गुरुवार, 29 जुलाई 2021

Satire : संसद ने अपने प्रांगण में लगी बापू की प्रतिमा से क्या कहा?

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-  ए. जयजीत 

अरसा हो गया। इतने वर्षों से बापू को एक ही पोजिशन में बैठे हुए देखते-देखते। झुके हुए से कंधे। बंद आंखें। भावविहीन चेहरा। कहने की जरूरत नहीं, उम्मीद विहीन भी। चेहरा भावविहीन तो उसी दिन से हो गया था, जिस दिन देश को दो टुकड़ों में बांटने का निर्णय लिया गया था। निर्णय गैरों ने लिया था। उस पर कोई रंज नहीं था। पर मोहर तो अपने ही लोगों ने लगाई थी। इतनी जल्दी थी आजाद होने की, बापू के विचारों से आजाद होने की?

संसद अपने ही प्रांगण में लगी गांधी प्रतिमा को देखकर कुछ यूं ही सोच रही है। संसद को वैसे भी अब कुछ काम तो है नहीं। पक्ष-विपक्ष के सभी माननीय हंगामे में व्यस्त हैं तो संसद क्या करे? कुछ तो करे! तो इन दिनों वह वैचारिक चिंतन में लगी है। वैसे भी जब आदमी निठल्ला हो जाता है तो चिंतन में लग जाता है। संसद को तो निठल्ला बना दिया गया।  

तो संसद का चिंतन जारी है। सोच रही है कि सालों पहले जब बापू को यहां बिठाया गया था, तब भी क्या ये ऐसे ही थे? क्या ये प्रतिमा तब भी इतनी ही गुमसुम-सी उदास थी? कंधे ऐसे ही झुके हुए थे? चेहरे पर इतनी ही विरानगी थी? 

"याद क्यों नहीं आ रहा?' संसद खुद पर भिन्ना रही है। अब क्या करें, वह भी बूढ़ी हो चली है। फिर ऊपर से अल्जाइमर का रोग अलग हो चला। भूलने का रोग। कई पुरानी बातें याद ही नहीं रहतीं। 1947 से लेकर अब तक न जाने कितने वादे किए, उनमें से कितने पूरे हुए, कितने अधूर रहे, कुछ याद नहीं। 

हमेशा की तरह संसद आज फिर बेचैन है। जब भी संसद सत्र चलता है, तब वे ऐसे ही बेचैन हो जाया करती है। दुखी भी। तो दो दुखी आत्माएं। एक इस तरफ, दूसरी उस तरफ। एक ही नियति को प्राप्त। दुखी आत्माएं अगर आपस में बात कर लें तो मन हल्का हो जाता है, यही सोचकर संसद ने बापू को धीरे से पुकारा - "बापू, ओ बापू।' 

पर बापू कहां सुनने वाले। संसद से उठने वाले अंतहीन शोर-शराबे, हंगामे, गालियों, प्रतिगालियों को वे सुन न सकें, माइक फेंकने से लेकर कागज फाड़ने जैसी करतूतें नजर न आ सकें, इसलिए उन्होंने सालों पहले से ही अपने कान और आंखें बंद कर रखी हैं। बापू ने जो सबक अपने तीन बंदरों को सिखाया था, उनमें से दो का पालन वे खुद बड़े ही नियम से करते हैं- बुरा ना सुनो, बुरा ना देखो। कहना तो 1947 के बाद तभी से बंद कर दिया था, जब उनकी बातों का बुरा माना जाने लगा था। 

संसद को शायद मालूम है ये बात। तो उसने धीरे से बापू की प्रतिमा को झिंझोड़ा। 

बापू को भी मालूम है कि उन्हें स्पर्श करने का साहस कौन कर सकता है। संसद ही। काजल की कोठरी में रहकर कालिख से कोई नहीं बच सका है, लेकिन माननीयों के साथ रहने के बावजूद संसद स्वयं में पवित्र है। यह छोटी उपलब्धि नहीं है। तो बापू ने आंख बंद किए ही पूछा- "बताओ, आज कैसे याद किया?' सालों बाद वे बोले, मगर इतना धीमे कि जिसे केवल संसद ही सुन सके। 

"बापू बहुत दिनों से बेचैन थी। सोचा आपसे बात करके मन को कुछ हल्का करुं?' 

बापू मन में मुस्कुराए। बस, इसलिए कि बात ही कुछ ऐसी कर दी थी संसद ने। "एक बेचैन आत्मा से बात करके तुम्हें क्या चैन मिलेगा?' बापू ने फिर धीरे से पूछा। 

"आपने तो मुंह, आंख, कान बंद कर लिए। लेकिन मैं क्या करूं? अपने मुंह, आंख, कान बंद कर लूं, तब भी संसद में उठने वाले तूफानी हंगामे से कांप उठती हूं। क्या करुं मैं?'

"अगर इसका जवाब मेरे पास होता तो मैं खुद यहां यूं ना बैठा रहता, मूर्ति बनकर।' बापू ने क्षोभ से कहा। 

"पर बापू, इनमें से कई आपके पुराने अनुयायी हैं। कई नए भक्त भी बने हैं। आए दिन आपका नाम लेकर कसमें खाते हैं। मैं जानती हूं, सब झूठी कसमें हैं। फिर भी उन्हें एक बार तो अपनी कसम याद दिलवाइए। क्या पता, उसी से उनकी अंतरात्माएं जाग उठे।' संसद ने बड़ी ही मासूमियत के साथ यह बात कही। 

"इतनी भोली भी मत बनो। माननीयों को सबसे ज्यादा करीब से तो तुम्हीं ने देखा है। फिर भी ऐसी तर्कहीन बात। असत्य के साथ नित नए-नए प्रयोग करने वाले ये लोग मेरी बात सुनेंगे? इन्होंने तो अपने ही तीन बंदर क्रिएट कर लिए हैं - अच्छा मत सुनो, अच्छा मत देखो, अच्छा मत कहो।'

"बापू अब तो मुझे आत्मग्लानि होने लगी है। खुद पर ही शर्म आने लगी है।'

"ये तो सदा से रीत चली आ रही है?'

