ए. जयजीत
वे नाजुक-सी आत्माएं अभी-अभी धरती पर उतरी ही थीं कि ईश्वर ने उन्हें फिर से वापस बुला लिया। ईश्वर के विशेष फरिश्ते उन्हें लेने आए। ईश्वर के खास निर्देश थे- उन्हें अपने हाथों में इस तरह नज़ाकत से थामकर लाना जैसे कमल के पत्ते किसी ओस की बूंद को थामते हैं। जैसी ईश्वर की आज्ञा, वैसा ही उन फरिश्तों ने किया। लेकिन इतनी बड़ी घटना पर वे चुप्पी भी भला कैसे साध लेते! आखिर वे हमारे सिस्टम का पार्ट तो थे नहीं...
'अचानक क्या हो गया? कुछ अरसा पहले ही तो हम इन्हें धरती पर छोड़कर गए थे? ये तो अभी ढंग से इस दुनिया-ए-फ़ानी को समझ भी नहीं पाए होंगे कि इन्हें वापस बुलाने के निर्देश हो गए।' भोपाल के हमीदिया हॉस्पिटल की छत से अपने गंतव्य की ओर कूच करते हुए पहले फरिश्ते ने कहा।
'शायद ईश्वर को एहसास हो गया होगा कि यह क्रूर दुनिया इन मासूम आत्माओं के लिए नहीं बनी है।' दूसरे फरिश्ते ने बहुत ही नपा-तुला जवाब दिया। ऐसे मौके पर वह भला और क्या कहता।
'लेकिन इन मासूम आत्माओं में से कुछ ने तो अभी अपनी आंखें भी नहीं खोली होंगी। इन्हें कम से कम कुछ दिन तो रहने देते। अपने मां-बाप को कुछ पलों की खुशियां भी ना दे पाईं ये आत्माएं।' पहले फरिश्ते ने अफ़सोस जताया।
'वैसे शुक्र मनाइए, ये मासूम आत्माएं धरती की तमाम कुव्यवस्थाओं को देखने से बच गईं।'
'अरे, ये तो खुद अव्यवस्थाओं का शिकार हो गईं और तुम कह रहे हो कुव्यवस्थाएं देखने से बच गईं। इतने असंवेदनशील तो मत बनो भाई। माना धरती पर आते रहते हो, तो क्या यहां के लोगों की संगत का तुम पर भी असर हो गया?'
'मेरे कहने का मतलब यही था कि जब शुरुआत ही इतनी कुव्यवस्थाओं के बीच हुई तो आगे ना जाने क्या-क्या भुगतना पड़ता।' दूसरे फरिश्ते ने अपनी बात, जो कि इस मौके पर उचित कतई नहीं थी, पर सफाई देने की विफल कोशिश की।
'इन कुव्यवस्थाओं के लिए तो जिम्मेदार तो पूरा सिस्टम है। तो सिस्टम का खामियाज़ा इन्हें क्यों भुगताना चाहिए? बताओ?' पहला फरिश्ता तर्क-वितर्क करने लगा है।
'शायद ईश्वर की यही मर्जी होगी।' दीर्घ श्वास छोड़ते हुए दूसरे फरिश्ते ने बात खत्म करने के मकसद से कहा। लेकिन बात तो अब शुरू हुई थी। इतनी जल्दी खत्म कैसे होती!
