इस समय सवाल, वह भी बुलडोज़र से, पूछने की हिम्मत भला किसमें होगी?
Bulldoze का एक अर्थ 'डराना' भी होता है। रिपोर्टर को यह सब मालूम है, फिर भी उसने
थोड़ी हिम्मत की और सुस्ताते हुए बुलडोज़र के सामने खड़ा हो गया कुछ सवाल लेकर...
रिपोर्टर : इस समय तो बड़े जलवे हैं? ख़ूब नेम-फ़ेम मिल रहा है।
बुलडोज़र : ले लो मज़े। भर गर्मी में इतना घूमना पड़ रहा है। खुद घूमो तो
पता चले। कितनी आसानी से कह दिया- जलवे हैं...!
रिपोर्टर : अच्छा, एक दौर वह भी था, जब लोग आपको खुदाई करते हुए घंटों
बड़े ही प्यार से निहारा करते थे और ख़ुश होते थे। आज आपको देखकर आदमी डर रहा है। इस
बदलाव पर क्या कहेंगे?
बुलडोज़र : कहीं तो लोग डरें? लोकतंत्र का मज़ाक़ बना रखा है लोगों ने।
रिपोर्टर : लेकिन लोकतंत्र में तो डर नहीं, विश्वास होना चाहिए। विश्वास
से चलता है लोकतंत्र, डर से नहीं। किसी ने ख़ूब कहा भी है - सबका साथ सबका विश्वास...
बुलडोज़र : नो कमेंट।
रिपोर्टर : आप पर आरोप है कि आप डर भी एक वर्ग विशेष में ही पैदा कर रहे
हैं। क्या आप हरे-केसरिया रंग के आधार पर फैसले नहीं कर रहे हैं?
बुलडोज़र : नो कमेंट।
रिपोर्टर : आरोप यह भी है कि आपको बड़े लोगों के बड़े-बड़े अतिक्रमणों को
ढहाने के बजाय ग़रीबों की छोटी-छोटी गुमठियाँ, दुकानें, झोपड़ियाँ ढहाने में ज्यादा
आनंद आ रहा है। भारी-भरकम से कौन भिड़े, हल्के-फुल्कों को हटा दो। क्या यह कामचोरी नहीं
है?
बुलडोज़र : नो कमेंट।
रिपोर्टर : दिल्ली के ज़हाँगीरपुरी में सुप्रीम कोर्ट ने भी आपको तुरंत
रुकने को कहा था, लेकिन आप दो घंटे तक मनमानी करते रहे। क्या यह अधिनायकवाद नहीं है?
अपने आप को सर्वोच्च समझने का अहंकार कि कुछ भी हो जाए, मैं रुकेगा नहीं स्साला!
बुलडोज़र : नो कमेंट।
रिपोर्टर : अगर जवाब ही नहीं देना चाहते तो चुनाव ही लड़ लो भाई? नेताओं
की जी-हुज़ूरी करते-करते अच्छी नेतागीरी आ गई है आपको भी।
बुलडोज़र : क्या यह भी आरोप है?
रिपोर्टर : आरोप नहीं, सच्चाई है, सौ टका।
बुलडोज़र : सर, ज्यादा हो गया। आप रिपोर्टर हो तो इसका मतलब यह नहीं कि
आय-बाय-शाय कुछ भी बके जाओ। सारे आरोप झेल लिए हैं। ये ना सहन करुँगा कि कोई मुझे नेता
कहें और चुनाव लड़ने का ज्ञान दें...
रिपोर्टर : तो आप जवाब क्यों नहीं दे रहें?
बुलडोज़र : जवाब हो तो दूँ? और झूठे या गोलमाल जवाब देना चाहता नहीं हूँ,
क्योंकि मैं नेता नहीं हूँ।
रिपोर्टर : वाह, दिल ख़ुश कर दिया। बस आख़िरी सवाल...
बुलडोज़र : आख़िर-वाख़िरी कुछ नहीं, अब सामने से हट जाओ, पहले ही खोपड़ा ख़राब
है। करे कोई, भरे कोई। काम वो करे, आरोप हमपे लगे। हट जाओ सामने से, बहुत झेल लिया...
अब झेलेगा नहीं स्साला।
(ए. जयजीत संवाद की अपनी विशिष्ट शैली में लिखे गए तात्कालिक ख़बरी व्यंग्यों के लिए चर्चित हैं। मूलत: पत्रकार जयजीत फिलहाल भोपाल स्थित एक प्रतिष्ठित मीडिया हाउस में कार्यरत हैं। प्रिंट, इलेक्ट्रॉनिक और डिजिटल मीडिया तीनों का उन्हें लंबा अनुभव रहा है।)