रविवार, 2 फ़रवरी 2025

AI को लेकर हमारा शुतुरमुर्गी रवैया… ऐसे तो विश्वगुरु बनने से रहे!!!

 

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By Jayjeet Aklecha

कई लोगों को भारत को ‘विश्वगुरु’ बोलते हुए एक किस्म की मानसिक शांति का एहसास होता है। इसमें संस्कृति से जुड़ाव महसूस करते हुए दुनिया पर भारत के वर्चस्व की आकांक्षा दिखती है। लेकिन क्या हम विश्वगुरु केवल कहने मात्र से बन जाएंगे? 

हमें बीते 10 दिनों के दौरान हुई दो घोषणाओं पर गौर करना चाहिए। ये आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस (AI) को लेकर है। पहली घोषणा अमेरिका में हुई है। अमेरिकी राष्ट्रपति पद की शपथ लेने के दो दिन बाद ही 22 जनवरी को डोनाल्ड ट्रंप ने एआई के विकास के लिए 500 अरब डॉलर (43,34,500 करोड़ रुपए) के (प्राइवेट फर्म्स के साथ) ज्वाइंट वेंचर की घोषणा की। दूसरी घोषणा कल आए भारत के केंद्रीय बजट में हुई। इसमें एआई के लिए 500 करोड़ रुपए का बजटीय प्रावधान रखा गया है। इन दोनों की तुलना करने के लिए जमीन-आसमान का अंतर वाला मुहावरा भी बहुत छोटा पड़ जाएगा।

बेशक, एआई को लेकर हममें से किसी को कुछ पता नहीं है और इसलिए हम इसे बड़ा खतरा मान सकते हैं (और मानना भी चाहिए)। ऐसे में अगर सरकार की मंशा एआई को हतोत्साहित करने वाली है, तो यह अच्छा है। लेकिन सवाल यह भी है कि केवल ऐसी मंशा रखने से भर क्या होगा? क्या हम दुनिया से (खासकर अमेरिका और चीन से) आते इससे खतरे को रोक पाएंगे? यह केवल शुतुरमुर्गी रवैया है कि हम सिर छुपाकर समझ लेंगे कि तूफान से बच गए। लेखक युवाल नोआ हरारी ने अपनी ताजा-तरीन किताब ‘नेक्सस' में इसे और स्पष्ट किया है। उन्होंने लिखा है कि जिस तरह पर्यावरण के नियमों का पालन करने भर से जलवायु परिवर्तन के खतरों से बचा नहीं जा सकता, उसी तरह एआई को नियंत्रित करने या हतोत्साहित करने से हम इसके खतरों से नहीं बच सकते, क्योंकि ये दोनों स्थानीय नहीं, वैश्विक समस्याएं हैं।

मुझे पक्का भरोसा है कि हमारे यहां की कोई भी सरकार इतनी समझदार या संवेदनशील नहीं हो सकती कि उसने एआई के लिए इतना अल्प बजट केवल इसलिए रखा है, क्योंकि उसकी सुमंशा इसके खतरों को रोकना है। दरअसल, यह हमारी तमाम सरकारों की वैज्ञानिक सोच के प्रति उस उदासीनता का प्रतीक है, जो आज से नहीं है, और जिसे वे दशकों से बरतते आ रही हैं। वैज्ञानिक अनुसंधान और वैज्ञानिक मानसिकता ही हमें वैश्विक ताकत में बदल सकती है, इसको लेकर सरकार के स्तर पर कोई सोच नहीं है, न रही है। हम आज भी महज हमारे विशाल बाजार के भरोसे खुद को वैश्विक ताकत में बदलने का ख्वाब देख रहे हैं। आज भी हममें से कई लोग, दुर्भाग्य से सरकार-शासन और वैज्ञानिक प्रतिष्ठानों मंे बैठे लोग भी, मायथोलॉजी के आधार पर उन प्राचीन ‘इनोवेशन’ पर गर्व करते अघाते नहीं कि कैसे दुनिया की पहली प्लास्टिक सर्जरी हमारे यहां हुई या कैसे हमने दुनिया को विमान उड़ाना सिखाया। अक्षत गुप्ता जैसे लेखक इसे ‘सत्यालॉजी’ कहकर इस भ्रम को और गैर-जरूरी बढ़ावा देते हैं। दुर्भाग्य यह भी कि हमारे यहां किसी सरकार की सफलता का पैमाना यह बन जाता है कि वह किसी बड़े धार्मिक आयोजन को कितने अच्छे तरीके से हैंडल कर पाती है।

भारत सरकार एआई को प्रोत्साहित न करें, अच्छी बात है। लेकिन एक यह तथ्य हमें डरा रहा है कि इसकी अवहेलना करने से कोई फर्क नहीं पड़ेगा। आईबीएम एआई एडॉप्शन इंडेक्स की मानें तो एआई को स्वीकार करने के मामले में दुनिया में नंबर वन पर भारत है (59 फीसदी बिजनेस कंपनियों ने एआई को एडॉप्ट करने की इच्छा जताई है), जबकि हमारे पास अपना कोई एआई नहीं है। हो सकता है आगे जाकर हम इस पर भी ‘गर्व’ करने लगे कि भारत दुनिया की सबसे तेजी से बढ़ती एआई कंट्री है, जैसे हम स्मार्टफोन के सबसे बडे एक्सपोर्टर होने पर गर्व करते हैं, जबकि हमारे पास अपना एक ढंग का स्मार्टफोन तक नहीं है।

तो सवाल यह है कि हम या हमारी सरकार क्या करें? सबसे पहले तो हम दिल पर पत्थर रखकर यह स्वीकारें कि खुद को दुनिया की चौथी या पांचवीं आर्थिक शक्ति मानना केवल एक भ्रम है। असल शक्ति न्यू एज इनोवेशन में है। न्यू एज इनोवेशन की गंगा में स्नान करके ही हम असल में 'विश्व गुरु' बन सकते हैं।

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