By Jayjeet Aklecha/ जयजीत अकलेचा
यहां आपको कॉन्टेंट मिलेगा कभी कटाक्ष के तौर पर तो कभी बगैर लाग-लपेट के दो टूक। वैसे यहां हरिशंकर परसाई, शरद जोशी जैसे कई नामी व्यंग्यकारों के क्लासिक व्यंग्य भी आप पढ़ सकते हैं।
शुक्रवार, 22 नवंबर 2024
चिंदी चिंतन... करप्शन पर बंटेंगे, तो मिटेंगे...!
रविवार, 28 जुलाई 2024
इन सड़कों में ही हमारा ‘कल’ छिपा है, इस इनोवेशन के लिए सैल्यूट...!
शनिवार, 25 मई 2024
अरे, अभी तो गर्मी शुरू हुई है....
By Jayjeet Aklecha/ जयजीत अकलेचा
शनिवार, 16 मार्च 2024
गब्बर, चुनाव और साम्बा की होशियारी...!
By Jayjeet Aklecha
गब्बर को गलतफहमी है कि 'होली कब है, कब है होली' जैसा कुछ कहने के बजाय 'चुनाव कब है, कब है चुनाव' कहने से उसे चुनाव का टिकट मिल जाएगा। टिकट दल बदलने से मिलता है, जुमले बदलने से नहीं। और उसे इस बात की और भी गलतफहमी है कि डकैत होना उसकी एडिशनल क्वालिफिकेशन है। डकैत की ड्रेस पहनने भर से टिकट मिल जाता तो इलेक्टोरल बॉन्ड की डकैती की जरूरत ही क्यों होती! सोचने की बात है...! गब्बर ने अपनी जात नहीं बताई... डकैत तो डकैत होता है। उसकी क्या जात और क्या पात? लो, ऐसी नैतिकता का ऐसा झंझट तो अपन वोटर लोग भी नहीं पालते और ये डकैत होकर पाले हुए हैं। शायद, इसीलिए नेताओं के बीहड़ों में इसके डकैतपने की कोई औकात नहीं है। तो टिकट कैसे मिलेगा, कैसे मिलेगा टिकट? भाईसाब, रामगढ़... मोबाइल में घुसे पड़े नल्ले साम्भा के मुंह से कुछ फूटा...। पहाड़ी की चोटी पर अब वह केवल नेटवर्क के मारे ही बैठता है। क्याssssss? रामगढ़ssssss। रामगढ़ का कनेक्शन बताइए और टिकट पाइएsssssssss। साम्भा भी उतना ही जोर से चिल्लाया। वाह, साम्भा के मुंह से पहली बार कोई कायदे की बात फूटी है। टीवी चैनलों पर न्यूज टाइप की चीजें देखकर आदमी ज्ञानी भी हो लेता है... मॉरल ऑफ द स्टोरी फ्रॉम द ग्रेट साम्बा...जिसके पास धेले का भी काम नहीं, वह न्यूज चैनलों पर एंटरटेनमेंट जरूर करें। बीच-बीच में गजब का ज्ञान भी मिल जाता है। चलते-चलते... कांग्रेस तो दो बोरी गेहूं के बदले ही टिकट देने को तैयार है, मगर साम्भा ने चेताया, भाई साब ले मत लेना, अभी तो आप जमानत पर बाहर है। वह भी जब्त हो जाएगी। एक तो कांग्रेस, ऊपर से ईडी का झमेला...। (देखो तो जरा साम्भा को, नीम और करेला की कहावत का इल्म भी आ गया... )
बुधवार, 14 जून 2023
यथा जनता तथा नेता!
Jayjeet Aklecha/जयजीत अकलेचा
सभी विधर्मी पार्टियों को 'काफ़िर' भाजपा का शुक्रगुजार होना चाहिए। चुनाव जीतने का सभी को बड़ा आसान-सा नुस्खा थमा दिया है। कहीं मंदिर चले जाओ, कहीं घाट पर आरती उतार आओ। कभी मंदिरों का निर्माण करवा दो, कभी किसी देवता के नाम पर करोड़ों रुपए का परिसर बनवा दो। लैटेस्ट आकर्षण भांति-भांति के बाबाजी हैं। किसी बाबाजी के चरणों में गिर जाओ, कभी उनसे अपने क्षेत्र में कथा करवा लो। सभी बाबाजी पार्टी लाइनों से ऊपर उठे हुए हैं। वैसे पार्टियों के बीच की ही लाइनें मिट गई हैं तो ये बेचारे बाबा बेमतलब में बंटकर अपनी मोह-माया का नुकसान क्यों करें!
शनिवार, 5 नवंबर 2022
उफ!!! ये तो भारी सदमे वाली खबर है...!!
गुरुवार, 10 मार्च 2022
Satire & Humor : अकबर रोड का वह भूत; कभी हंसता है, कभी रोता है…
ए. जयजीत
हिंदुस्तान के एक अज़ीम शासक अकबर के नाम पर बनी सड़क पर स्थित है वह महल। आज खंड खंड। नींव मजबूत है, लेकिन कंगुरे या तो ढह चुके हैं या ढहने के कगार पर हैं। ढहते कंगुरों से लटके शीर्षासन करते चमगादड़ महल के भूतिया गेटअप को बढ़ाने का ही काम करते हैं। इस अफवाह के बाद कि इस खंड-खंड इमारत से अक्सर किसी भूत के रोने की आवाजें आती हैं, आज पूरे मामले की तफ्तीश करने निकला है वह भूतिया रिपोर्टर। हाथ में टिमटिमाती लालटेन के साथ वह उस इमारत के सामने खड़ा है। भानगढ़ के भूतिया किले से कई बार रिपोर्ट कर चुका वह जांबाज रिपोर्टर भूत मामलों का एक्सपर्ट हैं। भूतिया रिपोर्टर्स के हाथों में पेन या माइक टाइप का तामझाम हो या ना हो, लेकिन पुरानी वाली टिमटिमाती लालटेन होती ही होती है। भूतिया महलों की रिपोर्टिंग करने वाले अनुभवी रिपोर्टर जानते होंगे कि ऐसे मौकों पर टिमटिमाटी लालटेन भूतों के लिए "बिल्डिंग कॉन्फिडेंस' का काम करती है।
तो आइए चलते हैं उसी खंड खंड इमारत के पास...