"कैसी रीत बापू? '  

"जब घर के बच्चे बेशर्मी पर उतर आते हैं तो शर्म से गढ़ने का काम उस घर की दीवारों के जिम्मे ही आ जाता है। यही जिम्मा तुम निभा रही हो। पर तुम खुद को दोष मत दो।' 

"पर आप भी खुद को ही दोष देते हों? मैं सालों से देख रही हूं कि 15 अगस्त आते ही आपका चेहरा और भी पार्थिव जैसा हो जाता है। ऐसा लगता है मानों पुराने दिन याद करके आपके मन में वितृष्णा-सी भर आई हो।

"अब मैं कुछ कहूंगा तो तुम कहोगी कि फिर वही घिसी-पिटी बात कह दी।'

"कह दो बापू। अब हमारे पास कहने के सिवाय बचा ही क्या है। कह दो, मन हल्का हो जाएगा।'  

"बस, यही कि अगस्त पास आते ही जी घबराने लगता है। आजादी की जो लड़ाई लड़ी थी, वह व्यर्थ लगने लगती है...' कहते कहते बापू का गला थोड़ा भर्राने लगा। कुछ देर मौन। फिर खुद को संभालते हुए बोले, "तुम कहां बैठ गई फालतू बातें लेकर, जाओ तुम यहां से।'  

वे कुछ और फालतू बात कर सकें, इससे पहले ही संसद को कुछ आहट सुनाई दी। संसद ने तुरंत बापू को अलर्ट किया -  "बापू सावधान! कुछ माननीय हाथों मंे तख्ती लिए, नारे लगाते हुए आपकी शरण में आ रहे हैं। लगता है कुछ घंटे आपके साथ ही बैठेंगे।' 

और बापू फिर पहले वाली मुद्रा में आ गए।

संसद के सामने तो फिलहाल कोई रास्ता नहीं है, अपनी किस्मत को कोसने के सिवाय... 

(ए. जयजीत खबरी व्यंग्यकार हैं। संवाद शैली में लिखे व्यंग्यों के लिए चर्चित हैं।)

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शनिवार, 24 जुलाई 2021

Funny Interview : राज कुंद्रा मामले से फुर्सत मिलते ही रिपोर्टर ने कर ली बादल के टुकड़े से खास बातचीत

