जयजीत अकलेचा/Jayjeet Aklecha
कई दिनों बाद उनका नंबर आया। वे रिसेप्षन पर पहुंचे, लेकिन रिसेप्षनिस्ट
गायब थी। वे अंदर चले गए। वहां एक बड़ा-सा कैबिन बना हुआ था जिसके बाहर लटक
रही नेमप्लेट पर लिखा हुआ था- चित्रगुप्त। महाषय सीट पर नहीं थे। अलबत्ता
एसी आॅन था। सीटों से और भी कई लोग नदारद थे। किससेे पूछे, सोच ही रहे थे
कि सामने से एक सुंदर-सी अप्सरा आती दिखाई दी। मन में कुछ लालसा उठी, लेकिन
दबाते हुए पूछा, ‘साहब, कब मिलेंगे?’
‘अभी लंच टाइम चल रहा है, दिखता नहीं है क्या!’ अप्सरा ने रुखा-सा जवाब दिया।
‘दो घंटे से लंच!’ मन ही मन कुड़कुड़ाए।
उन्होंने
दायीं तरफ देखा तो एक बड़ा-सा टीवी चलता नजर आया। वहां भी कोई नहीं था।
उन्होंने सोचा, चलो कुछ देर टीवी पर टाइम पास करते हैं। लेकिन वह टीवी नहीं
था। ऐसा लग रहा था मानो धरती से लाइव टेलीकास्ट हो रहा हो। वे पहचान गए,
अरे उनका ही षहर था। वे अपने षहर के नेता हुआ करते थे। लेकिन एक हादसे में
उपर पहुंच गए। यमलोक का कैमरा उनके पार्टी दफतर पर फोकस था। उनकी बड़ी-सी
फोटो पर फूलमाला लटकी हुई है, अगरबत्तियां जल रही हैं। कोने में उनके दो
खास पट्ठे बैठे हुए थे, जिन्होंने राजनीति में निःस्वार्थ भाव से उनकी सेवा
की थी। ऐसा नेताजी का मानना था। ‘मेरे जाने के बाद दोनों जरूर मुझे मिस कर
रहे होंगे और चुनाव को लेकर चिंतित हो रहे होंगे’, यह सोचते हुए उन्होंने
स्पीकर आॅन कर दिया।
‘बुढ़वू के जाते ही हवा अपने पाले में आ गई गुरु! सहानुभूति वोट मिलना तय है।’ पहले वाला बोला।
‘सही टाइम पर खिसक गया, नहीं तो जमानत जब्त होनी तय थी। अपने भी करियर की वाट लग जाती।’ दूसरा बोला।
सुनते
ही उनका दिल धक्क रह गया। इस बीच कैमरा उनके बंगले में पहुंच गया था।
बंगले में धर्मपत्नी रो रही थी। सालियां पास में ही बैठी हुई थीं, ‘दीदी,
बहुत बुरा हुआ, अब आपका क्या होगा!’
दीदी-‘होनी को कौन टाल सकता है
भला! वैसे भगवान जो भी करते होंगे, सोच-समझकर ही करते होंगे। उनके साथ मुझे
भी सादगी का दिखावा करना पड़ता था। घर में फाॅरेन ब्रांड्स की क्या-क्या
चीज नहीं हैं, पर कुछ पहनने-ओढ़ने दे तब ना। विरोधियों की ज्यादा ंिचंता थी।
मैं तो तंग आ गई थी।’ और फिर आंसू बह निकले। वैसे ही आंसू, जैसे नेताजी
अक्सर बहाते थे।
तभी यमलोक का कैमरा उनके बेटे की तरफ
गया। बेटे को टिकट मिल गया था। वह अपने बहुत ही खास मित्र से कुछ कह रहा
था। उन्होंने स्पीकर लाउड कर दिया, ‘बप्पा जीते-जी विरासत छोड़ जाते थे तो
क्या बिगड़ता! लेकिन कुर्सी से इतना मोह कि क्या बताएं! इसलिए मुझे ही कुछ
करना पड़ा।’
‘तो क्या, वह हादसा नहीं था?’ मित्र से अचरज से पूछा।
‘नहीं भाई, राजनीति में सब जायज है।’ बेटा मुस्कुरा दिया।
नारे लग रहे थे ‘जब तक सूरज-चांद रहेगा, बप्पा तेरा नाम रहेगा।’ बेटा भी नारे लगाने वालों में षामिल हो गया था।
उधर, यमलोक में नेताजी को दिल का दौरा पड़ गया था। यमलोककर्मी उन पर पानी के छींटे डाल रहे थे।
कार्टून: गौतम चक्रवर्ती