑटो को। देखो तो, कैसे बचता-बचाता चला आ रहा है और ऐसा लग रहा है कि कैटवॉक कर रहा है। सब बरसाती गड्ढों की महिमा है।'
'हूम....।'
ख़ासों के साथ रहते-रहते ख़ास सड़क भी हूम, हम्म करना सीख गई है। जब कुछ जवाब नहीं सूझता तो हूम, हम्म से अच्छा कोई जवाब नहीं होता। ऐसे जवाब अक्सर ख़ास लोगों के मुंह से झरते रहते हैं। बहुत सुंदर लगते हैं। देखिएगा कभी ध्यान से...
'वैसे शिवराज भैया जब चार साल पहले अमेरिका गए थे और कहा था कि अमेरिका की सड़कों से अच्छी तो हमारे यहां की सड़कें हैं तो वे आपकी ही तो बात कर रहे थे।' आम सड़क ने भी अपनी तारीफ़ के जवाब में ख़ास सड़क की तारीफ़ कर बात आगे बढ़ाई।
'हां, वो तो है।' एक हल्की-सी मुस्कान ख़ास के चिकने-चुपड़े चेहरे पर तैर गई। पर बरसाती गड्ढों को देखकर मुस्कान फिर रश्क में बदल गई। इसी ईर्ष्या में गड्ढों को लेकर सुनी-सुनाई बात उसकी जुबान पर आ गई - 'सुना है तुम्हारे इन गड्ढों को लेकर सरकार एक पायलट प्रोजेक्ट पर काम कर रही है!'
'अब ख़ास लोगों के साथ तो आप ही रहती है। तो आपने सही ही सुना होगा। हम क्या कहें। पर गड्ढों पर पायलट प्रोजेक्ट, यह क्या नया तमाशा है?' आम सड़क हो या आम आदमी, उसके लिए सभी प्रोजेक्ट तमाशे से ज्यादा नहीं होते।
'एक्चुअली, कल दो अफ़सर अपनी कार में बैठकर जा रहे थे और तुम्हारे इन्हीं गड्ढों के बारे में बात कर रहे थे। कह रहे थे कि गड्ढों से ग्राउंड वॉटर रिचार्ज करने के प्रोजेक्ट को सरकार ने स्वीकार कर लिया है। बारिश में इन गड्ढों का इस्तेमाल भूजल स्तर में बढ़ोतरी के लिए किया जाएगा।'
'अच्छा? और क्या कह रहे थे?' आम सड़क की दिलचस्पी अचानक उसी प्रोजेक्ट में जाग गई है जिसे वह कुछ देर पहले तमाशा कह रही थी।
'कह रहे थे कि अब सरकार ठेकेदारों को उसी तरह की सड़कें बनाने को पाबंद करेगी जो पहली बारिश में ही पर्याप्त गड्ढेयुक्त हो जाए।'
'हां, यह तो ठीक रहेगा। अभी दो-तीन बारिश का पानी यूं ही बह जाता है। तब जाकर थोड़े बहुत गड्ढे होते हैं। सेटिस्फैक्टरी गड्ढे होने में तो आधा मानसून ही बीत जाता है। पर इस प्रोजेक्ट से सरकार को क्या फायदा होगा?'
हां, मुद्दे की बात तो थी ही। आखिर सरकार को इससे क्या फायदा होगा? क्यों अफ़सर, बड़े अफ़सर, मिनिस्टर, हेड ऑफ मिनिस्टर्स जैसे लोग इतनी मेहनत करें। उनके पास तो जनहित के और भी कई काम होते हैं।
'अफ़सर कह रहे थे कि जब प्रोजेक्ट लागू हो जाएगा तो झीलों-तालाबों में पानी इकट्ठा करने की ज़रूरत ख़त्म हो जाएगी। पूरा पानी जब सीधे ज़मीन के भीतर ही चला जाएगा तो झील-तालाब की ज़मीनों का इस्तेमाल बिल्डरों के कल्याण कार्य हेतु किया जा सकेगा।' ख़ास सड़क ने बात ख़त्म की। दरअसल, यही बताने के लिए ही तो ख़ास सड़क ने आम सड़क से बात शुरू की थी। गॉसिप्स किसी के भी पेट में टिकते नहीं, फिर वह इंसान हो या सड़क अथवा ख़ास हो या आम।
'वॉव! आज पहली बार मुझे आम सड़क होने पर गर्व हो रहा है।' आम सड़क ने केवल सोचा, लेकिन कहा नहीं। क्या पता, ख़ास सड़क बुरा मान जाए।
ख़ास सड़क पहली बार अपनी किस्मत को कोस रही है। वह गड्ढेयुक्त होती तो यह प्रोजेक्ट खुद ही हथिया लेती। हालांकि कहा उसने भी कुछ नहीं। मन मसोसकर रह गई।
दोनों ने अपनी-अपनी राह ली।
(ए. जयजीत संवाद की अपनी विशिष्ट शैली में लिखे गए तात्कालिक ख़बरी व्यंग्यों के लिए चर्चित हैं। मूलत: पत्रकार जयजीत फिलहाल भोपाल स्थित एक प्रतिष्ठित मीडिया हाउस में कार्यरत हैं। प्रिंट, इलेक्ट्रॉनिक और डिजिटल मीडिया तीनों का उन्हें लंबा अनुभव रहा है।)
शनिवार, 18 सितंबर 2021
पुलिस ने कानून के लंबे हाथ तो ठाकुर को लौटा दिए ...!