#Floods #heavy_rains  #satire #humor शहरों में बाढ़


By Jayjeet

जैसे ही पानी से भरा बादल का टुकड़ा छत के ऊपर से गुजरा, रिपोर्टर ने हाथ के इशारे से उसे रोक लिया।
बादल : कौन हो भाई? क्यों रोक लिया हमें?
रिपोर्टर : मैं रिपोर्टर। आपका जरा एक रैपिड इंटरव्यू करना है।
बादल : अच्छा, एक गरीब बादल से इंटरव्यू!! तो आपको राज कुंद्रा के राज जानने से फुर्सत मिल गई?
रिपोर्टर : इस मामले को सीबीआई को सौंपा जा सकता है। तो हमारी जरूरत नहीं पड़ेगी।
बादल : वैसे मुझे सीबीआई पर भरोसा नहीं है। आप लोग सही तो जा रहे हैं।
रिपोर्टर : बादल महोदय, मैं आपको स्पष्ट कर दूं कि मेरा ऐसे मामलों में कोई खास इंटरेस्ट नहीं है। मैं तो डेवलपमेंटल रिपोर्टर हूं।
बादल : डेवलपमेंटल रिपोर्टर बोलने भर से कोई विकास टाइप की पत्रकारिता करने वाला पत्रकार नहीं बन जाता, जैसे बार-बार विकास विकास बोलने भर से विकास ना हो जाता। खैर मुद्दे पर आइए और पूछिए क्या पूछना है? पर जरा जल्दी, सीजन चल रहा है।
रिपोर्टर : पहला सवाल, या कह सकते हैं कि पहला आरोप तो यही है कि आप बरसने में इतनी असमानता क्यों रखते हैं? कहीं घटाघोप तो कहीं एक बूंद भी नहीं।
बादल : यह सवाल कभी आपने अपने नेताओं से पूछा, उन जिम्मेदारों से पूछा जिनके ऊपर समान विकास की जिम्मेदारी रही है?
रिपोर्टर : समझा नहीं।
बादल : अब इतने भी नासमझिये ना बनो। भई, सालों से आपके नेता समाजवाद की बात करते आए हैं, लेकिन हुआ क्या? समानता आई?
रिपोर्टर : अरे आप ये कहां इस मस्त मौसम में फालतू के सवाल लेकर बैठ गए।
बादल : शुरुआत किसने की थी?
रिपोर्टर : हां गलती मानी, पर मेरा तो केवल इतना-सा सवाल था कि ऐसा भी क्या बरसना कि शहरों में बाढ़ आ जाए…
बादल : पत्रकार महोदय, बरसते तो हम सदियों से आए हैं, लेकिन पहले नदियों में बाढ़ आती थी। अब नदियां तो वैसी रही नहीं तो शहरों में आ रही है। बाढ़ कहीं तो आएगी ना!
रिपोर्टर : पर आप यह भी तो मानिए ना कि आपके बरसने का तरीका ही गलत है। सिस्टम नाम की कोई चीज नहीं रही है आपके यहां। आधे घंटे में पांच-पांच इंच बारिश। ये क्या बात हुई भला?
बादल : देखिए, हमारे सिस्टम को दोष मत दीजिए। यह सब आप लोगों की वजह से हो रहा है। ग्लोबल वार्मिंग इतनी बढ़ा दी तो हमारा सिस्टम क्या करेगा?
रिपोर्टर : फिर वही घिसी-पिटी बात। बार-बार हम केवल ग्लोबल वार्मिंग को दोष नहीं दे सकते। अब हमें आगे की ओर देखना चाहिए।
बादल : तो फिर तो मुझे इसी तरह से बरसना होगा। और कोई चारा नहीं है। बस, समझ लो ये बात...
रिपोर्टर : फिर भी आप भी तनिक समझने की कोशिश कीजिए। आपकी थोड़ी सी बारिश में सरकारों की बड़ी बेइज्जती हो जाती है। हम रिपोर्टर्स को भी मजबूरी में लिखना पड़ता है कि मुंबई हुई पानी पानी, वगैरह वगैरह... तो कुछ तो ऐसा उपाय बताइए कि हमें बार-बार इस बात पर शर्मिंदा न होना पड़े कि शहर फिर बाढ़ में डूबे। आप तो इतना घूमते हैं। आपको कोई तो उपाय मालूम होगा।
बादल : तो सिंपल सा उपाय सुन लीजिए और मुझे चलने की अनुमति दीजिए। उपाय यह है कि संसद का मानसून सत्र चल ही रहा है। अगर सरकार एक कानून बनाकर मानसून में हर शहर को नदी घोषित कर दें तो न रहेंगे शहर, न आएगी शहरों में बाढ़। और फिर सरकार की इज्जत भी बच जाएगी और आपको भी लिखना ना पड़ेगा - फलाना शहर हुआ पानी पानी...
रिपोर्टर : उपाय तो बड़ा प्रोग्रेसिव है, हमारे नेताओं को भी रास आएगा, परंतु...
बादल : अब सवाल-जवाब बहुत हुए। मुझे चलने की अनुमति दीजिए। किसान मेरा इंतजार कर रहा है…आप शहरियों को हम न बरसे तो दिक्कत और बरसे तो दिक्कत …

(ए. जयजीत खबरी व्यंग्यकार हैं। अपने इंटरव्यू स्टाइल में लिखे व्यंग्यों के लिए चर्चित हैं।)


#Floods #heavy_rains  #satire #humor


गुरुवार, 22 जुलाई 2021

Satire : नो वन किल्ड कोरोना मरीज ...

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मतलब आज ऑक्सीजन की कमी से कोई ना मरा, कल इंजेक्शन की कमी से कोई ना मरेगा... मतलब स्साला आदमी मरेगा कैसे? सरकार बताएगी?

By ए. जयजीत

'दद्दा, अब खुश हो जाओ और जिद छोड़ दो।' सीनियर देवदूत ने चित्रगुप्त के दफ्तर के बाहर पड़ी धरनाग्रस्त आत्मा से कहा।

'मैं तुम्हारी बात में ना आने वाला। तुम तीसरी बार फुसलाने आए हो, चित्रगुप्त के खास चमचे बनकर।'

'नहीं दद्दा, इस बार खबर सच्ची है। सरकार इतना भी झूठ नहीं बोलती है।'

'अब कौन-सा सच लेकर आ गए हो?'

'सरकार ने कहा है कि तुम्हारी मौत ऑक्सीजन की कमी से नहीं हुई है। मतलब सारा कन्फ्यूजन खत्म हो गया। अब कर्मों का हिसाब करवा लो। आप भी फ्री, हम भी फ्री।'

'मैं भी तो यही कह रहा था कि मेरी मौत हो ही नहीं सकती। धरती पर ऑक्सीजन तो फुल मात्रा में है। तो मौत कैसे हो सकती है?'

दद्दा की यह बात सुनते ही यह सीनियर देवदूत चकरा गया। आप भी चकरा गए ना। चकरा तो यह लेखक भी रहा है।

दरअसल, दद्दा बहुत शातिर है। पहले इस बात के बहाने वे चित्रगुप्त के दफ्तर में हिसाब करवाने से बचते रहे कि उनकी मौत की वजह स्पष्ट नहीं है। रेमेडिसिवर इंजेक्शन न मिलने से उनकी मौत हुई या ऑक्सीजन न मिलने से, पहले यह साफ किया जाए। ऑक्सीजन या इंजेक्शन, इन दोनों में से किसी की जवाबदेही तय की जाए। इसके बाद ही वे अपने कर्मों के हिसाब-किताब के लिए चित्रगुप्त के सामने प्रस्तुत होंगे। हालांकि यमराज के दफ्तर से चली नोटशीट पर 'ऑक्सीजन की कमी' कारण स्पष्ट था, फिर भी दद्दा तो अड़ ही गए थे। देवदूतों ने उनके साथ जबरदस्ती की तो हाथ में घासलेट की बोतल और माचिस लेकर चित्रगुप्त के दफ्तर के बाहर ही धरने पर बैठ गए। लोकतंत्र तो ऊपर भी है। ऐसे ही भला जबरदस्ती थोड़ी की जा सकती है। और अब जब इस सीनियर देवदूत को लगा कि भारत सरकार के इस दावे से मामला सेटल हो गया और मौत की स्पष्ट वजह आ गई तो दद्दा ने नया दांव चल दिया। आइए, फिर सुनते हैं उनके तर्क-कुतर्क...