एक हाथ में लालटेन लिए रिपोर्टर ने दूसरे हाथ से जैसे ही इमारत का मुख्य दरवाजा खोला, सफेद बालों में खड़ा भूत सामने ही नजर आ गया। रिपोर्टर चौंका - हें, ये कैसा नॉन ट्रेडिशनल टाइप का भूत है जो तुरंत आ गया। न सांय-सायं की आवाज आई। काली बिल्ली भी झांकती नजर नहीं आई। उसे खटका तो उसी समय हो गया था, जब दरवाजा भी बहुत स्मूदली खुल गया था। और फिर स्साले चमगादड़ भी कंगुरों पर लटके हुए टुकुर-टुकुर देखते ही रहे। मजाल जो उड़कर माहौल बनाने आ जाए। सालों से एक जगह पड़े-पड़े उनके परों में जैसे जंग लग गया हो। खैर, तुरंत अपनी विचारतंद्रा को तोड़ते हुए भूतिया रिपोर्टर ने टांटनुमा डायलॉग मारा, "हम पूरी तरह आए भी नहीं और आप उससे पहले ही पधार गए! कुछ इंतजार तो करते। माहौल-वाहौल तो बनने देते। भूतों के लिए इतनी अधीरता ठीक नहीं।'
"मैं गया ही कहां था जो आऊंगा़? मैं तो यहीं था। शुरू से यहीं था। लोगों ने जरूर मेरे पास आना छोड़ दिया। शुक्र है आप तो आए बात करने।'
"मतलब? आप हैं तो भूत ही ना?' रिपोर्टर को अब भी भरोसा नहीं हो रहा। दरअसल, भानगढ़ के किले में चिरौरी करनी पड़ती, तब कोई आता।
"हां भई, अब मैं भूत ही हूं। 135 साल पुराना भूत। एंड आई एम प्राउड ऑफ माय भूतपना।'
"वाह जी, ऐसा भूत तो पहली बार देख रहा हूं जिसे अपने भूतपने पर प्राउड हो रहा है।'
"जब वर्तमान ठीक न हो और भविष्य नजर न आ रहा हो तो अपने भूतपने पर ही प्राउड करना चाहिए। वैसे आप तनिक आराम से बैठो और अपनी लॉलटेन बुझा दो। तेल वैसे भी बहुत महंगा हो गया है। विरोध करने वाला भी कोई नहीं है।'
"लेकिन... लेकिन भूत जैसे कोई लक्षण तो हैं नहीं। आपके तो उलटे पैर भी नहीं हैं। भानगढ़ के भूतिया किले के तो सभी भूतों के पैर उलटे होते हैं।' रिपोर्टर बार-बार कंफर्म कर रहा है। कहीं ऐसा न हो कि धोखा हो जाए।
"अरे भाई, किसने कहा कि भूत के लिए उलटे पैर होना जरूरी हैं? कांग्रेस होना ही काफी है।'
"अच्छा, तो आप कांग्रेस के भूत हैं? तभी लोगों को अक्सर यहां से रोने की आवाजें सुनाई देती हैं।'
"हां भाई, रोऊं नहीं तो क्या करुं?'
"लेकिन अगर आप कांग्रेस के भूत हैं तो फिर 10 जनपथ पर कौन हैं?'
"वो कांग्रेस का वर्तमान है, पर कांग्रेस का भूत तो मैं ही हूं। पक्का...।'
"और भविष्य?'
"यह भूत से नहीं, वर्तमान से पूछो। भविष्य तो वर्तमान ही तय करता है, भूत नहीं।'
यह कंफर्म होने के बाद कि वह भूत से ही बात कर रहा है, भूतिया रिपोर्टर अब सहज हो चुका है। भूत की एडवाइज पर लालटेन बुझा दी है। दरवाजा बंद कर दिया है ताकि ढहते हुए कंगुरों पर जोंक की तरह चिपके चमगादड़ उसके इंटरव्यू को पहले ही लीक ना कर दें।
"तो आप अक्सर रोते ही हैं?' भूतिया रिपोर्टर ने इंटरव्यू की शुरुआत करते हुए एक घटिया-सा सवाल दागा।
"आपने तो भानगढ़ के किले में काफी भूतों को कवर किया है। फिर भी ऐसा भूतिया टाइप का सवाल पूछ रहे हैं? आप तो जानते ही होंगे कि भूत दो काम बहुत ही एफिशिएंसी के साथ करते हैं। एक, रोने का और दूसरा हंसने का। मैं दोनों काम बखूबी करता हूं। अपने अतीत को देख-देखकर मुस्कुराता हूं, हंसता हूं, ठहाके लगता हूं। वर्तमान को देखकर रोता हूं।'
"अकेले रोते या हंसते हुए आप बोर नहीं हो जाते हैं?'