'अरे, यह क्या बात हुई। तुम क्या यह कहना चाहते हो कि पूरा सिस्टम भगवान भरोसे हैं? और जब सबकुछ भगवान भरोसे हैं तो इन मासूम आत्माओं के साथ जो कुछ भी हुआ, उसके लिए जिम्मेदार भी हमारे माननीय भगवान ही हैं?' पहला फरिश्ता थोड़े तैश में आ गया।
'ऐसा मैंने कब कहा? और तनिक धीरे बोलिए। ये मासूम आत्माएं सो रही हैं। जग न जाएं। बहुत तकलीफ़ से होकर गुजरी हैं। इसीलिए ईश्वर ने इन्हें बहुत ही नज़ाकत से लाने के निर्देश दिए हैं।' दूसरे फरिश्ते ने बात बदलने की कोशिश की।
'लेकिन भाई, धीरे बोलने से सच्चाई बदल तो नहीं जाएगी ना। तुम्हारे कहने का मतलब तो यही है ना कि जब पूरा सिस्टम भगवान भरोसे हैं तो फिर बेचारे इंसान कर भी क्या सकते हैं? चलिए मान लेते हैं कि सबकुछ हमारे भगवान भरोसे ही हैं। तो फिर सरकारों ने हॉस्पिटल्स क्यों खोल रखे हैं? क्यों न जगह-जगह मंदिर-मस्जिद खोल दिए जाएं। जब सब हमारे ईश्वर को ही देखना है तो फिर वह देख ही लेगा। हटाओ सारे दंद-फंद...।' पहला थोड़ा इमोशनल होने लगा है।
'देखो, सरकार कोई भी हो, किसी की भी हो, उसका हमेशा से भगवान पर भरोसा रहा है। इसलिए उसकी ज्यादातर चीजें भगवान भरोसे ही चलती हैं।'
'तो फिर 'भगवान भरोसे मंत्रालय' भी बना देना चाहिए। कम से कम देश के तमाम हॉस्पिटल्स को तो इसी मंत्रालय के अंडर में ले आना चाहिए।' पहले ने कटाक्ष किया जिसमें इमोशन थोड़ा ज्यादा था।
'इतना इमोशनल भी मत बनिए। बी प्रैक्टिकल...।'
'कैसे न बनूं? इन मासूमों की आत्माओं को साथ ले जाते हुए भी तुम कह रहे हो इमोशनल न बनूं? तुम अपनी आत्मा पर पत्थर रख लो, मैं नहीं रख सकता।'
'सरकार अपना काम कर तो रही है। घटना की जांच के आदेश दे दिए गए हैं। सरकार के प्रमुख ने भी कह दिया है कि दोषियों को बख्शा नहीं जाएगा। जांच होने तक तो सब्र रखो। सब साफ हो जाएगा कि इन मासूम आत्माओं की हत्याओं के लिए जिम्मेदार कौन हैं?'
'मुझे क्या न्यू कमर फरिश्ता समझा! धरती के और खासकर इंडिया के बहुत ट्रिप किए हैं मैंने भी। सब जानता हूं कि जांच रिपोर्ट्स-विपोर्ट्स का क्या टंटा होता है।'
'देखो भाई, हमारे-तुम्हारे बोलने से तो कुछ होगा नहीं। जो भी होगा, सिस्टम से ही होगा।'
'सिस्टम से तुम्हारा क्या मतलब है?'
'पहले जांच समिति बैठेगी, वह अपनी रिपोर्ट देगी। रिपोर्ट में कुछ लोगों को जिम्मेदार ठहराया जाएगा। जिम्मेदारों पर कार्रवाई क्यों नहीं हुई, इसके लिए फिर कुछ सालों के बाद एक उच्च स्तरीय जांच आयोग बैठेगा। वह जिम्मेदार लोगों के खिलाफ कार्रवाई न करने वाले जिम्मेदार लोगों को जिम्मेदार ठहराएगा। यही सिस्टम है। मैंने इंडिया के तुमसे ज्यादा ट्रिप किए हैं। ऐसे कई हादसों का साक्षी भी रहा हूं।' दूसरे फरिश्ते ने इमोशनल और बेचैन हो रहे पहले फरिश्ते तो समझाने की कोशिश की।
'लेकिन यह वह हादसा नहीं है, जिसे जांच समितियों, जांच रिपोर्टों में भुला दिया जाए।'
'अब होगा तो वही जो सिस्टम को चलाने वाले 'भगवान' चाहेंगे। और ये हमारे वाले भगवान नहीं हैं, भले ही पूरा सिस्टम हमारे वाले भगवान के भरोसा चलता हो।' दूसरे ने अंतत: बात खत्म की।
और फिर दोनों के बीच चुप्पी छा गई...
'हमारा गंतव्य आ गया है, चलो अब...' पहले ने गोद में सो रहीं मासूम आत्माओं की ओर देखकर कहा। उसकी आंख से आंसू का एक कतरा दूसरे फरिश्ते के हाथ पर टपक पड़ा।
'हां चलो, इन आत्माओं को ईश्वर को सौंपकर इनकी शांति की प्रार्थना करते हैं।'
'और तुम्हारे उस सिस्टम में बैठे लोगों में सद्बुद्धि आए, इसकी भी...'
(ए. जयजीत संवाद की अपनी विशिष्ट शैली में लिखे गए तात्कालिक ख़बरी व्यंग्यों के लिए चर्चित हैं। मूलत: पत्रकार जयजीत फिलहाल भोपाल स्थित एक प्रतिष्ठित मीडिया हाउस में कार्यरत हैं। प्रिंट, इलेक्ट्रॉनिक और डिजिटल मीडिया तीनों का उन्हें लंबा अनुभव रहा है।)
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