'दद्दा, अब ये लफड़ा मत कीजिए कि मौत ना हुई। मौत ना होती तो तुम यहां होते भला?' देवदूत ने सख्ती व मिमियानेपने के अजीब मिश्रण के साथ अपना तर्क दिया।

'क्यों तुम अपने उस छोकरे से, क्या नाम है, रम्मन देवदूत, उसी से पूछो। वही आया था मेरे पास। वह यही बोल के तो मुझे यहां लाया था कि ऑक्सीजन सिलैंडर में ऑक्सीजन खत्म हो गई तो तुमको लेने आया हूं। पूछो उससे, यही बोला था कि नहीं!'

'अब उससे क्या पूछें। वैसे भी वह संविदा पर है। लेकिन मौत तो तुम्हारी आनी ही थी। हो सकता है यमराज जी के ऑफिस से जो नोटशीट चली होगी, उसमें कारण गलत दर्ज हो गया हो- ऑक्सीजन की कमी से मौत। पर अब स्पष्ट हो गया है कि तुम्हारी मौत रेमेडिसिवर इंजेक्शन न मिलने से हुई है। तुम यही तो चाहते थे कि जवाबदेही तय हो। तो अब रेमेडिसिवर इंजेक्शन पर जवाबदेही तय हो गई। बस खुश, अब चलो भी।'

लेकिन दद्दा के दिमाग में तो कुछ और ही खुराफात चल रही है। एक नया कुतर्क पटक दिया - 'क्यों जब नोटशीट पर कारण गलत दर्ज हो सकता है तो उसमें आदमी का नाम गलत दर्ज नहीं हो सकता? फिर देवदूत भी तुम्हारे संविदा वाले। तो उससे तो गलती हो ही सकती है। है कि नहीं!'

सीनियर देवदूत, जिसे कि 40 साल का अनुभव है, भी सकते में आ गया। स्साला आज तक यमराज के ऑफिस से चली एक भी नोटशीट गलत नहीं हुई। वह सोच में पड़ा हुआ है। उसे सोच में पड़ा देखकर दद्दा, जो ऑलरेडी शातिर है, ने एक और नया दांव चल दिया।

'मेरी मौत रेमेडिसिवर इंजेक्शन न मिलने से हुई। यही कहना चाहते हो ना तुम?'

'हां, जब ऑक्सीजन की कमी से ना हुई तो रेमेडिसिवर इंजेक्शन की कमी से ही हुई होगी ना? हम यही मान लेते हैं।'

'अब, अगर कल को सरकार यह कह दे कि देश में एक भी मौत रेमेडिसिवर इंजेक्शन की कमी से ना हुई, तो? तब तुम क्या करोगे?'

देवदूत, जो लगातार सोच में है, फिर सोच में पड़ गया - स्साला, सरकार का क्या भरोसा। यह भी कह सकती है। फिर तो लफड़ा हो जाएगा। और यह बुड्डा शकल ही नहीं, अकल से भी हरामी है। दूसरी आत्माओं को ना भड़का दे।

'दद्दा, यहीं रुको। मैं पांच मिनट में आया।' इतना कहकर देवदूत चित्रगुप्त के दफ्तर में घुस गया। पांच मिनट चर्चा करने के बाद वह वापस लौटा और दद्दा के कान में धीरे से कहा। दद्दा खुशी से उछल पड़े। उनके कुतर्क कामयाब हो गए थे।

यमराज के दफ्तर से संशोधित नोटशीट जारी हो गई है- दद्दा की मौत किसी भी वजह से नहीं हुई है। इसलिए उन्हें समम्मान धरती पर पहुंचाने के प्रबंध किए जाएं।

संविदा वाले देवदूत को सस्पेंड कर दिया गया है। किसी पर तो गाज गिरनी ही है। आखिर लोकतंत्र तो वहां भी है।

(ए. जयजीत खबरी व्यंग्यकार हैं। अपने इंटरव्यू स्टाइल में लिखे व्यंग्यों के लिए चर्चित हैं।)

बुधवार, 21 जुलाई 2021

Satire : दो जासूस, करे महसूस कि जमाना बड़ा खराब है...