"अक्सर शहंशाह-ए-अकबर का भूत भी इस सड़क पर आ जाता है, खैनी मसलने के लिए। वह भी तो इन दिनों फालतू है।'
"अच्छा, इस अकबर रोड पर?'
"हां, उसके नाम पर रोड रखी है तो वह यही मानता है कि ये उसी के बाप की, आई मीन उसी की रोड है। तो वह अपनी इस रोड पर अक्सर मिल जाता है। फिर हम दोनों सामूहिक रूप से रोनागान करते हैं।'
"आपका रोना तो समझ में आता है। पर वह क्यों रोता है?'
"फिर वही भूतिया सवाल। अरे भाई, जैसे मेरे वंशजों ने मुझे बर्बाद किया, तो उसके भी बाद के वंशज कहां दूध के धुले थे। इसलिए वह भी बेचारा जार-जार रोता है।'
.... और बातचीत का सिलसिला चलता रहा, चलता रहा, चलता रहा। बाहर कंगुरों पर लटके चमगादड़ों में अब बेचैनी होने लगी थी। पंख फड़फड़ाने लगे थे। इस बीच, काली बिल्ली की भी एंट्री हो गई थी। मुंह बनाते हुए झांककर दो-तीन बार देख भी गई थी। खिड़की में एक साया भी झांकते हुए नजर आया, पर तुरंत लौट भी गया। शायद अकबर का भूत होगा। अब बारी कुछ अंतिम सवालों की थी -
"बताइए, मैं आपके लिए क्या कर सकता हूं?' सवाल इस बार का संकेत था कि भूत अपनी पूरी रामकहानी बहुत ही दुखद अंदाज में सुना चुका था और भूतिया रिपोर्टर के लिए सहानुभूति दर्शाने की यह औपचारिकता निभानी भी जरूरी थी।
"बस, अब बहुत हो गया। मेरी मुक्ति का इंतजाम करवाइए।' भूत ने उसी बेचारगी के भाव के साथ कहा, जैसा उसने पूरे इंटरव्यू के दौरान बनाए रखा होगा।
"उसकी तो मोदीजी कोशिश कर रहे हैं। लेकिन अगर आप पूरी तरह से मुक्त हो जाएंगे तो फिर झंडेवालां पर बैठे लोगों को डराएगा कौन? वे न वर्तमान से डरते हैं, न भविष्य से। उन्हें तो केवल आपसे डर लगता है। और यह डर अच्छा है। उन लोगों के लिए भी, देश के लिए भी और देश की जनता के लिए भी।'
"अच्छा!! तो मैं दूसरों के लिए यूं ही भटकता रहूं, रोता रहूं जार-जार?'
"इंतजार कीजिए ना। हो सकता है, आपके भूत से ही भविष्य पैदा हो। जब वर्तमान नपुंसक हो तो भविष्य को पैदा करने की जिम्मेदारी भूत को ही उठानी पड़ती है। जिम्मेदारियों से मत भागिए। सोचिए, क्या कर सकते हैं। तब तक मैं यह रिपोर्ट फाइल करके आपसे फिर मिलता हूं...'
और लॉलटेन जलाकर दरवाजे से बाहर निकल गया भूतिया रिपोर्टर। ढहते कंगुरों पर उलटे लटके चमगादड़ अब सीधे खड़े हो गए हैं। फिलहाल वे वेट एंड वॉच की मुद्रा में हैं...!
(ए. जयजीत संवाद की अपनी विशिष्ट शैली में लिखे गए तात्कालिक ख़बरी व्यंग्यों के लिए चर्चित हैं। मूलत: पत्रकार जयजीत फिलहाल भोपाल स्थित एक प्रतिष्ठित मीडिया हाउस में कार्यरत हैं। प्रिंट, इलेक्ट्रॉनिक और डिजिटल मीडिया तीनों का उन्हें लंबा अनुभव रहा है।)
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सोमवार, 15 नवंबर 2021
Satire : हे भगवान! सबकुछ तेरे भरोसे क्यों?
ए. जयजीत
वे नाजुक-सी आत्माएं अभी-अभी धरती पर उतरी ही थीं कि ईश्वर ने उन्हें फिर से वापस बुला लिया। ईश्वर के विशेष फरिश्ते उन्हें लेने आए। ईश्वर के खास निर्देश थे- उन्हें अपने हाथों में इस तरह नज़ाकत से थामकर लाना जैसे कमल के पत्ते किसी ओस की बूंद को थामते हैं। जैसी ईश्वर की आज्ञा, वैसा ही उन फरिश्तों ने किया। लेकिन इतनी बड़ी घटना पर वे चुप्पी भी भला कैसे साध लेते! आखिर वे हमारे सिस्टम का पार्ट तो थे नहीं...
'अचानक क्या हो गया? कुछ अरसा पहले ही तो हम इन्हें धरती पर छोड़कर गए थे? ये तो अभी ढंग से इस दुनिया-ए-फ़ानी को समझ भी नहीं पाए होंगे कि इन्हें वापस बुलाने के निर्देश हो गए।' भोपाल के हमीदिया हॉस्पिटल की छत से अपने गंतव्य की ओर कूच करते हुए पहले फरिश्ते ने कहा।
'शायद ईश्वर को एहसास हो गया होगा कि यह क्रूर दुनिया इन मासूम आत्माओं के लिए नहीं बनी है।' दूसरे फरिश्ते ने बहुत ही नपा-तुला जवाब दिया। ऐसे मौके पर वह भला और क्या कहता।
'लेकिन इन मासूम आत्माओं में से कुछ ने तो अभी अपनी आंखें भी नहीं खोली होंगी। इन्हें कम से कम कुछ दिन तो रहने देते। अपने मां-बाप को कुछ पलों की खुशियां भी ना दे पाईं ये आत्माएं।' पहले फरिश्ते ने अफ़सोस जताया।
'वैसे शुक्र मनाइए, ये मासूम आत्माएं धरती की तमाम कुव्यवस्थाओं को देखने से बच गईं।'
'अरे, ये तो खुद अव्यवस्थाओं का शिकार हो गईं और तुम कह रहे हो कुव्यवस्थाएं देखने से बच गईं। इतने असंवेदनशील तो मत बनो भाई। माना धरती पर आते रहते हो, तो क्या यहां के लोगों की संगत का तुम पर भी असर हो गया?'
