अगर ऐसा ही चलता रहा (और चलेगा ही) तो दो-चार साल में मप्र में शासकीय अवकाश कैलैंडर जारी करने के बजाय 'वर्किंग डे' का कैलेंडर जारी करना पड़ेगा। इसमें बताया जाएगा कि सरकारी कर्मचारियों को किस महीने एक या दो दिन दफ्तर आना है।
यहां आपको कॉन्टेंट मिलेगा कभी कटाक्ष के तौर पर तो कभी बगैर लाग-लपेट के दो टूक। वैसे यहां हरिशंकर परसाई, शरद जोशी जैसे कई नामी व्यंग्यकारों के क्लासिक व्यंग्य भी आप पढ़ सकते हैं।
गुरुवार, 8 जून 2023
अवकाश कैलैंडर के बजाय 'वर्किंग डे' का कैलेंडर!
शुक्रवार, 2 जून 2023
भेड़िया आया भेड़िया आया… क्यों याद आ गई यह भूली-बिसरी कहानी!
शनिवार, 27 मई 2023
यहां कोई हेडिंग नहीं... फोटोज में दी गईं हेडिंग्स काफी हैं...
मंगलवार, 23 मई 2023
महाराणा प्रताप के वंशज का तमाचा… आवाज न आई, पर शायद चाेट तो लगी होगी!!!
एक छोटी-सी खबर जिस पर शायद ही किसी का ध्यान गया होगा, आज के परिप्रेक्ष्य
में काफी महत्वपूर्ण है। यह खबर उन लोगों को आईना दिखाती है, जिनके लिए पुराने महान
नायकों के नाम पर राजनीति करना शौक बन गया है।
महाराणा प्रताप के वंशज डॉ. लक्ष्यराज सिंह मेवाड़ ने कल महाराणा प्रताप
की जयंती पर एक अखबार को दिए इंटरव्यू में एक बेहद महत्वपूर्ण बात कही है। उनके अनुसार
महाराणा प्रताप एक जननायक थे, केवल हिंदू नायक नहीं। उन्होंने यह भी जोड़ा- हकीम खां
सूर (शेर शाह सूरी के वंशज) उनके सेनापति थे।
इस महत्वपूर्ण बात के साथ एक ऐतिहासिक तथ्य और जोड़ते चलते हैं। महाराणा
प्रताप के मुख्य प्रतिद्वंद्वी यानी अकबर की सेना के प्रधान सेनापति थे राजा मानसिंह
प्रथम। कल्पना कीजिए कि कितना दिलचस्प होगा वह नजारा- हल्दीघाटी की प्रसिद्ध जंग का
मैदान। एक तरफ महाराणा प्रताप की सेना, जिसकी अगुवाई कर रहे हैं हकीम खां सूर और दूसरी
तरफ अकबर की सेना जिसकी अगुवाई कर रहे हैं राजा मानसिंह।
लक्ष्यराज सिंह का यह कहना जितना उचित है कि प्रताप केवल हिंदू नायक नहीं
थे, उतना ही उचित यह मानना भी है कि अकबर केवल मुस्लिमों के नायक नहीं थे। ये वे राजा
थे, जिन्होंने कोई धर्मयुद्ध नहीं लड़े थे। ये किसी धर्म का प्रतिनिधित्व नहीं कर रहे
थे, बल्कि ये सच्चे राजा का कर्त्तव्य निभा रहे थे, जिनके लिए अपनी धरती की रक्षा करना
या अपने साम्राज्य का विस्तार करना ही सबसे महत्वपूर्ण था।
उपरोक्त तथ्य यह भी बताता है कि 400 साल में हम कहां से कहां आ पहुंचे।
आज इक्कीसवीं सदी के नेता हमारे वीर प्रताप को हिंदुओं तक सीमित करने का कुत्सित प्रयास
कर रहे हैं और अकबर को तो इतिहास से निकालकर कूड़ेदान में पटक दिया गया है। अकबर के
साथ-साथ राजा मानसिंह सहित उन नवरत्नों को भी जिनमें तानसेन, बीरबल और राजा टोडरमल
भी शामिल हैं।
डॉ. लक्ष्यराज की बात शायद उन लोगों को 'धोखा' लग सकती है, जिन्होंने उन्हें
अपने एजेंडे को और आगे बढ़ाने के लिए बुलाया था। लेकिन डॉ. लक्ष्यराज ने बहुत ही साफगोई
से यह बात कहकर साबित कर दिया कि वे वीर महाराणा प्रताप के वंशज यूं ही नहीं हैं। हो
सकता है आपको अकबर पसंद ना हो, लेकिन सोचिए, क्या महाराणा प्रताप को हकीम खां सूर,
अकबर और राजा मानसिंह के बगैर याद किया जा सकता है?