बीते दिनों मप्र के एक शहर में 800 से भी अधिक पुलिसकर्मियों ने मार्चपास्ट किया। मकसद अपराधियों में ख़ौफ़ पैदा करना था। इससे अपराधियों में ख़ौफ़ पैदा हुआ होगा, ऐसा माना जा सकता है क्योंकि जिन क्षेत्रों के टीआई, पुलिसकर्मी इत्यादि उस रैलीनुमा मार्चपास्ट में शामिल हुए, उन क्षेत्रों में उस दिन एक भी अपराध न होने की ख़बर है। ख़बर के अलग-अलग अर्थ लगाने को पाठक स्वतंत्र हैं।
ख़ैर, वह वाकई बड़ा दिन था, कम से कम उस नए-नवेले रिपोर्टर के लिए। तो उसने रैली की व्यवस्था में लगे एक बड़े-से अफ़सर से बड़ी ही मासूमियत से पूछ लिया- "इतने सारे पुलिसकर्मी एक साथ क्यों? ख़ौफ़ पैदा करने के लिए तो आपका एक ठुल्ला ही काफ़ी होता है। हमारी बस्ती में आता है तो बहू-बेटियां घरों के अंदर हो जाती हैं। गली किनारे ठेले-खोमचे लगाने वाले सैल्यूट ठोंकने लगते हैं। पनवाड़ी पान लिए सेवा में पहुंच जाते हैं।' कच्चे से रिपोर्टर ने अपना टुच्चा-सा अनुभव उस अफ़सर के साथ शेयर किया।
अफ़सर अनुभवी था। इसलिए नए-नवेले रिपोर्टर की इतनी बेवकूफी भरी बात का भी उसने मजाक नहीं उड़ाया। ठुल्ला शब्द का भी बुरा नहीं माना। बस मुस्कुरा कर कहा - 'देखिए, आप जैसों की बस्तियों में ख़ौफ़ पैदा करने के लिए हमारा एक जवान तो क्या, उसका डंडा भी पहुंच जाए तो शरीफ़ लोग दंडवत हो जाते हैं। लेकिन बड़े अपराधियों में ख़ौफ़ के लिए बड़ा मार्चपास्ट जरूरी होता है। इससे उन्हें यह संदेश मिलता है कि राज तो कानून का ही चलेगा, भले ही कोई भी चलाएं। इससे अगले कुछ दिनों तक बड़े अपराधी, माफ़िया टाइप के सभी लोग कानून का विधिवत पूरा सम्मान करने लगते हैं। ख़ौफ़ बिन सम्मान नहीं, आपने सुना ही होगा। और जैसे ही सम्मान कम होता है, हम फिर मार्चपास्ट निकालकर थोड़ा बहुत ख़ौफ़ भर देते हैं।'
नए-नवेले रिपोर्टर ने दूसरा मूर्खतापूर्ण सवाल फेंका - 'पूरे शहर भर के पुलिस वालों को आपने एक जगह एकत्र कर लिया है। अगर किसी दूसरी जगह पर कोई क्राइम वगैरह हो गया तो आप क्या करेंगे? क्या यह मिस मैनेजमेंट नहीं है?'
अफ़सर, जो ऑलरेडी बहुत ही अनुभवी था और कई तरह की डील करते-करते इस तरह के मूर्खतापूर्ण सवालों को डील करना अच्छे से सीख चुका था, ने इस बार भी इस सवाल का मजाक नहीं उड़ाया। पर इस बार मुस्कुराया भी नहीं। गुस्से को पीते हुए उसने बड़ी ही गंभीरता से कहा - 'क्राइम कब होता है? जब वह दर्ज़ होता है। दर्ज़ कब होता है? जब पुलिस दर्ज़ करती है। जब पुलिस ही नहीं होगी तो क्राइम दर्ज़ कौन करेगा? और जब क्राइम दर्ज़ ही नहीं होगा तो क्राइम कहां से हो जाएगा? अपराधों और अपराधियों के मैनेजमेंट का यह सिंपल-सा फंडा है।'
बात तो बहुत सिंपल थी। पर रिपार्टर के समझ से परे थी। तो उसने अगला सवाल दागा जो उतना ही मूर्खतापूर्ण था, जितने पहले के दो सवाल थे। सुनिए - 'कानून-व्यवस्था के हाथ तो बड़े लंबे होते हैं। तो रैली निकालने की क्या ज़रूरत? बैठे-बैठे ही कानून अपने लंबे हाथों से अपराधियों को नहीं पकड़ सकता?'