'मेरे कहने का मतलब यही था कि जब शुरुआत ही इतनी कुव्यवस्थाओं के बीच हुई तो आगे ना जाने क्या-क्या भुगतना पड़ता।' दूसरे फरिश्ते ने अपनी बात, जो कि इस मौके पर उचित कतई नहीं थी, पर सफाई देने की विफल कोशिश की।
'इन कुव्यवस्थाओं के लिए तो जिम्मेदार तो पूरा सिस्टम है। तो सिस्टम का खामियाज़ा इन्हें क्यों भुगताना चाहिए? बताओ?' पहला फरिश्ता तर्क-वितर्क करने लगा है।
'शायद ईश्वर की यही मर्जी होगी।' दीर्घ श्वास छोड़ते हुए दूसरे फरिश्ते ने बात खत्म करने के मकसद से कहा। लेकिन बात तो अब शुरू हुई थी। इतनी जल्दी खत्म कैसे होती!
'अरे, यह क्या बात हुई। तुम क्या यह कहना चाहते हो कि पूरा सिस्टम भगवान भरोसे हैं? और जब सबकुछ भगवान भरोसे हैं तो इन मासूम आत्माओं के साथ जो कुछ भी हुआ, उसके लिए जिम्मेदार भी हमारे माननीय भगवान ही हैं?' पहला फरिश्ता थोड़े तैश में आ गया।
'ऐसा मैंने कब कहा? और तनिक धीरे बोलिए। ये मासूम आत्माएं सो रही हैं। जग न जाएं। बहुत तकलीफ़ से होकर गुजरी हैं। इसीलिए ईश्वर ने इन्हें बहुत ही नज़ाकत से लाने के निर्देश दिए हैं।' दूसरे फरिश्ते ने बात बदलने की कोशिश की।
'लेकिन भाई, धीरे बोलने से सच्चाई बदल तो नहीं जाएगी ना। तुम्हारे कहने का मतलब तो यही है ना कि जब पूरा सिस्टम भगवान भरोसे हैं तो फिर बेचारे इंसान कर भी क्या सकते हैं? चलिए मान लेते हैं कि सबकुछ हमारे भगवान भरोसे ही हैं। तो फिर सरकारों ने हॉस्पिटल्स क्यों खोल रखे हैं? क्यों न जगह-जगह मंदिर-मस्जिद खोल दिए जाएं। जब सब हमारे ईश्वर को ही देखना है तो फिर वह देख ही लेगा। हटाओ सारे दंद-फंद...।' पहला थोड़ा इमोशनल होने लगा है।
'देखो, सरकार कोई भी हो, किसी की भी हो, उसका हमेशा से भगवान पर भरोसा रहा है। इसलिए उसकी ज्यादातर चीजें भगवान भरोसे ही चलती हैं।'
'तो फिर 'भगवान भरोसे मंत्रालय' भी बना देना चाहिए। कम से कम देश के तमाम हॉस्पिटल्स को तो इसी मंत्रालय के अंडर में ले आना चाहिए।' पहले ने कटाक्ष किया जिसमें इमोशन थोड़ा ज्यादा था।
'इतना इमोशनल भी मत बनिए। बी प्रैक्टिकल...।'
'कैसे न बनूं? इन मासूमों की आत्माओं को साथ ले जाते हुए भी तुम कह रहे हो इमोशनल न बनूं? तुम अपनी आत्मा पर पत्थर रख लो, मैं नहीं रख सकता।'
'सरकार अपना काम कर तो रही है। घटना की जांच के आदेश दे दिए गए हैं। सरकार के प्रमुख ने भी कह दिया है कि दोषियों को बख्शा नहीं जाएगा। जांच होने तक तो सब्र रखो। सब साफ हो जाएगा कि इन मासूम आत्माओं की हत्याओं के लिए जिम्मेदार कौन हैं?'
'मुझे क्या न्यू कमर फरिश्ता समझा! धरती के और खासकर इंडिया के बहुत ट्रिप किए हैं मैंने भी। सब जानता हूं कि जांच रिपोर्ट्स-विपोर्ट्स का क्या टंटा होता है।'
'देखो भाई, हमारे-तुम्हारे बोलने से तो कुछ होगा नहीं। जो भी होगा, सिस्टम से ही होगा।'
'सिस्टम से तुम्हारा क्या मतलब है?'
