'बैंक बाजार' की एक रिपोर्ट के अनुसार भारत में उच्च शिक्षा की पढ़ाई 20 साल में आठ गुना महंगी हो गई है। अब एमबीए जैसे कोर्स के 25 लाख रुपए तक लग रहे हैं। आज कई अखबारों में यह रपट छपी है। हां, इस रिपोर्ट के साथ ही एक प्रमुख राजनीतिक दल की आगागी चुनाव घोषणाएं भी प्रमुखता से छपी हैं, जिनमें किसानों की कर्ज माफी के साथ कई तरह के लोकलुभावन वादे शामिल हैं। एक अन्य प्रमुख दल तो लाड़ली बहनाओं को तीन हजार रुपए प्रतिमाह देने सहित कई घोषणाएं पहले कर ही चुका है। घोषणाओं का सिलसिला जारी है। और भी कई दल मुफ्त की घोषणाओं में एक-दूसरे से होड़ में हैं।
वापस रिपोर्ट पर आते हैं। भारत में लोगों की जो परचेसिंग पावर है, उसके हिसाब से उच्च शिक्षा पर यह खर्च कई उच्च मध्यमवर्गीय परिवारों तक की नींद उड़ाने के लिए काफी होना चाहिए। अब रिपोर्ट आई है तो इसके लिए हम अपने उन नेताओं पर उंगली उठा सकते हैं, जो ऊपर वर्णित नाना तरह की घोषणाएं करते थकते नहीं हैं। पर आज हम अपनी ओर उठी चार उंगलियों की ओर भी देख लेते हैं:
- हममें से प्रत्येक व्यक्ति किसी न किसी धर्म या जाति से जुड़ा है। खबरें हमें बताती हैं कि अमुक जाति के लोगों ने अपनी जाति से ही उम्मीदवार या आरक्षण की मांग की है। हम बस इसी मांग से अपनी जातिगत ताकत को महसूस कर खुश हो जाते हैं। पार्टियां और भी ज्यादा खुश, क्योंकि उनकी इस मांग को पूरा करने के बदले में उन्हें थोकबंद वोट मिल जाते हैं।
- हम सरकारों या पार्टियों से मंदिर मांगते हैं, मस्जिद मांगते हैं, गिरजाघरों की सुरक्षा मांगते हैं। सरकार आसानी से दे देती हैं या जो विपक्ष में हैं, वे ये मुहैया करवाने के वादे कर देते हैं। हम खुश हो जाते हैं, सरकार व पार्टियां और भी खुश।
- हम सब इन छोटी-छोटी बातों से खुश हो लेते हैं कि हमें बिजली के बिल में कितनी छूट मिली, हजार रुपए का गैस सिलेंडर पांच सौ रुपए में मिल गया, हमारे बच्चे को लैपटॉप या स्कूटी मिल गई, हमारे कर्ज के एक-दो लाख रुपए माफ हो गए। राजनीतिक दल हमारी इन छोटी-छोटी खुशियों में हमेशा साथ होते हैं। वजह जाहिर है।
- जब भी बजट आता है तो कथित मध्यम वर्ग की बस एक ही पैराग्राफ में दिलचस्पी होती है- इनकम टैक्स में उसे कोई छूट मिली या नहीं। 12-15 हजार की छूट मिलने या ना मिलने के आधार पर वह बजट को सबसे अच्छा या सबसे खराब ठहरा देता है।
एक प्रसिद्ध उक्ति बार-बार दोहराई जाती है कि मां भी बच्चे को तभी दूध पिलाती है, जब बच्चा रोता है। हमारा रोना अपनी जाति के किसी उम्मीदवार को टिकट, मंदिर-मस्जिद, कर्ज माफी, मुफ्त की बिजली, दो-चार हजार रुपए की कैश मदद, टैक्स में 10-15 हजार की छूट तक सीमित है। क्या हमने कभी बेहतर सस्ती शिक्षा मांगी है? क्या कभी बेहतर हॉस्पिटल मांगे हैं? जिस तरह से आरक्षण की मांग के लिए हम सड़कों पर उतरते हैं, क्या इनके लिए कभी सड़कों पर उतरते हैं?
अब ऐसे में यह सवाल पूछना तो और भी बेमानी लगता है कि आखिर जहां दुनिया के बाकी देश 8 दिन में चंद्रमा पर पहुंचकर वापस भी आ जाते हैं, हमारे चंद्रयान को वहां पहुंचने में ही 40-45 दिन क्यों लग रहे हैं? हमें सरकार बस यह आंकड़ा देकर झूठे गर्व से ओतप्रोत कर देती है कि हमारा अभियान सबसे सस्ता है। जहां दुनिया को अरबों डॉलर लगते हैं, हमें केवल कुछ करोड़ लगेंगे। हम यह भूल जाते हैं कि बैलगाड़ी से सफर हमेशा किसी कार की तुलना में सस्ता ही होगा। वैज्ञानिकों का बैलगाड़ी में सफर करना मजबूरी बन जाता है, क्योंकि उन्हें जो पैसे मिलने चाहिए, वे तो चुनाव जीतने में खर्च हो रहे हैं।
जाहिर है, यह तो हमें तय करना है कि सरकारों से और राजनीतिक दलों से हमें क्या चाहिए। राजनीतिक प्रतिष्ठान वे सबकुछ देंगे, जिससे उन्हें चुनाव जीतने में मदद मिले। अगर हम शिक्षा, स्वास्थ्य और विज्ञान के आधार पर उन्हें वोट देंगे तो वे हमें ये तीनों चीजें देंगे, अवश्य देंगे।
मगर फिलहाल तो उन्हें मंदिर, मस्जिद, जाति, गैस सिलेंडर, एक-दो हजार की खैरात से ही वोट मिल रहे हैं। हम इसमें खुश हैं और जाहिर है, वे भी!