शरद जोशी
दिल्ली वालों को यह सोचकर अच्छा नहीं लगता है कि उनके महान् ऐतिहासिक शहर और देश की राजधानी का कोई मौसम नहीं है। कहते हैं किसी जमाने में हुआ करता था। शायद तब भी न होता, पर जानकारी के अभाव में दिल्ली के लोग ऐसा समझते होंगे। आजकल उनकी पीड़ा यह है कि जब राजस्थान तपने लगता है, दिल्ली गरम हो जाती है और जब पहाड़ी पर बरफ के साथ ठंड बढ़ती है, दिल्ली को ऊनी शॉलें लपेटनी पड़ती हैं।
मतलब, दिल्ली जाकर किसी को निरंतर राजनीतिक तिकड़में जमानी हों। साहित्यिक
सम्मानों, कमेटियों या यात्राओं के डोल जमाने हों या सांस्कृतिक बजट से अपना अंश कतरना
हो तो उसे दिल्ली के बदलते, बल खाते मौसम के लिए अलग-अलग प्रकार की पोशाकें तैयार रखनी
पड़ती थीं। दिल्ली प्रभावित भी करती है और हो भी जाती है।
इस मामले में बंबई का रंग दूसरा ही रहा है। यहां लोगों ने ठंड का नाम सुना
था, पर उसे महसूस करने के लिए उन्हें किसी छोटे-मोटे पहाड़ पर जाना पड़ता था। बंबई
का आदमी पुणे जाकर आश्चर्य में डूब जाता था कि अच्छा, ऐसा भी मौसम होता है? तो इसे
कहते हैं ठंड?
जब हम स्कूल में पढ़ते थे, तब हमें भारतीय मानसून की कठिनाइयों से भरी
महायात्रा की जानकारी मिलती थी। कैसे अरब सागर और बंगाल की खाड़ी से बादल उमड़कर सह्याद्रि
और विध्याचल से टकराकर, सिर फोड़कर बरसते हैं और घायल होकर भागते हैं। फिर हिमालय उन्हें
रोककर उनका सारा पानी गिरवा लेता है, अन्यथा वे चीन में घुस जाते। हिमालय का यही फायदा
है आदि।
पर आज राजसत्ता से मिले जंगल के ठेकेदार और नए रईसों के लिए लकड़ी के खूबसूरत
फर्नीचर बनाने वालों को धन्यवाद। लगता है, बरसात, ठंड और गर्मी के मामले में बड़ी जल्दी
सारा भारत कश्मीर से कन्याकुमारी तक एक हो जाएगा। पेड़ काटकर मौसम के मामले में राष्ट्रीय
एकता स्थापित हो गई है कि कश्मीर में बर्फ पड़े तो बंबई ठंड से कांपने लगे। यह हमारी
सरकारी नीतियों की ही देन है। सरकार चाहती है कि पूरे देश में एकता रहे और किसी मामले
में न भी हो, मगर मौसम के मामले में तो हो ही सकती है। पहाड़ काटे जा रहे हैं। वे गंजे
हो गए, नंगे हो गए। सरकार के प्रयत्नों से एक छोर से जो हवा चलती है, वह गवर्नमेंट
की जय बोलती दूसरे छोर पर पहुंच जाती है, राष्ट्रीय एकता स्थापित करती। सारा देश समान
कंपकंपी जीता है।
कहते हैं, मनुष्य के चरित्र का निर्माण तो मौसम करता है। यदि इसी तरह की
हालत रही और सारे देश का मौसम एक जैसा हो गया तो मुझे लगता है कि आने वाले कुछ सालों
में राष्ट्रीय चरित्र में एकता स्थापित हो जाएगी। करोड़ों छाते एक साथ खुलेंगे या लाखों
खेत एक साथ सूखेंगे, करोड़ों रूमाल एक साथ पसीना पोंछेंगे या करोड़ों इंसान एक साथ रजाइयों
में घुसेंगे। आहा, देश की एकता का वह एक महादृश्य होगा। भारत एक रहेगा।
पहाड़ों से चली ठंडी हवा के तीर संकरे प्रांतों में समान रूप से घूमें, इसलिए शेष जंगलों को भी मैदान बनाकर राष्ट्रीय एकता स्थापित की जा रही है।
(शरद जोशी की पुस्तक 'प्रतिदिन' से साभार)