'पहले जांच समिति बैठेगी, वह अपनी रिपोर्ट देगी। रिपोर्ट में कुछ लोगों को जिम्मेदार ठहराया जाएगा। जिम्मेदारों पर कार्रवाई क्यों नहीं हुई, इसके लिए फिर कुछ सालों के बाद एक उच्च स्तरीय जांच आयोग बैठेगा। वह जिम्मेदार लोगों के खिलाफ कार्रवाई न करने वाले जिम्मेदार लोगों को जिम्मेदार ठहराएगा। यही सिस्टम है। मैंने इंडिया के तुमसे ज्यादा ट्रिप किए हैं। ऐसे कई हादसों का साक्षी भी रहा हूं।' दूसरे फरिश्ते ने इमोशनल और बेचैन हो रहे पहले फरिश्ते तो समझाने की कोशिश की।
'लेकिन यह वह हादसा नहीं है, जिसे जांच समितियों, जांच रिपोर्टों में भुला दिया जाए।'
'अब होगा तो वही जो सिस्टम को चलाने वाले 'भगवान' चाहेंगे। और ये हमारे वाले भगवान नहीं हैं, भले ही पूरा सिस्टम हमारे वाले भगवान के भरोसा चलता हो।' दूसरे ने अंतत: बात खत्म की।
और फिर दोनों के बीच चुप्पी छा गई...
'हमारा गंतव्य आ गया है, चलो अब...' पहले ने गोद में सो रहीं मासूम आत्माओं की ओर देखकर कहा। उसकी आंख से आंसू का एक कतरा दूसरे फरिश्ते के हाथ पर टपक पड़ा।
'हां चलो, इन आत्माओं को ईश्वर को सौंपकर इनकी शांति की प्रार्थना करते हैं।'
'और तुम्हारे उस सिस्टम में बैठे लोगों में सद्बुद्धि आए, इसकी भी...'
(ए. जयजीत संवाद की अपनी विशिष्ट शैली में लिखे गए तात्कालिक ख़बरी व्यंग्यों के लिए चर्चित हैं। मूलत: पत्रकार जयजीत फिलहाल भोपाल स्थित एक प्रतिष्ठित मीडिया हाउस में कार्यरत हैं। प्रिंट, इलेक्ट्रॉनिक और डिजिटल मीडिया तीनों का उन्हें लंबा अनुभव रहा है।)
गुरुवार, 4 नवंबर 2021
Satire - नेता पटाखे : कोई अनगाइडेड रॉकेट तो कोई फुस्सी बम!
By Jayjeet
रविवार, 19 सितंबर 2021
Satire : ग्राउंडवॉटर रिचार्ज करेंगी मप्र की ये सड़कें
By Jayjeet
मेरे शहर में दो सड़कें हैं। वैसे तो कई सड़कें हैं, लेकिन आज हम इन दो सड़कों की बात ही करेंगे। एक ख़ास सड़क है। वह उतनी ही ख़ास है जितना कि ख़ास कोई नेता या अफ़सर या जज या इनकी पत्नियां होती हैं। इसे कहने को वीआईपी रोड कह सकते हैं। वैसे ये ख़ास रोड है तो हुजूर, सरकार, जी मालिक, जी मालकिन टाइप के संबोधन अधिक फबते हैं। दूसरी आम सड़क है। ऐसी आम सड़कों की भरमार है। जिधर देखो उधर आम ही आम सड़कें। यह वैसी ही आम है, जैसे मैं और आप। चूंकि ये आम सड़क है तो आप इन्हें प्यार से अबे, ओए, स्साली जैसा कुछ भी कह सकते हैं। ये बुरा नहीं मानती हैं। आप इन पर थूक सकते हैं, कचरा फेंक सकते हैं। टेंट गाढ़ने के लिए कुदाली चला सकते हैं। मतलब वह सबकुछ कर सकते हैं, जो आप करना चाहें। बड़ी सहिष्णु होती हैं ये आम सड़कें। उफ्फ तक नहीं करतीं।
ये दोनों तरह की सड़कें किसी भी शहर में हो सकती हैं। होती ही हैं। ख़ासकर राजधानियों में। तो फिर आज अचानक इनकी याद कैसे आ गई? बताते हैं हम...
दरअसल, हुआ यूं कि चलते-चलते अचानक ख़ास और आम सड़क की मुलाकात हो गई। ख़ास सड़क ने बाजू ने गुजरती हुई आम सड़क को रोककर हालचाल पूछे। यह कोई मामूली बात है भला! वैसे हालचाल पूछे तो कुछ तो ख़ास बात होगी। कोई ख़ास यूं ही आम टाइप की चीजों से राब्ता नहीं बनाता...
'और कैसी हो आम सड़क?' ख़ास सड़क ने थोड़ी विनम्रता और थोड़े एटीट्यूड के साथ पूछा।
'ठीक ही हूं हुजूर। आज कैसे याद किया?' आम सड़क ने उतनी ही मिमियाती हुई आवाज में पूछा जितना कि एक आम से अपेक्षित होता है।
'इन दिनों तो बड़े जलवे हैं। हर जगह तुम्हारी ही चर्चा है। सुंदर-सुशील महिलाएं कैटवॉक कर रही हैं। अखबारों में तस्वीरें छपी थीं। देखी थी मैंने।' ख़ास सड़क ने बड़े ही ख़ास अंदाज में कहा।
यह एक सहज गुण है कि कभी किसी दिन गरीब को दो जून की रोटी से एक रोटी भी ज्यादा मिल जाती है तो अमीर के पेट में दर्द-सा उठ जाता है। ख़ास सड़क भी इससे परे नहीं है। दिनभर ख़ासों के साथ रहते-रहते यह ख़ासियत भी आ गई है उसमें।
'वो तो बस यूं ही...।' आम सड़क शर्म से तनिक गुलाबी लाल हो गई। फिर जोड़ा, 'मुझ पर से जो भी गुजरेगा, वह ऐसा ही लगेगा कि कैटवॉक कर रहा है। वे महिलाएं तो सिंपली मुझ पर चलकर गई थीं, लेकिन उनकी वह वॉक ही कैटवॉक बन गई। अख़बारों में तस्वीरें छप गईं। अब देखिए ना उस ऑटो को। देखो तो, कैसे बचता-बचाता चला आ रहा है और ऐसा लग रहा है कि कैटवॉक कर रहा है। सब बरसाती गड्ढों की महिमा है।'
'हूम....।'
ख़ासों के साथ रहते-रहते ख़ास सड़क भी हूम, हम्म करना सीख गई है। जब कुछ जवाब नहीं सूझता तो हूम, हम्म से अच्छा कोई जवाब नहीं होता। ऐसे जवाब अक्सर ख़ास लोगों के मुंह से झरते रहते हैं। बहुत सुंदर लगते हैं। देखिएगा कभी ध्यान से...