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By Jayjeet

दो जासूस, दोनों के दोनों प्रगतिशील किस्म के। देश-दुनिया की समस्याओं पर घंटों चर्चा करके चर्चा के कन्क्लूजन को अपनी तशरीफ वाली जगह पर छोड़कर जाने वाले। दोनों एक कॉफ़ी हाउस में मिले। वैसे तो दोनों अक्सर इसी कॉफ़ी हाउस में मिलते रहते हैं, लेकिन आज का मिलना ज्यादा क्रांतिकारी है। अब ये जासूस कौन हैं, क्या हैं, इसका खुलासा ना ही करें तो बेहतर है। देखो ना, पेगासस नाम के किसी जासूस का खुलासा होने से कितनी दिक्कतें आ गईं। विपक्ष को हंगामा करने को मजबूर होना पड़ा। कांग्रेस कहां पंजाब में अपने दो सरदारों के बीच सीजफायर करवाने के बाद थोड़ा आराम फरमा रही थी कि उसे फिर जागना पड़ा। और बेचारी सरकार। कब तक छोटे-छोटे हंगामों को राष्ट्र को बदनाम करने की साजिशें घोषित करती रहेगी। उसकी भी तो कोई डिग्नेटी है कि नहीं। कई बड़े-बड़े पत्रकार, नेता, बिल्डर, वकील, तमाम तरह के माफिया इस बात से अलग चिंतित हैं कि उनका नाम सूची में क्यों नहीं है! तो एक खुलासे से कितनी उथल-पुथल मच गई। इसलिए हम भी इन दोनों जासूसों के नाम नहीं बता रहे। हां, एक को करमचंद जासूस टाइप का मान लीजिए और दूसरे को जग्गा जासूस टाइप का। वैसे भी जासूस तो विशेषण है, संज्ञा का क्या काम। काले रंग का कोट, बड़ी-सी हेट, काला चश्मा, हाथ में मैग्नीफाइंग ग्लास वगैरह-वगैरह कि आदमी दूर से ही पहचान जाए कि देखो जासूस आ रहा है। दूर हट जाओ। पता नहीं, कब जासूसी कर ले।

तो जैसा कि बताया, ये दो जासूस एक कॉफ़ी हाउस में मिले। इसी कॉफ़ी हाउस में दोनों का उधार खाता पता नहीं कब से चला आ रहा है। कई मैनेजर बदल गए, पर खाता अजर-अमर है। कॉफ़ी हाउस में मुंह लगने वाले हर कप को मालूम है कि इन दिनों ये भयंकर फोकटे हैं। इन दिनों क्या, कई दिनों से ही ये फोकटे हैं। कई बार कोट से बदबू भी आती है। जब किसी के पास ज्यादा पैसे ना हों तो ड्रायक्लीन पर खर्च अय्याशी ही माना जाना चाहिए। तो ये जासूस अक्सर इस तरह की अय्याशी से बचते हैं। वैसे इन दोनों जासूसों ने अपने बारे में यह किंवदंती फैला रखी है कि जब ये वाकई जासूसी करते थे, तो उनके पास जूली या किटी टाइप की सुंदर-सी सेक्रेटरी भी हुआ करती थीं, एक नहीं, कई कई। देखी तो किसी ने नहीं, पर अब जासूसों से मुंह कौन लगे। कपों की तो मजबूरी है। बाकी बचते हैं।

खैर, मुद्दे पर आते हैं। तो आइए, इन दो प्रगतिशील जासूसों की जासूसी भरी बातें भी सुन लेते हैं। आज तो चर्चा का एक ही विषय है - पेगासस।

"और बताओ, क्या जमाना आ गया?' पहले ने शुरुआत वैसे ही की, जैसी कि अक्सर की जाती है।

"सही कह रहे हो। पर ये पेगासस है कौन?' दूसरा तुरंत ही मूल मुद्दे पर आ गया, क्योंकि आज तो फालतू बातों के लिए इन दोनों के पास बिल्कुल भी वक्त नहीं है।

"कोई जासूस है स्साला। फ्री में हर ऐरे-गैरे की जासूसी करता फिरता रहता है।' पहले ने थोड़ा ज्ञानी होने के दंभ के साथ कहा।

"बताओ, ऐसे ही जासूसों के कारण हमारी कोई इज्जत नहीं रही।' दूसरे ने यह बात इतनी संजीदगी से कही मानों उनकी कभी इज्जत रही होगी।  

"और एक-दो की नहीं, पूरी दुनिया की जासूसी करने का ठेका उठा लिया है इस पेगासस ने।' पहले ने जताया कि मामला वाकई गंभीर है।

"हां, रोज ही लिस्ट पे लिस्ट आ रही है, मानों चुनाव में खड़े होने वाले उम्मीदवारों की सूचियां निकल रही हों।' दूसरे ने गंभीरता की हवा निकाल दी।

दोनों जोर से हंसते हैं। फिर अचानक अपने-अपने होठों पर उंगली रखकर शांत रहने का इशारा करते हैं। लोगों को लगना नहीं चाहिए कि दो जासूस मूर्खतापूर्ण टाइप की बातें कर रहे हैं, जो हंसी की वजह बन रही है। भले ही बातें करें, पर लगे नहीं। इसलिए दोनों फिर धीमी आवाज में चर्चा शुरू देते हैं...

"यह भी क्या जासूसी हुई? अब आप नेताओं की जासूसी करवा रहे हों? नेताओं की जासूसी करता है क्या कोई?' पहला फिर गंभीर हो गया।

"हां, मतलब नेताओं के नीचे से आप क्या निकाल लोगे? कोई बड़ा राज निकाल लोगे? और जासूसी करके बताओंगे क्या? इतने करोड़ रुपए स्विस बैंक में, इतने करोड़ घर में, इतने करोड़ की बेनामी संपत्ति, इतने लोगों को ठिकाने लगाने के लिए ये पलानिंग, वो पलानिंग। जो चीज सबको मालूम है, वो आप बताओगे। ये क्या जासूसी हुई भला।' दूसरे ने पहले की गंभीरता में गंभीरता के साथ पूरा साथ दिया।

"बताओ, क्या जमाना आ गया।' पहला फिर जमाने को दोष देने लगा।

"पर ये जासूसी करवा कौन रहा है?' दूसरा अब पॉलिटिकल एंगल ढूंढने की जासूसी में लग गया है।

"कोई भी करवाए, हमें क्या मतलब?' पहले के भीतर का प्रगतिशील जासूस अब आम मध्यमवर्गीय औकात में बदलने की तैयारी करने लगा है। कप की कॉफ़ी खत्म जो होने लगी है।

दूसरा भी तुरंत सहमत हो गया। उसकी भी कॉफ़ी खत्म हो रही है। वह इस बात पर सहमत है कि हमें ऐसे फालतू के मामलों में ज्यादा चिंता करने की जरूरत नहीं। चिंता या तो सरकार करे जिसे हर उस मामले में देश की चिंता रहती ही है जिस मामले में उस पर सवाल उठाए जाते हैं। या फिर विपक्ष करे, जो अब इस भयंकर चिंता में मरा जा रहा है कि मामले को जिंदा रखने के लिए कुछ दिन और एक्टिव रहना होगा। संसद सत्र अलग शुरू हो गया है। रोज हंगामा खड़ा करना होगा। कैसे होगा यह सब!

