ए. जयजीत
अगर देश के गृह मंत्री बोल रहे हैं कि अब किसी को डरने की जरूरत नहीं है तो फिर वाकई डरने की जरूरत नहीं ही होगी, सिद्धांत: ऐसा माना जा सकता है। पर ऐसे भी कैसे मान लें? इसकी ग्राउंड लेवल पर पुष्टि भी तो जरूरी है। तो यही पुष्ट करने के लिए रिपोर्टर सीधे पहुंच गया एक आम आदमी के पास। इतिहास गवाह है कि सबसे ज्यादा डर तो आम आदमी को ही लगता है। इसलिए डर के लेवल के बारे में असली पुष्टि आम आदमी से ही हो सकती थी।
'आप रिपोर्टर ही हो, इस बात की क्या गारंटी?' इधर-उधर देखकर आम आदमी ने पूछा। वह इंटरव्यू से बचने का कोई न कोई रास्ता तलाश रहा है। बेमतलब का लफड़ा नहीं चाहता।
'अजी इतना भी मत डरिए। मैं कोई पेगासस का जासूस नहीं हूं। बस, दो-चार सवाल पूछने हैं। अनुमति हो तो पूछ लूं।'
'अब अनुमति देने वाले हम कौन! हमसे कौन अनुमति लेता है! पूछ लीजिए। पर नाम मत छापना।' अंतत: नाम न छापने की शर्त पर आम आदमी डरते-डरते चर्चा के लिए राजी हुआ।
'हमारे केंद्रीय गृह मंत्रीजी ने कहा है कि अब लोगों को डरने की जरूरत नहीं है। कश्मीर में उन्होंने अपना बुलेटप्रूफ ग्लास तक निकाल फेंका था। तो जब देश के गृह मंत्री ऐसा कह रहे हैं तो कुछ तो डर कम हुआ होगा?' रिपोर्टर तुरंत अपने मूल सवाल पर आया।
'भाई साहब, कहां मुझ जैसे दो टके के आम आदमी के डर से गृह मंत्रीजी की निडरता की तुलना कर रहे हो! हम आम लोग तो पैदाइशी ही डरे हुए होते हैं।'
'वो तो देख ही रहा हूं। आप कुछ कांप से रहे हैं। कहीं से कुछ ताजे डरे हुए लगते हो।'
'क्या बताएं। कल रात को मोहल्ले में कुछ वर्दीवाले आए थे। किसी चोरी की गाड़ी के बारे में आम लोगों से तफ्तीश कर रहे थे, इतनी भयंकर वाली कि क्या बताएं। बस, उसी डर के थोड़े-बहुत अवशेष अब भी बाकी हैं। इसीलिए पैर कांप रहे हैं।'
'पर आप तो कानून की इज्जत करने वाले आम आदमी हो। आपको क्या डर?'
'भाई साहब, कानून की इज्जत करने वाले को ही वर्दी से डरना पड़ता है। जो कानून को अंगूठे पर लेकर घूमते हैं, बस वे ही नहीं डरते।'
'हां, वर्दी से तो हर आम आदमी का डरना लाजिमी है, नहीं तो वर्दी के पास काम ही क्या रह जाएगा। खैर, बाकी मामलों में तो आप निडर होंगे ही।'
'अरे कहां, उस दिन बिजली का बिल भरने में दो दिन लेट हो गया तो विभाग से दो कर्मचारी आ गए। डराने लगे कि चाय-पानी की व्यवस्था नहीं की तो चार-दिन अंधेरे में रहना होगा। तो डरकर चाय-पानी की व्यवस्था करनी पड़ी। अब क्या करें, डरना पड़ता है।'
'खैर, रिश्वत देने पर आपका बस नहीं। पर इस बात से तो खुश होते होंगे कि इस मामले में आप खुद तो बिंदास हो, अच्छे-भले ईमानदार हो। यह भी कम साहस का काम नहीं है।'
'ऐसा भी नहीं है। ऊपर वाले अफसरों के डर से थोड़ी बहुत रिश्वत लेनी पड़ती है। शुरू में मैंने मना किया तो बड़े साहब ने चमका दिया, तू स्साले, रिश्वत ना लेकर पूरे सिस्टम की वाट लगाना चाहता है? नौकरी करनी है कि नहीं? उसके बाद से डरकर रिश्वत लेने लगा।'
'अच्छा, पूजा करते हो या फिर...'। रिपोर्टर को अपनी चर्चा को सिस्टम पर से हटाकर धर्म पर लाना ज्यादा सुविधाजनक लगा। यह सवाल इसलिए भी परम आवश्यक था ताकि सामने वाले की धर्म-जाित का पता लग सके तो कुछ सवाल भी उसी के इर्द-गिर्द पूछे जा सकें।
'साहब, जरूरत पड़ने पर पूजा-पाठ ही करता हूं। कभी-कभी मंदिर भी चले जाता हूं।'
'चलो, कम से कम धर्म के मामले में आपको इस देश में कोई डर नहीं है। यह भी कम बात नहीं है।'
'अरे क्या खाक डर नहीं है!' आम आदमी कितना पक्का भीरू है, लगातार यही साबित करने पर उतारू है।
'क्यों?'