'वैसे शिवराज भैया जब चार साल पहले अमेरिका गए थे और कहा था कि अमेरिका की सड़कों से अच्छी तो हमारे यहां की सड़कें हैं तो वे आपकी ही तो बात कर रहे थे।' आम सड़क ने भी अपनी तारीफ़ के जवाब में ख़ास सड़क की तारीफ़ कर बात आगे बढ़ाई।
'हां, वो तो है।' एक हल्की-सी मुस्कान ख़ास के चिकने-चुपड़े चेहरे पर तैर गई। पर बरसाती गड्ढों को देखकर मुस्कान फिर रश्क में बदल गई। इसी ईर्ष्या में गड्ढों को लेकर सुनी-सुनाई बात उसकी जुबान पर आ गई - 'सुना है तुम्हारे इन गड्ढों को लेकर सरकार एक पायलट प्रोजेक्ट पर काम कर रही है!'
'अब ख़ास लोगों के साथ तो आप ही रहती है। तो आपने सही ही सुना होगा। हम क्या कहें। पर गड्ढों पर पायलट प्रोजेक्ट, यह क्या नया तमाशा है?' आम सड़क हो या आम आदमी, उसके लिए सभी प्रोजेक्ट तमाशे से ज्यादा नहीं होते।
'एक्चुअली, कल दो अफ़सर अपनी कार में बैठकर जा रहे थे और तुम्हारे इन्हीं गड्ढों के बारे में बात कर रहे थे। कह रहे थे कि गड्ढों से ग्राउंड वॉटर रिचार्ज करने के प्रोजेक्ट को सरकार ने स्वीकार कर लिया है। बारिश में इन गड्ढों का इस्तेमाल भूजल स्तर में बढ़ोतरी के लिए किया जाएगा।'
'अच्छा? और क्या कह रहे थे?' आम सड़क की दिलचस्पी अचानक उसी प्रोजेक्ट में जाग गई है जिसे वह कुछ देर पहले तमाशा कह रही थी।
'कह रहे थे कि अब सरकार ठेकेदारों को उसी तरह की सड़कें बनाने को पाबंद करेगी जो पहली बारिश में ही पर्याप्त गड्ढेयुक्त हो जाए।'
'हां, यह तो ठीक रहेगा। अभी दो-तीन बारिश का पानी यूं ही बह जाता है। तब जाकर थोड़े बहुत गड्ढे होते हैं। सेटिस्फैक्टरी गड्ढे होने में तो आधा मानसून ही बीत जाता है। पर इस प्रोजेक्ट से सरकार को क्या फायदा होगा?'
हां, मुद्दे की बात तो थी ही। आखिर सरकार को इससे क्या फायदा होगा? क्यों अफ़सर, बड़े अफ़सर, मिनिस्टर, हेड ऑफ मिनिस्टर्स जैसे लोग इतनी मेहनत करें। उनके पास तो जनहित के और भी कई काम होते हैं।
'अफ़सर कह रहे थे कि जब प्रोजेक्ट लागू हो जाएगा तो झीलों-तालाबों में पानी इकट्ठा करने की ज़रूरत ख़त्म हो जाएगी। पूरा पानी जब सीधे ज़मीन के भीतर ही चला जाएगा तो झील-तालाब की ज़मीनों का इस्तेमाल बिल्डरों के कल्याण कार्य हेतु किया जा सकेगा।' ख़ास सड़क ने बात ख़त्म की। दरअसल, यही बताने के लिए ही तो ख़ास सड़क ने आम सड़क से बात शुरू की थी। गॉसिप्स किसी के भी पेट में टिकते नहीं, फिर वह इंसान हो या सड़क अथवा ख़ास हो या आम।
'वॉव! आज पहली बार मुझे आम सड़क होने पर गर्व हो रहा है।' आम सड़क ने केवल सोचा, लेकिन कहा नहीं। क्या पता, ख़ास सड़क बुरा मान जाए।
ख़ास सड़क पहली बार अपनी किस्मत को कोस रही है। वह गड्ढेयुक्त होती तो यह प्रोजेक्ट खुद ही हथिया लेती। हालांकि कहा उसने भी कुछ नहीं। मन मसोसकर रह गई।
दोनों ने अपनी-अपनी राह ली।
(ए. जयजीत संवाद की अपनी विशिष्ट शैली में लिखे गए तात्कालिक ख़बरी व्यंग्यों के लिए चर्चित हैं। मूलत: पत्रकार जयजीत फिलहाल भोपाल स्थित एक प्रतिष्ठित मीडिया हाउस में कार्यरत हैं। प्रिंट, इलेक्ट्रॉनिक और डिजिटल मीडिया तीनों का उन्हें लंबा अनुभव रहा है।)
शुक्रवार, 20 अगस्त 2021
Satire : चौराहे पर काबुलीवाला और तमाशबीनों की तालियां
चौराहे पर सवालों की झोली के साथ अकेला खड़ा काबुलीवाला। |
By ए. जयजीत
काबुलीवाला ... हां, वही काबुलीवाला। याद ही होगा सबको। गुरुदेव रवींद्रनाथ की कहानी का पात्र। पांच साल की बच्ची मिनी का अधेड़ दोस्त। गलियों में घूम-घूमकर ड्रायफ्रूट्स बेचता, मिनी में अपनी बेटी को याद करता काबुलीवाला।