खैर, दोनों की कॉफ़ी खत्म हो गई है। तो चर्चा भी खत्म। तशरीफ को झाड़कर दोनों उठ खड़े हुए। कॉफ़ी हाउस अब राहत की सांस ले रहा है।

(ए. जयजीत खबरी व्यंग्यकार हैं। अपने इंटरव्यू स्टाइल में लिखे व्यंग्यों के लिए चर्चित हैं।)

रविवार, 18 जुलाई 2021

Humor : पंजाब में अमरिंदर और सिद्धू की लड़ाई से क्यों खुश हुई कांग्रेस?

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By Jayjeet

 

10 जनपथ पर स्थित बड़े से बंगले के बड़े से गेट के बाहर फुटपाथ पर आज अचानक कांग्रेस अम्मा से मुलाकात हो गई। किनारे बैठी हुई। लेकिन घोर आश्चर्य, पोपले मुंह पर बड़ी ही स्मित मुस्कान! रिपोर्टर को रुकना ही था। अम्मा से यह दूसरी मुलाकात थी।

रिपोर्टर : पहचाना अम्मा?

कांग्रेस अम्मा : अरे हां, रिपोर्टर ना?

रिपोर्टर : बड़ी तेज याददाश्त है आपकी। मान गए आपको!

कांग्रेस अम्मा : बूढ़ी हो गई तो क्या हुआ, अब भी कुछ सांसें चल रही हैं (पोपले मुंह से जोरदार ठहाका)।

रिपोर्टर : आज बड़ी खुश नजर आ रही हों?

कांग्रेस अम्मा : बात ही ऐसी है। पंजाब से बड़ी अच्छी खबर आ रही है।

रिपोर्टर (चौंकते हुए) : अच्छी खबर? वहां तो आपके ही दो बेटे आपस में लड़ रहे हैं।

कांग्रेस अम्मा : यही तो अच्छी खबर है।

रिपोर्टर (लगता है बुढ़िया सठिया टाइप गई है) : कांग्रेस के दो नेता आपस में लड़ रहे हैं। इसमें क्या अच्छाई है?

कांग्रेस अम्मा : एक राज्य में कांग्रेस के पास दो-दो नेता हैं और दोनों की दोनों एक-दूसरे पर भारी। बेटा इससे अच्छी खबर और क्या होगी?

रिपोर्टर : पर वे तो आपस में लड़ रहे हैं अम्मा? (रिपोर्टर ने यह बात तीसरी बार रिपीट की)

कांग्रेस अम्मा : लड़ तो रहे हैं? यह कम है क्या? कांग्रेसियों को लड़ते हुए देखे तो जमाना हो गया। पर तुम मीडियावालों को कांग्रेस की खुशी देखी नहीं जाती। (बुढ़ापे की वजह से अम्मा शायद भूल गई कि थोड़े बहुत तो उसके राजस्थान के बेटे भी लड़े थे।)

रिपोर्टर : ऐसी बात नहीं है अम्मा। बंगाल में जब बीजेपी की हार पर आपने मोतीचूर के लड्डू बंटवाए थे, तो हम सबने बराबर खाए थे। हमारे ही कई लोगों ने तो खुद बंटवाए थे। पर अम्मा पंजाब में कांग्रेसियों के इस तरह लड़ने से क्या संदेश जाएगा? अच्छी बात है ये क्या?

कांग्रेस अम्मा : बेटा वही तो नहीं समझ रहे हो तुम। खुद को बड़ा रिपोर्टर कहते हो। भैया, इससे तो कांग्रेसियों में जान फूंक जाएगी। उन्हें इस बात का एहसास होगा कि वे भी लड़ सकते हैं। केवल घर बैठकर चर्बी चढ़ाना ही एकमात्र ऑप्शन नहीं है।

रिपोर्टर : लेकिन लड़ना तो सरकार के खिलाफ चाहिए ना?

कांग्रेस अम्मा (थोड़ी नाराजगी के साथ) : नवजोत क्या कर रहा है? सरकार के खिलाफ ही तो लड़ रहा है ना?

रिपोर्टर : पर वहां तो आपकी ही सरकार है? वहां वे क्यों लड़ रहे हैं?

कांग्रेस अम्मा : बेटा सरकार आज है, कल न रहे, पर अगर लड़ना सीख लिया तो यह दूसरी सरकारों के खिलाफ भी काम आएगा कि नहीं? बता, तू तो रिपोर्टर है ना!

रिपोर्टर ने बुढ़िया से ज्यादा मगजमारी करना मुनासिब नहीं समझा। आखिरी सवाल पर आ गया।

- अम्मा, चलिए आप खुश तो हम खुश। पर आप तो ये बताओ, उप्र में चुनाव आ रहे हैं। बाकी पार्टियों ने तैयारियां भी शुरू कर दी हैं। आपकी क्या तैयारी है?

