By जयजीत अकलेचा
कांग्रेस जैसी विचारशून्य हो चुकी पार्टी के पास तो सरकारी कर्मचारियों की पुरानी पेंशन को बहाल करने के अलावा कोई इश्यू था नहीं। तो उसने वही किया, जहां तक उसकी सोच जा सकती थी: जिन-जिन राज्यों में उसने चुनाव जीते, वहां फौरन इकोनॉमी का सत्यानाश करने वाले निर्णयों की घोषणा कर दी। लेकिन तमाम पुरातनपंथी सोच के बावजूद मुझे लगता था कि भाजपा कम से कम अपने शीर्ष पुरोधा अटल बिहारी वाजपेयी की उस पहल व इच्छा का सम्मान करना जारी रहेगी, जिसके तहत उन्होंने पेंशन जैसे भारी-भरकम अनुत्पादक खर्च को धीरे-धीरे कम करने का आइडिया दिया था। लेकिन राजनीति के इस दौर में जब चुनाव जीतना ही एकमात्र मकसद बन जाए तो बेचारे राजनीतिक दल भी क्या करें? पुरानी पेंशन स्कीमों को बहाल करने जैसे विकास विरोधी काम करना लाजिमी है। जैसी की खबरें आ रही हैं, अब कनार्टक के साथ-साथ मप्र की भाजपा सरकार भी पुरानी पेंशन स्कीम को लागू करने की तरफ आगे बढ़ गई है और इस तरह देश को भाजपामुक्त बनाने की दिशा में भी एक और सशक्त कदम बढ़ा लिया गया है। कांग्रेस को भावभीनी
बधाई
! खैर, नेताओं से कोई शिकायत नहीं। उनके 1,000 पाप माफ। लेकिन फिर वही बुनियादी सवाल- आखिर बाकी लोग सवाल क्यों नहीं उठाते? चलिए उन 6 फीसदी सरकारी कर्मचारियों को भी छोड़ दीजिए, जिनके वोटों के लिए सरकारें/पार्टियां मरी जा रही हैं। लेकिन बचे हुए वे 94 फीसदी लोग क्या कर रहे हैं, जो इस भारी-भरकम सरकारी मुफ्तखोरी की योजना के दायरे से बाहर हैं? वे क्यों यह एक अदद सवाल नहीं उठाते कि आखिर कुछ सालों के बाद इस पेंशन के लिए पैसा कहां से आएगा?
चलिए, पहले एक छोटा-सा भयावह आंकड़ा ले लेते हैं। हो सकता है, तब सवाल उठाने में आसानी हो: साल 2019-20 में केंद्र और राज्य सरकारों दोनों द्वारा पेंशन और अन्य रिटायरमेंट लाभों पर पर कुल व्यय राशि सालाना 4,134 अरब रुपए पर पहुंच गई थी। यह राशि 30 साल पहले की तुलना में 80 गुना ज्यादा थी। अब 30 साल बाद का अनुमान लगा लीजिए। शायद आपका कैल्युलेटर तो इसकी गणना करते समय माफी मांग लेगा। अब वापस से सवालों के सिलसिले पर आते हैं: आखिर इतना पैसा आएगा कहां से? राज्य कर्ज लेंगे, तो कर्ज चुकाएगा कौन? केवल सरकारी कर्मचारी तो नहीं चुकाएंगे। चुकाना तो उन 94 फीसदी को भी पड़ेगा, जो असेट्स क्रिएट करने में सबसे ज्यादा भूमिका निभाते हैं। क्या यह उन सरकारी लोगों की ‘सेवा’ की भारी कीमत नहीं है, जिन्हें ‘सेवा’ करने के लिए पीले चावल तो कतई नहीं दिए गए थे?
ज्यादा दिन नहीं हुए, जब मोहन भागवत साहब ने एक परम ज्ञान दिया था कि युवा सरकारी नौकरी के पीछे ना भागें। पर अब भागवत जी मेरा उलट सवाल- क्यों न भागें? मैं ही बताता हूं। इसमें दो सुभीते हैं- एक तो नौकरी की पक्की गारंटी (जो कोविड जैसे संकट के समय काम आती है) और दूसरा, सरकारों पर पेंशन टाइप की योजनाएं बहाल करने के लिए संगठित तौर ब्लैकमेलिंग करने का सुभीता। सरकारी कर्मचारी अपनी मांगों के लिए जुट सकते हैं, प्रदर्शन कर सकते हैं। और बेचारी मासूम सरकारें, चूं तक नहीं कर सकतीं, क्योंकि उन्हें तो थोक में सरकारी कर्मचारियों के वोट चाहिए, नहीं तो दूसरी पार्टियां लार टपकाए बैठी ही हैं।
मान लेते हैं कि सरकार के लिए सबसे महत्वपूर्ण केवल 6 परसेंट सरकारी कर्मचारी ही हैं। तो सत्तासीन और सत्ता में आने को आतुर पार्टियों से कम से कम 94 फीसदी लोग तो अब यह पूछें- क्या सरकारें हमें अपने 6 परसेंट लाड़लों की पेंशन के बदले में प्रोडक्टिविटी से भरपूर भ्रष्टाचार मुक्त शासन देने की गारंटी दे सकती है? हंड्रेड परसेंट नहीं। तो हमसे यह उम्मीद क्यों कि हम वोट देने भी अपने घरों से निकलें?
(पुनश्च: 30 साल के बाद आज के हालात को देखते हुए जैसी की आशंका है कि देश दिवालिया हो चुका होगा (और जैसा कि तय है कि नरक में बैठे हमारे आज के अधिकांश नेता पार्टी लाइन से ऊपर उठकर एकसाथ बैठकर हमारी मूर्खता पर हंस रहे होंगे), उस समय उन 6 फीसदी सरकारी कर्मचारियों की नई पीढ़ी को भी शायद उतना ही खामियाजा भुगतना होगा, जितना की शेष 94 फीसदी लोगों की भावी पीढ़ियों को…।)
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