(पुनश्च... यह भी हो सकता है कि आने वाले वर्षों में ‘इतिहास पुनर्लेखन’ के नाम पर सेनापति
अदल-बदल दिए जाएं...! तब शायद यह धर्मसंकट भी खत्म जाएगा, जो आज उपरोक्त ऐतिहासिक तथ्य
से कुछ लोगों के सामने खड़ा हो गया होगा। या कोई नया 'ऐतिहासिक तथ्य' यह भी आ सकता है
कि मानसिंह की मां या बहनों को तो अकबर ने बंदी बनाकर रखा था और वह उसे लड़ने के लिए
ब्लैकमेल कर रहा था, बिल्कुल बॉलीवुडी कहानी के खलनायक अजित की तरह... आजकल ऐतिहासिक
तथ्यों को जिस तरह कहानियों जैसा ट्रीट किया जा रहा है तो यह असंभव भी नहीं है...!)
रविवार, 30 अप्रैल 2023
राजनीति के आगे जब चैम्पियन्स हाथ जोड़ने को मजबूर हो जाएं...!!!
By Jayjeet Aklecha
गुरुवार, 27 अप्रैल 2023
बोर्नविटा के बहाने आइए कुछ असल सवाल उठाएं…
By Jayjeet Aklecha
सोमवार, 17 अप्रैल 2023
मेरी रेवड़ी अच्छी, तुम्हारी खराब!!!
By Jayjeet Aklecha
एक राष्ट्रीय अखबार द्वारा करवाए गए एक सर्वे में एक बेहद रोचक आंकड़ा सामने आया है। इसके अनुसार 90 फीसदी सरकारी कर्मचारियों ने फ्रीबीज यानी रेवड़ियों को गलत ठहराया है। फ्रीबीज का मतलब मुफ्त अनाज, लाड़ली बहना टाइप की योजनाएं, बिजली बिलों में छूट, गरीबों को गैस सिलिंडर में सब्सिडी आदि।
यहां वह 10 प्रतिशत का डेटा काफी महत्वपूर्ण है, जिन्होंने फ्रीबीज का विरोध नहीं किया है। इनके नैतिक साहस की सराहना की जा सकती है। लेकिन सवाल यह है कि जिन सरकारी कर्मचारियों ने फ्रीबीज को गलत बताया है, क्या वे इसका विरोध करने का कोई नैतिक आधार भी रखते हैं? आइए कुछ तथ्यों के साथ ही बात करते हैं।
- केंद्र और राज्य सरकारों द्वारा सरकारी कर्मचारियों पर हर साल 4,100 अरब रुपए पेंशन पर खर्च किए जाते हैं। नौकरी खत्म करने के बाद यानी बगैर काम किए यह पैसा फ्रीबीज ही है। हालांकि मैं यह कतई नहीं कर रहा हूं कि यह फ्रीबीज अनुचित है।
- नई पेंशन योजना के तहत अधिकांश सरकारें प्रत्येक सरकारी कर्मचारी की कुल सेलरी का 14 फीसदी अपनी तरफ से योगदान दे रही है। यानी 5 लाख सालाना वेतन पाने वाले कर्मचारी को हर साल औसतन 70 हजार रुपए सरकार दे रही है (वेतन के हिसाब से यह राशि कम-ज्यादा होगी)। यहां भी मैं यह नहीं कह रहा हूं कि यह गलत है। पर कमजोर वर्गों को मिलने वाली फ्रीबीज को अनुचित बताने वाले कृपया वह डेटा लेकर आएं, जिसमें लोगों को हर साल कम से कम 70 हजार रुपए सरकार अपनी ओर से दे रही है और आने वाले कई सालों तक देगी।
अब इनमें हर साल मिलने वाले ढेरों अवकाश को भी जोड़ लेते हैं। 100 से 150 तक अवकाश तो होंगे ही। जिन्हें मुफ्त योजनाओं यानी फ्रीबीज का फायदा मिलता है, उनमें से अधिकांश असंगठित क्षेत्रों में काम करने वाले वे लोग हैं, जिनकी एक दिन की छुट्टी का मतलब एक दिन की कमाई से वंचित होना होता है।
