By जयजीत
हम मसख़रों पर हंस सकते हैं, लेकिन उनकी अवहेलना नहीं कर सकते। क्योंकि इसका मतलब होगा देश की पूरी राजनीति और लोकतंत्र को ख़तरे में डाल देना। याद रखें, उन्हें लोकतंत्र को गाहे-बगाहे ख़तरे में डालने का अधिकार है, हमें नहीं। तो हम क्या करें? एक मसख़रे से बात ही कर लेते हैं।
- आप मसख़रे होकर भी राजनीति में हैं?
- (जोरदार ठहाका) बर्बाद गुलिस्तां करने को बस एक ही मसख़रा काफ़ी था, यहां तो मसख़रों की दुकान सजी है...। भाई, राजनीति में जिधर देखो, उधर मसख़रे ही मसख़रे हैं और तुम पूछ रहे हो मैं मसख़रा होकर भी राजनीति में क्यों हूं? इससे वाहियात सवाल नहीं हो सकता था क्या? मैं मसख़रा हूं, इसीलिए तो राजनीति में हूं।
- मतलब आप यह कहना चाहते हैं कि मसख़रा होना भी राजनीति की एक योग्यता है?
- (फिर जोरदार ठहाका) मसख़रा होना भी? अरे भाई, मसख़रा होना ही राजनीति की अनिवार्य योग्यता है। आज से नहीं हमेशा से यह अनिवार्य योग्यता रही है। मैं बहुत सारे नाम गिनवा सकता हूं, पर इसलिए नहीं गिनवा रहा हूं क्योंकि जिनके नाम नहीं लूंगा, उनके समर्थक-भक्त बुरा मान जाएंगे कि हमारे नेता का नाम क्यों नहीं लिया। क्या वे मसख़री में किसी से कम थे!
- आप एक अलग तरह के मसख़रे हैं और आपके जो विरोधी हैं, वे अलग तरह के मसख़रे हैं। तो मसख़रे-मसख़रे में भी अंतर होता है?
- (इस बार ठहाका नहीं) वैसे तो मसख़रों को बांटना नहीं चाहिए। मसख़रे धर्म-जात-पांत के भेदभाव से परे होते हैं। उनका मसख़रा होना ही पर्याप्त होता है। पर चूंकि बांटना हम नेताओं की फितरत होती है तो हमने मसख़रों को भी दो वर्गों में बांट रखा है। एक मसख़रे वे होते हैं जो पैदाइशी ही मसख़रे होते हैं। मसख़रापना उनके लिए गॉड गिफ्टेड की तरह होता है। ऐसे मसख़रे राजनीति में बड़े सहज होते हैं, बल्कि कहना चाहिए राजनीति उनके साथ कहीं ज्यादा सहज और सुरक्षित महसूस करती है। दूसरे प्रकार के मसख़रे वे होते हैं, जिनका जन्म तो सामान्य मनुष्य की तरह होता है। लेकिन उन्हें मसख़रा बनने के लिए कड़ी मेहनत करनी पड़ती है। जैसे-जैसे इनका मसख़रापना बढ़ता और निखरता जाता है, राजनीति में ये ऊंचे पायदानों पर पहुंचते जाते हैं। हमारी राजनीति में अधिकांश मसख़रे इसी श्रेणी के हैं।
- यह फर्जीवाड़े का दौर है। हर तरफ़ फेक ही फेक नज़र आता है। तो क्या इन दिनों राजनीति में फेक मसख़रों का ख़तरा बढ़ नहीं गया है?