कांग्रेस अम्मा : उप्र? ये क्या है? (कुछ याद आने के बाद) अच्छा, योगी के उत्तर प्रदेश की बात कर रहा है? तैयारी कर रहे हैं हम, बिल्कुल कर रहे हैं।

रिपोर्टर : वही तो पूछ रहे हैं। क्या तैयारी कर रहे हैं?

कांग्रेस अम्मा (10 जनपथ निवास की ओर इशारा करते हुए) : वो अंदर जाकर पूछो ना, वे ही बताएंगे?

रिपोर्टर : अरे अम्मा, हमारी वहां तक कहां पहुंच है। आप तो पहुंच सकती हैं। आप ही बताइए ना।

कांग्रेस अम्मा : बेटा, पहुंच तो मेरी भी कहां है! इसीलिए तो फुटपाथ पर बैठकर पंजाब को लेकर खुशी मना रही हूं। चल अब यहां से जा, अंदर कोई समझौता हो जाए और सब पहले ही तरह घर बैठ जाएं, उससे पहले इस बुढ़िया को खुशी मना लेने दें। ऐसे मौके बार-बार नहीं आते।

(ए. जयजीत खबरी व्यंग्यकार हैं। अपने इंटरव्यू स्टाइल में लिखे व्यंग्यों के लिए चर्चित हैं।)
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बुधवार, 7 जुलाई 2021

Satire & Humor : जब राजा के दर्पण ने की दिल की बात, मतलब बड़ी वाली बदतमीजी!!