अफ़सर कितना भी अनुभवी क्यों न हो, उसके धैर्य की भी सीमा होती है। अफ़सर चाहता तो इस सवाल पर अपने बाल नोंच सकता था, पर उसने ठहाके लगाने का ऑप्शन चुना। अब ठहाका, वह भी एक बड़े पुलिस अफ़सर का तो ऐसा ही होता है। इसमें उस अफ़सर की कोई गलती नहीं। पर क्या करें? रिपोर्टर ठहरा नया-नवेला, कोई शातिर-अनुभवी अपराधी तो नहीं कि ऐसे जालिम ठहाकों में वह भी ठहाके से ठहाका मिलाकर साथ दे। तो उस भयावह ठहाके से रिपोर्टर का दिल दहलकर वाइब्रेशन मोड में पहुंच गया। दो-चार मिनट में माहौल वाइब्रेशन मोड से नॉर्मल मोड में वापस आया तो रिपोर्टर का दिल भी सामान्य हुआ। उसने बड़ी मासूमियत के साथ अफ़सर की ओर देखा, इस उम्मीद के साथ कि उसे अपने उस सवाल जो बेशक मूर्खतापूर्ण था, का जवाब मिलेगा। लेकिन अफ़सर तो जवाब दे चुका था और अगले मूर्खतापूर्ण सवाल के इंतज़ार की मुद्रा में था।
पर रिपोर्टर अब भी अपने उसी मूर्खतापूर्ण सवाल पर अटका है। 'पर सर, कानून के हाथ ऑलरेडी इतने लंबे हैं तो पुलिस जवानों को पैर लंबे करने की क्या जरूरत थी?'
'देख भाई...' अफ़सर अब 'देखिए' से 'देख' पर और 'आप' से 'तुम' पर आ रहा है। संकेत साफ़ है कि मूर्खतापूर्ण सवाल कुछ ज्यादा ही हो रहे हैं। फिर भी जो पूछा है, उसका जवाब वह यथासंभव शालीनता से देने की कोशिश कर रहा है- 'देश की मूल समस्या ही यही है। तुम लोगों को कानून के लंबे-लंबे हाथ तो नज़र आते हैं, लेकिन यह भी देखो कि वे लंबे हाथ आपस में ही कितने उलझे हुए हैं। इसलिए बार-बार लंबे हाथों की दुहाई मत दो यार। ये हाथ अब हमारे किसी काम के नहीं हैं। हमने ठाकुर को लौटा दिए हैं...।' एक शॉर्ट टर्म ठहाका। अफ़सर अनुभवी है जो जानता है कि अपनी किसी तात्कालिक मूर्खतापूर्ण बात को किस तरह ठहाके में उड़ाया जा सकता है।
रिपोर्टर अब भी प्रश्नवाचक मुद्रा में है। उसकी मुद्रा को देखते हुए पुलिस अफसर ने बात पूरी की, 'इसलिए हम पैर फैलाने पर फोकस कर रहे हैं। मार्चपास्ट को उसी प्रोजेक्ट का हिस्सा मान लो, और क्या!'
'लेकिन पुलिस के कानून वाले लंबे हाथ तो रहे नहीं, जैसा आप कह रहे हैं। तो केवल पैर फैलाने से अपराध कैसे कम हो जाएंगे? नए-नवेले रिपोर्टर के इंटरव्यू का अंतिम समय निकट ही है।
'हमने कब कहा कि इससे अपराध कम हो जाएंगे? हम तो बस अपराधियों में ख़ौफ़ पैदा करने की बात कर रहे हैं। वही तो हमारा मकसद है।'
मार्च-पास्ट ख़त्म होने जा रही है। फिर ड्यूटी पर लगना है। तो अफ़सर के पास टाइम-पास का टाइम भी ख़त्म हुआ। नया-नवेला रिपोर्टर अब भी हेडलाइन की तलाश में है।
(ए. जयजीत संवाद की अपनी विशिष्ट शैली में लिखे गए तात्कालिक ख़बरी व्यंग्यों के लिए चर्चित हैं। मूलत: पत्रकार जयजीत फिलहाल भोपाल स्थित एक प्रतिष्ठित मीडिया हाउस में कार्यरत हैं। प्रिंट, इलेक्ट्रॉनिक और डिजिटल मीडिया तीनों का उन्हें लंबा अनुभव रहा है।)
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