- सच्चाई छुप नहीं सकती बनावट के उसूलों से। कि खुशबू आ नहीं सकती कभी कागज़ के फूलों से। यह शेर सुना ही होगा। यही स्थिति फेक मसख़रों के साथ होती है। राजनीति में ऐसे फेक मसख़रे ज्यादा दिन नहीं टिकते। जरा-सा गंभीर होते ही उनका फर्जीवाड़ा सामने आ जाता है। राजनीति के सच्चे मसख़रे केवल ईमानदारी की बात करते हैं, सिद्धांतों की बात करते हैं, अपने राज्य की प्रतिष्ठा की बात करते हैं, भ्रष्टाचार को मिटाने की बात करते हैं। अपनी इन बातों पर थोड़ा-सा भी अमल करते ही उनका पर्दाफाश हो जाता है। समझ लीजिए ऐसे फेक मसख़रे देश-समाज के लिए बड़े घातक हैं और हम सभी को इनसे बचकर रहने की ज़रूरत है। वैसे ईमानदारी की बात यह भी है कि भले ही हर जगह फेक चीजें बढ़ रही हैं, लेकिन राजनीति में फेक मसख़रे कम हो रहे हैं। अब तो कॉम्पीटिशन इस बात को लेकर है कि मेरा मसख़रापना तेरे मसख़रेपने से कितना खरा। इस बात पर ठोंको ताली।
- राजनीति में मसख़रेपने के क्या फायदे हैं?
- फायदे ही फायदे हैं। इसीलिए तो राजनीति में हर कोई मसख़रा होने के लिए मरा जाता है। इसका सबसे बड़ा फायदा तो यही है कि कोई भी आपको गंभीरता से नहीं लेता। गंभीरता से नहीं लेने के अनेक फायदे हैं। आप बिना बात के भी जोर-जोर से हंस सकते हैं। आपके इस हंसने पर भी कोई आप पर हंसेगा नहीं। आप कैसी भी शेरो-शायरी सुना सकते हैं। उसे सुनकर कोई अपने बाल नहीं नोंचेगा। आप चाहे बात-बात में तालियां बजा या बजवा सकते हैं। इसमें भी बेनिफिट ऑफ डाउट आपको ही जाएगा क्योंकि आप तो मसख़रे हैं।
- लेकिन जब आपको कोई गंभीरता से नहीं लेगा तो हाईकमान भी आपको गंभीरता से क्यों लेगा?
- (इस बार जोर का ठहाका) क्या कभी उल्लू को रात में सोते देखा है, क्या कभी मछलियों को साबुन से नहाते देखा है? अरे हाईकमान किसी भी पार्टी का हो, क्या उसे गंभीर होते देखा है? लगता है आपके पास सवाल खत्म हो गए हैं। अगर कोई हाईकमान में बैठा है तो वह मसख़रेपन की तमाम स्टेजों को पार करके ही तो वहां पहुंचा होगा ना। सिम्पल बात, लेकिन सिम्पल बातें ही आजकल बड़ी काम्प्लीकैटेड हो गई हैं।
- आखिरी सवाल। अगर आप मसख़रे ना होते तो क्या होते?
- यह तो वैसा ही सवाल है कि अगर कमला की मूंछे होतीं तो वह क्या होती? तो वह कमला नहीं, कमल होती। अगर मैं मसख़रा ना होता तो यूं आपके सामने ना होता। आप जनाब यूं मुझसे सवाल ना पूछ रहे होते। मैं भी आप जैसे आम लोगों की भीड़ का हिस्सा रहा होता। इसलिए मसख़रों को गंभीरता से लेना सीखिए। सवाल तो यह बनता है कि मसख़रे ना होते तो भारतीय राजनीति का क्या होता? चूंकि आपने यह पूछा नहीं तो इसका जवाब भी मैं नहीं दूंगा। आप खुद ही अंदाजा लगा लीजिए। ताली ठोंकिए और मुझे अनुमति दीजिए।
(ए. जयजीत संवाद की अपनी विशिष्ट शैली में लिखे गए तात्कालिक ख़बरी व्यंग्यों के लिए चर्चित हैं। मूलत: पत्रकार जयजीत फिलहाल भोपाल स्थित एक प्रतिष्ठित मीडिया हाउस में कार्यरत हैं। प्रिंट, इलेक्ट्रॉनिक और डिजिटल मीडिया तीनों का उन्हें लंबा अनुभव रहा है।)
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