क्योंकि ओलिम्पिक में पदक जीतना केवल खेल नहीं, एक युद्ध है !!
By Jayjeet
हम भारतीय हद से ज्यादा इमोशनल हैं। या हो सकता है इमोशनल होने का नाटक करते हों। पक्के से कुछ नहीं कहा जा सकता। इमोशनल होना अच्छी बात है, लेकिन हर जगह नहीं! दिक्कत यह है कि हर सफलता या थोड़ी बहुत सफलता या विफलता के समय हम बहुत सारी इमोशनल स्टोरीज ले आते हैं। हमें एक सिल्वर पदक मिलता है तो इमोशनल स्टोरी, किसी खिलाड़ी ने हैट्रिक ठोंक ली तो इमोशनल स्टोरी। कोई हार गया तो इमोशनल स्टोरी। इमोशनल स्टोरीज का फायदा यह होता है कि हमें उस छोटी-मोटी सफलता पर ही संतुष्ट होने या हार के लिए बहाना मिल जाता है।
ओलिम्पिक में इतनी सारी और बार-बार विफलताओं के बाद भी खेल अब भी हमारे लिए महज खेल क्यों है? पदक जीतने के लालायित जहां अन्य देश इसे युद्ध मानकर सबकुछ झोंक देते हैं, हम अपने खेल संगठनों पर राजनेताओं या राजनेता टाइप लोगों को बिठाकर आम हिंदुस्तानियों की आंखों में पल रहे सपनों पर धूल क्यों झोंकते रहते हैं?
आज हमारे पास क्या नहीं है? पैसा नहीं है? प्रतिभा नहीं है? जजों को प्रभावित करने का सुवर पॉवर नहीं है (अमेरिका और चीन जैसा!)। तो फिर पदक क्यों नहीं है? लेकिन यह तब तक नहीं होगा, जब तक हम पूरी क्रूरता के साथ जवाबदेही तय नहीं करेंगे। हमें केवल इमोशनल स्टोरीज नहीं चाहिए। केवल जज्बे जैसे शब्द नहीं चाहिए। युद्ध जैसी तैयारियां चाहिए। जब हम सैन्य तैयारियों में अपने सैनिकों के साथ कोई मुरव्वत नहीं करते तो खिलाड़ियों के साथ क्यों होनी चाहिए? जब किसी मोर्चे पर छोटी-सी गलती पर उस मोर्चे के कर्नल या कमांडर के साथ कोर्ट मार्शल करने में नहीं हिचकते तो हमारे खेल संगठनों पर कुंडली जमाए बैठे नाकारा लोगों के साथ कोर्ट मार्शल जैसा कुछ करने से क्यों हिचकिचाते हैं? और सबसे बड़ी बात, जब हम छोटी-छोटी बातों पर भी सरकार/सरकारों को जवाबदेह ठहराने में पीछे नहीं रहते हैं तो ओलिंपिक में ऐसे लचर प्रदर्शन पर सरकार को क्यों बचा लेते हैं? क्या खेलों में सुपर पॉवर बनाने का जिम्मा सरकार का नहीं है?
तो अगर हमें वाकई पदक जीतने की तमन्ना है, इमोशनल कहानियों को डस्टबीन में फेंकना होगा। इमोशन अक्सर कमजोर ही बनाता है। हमें क्रूरता की कहानियां चाहिए। नहीं तो बस टीवी सेट पर एक अदद कांसे की उम्मीदों को तलाशते रहिए। और हर उम्मीद टूटने के बाद बस क्रिकेट पर दोष मढ़ते रहिए।
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