'चार दिन पहले की बात है। आप जानते ही हो कि मैं नियम-कायदों से डरने वाला आदमी हूं। सामने वाली सड़क के बीचों-बीच कुछ गायें खड़ी थीं। ट्रैफिक को रोक रही थीं। वैसे उसमें उन बेचारी गायों का कोई दोष नहीं था। तो मैंने सोचा कि चलो उनसे हटने की रिक्वेस्ट कर लेता हूं। मैं तो उन्हें बड़े ही प्यार से वहां से हटने का अनुरोध कर रहा था। लेकिन पता नहीं कहां से चार-छह गुंडे आ गए। वैसे प्योर गुंडे नहीं थे, मतलब गुंडे टाइप के थे। बस हाथों में लिए डंडों से गुंडे लग रहे थे। उन्हें लगा मैं गाय माताओं के साथ दुर्व्यहार कर रहा हूं। दो-चार लगा दिए।'
'पर आप तो पूजा-पाठी हों। आपको क्यों डरना चाहिए? बोल देते।'
'वो क्या था, उस दिन मेरी हल्की सी दाढ़ी थी। तो उन्हें गलतफहमी हो गई। कहने लगे, स्साले पहचान दिखा। अब मैं तो जनेऊ भी नहीं पहनता। एक कहने लगा, नंगा कर देते हैं स्साले को। अभी दूध का दूध पानी का पानी हो जाएगा। पर तभी पड़ोस से गुजरने वाले किसी परिचित ने आवाज लगा दी- शर्मा जी क्या हो रहा है? बस, उसी से बच पाया।'
'तो आप उस दिन लिंचिंग से बच गए। उसके बाद से ही अब दाढ़ी साफ कर ली। लगता है, जनेऊ भी पहन ली है। चलिए, ये डर भी अच्छा है। इससे अब कुछ डर कम हो सकेगा।'
'उम्मीद तो नहीं है।' एक डरा हुआ आम आदमी डरने की हर संभावना की तलाश मरने तक जारी रखता है।
'अच्छा, चार दिन पहले भोपाल में एक वेब सीरिज को लेकर भी हंगामा हुआ था। आपका तो छोटा मामला था, पर वह बड़ा मामला था तो खबर बन गई। खबर तो पढ़ी ही होगी ना?'
'बिल्कुल नहीं, मैं उस खबर में झांका तक नहीं। क्या पता अखबार से निकलकर ही दो-चार गुंडे, आई मीन गुंडे टाइप के लोग बाहर आ जाए और मैं जब तक अपनी पहचान बताऊं, दो-चार डंडे चला ही दे।' एक डरे हुए आम आदमी की सफलता इसी में है कि वह खबरों से भी डरने लगे।
'पर भाई, वे तो धर्म के रक्षक हैं। हमारे-तुम्हारे धर्म की रक्षा करने के लिए ही तो उन्हें डंडे उठाते पड़ते हैं। उनसे डरिए नहीं, उनका सम्मान करना सीखिए। अब देखिए, आगे से मप्र में जिस भी वेब सीरिज या फिल्म की शूटिंग होगी, फिल्म मैकर अपनी स्क्रिप्ट पहले सरकार को भेजेंगे और सरकार जो भी करेक्शन करने का आदेश देगी, उसका वे पूरा सम्मान करेंगे। आप भी सम्मान करना सीखिए शर्माजी। बेमतलब डर का नाम देकर देश को बदनाम ना कीजिए।' रिपोर्टर अक्सर इंटरव्यू लेते-लेते ज्ञान भी देने लग जाते हैं।
'जी सर, कोशिश करूंगा। पर अभी तो टाइम हो गया। अब प्लीज खतम करते हैं। लेट हो गया तो पत्नी की दो-चार बातें सुननी पड़ेंगी।'
'मतलब घर भी डरमुक्त नहीं! कितना डरेंगे आप?'
'बताया ना, आम आदमी पैदा ही डरने के लिए होता है।'
'बस एक आखिरी सवाल। कभी तो आप दूसरों को डराते होंगे? सालों में कभी-कभार?'
देर तक सोचने के बाद, 'हां, जब नेता वोट मांगने आते हैं। हालांकि जाति-धर्म के अनुसार वोट करने का एक प्रेशर हम पर रहता है। फिर भी तब लगता है कि कम से कम एक ताकत हमारे पास है। हां, हां याद आ गया।'
'इस ताकत को उस समय के लिए बचाकर रखिए। जब तक उनमें इस ताकत का डर रहेगा, तब तक डर का बैलेंस बना रहेगा।'
रिपोर्टर ने इस अंतिम ज्ञान के साथ अपना इंटरव्यू खत्म किया। लेकिन यह बेमतलब का ज्ञान शायद डरे हुए आम आदमी को रास नहीं आया। इसलिए वह कुछ देर तक विचलित भाव के साथ खड़ा रहा। फिर पत्नी याद आ गई तो सरपट दौड़ पड़ा घर की ओर।
(ए. जयजीत संवाद की अपनी विशिष्ट शैली में लिखे गए तात्कालिक ख़बरी व्यंग्यों के लिए चर्चित हैं। मूलत: पत्रकार जयजीत फिलहाल भोपाल स्थित एक प्रतिष्ठित मीडिया हाउस में कार्यरत हैं। प्रिंट, इलेक्ट्रॉनिक और डिजिटल मीडिया तीनों का उन्हें लंबा अनुभव रहा है।)
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