आज यह काबुलीवाला फिर आया है। चौराहे पर खड़ा है, अकेला। उसकी यादों में अब कोई बेटी नहीं है, क्योंकि अपनी बेटी को तो वह तालिबानियों के रहमो-करम पर छोड़ आया है। उसकी झोली में अब वे ड्रायफ्रूट्स भी नहीं हैं। कुछ हैं तो चंद सवाल। कुछ पुराने, कुछ नए। वह शायद जानता है कि उसे या उसके सवालों को सुनने वाला भी कोई नहीं है। फिर भी उसने अपनी झोली में कम से कम कुछ सवाल तो बचा रखे हैं।
जब आदमी को कोई सुनने वाला नहीं होता है तो वह खुद से बातें करने लगता है। तब वह पागल भी करार दिया जाता है। और जब कोई पागल जैसी हरकतें करता है तो तमाशा बन ही जाता है। तमाशबीन जुट ही जाते हैं। काबुलीवाला आज पागल की तरह चौराहे पर खड़ा है। झोली से सवाल निकाल रहा है। उसके सवालों के जवाब किसी के पास नहीं हैं। या हैं भी तो जवाब कोई देगा नहीं। तो अपने सवालों के जवाब भी वह खुद ही दे रहा है।
पागलपन बढ़ते ही मजमा भी बढ़ता चला जाता है। काबुलीवाले का मजमा भी बढ़ता जा रहा है। तमाशा देखने के लिए पूरी दुनिया जुट गई है। यह लेखक भी चुपचाप उसी तरह तमाशबीन भीड़ का हिस्सा है, जैसे कई और भी हैं।
काबुलीवाले ने अपनी झोली से पहला सवाल निकाला और खुद ही बड़बड़ाते हुए पूछने लगा : 'हे संयुक्त राष्ट्र, तू क्यों चुप बैठा है? तुझ पर तो हर साल 3 अरब डॉलर खर्च होते हैं। यह इतना पैसा है कि हमारे जैसे कई मुल्कों के बाशिंदों को एक वक्त की रोटी मिल सकती है। मगर यहां रोटी भी नसीब नहीं है। न बहन-बेटियों को इज्जत। फिर भी तू चुप बैठा है? तुझे हमारी कोई चिंता नहीं?'
पागलपन में आदमी अक्सर अदबी भूल जाता है। नहीं तो काबुलीवाले की क्या औकात कि संयुक्त राष्ट्र से तू-तड़ाके से बात करे! किसी और की भी क्या हैसियत संयुक्त राष्ट्र के सामने!
पर बेचारा संयुक्त राष्ट्र भी क्या करे। उसे तो मालूम भी नहीं होगा कि कोई काबुलीवाला उससे सवाल कर रहा है। पता नहीं, उसे यह भी मालूम है या नहीं कि दुनिया में अफ़ग़ानिस्तान नाम की कोई जगह भी है। और मालूम करके करेगा भी क्या! अफ़ग़ानिस्तान जैसे तो न जाने कितने देश होंगे। सबकी इतनी फिक्र करेगा तो बड़े देशों की जी-हुजूरी करने का समय कब मिलेगा। जी-हुजूरी को छोटा काम ना समझें। बड़े झंझट होते हैं इसमें। न जाने कितनी बार सिर झुकाना होता है। उनके प्रपोजलों पर हस्ताक्षर करने होते हैं, वह भी आंख बंद करके। उफ्फ! कितना मुश्किल होता होगा ये सब। तो उसे अफ़ग़ानिस्तान जैसे छोटे-छोटे मसलों पर फंसाना ठीक नहीं। इसलिए संयुक्त राष्ट्र से सवाल पूछने से बड़ा तालिबानी जुर्म और क्या होगा! वैसे अगर संयुक्त राष्ट्र खुद उस चौराहे पर उपस्थित होता, तब भी इस सवाल का जवाब देना उचित नहीं समझता। हो सकता है किसी अन्य भेष में वह उस चौराहे पर तमाशबीन बना बैठा भी हो।
खुद काबुलीवाला भी जानता है कि संयुक्त राष्ट्र से इसका जवाब नहीं मिलना है। तो उसने खुद ही संयुक्त राष्ट्र की ओर से धीमी मगर सधी हुई आवाज में जवाब देना शुरू किया। वैसे ही जैसे ऐसी संभ्रांत संस्थाओं के कुलीन अफसर देते हैं।
'चिंता मत करो हे काबुलीवाला। हम बहुत ही शिद्दत से तुम्हारे साथ हैं। पिछले कई दिनों से हम तुम्हारे लिए चिंता जता रहे हैं। तीन दिन पहले ही हमारे महासचिव ने पूरी दुनिया को तुम्हारे मामले में साथ आने को कहा है। और क्या चाहिए तुम्हें? वैसे क्या तुम्हारे लिए यह गर्व की बात नहीं है कि हमारे सभी अफसर अफ़ग़ानिस्तान के ड्रायफ्रूट्स खाकर ही अपने दिन की शुरुआत करते हैं। कसम से, क्या कमाल के ड्रायफ्रूट्स पैदा करते हों तुम लोग। लेकिन यहीं पर हमारे लिए एक चिंता की बात और है...'
