एक व्यक्ति फिल्म देखकर आता है और कहता है- बहुत घटिया है...
तीसरा सोचता है- दो लोग देखकर आए और घटिया कह रहे हैं। लेकिन कितनी ज्यादा घटिया, ये नहीं बता रहे। बड़ा vague सा मामला है। फिर वह खुद देखता है और घोषणा करता है- महाघटिया...
और स्वयं उद्घोषणा के चक्कर में घटिया फिल्में करोड़ों के वारे-न्यारे कर लेती हैं और दूसरे निर्माता-निर्देशकों को इससे भी घटिया बनाने के लिए इंस्पायर कर जाती हैं।
जंगल में जब कोई जानवर खतरा देखकर बाकी एनिमल्स को आगाह करता है, तो वे सब उसके इशारे पर भरोसा करते हैं और उनमें से कई जानवर सुरक्षित बचने में सफल हो जाते हैं। इसे जंगल का 'अलार्म सिग्नल' कहते हैं।
यह वह प्रवृत्ति है, जो जानवरों को इंसान से अलग करती है। इंसान के सामने सबसे बड़ा संकट तो विश्वास का है। इसलिए वह दूसरों को ठोकर खाकर देखते हुए भी खुद ठोकर खाकर अनुभव लेना ज्यादा पसंद करता है- क्या पता सामने वाला नाटक कर रहा हो!
लेकिन कभी-कभी इंसानी अलार्म सिग्नल पर भरोसा करना समझदारी होता है। इससे आप पैसे भी बचा सकते हैं और सवा तीन घंटे का कीमती समय भी। हां, वाकई कीमती। इंसान रेड सिग्नल के ग्रीन होने के लिए 10 सेकंड का भी इंतजार नहीं करता है तो समझा जा सकता है कि उसके लिए 3 घंटे 21 मिनट कितने कीमती होंगे!
एक सवाल भी... इंसान के भीतर के शैतान की तुलना एनिमल से करना क्या जानवरों के प्रति ज्यादती नहीं है? साथ लगी तस्वीर में जानवरों की मासूमियत देखिए। आप मेरी बात से जरूर सहमत होंगे। कम से कम PETA जैसे संगठनों को तो इस पर आपत्ति उठानी ही चाहिए। हो सकता, उठाई भी हो।
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