खैर, यह पेंशन-अवकाश के दिन वेतन वाली फ्रीबीज तो उनके लिए हैं, जो जीवन भर ईमानदारी से काम करते हैं। फिर दोहरा रहा हूं कि यह फ्रीबीज पूरी तरह से गलत नहीं है।
अब जरा उस फ्रीबीज की बात कर लेते हैं जो सब कर्मचारियों को नसीब नहीं होती, लेकिन गरीबों को मिलने वाली फ्रीबीज का विरोध करने वाले 90 प्रतिशत में ये भी अवश्य शामिल रहे होंगे। विश्व बैंक के 2019 के एक आंकड़े के अनुसार दुनियाभर में रिश्वत से सिस्टम को 3,600 अरब रुपए का नुकसान हुआ। यह वह राशि है, जो काउंटेबल थी (व्यावहारिक समझ से हम अनुमान लगा सकते हैं कि यह बहुत छोटा आंकड़ा है )। रिश्वत में बड़ी राशि काउंटेबल नहीं होती है। भारत का अलग से आंकड़ा नहीं है, लेकिन कुछ सौ अरब रुपए तो मान लीजिए। नेताओं के बाद रिश्वत के ज्यादातर मामलों में सरकारी कर्मचारी शामिल होते हैं। तो सरकारी कर्मचारी इस फ्रीबीज के बारे में क्या कहेंगे? अगर देश की सभी लाड़ली बहनों को भी हर माह हजार-हजार रुपए दे दिए जाएं, तब भी वह राशि रिश्वत के बतौर सरकार को होने वाले नुकसान के बराबर नहीं पहुंच पाएगी।
बेशक, वृद्धावस्था में सरकारी कर्मचारियों का ध्यान रखना सरकार की जिम्मेदार है। निम्न वर्ग को भी अतिरिक्त आर्थिक सहायता पहुंचाकर उसके आर्थिक स्तर को ऊंचा उठाना भी सरकार की जिम्मेदारी है। और खुले मन से यह स्वीकार करना सम्पन्न समाज की भी जिम्मेदारी है कि कमजोरों को हमेशा मदद की दरकार रहेगी।
हां, फ्रीबीज या रेवड़ियों के पीछे निश्चत तौर पर राजनीतिक मकसद होते हैं। हर रेवड़ी अच्छी नहीं हो सकती। उसी तरह से हर रेवड़ी खराब भी नहीं होती। और अगर खराब होगी तो सभी की होगी। मेरी रेवड़ी अच्छी, दूसरों की खराब, यह न्यायसंगत नहीं!
#freebies #Jayjeet #रेवड़ियां
रविवार, 9 अप्रैल 2023
पुस्तक 'पांचवां स्तंभ' की समीक्षा...आज तक के एप चैनल 'साहित्य Tak' में...
पुस्तक 'पांचवां स्तंभ' की समीक्षा...आज तक के एप चैनल 'साहित्य Tak' में...
'आज तक' वेबसाइट पर किताब पांचवां स्तंभ की समीक्षा - वीडियो
'आज तक' पर किताब पांचवां स्तंभ की समीक्षा
मान लीजिए, कभी-कभी खराब राजनीति भी अच्छी सामाजिक क्रांति का वाहक बन जाती है…!
(तस्वीर किसी बैंक के बाहर लाइन में लगी लाड़ली बहनों की है।) |
सरकारी पेंशन: शेष 94 फीसदी लोग कम से कम यह तो पूछें- हमें वोट देने के लिए टाइम खोटी करना भी है कि नहीं?
जतन करें कि शिवजी मुस्कराएं.. अन्यथा... !!! और शिवजी केवल रुद्राक्ष को पूजने भर से खुश नहीं होंगे!!!
शनिवार, 5 नवंबर 2022
उफ!!! ये तो भारी सदमे वाली खबर है...!!