मोदी पर व्यंग्य, satire on modi

By Jayjeet

सुबह नित्य कर्म, योगासन और ध्यान-स्नान से फ्री होते ही वे अपने बालों को संवारने के लिए हमेशा की तरह दर्पण के सामने थे। लेकिन बाल संवारते-संवारते आज उन्हें दर्पण में कुछ हलचल महसूस हुई। शायद दर्पण कुछ कहना चाहता है। हालांकि दर्पण कहना तो काफी दिनों से चाहता था, लेकिन महसूस उन्होंने आज किया। पर उनके सामने कुछ कहने की क्या कोई मजाल कर सकता है? इसलिए उनके ईगो को हलकी-सी ठेस लगी। वे एक कदम पीछे हो गए और फिर दर्पण से मुंह फेर लिया। लेकिन तभी उन्हें आवाज सुनाई दी - राजन ओ राजन...। यह दर्पण से ही आ रही थी।
आवाजों को इग्नोर करना उन्होंने सीख लिया था। राजा चाहे कोई भी हो, किसी भी काल-युग का हो, धीरे-धीरे इग्नोरेंस उसका स्थाई भाव बन जाता है। वे चाहते तो इस आवाज को भी इग्नोर करके अपनी राह पर आगे बढ़ सकते थे। यह उनकी प्रतिष्ठा में चार चांद ही लगाता। लेकिन फिर अभिमानी मन ही आड़े आ गया। तो दर्पण से दूर होते कदम ठिठक गए और चेहरा फिर से दर्पण की ओर घूम गया, मानो चुनौती देते हुए कह रहे हैं कि ए तुच्छ दर्पण, बता, क्या है तेरी रज़ा!
दर्पण धीरे से कुछ बुदबुदाया.... लेकिन आवाज साफ नहीं आ पाई। कॉन्फिडेंस का अभाव था।
'क्या तू कुछ कहना चाहता है दर्पण?'
'जी जी, मैं कुछ बातें करना चाहता हूं...।' दर्पण के मुंह से हकलाते हुए कुछ शब्द फूटे।
'अच्छा, अपने मन की बात करना चाहता है?' राजा अपनी चिर-परिचित शैली में मुस्कुराए।
'मन की बात तो राजन आप बहुत कर चुके, मैं तो दिल की बात करना चाहता हूं...'
'अच्छा! तू मेरा दर्पण होकर दिल की बात करना चाहता है? तुझे पता नहीं, राजाओं के महलों में लगे दर्पण कभी अपने दिल की नहीं करते?'
'हां, राजन। अच्छे से पता है। राजाओं के महलों के दर्पण भी बस राजाओं के प्रतिबिम्ब होते हैं। वे तो केवल राजाओं के मन की बात ही करेंगे। फिर भी आज दिल की कुछ कहना चाहता हूं, मगर ...'
'मगर क्या? '
'बता तो दूं, मगर डरता भी हूं।'
'अरे, तू मेरा दर्पण है, तुझमें मेरा ही प्रतिबिम्ब है। तुझे इस बात का इल्म नहीं कि हमने कभी डरना सीखा नहीं, फिर तू कैसे डर सकता है?' राजाओं का अभिमान पल-पल में जागता रहता है।
'डरता इसलिए हूं क्योंकि दिल, वह भी दर्पण का, कभी झूठ नहीं बोलता। और सच सुनाने की हिम्मत नहीं हो रही।'
'अच्छा, लेकिन ऐसा कौन-सा सच है जो हमसे छुपा हुआ है? मेरे दरबारी मुझे हमेशा सच से बाख़बर रखते हैं।'
'लेकिन दरबारी वही सच सुनाते हैं जो राजा सुनना चाहता है।'
'लेकिन तुम सच ही बोलोगे, इसका क्या भरोसा?'
'क्योंकि कहा ना, दर्पण झूठ नहीं बोलते।'
'इतना अभिमान?'
'सब आपसे ही सीखा, आपके ही महल में रहते-रहते।' शायद ज्यादा बोल गया दर्पण। इस बात का तुरंत एहसास होते ही उसने मिमियाती आवाज में एक ठहाका लगाया। ठहाका लगाने से वातावरण का तनाव दूर हो जाता है। इतने सालों में दर्पण ने यह भी सीखा और देखा है।
'हमसे और क्या-क्या सीखा?' राजा ने भी चुटकी ली।
'खुद को पॉलिश करके रखना। देखो, कितना चकाचक हूं, आपके ही वस्त्रों की तरह।' दर्पण अब थोड़ी सीमा उलांघने की गुस्ताखी करने लगा है।
'मतलब सूटेड-बूटेड होना गलत नहीं है ना!' राजा को अब उसकी बातों में मजा आने लगा है। बातचीत इनफॉर्मल होने लगी है।
'बिल्कुल नहीं। यह तो विकास का एक बड़ा पैमाना है।' राजा का दर्पण है तो बात कुछ-कुछ राजा के मनमाफिक करना भी जरूरी है।
'वाह दर्पण, तू ही है जो मेरे मन की बात अच्छे से समझता है। तू तो विकास का शोकेस बन सकता है, विकास का प्रतिबिम्ब।'
'अभी तो केवल आप मेरे सामने हैं। तो मैं फिलहाल आपका ही प्रतिबिम्ब हूं।' अब दर्पण ने चुटकी ली। अब दर्पण थोड़ा-थोड़ा खुलने लगा है।
'बहुत डिप्लोमैटिक भी हो गया है रे तू।'
'यह भी आपसे ही सीखा है राजन।'
"तूने अच्छा किया जो मुझसे बात कर ली। मैं तो भूल ही गया था कि तेरा भी हम राज्य के हित में बेहतर इस्तेमाल कर सकते हैं।' वही राजा कुशल होता है जो हर मौके पर अपने काम की बात निकाल ले।
'वह कैसे भला?' दर्पण चाैंका। राजा की मंशा पर मन की मन शक करने की गुस्ताखी की।
'इन दिनों प्रजा के बीच विश्वास का बड़ा संकट है। राज्य के विकास संबंधित तमाम आंकड़े हम तेरे जरिए ही दिखाएंगे तो लोग सच मान लेंगे। क्योंकि भोली प्रजा भी तो यही मानती है कि दर्पण कभी झूठ नहीं बोलता।'
'मगर गरीबी, बेरोजगारी, महंगाई जैसे आंकड़ों का सच मैं कैसे छिपाऊंगा? मैं धोखा तो नहीं दे सकता।' दर्पण ने अचानक अपनी औकात की सीमा के बाहर कदम रख दिया है।
लेकिन दर्पण की इस बात से राजा को गुस्सा नहीं आया, बल्कि उसकी मासूमियत पर मुस्कुरा भर दिए। राजा चाहते तो हंस भी सकते थे। बात ही इतनी हास्यास्पद थी। फिर भी मुस्कुराए भर।
'राजन, हर आंकड़े का सच प्रजा को मालूम होना ही चाहिए।' दर्पण अब नैतिकता पर उतरने का दुस्साहस करने लगा है।
'तू बहुत छोटा है दर्पण। हर आंकड़ा तुझ में नहीं समा सकता। तो हम वही आंकड़े दिखाएंगे, जो राज्य के विकास का प्रतिबिम्ब दर्शाए।' राजा ने बागी होते जा रहे दर्पण को बहलाने की कोशिश की।
'लेकिन मैं सहमत नहीं हूं।' दर्पण की बदतमीजी बढ़ती गई।
'तू एक राजा के महल का दर्पण है। यह बात कैसे भूल गया?' राजा का धैर्य जवाब दे गया। इसलिए मुट्‌ठी भींचकर राजा चीख पड़े।
दर्पण भी एक पल के लिए कांप उठा, फिर संभलकर बोला, 'गुस्ताखी माफ राजन, दर्पण तो दर्पण होता है, फिर वह गरीब की झोपड़ी में लगा हो या किसी राजा के महल में?'
दर्पण की जबान कड़वी होती जा रही थी। शायद दर्पण थोड़ा-थोड़ा स्वाभिमानी हो रहा था। फिर बात आगे बढ़ी... बढ़ती गई... बढ़ती ही चली गई... फिर इतनी बढ़ी कि दर्पण ने औकात की तमाम सीमाएं पार कर ली।
मगर राजा तो राजा है। गुस्ताख दर्पण के साथ वही होना था जिसके वह लायक था। वह अब जमीन पर था। टुकड़े-टुकड़े। उस गुस्ताख दर्पण को सजा मिल चुकी थी। राजा की सहृदयता पर गुस्ताखी करने का नतीजा क्या होता है, दर्पण के उन टुकड़ों से यही कहने के लिए राजा नीचे की ओर झांके, थोड़ा झुके भी। लेकिन अब वहां एक दर्पण नहीं था। टुकड़े-टुकड़े कई दर्पण थे और सभी गुस्ताखी कर रहे थे। अपने दिल की बात सुना रहे थे। बात एक दर्पण ने शुरू की थी। अब कई दर्पण तक पहुंच गई थी। राजा ने घबराकर अपने हाथों से कान ढंक लिए। आंखें बंद कर ली। मुंह फेर लिया।

(ए. जयजीत खबरी व्यंग्यकार हैं। अपने इंटरव्यू स्टाइल में लिखे व्यंग्यों के लिए चर्चित हैं।)