काबुलीवाला ने खुद ही प्रतिप्रश्न पूछा - 'और क्या चिंता रह गई?'
'अरे क्या तुमने वे क्लीपिंग्स नहीं देखी जब तालिबान के लीडर्स भी ड्रायफ्रूट्स खा रहे थे। कहीं ऐसा न हो कि तुम्हारे यहां के सारे ड्रायफ्रूट्स पर तालिबानियों का कब्जा हो जाए। कितनी बेरहमी से वे ड्रायफ्रूटस खा रहे थे। पूरी दुनिया ने देखे हैं वे दृश्य। वाकई दिल को दहला देते हैं। बहुत ही बर्बर हैं तुम्हारे यहां के तालिबानी। वहां के ड्रायफ्रूट्स को लेकर हम वाकई बहुत चिंतित हैं। हम फिर कह रहे हैं, अपना ध्यान रखना और हमारे ड्रायफ्रूट्स का भी। हम जल्दी ही एक मीटिंग भी करने वाले हैं। उस मीटिंग में भी हम जोरदार शब्दों में चिंता जताएंगे। तुम बिल्कुल भी चिंता मत करना।'
काबुलीवाला ठहरा पागल । संयुक्त राष्ट्र को तुरंत छोड़कर उसने झोले से दूसरा सवाल निकाल लिया। यह सवाल अमेरिका से था। सवाल था तो घिसा-पीटा ही, फिर भी सुन लीजिए - 'तू तो खुद को पूरी दुनिया का चौधरी मानता है। तो अब अचानक अफ़ग़ानिस्तान को मझधार में छोड़कर क्यों जा रहा है? तेरे सारे हथियार चूक गए हैं क्या?'
अमेरिका की तरफ से काबुलीवाला ने ही जवाब दिया - 'क्यों भूल गया हमारे सारे अहसान? अहसान फ़रामोश! मैंने सालों तुम्हारे बेरोजगार मुजाहिदीनों को पाला-पोसा। उनके हथियारों पर करोड़ों-अरबों का खर्च किया। पर इसके बदले में मुझे क्या मिला? एक ओसामा बिन लादेन। फिर उससे छुटकारा पाने के लिए अरबों-खरबों खर्च करने पड़े। फिर अफ़ग़ानिस्तान की भ्रष्ट सरकारों को पालना-पोसना पड़ा। इतना तो किया? अब अफ़ग़ानिस्तान को बर्बाद करने का पूरा ठेका हमने ही थोड़े ले रखा है।'
अमेरिका का जवाब शायद काबुलीवाला ने सुना नहीं। हां, तमाशबीनों की भीड़ ने सुन लिया है। इसीलिए तालियों की आवाज़ आ रही है।
काबुलीवाला के झोले में तो कई सवाल हैं। अगला सवाल पाकिस्तान से था। उसने सवाल को बड़ी ही हिकारत से देखा और जमीन पर फेंककर उसे पैर से मसल दिया। फिर और भी कई सवाल निकले - रूस से, चीन से, पश्चिमी मुल्कों से। पब्लिक वेलफेयर का दावा करने वाली विश्व संस्थाओं से। वह सभी सवालों को जमीन पर फेंकता जा रहा है। अब तो पूरा ही पागल जैसा बर्ताव करने लगा है। इसलिए तमाशबीनों को और भी मजा आने लगा है। तालियों की आवाज बढ़ गई है। वे सब भी शायद तमाशबीन का हिस्सा ही हैं, जिनसे पूछने के लिए काबुलीवाले के झोले में सवाल हैं।
अब उसके झोले में बस एक अंतिम सवाल बाकी है। निकालते ही उसे चूम लिया। उसे याद आ गई कोलकाता की वह गली जहां वह पहली बार उस बच्ची मिनी से मिला था। उसे ड्रायफ्रूट्स देता था। लेकिन अब न वह मिनी रही होगी, न वह गली। जिससे वह सवाल है, वह तमाशबीनों की भीड़ में शामिल नहीं है, लेकिन उसके साथ भी नहीं है। वह कहीं दूर उसकी ओर पीठ किए हुए हैं। वहां भी तो अब मानसिकता पर तालिबान चिपक गए हैं। तो जवाब देने का नैतिक साहस शायद उसके पास भी कहां होगा!
काबुलीवाला की आंखों के किनारे से आंसू की एक बूंद टपक पड़ी। तमाशबीन का हिस्सा बने इस लेखक की आंखें भी नम हैं, पर उसे तो तटस्थ रहना है। तटस्थता ही सबसे मुफ़ीद होती है।
काबुलीवाला ने वह सवाल ससम्मान अपने झोले में सरका दिया है। शायद यह सोचकर कि जब आमने-सामने मुलाकात होगी तो पूछेगा- क्यों भुला दिया अपने काबुलीवाले को! क्यों भुला दिया उस गांधार को जिसे जीतने के लिए भीष्म ने एक पल की भी देरी नहीं की थी? अपने पितामह को याद करके भी क्यों तुम्हारी भुजाएं अब फड़कती नहीं?
पूछेगा, जरूर पूछेगा...। जवाब तो देना होगा!
(ए. जयजीत खबरी व्यंग्यकार हैं। संवाद शैली में लिखे व्यंग्यों के लिए चर्चित हैं।)