बुधवार, 19 अक्तूबर 2022
KarwaChauth : करवा चौथ की पूर्व संध्या पर जब पति ने चित्रगुप्त को किया फोन किया
करवा चौथ की पूर्व संध्या पर एक पति ने चित्रगुप्त को फोन किया…
सोमवार, 3 अक्तूबर 2022
जयजीत अकलेचा की व्यंग्य पुस्तक पांचवां स्तम्भ : व्यंग्य विधा में अनुपम प्रयोग
By ब्रजेश कानूनगो
हिंदी साहित्य में इन दिनों कुछ विधाओं में रचनाओं में एक तरह का उछाल सा महसूस किया जा रहा है। साहित्य की विशिष्ट पत्रिकाओं को छोड़कर खासतौर पर लोकप्रिय पत्रिकाओं और अखबारों में प्रकाशित रचनाओं की बात करें तो लघुकथा और व्यंग्य विधा के जरिए साहित्य संसार में प्रवेश के बड़े द्वार खुल गए हैं।
आधुनिक टेक्नोलॉजी से सम्पन्न और अभ्यस्त अनेक नए लेखक बारास्ता सोशल मीडिया भी कविता के बाद व्यंग्य और लघुकथा के क्षेत्र में ही अधिक सक्रिय नजर आ रहे हैं। ऐसे में व्यंग्य विधा में जो बहुतायत से लिखा हुआ आ रहा है उस पर कई सवाल भी खड़े किए जाते रहे हैं। विधा की लोकप्रियता और लेखकों की भीड़ के बीच रचनाओं की गुणवत्ता के पतन की बात भी उठती रही है।
व्यंग्य विधा के मानक सौंदर्यशास्त्र के अभाव में परसाई जी और शरद जोशी या अन्य विशिष्ठ व्यंग्यकारों द्वारा स्थापित व्यंग्य के मानकों पर आज भी नई रचनाओं को परखने की विवशता दिखाई देती है। प्रेमचंद के बाद कहानी और परसाई के बाद हिंदी गद्य व्यंग्य की कई पीढ़ियाँ तो निर्धारित की गईं किन्तु रचना की श्रेष्ठता का कोई मानक पैमाना तय नहीं है और न ही हो सकता है। यह अवश्य है कि रचना की विषय वस्तु के निर्वाह में किसी लेखक के जो विचार व सरोकार दिखाई देते हैं वे निश्चित ही महत्वपूर्ण हो जाते हैं। इसके बाद भाषा,शैली और व्यंग्य रचना के प्रारूप पर भी ध्यान जाता है।
युवा पत्रकार और व्यंग्यकार जयजीत ज्योति अकलेचा की पहली किताब 'पांचवा स्तम्भ' पर बात करने से पहले मुझे उपर्युक्त चर्चा जरूरी इसलिए भी लगती है कि जयजीत ने व्यंग्य विधा की अब तक कि परंपराओं को नए और अपने तौर तरीकों से आगे बढ़ाने का साहस किया है। यद्यपि कई बार अखबारी लेखन को साहित्यिक पत्रकारिता भी कहा गया है। मुझे याद आता है शरदजी के कॉलम लेखन को साहित्यिक पत्रकारिता कहा गया था और उन्हें पद्मश्री भी पत्रकारिता वर्ग में प्रदान किया गया। खबरों और अखबारों की सुर्खियों पर ही ज्यादातर कॉलमी व्यंग्य रचनाएं आ रही हैं जो तात्कालिक संदर्भों के होने से पाठकों को आकर्षित तो करती ही हैं पर संपादकों को भी उन्हें प्रकाशित करने में सुविधा हो जाती है।
थोक में लिखी जा रही ऐसी रचनाओं से इतर जयजीत अकलेचा की रचनाएं इसलिए अलग हो जाती हैं कि पत्रकार होने के कारण खबरों और सुर्खियों के भीतर उतरकर उसकी आत्मा तक पहुंच जाने की योग्यता उनमें पेशागत रूप से है। दूसरे वे जोखिम लेकर अपनी रचनाओं का प्रारूप बदलकर विधा के विकास में अगला महत्वपूर्ण कदम बढ़ा देते हैं।
जयजीत की किताब 'पांचवां स्तम्भ' की सबसे बड़ी खूबी यही है जैसा कि ब्लर्ब में चर्चित व्यंग्यकार आलोक पुराणिक ने कहा भी है, इनमें व्यंग्य विधा में नए प्रयोगों का साहस सचमुच स्पष्टतः परिलक्षित होता है। आवरण पर इसे व्यंग्य रिपोर्टिंग की पहली किताब कहा गया है। निसंदेह व्यंग्य रिपोर्टिंग पहले भी इक्का दुक्का देखने पढ़ने को मिलती रही है। जयजीत के अलावा भी कई पूर्ववर्ती लेखको नें इस प्रारूप को आजमाया है। जयजीत स्वयं 'हिंदी सेटायर' जैसे डिजिटल मंच पर इस तरह लिखते रहे हैं। पुस्तक में ज्यादातर तात्कालिक खबरों और प्रसंगों पर लेख, रिपोर्टिंग किस्से तो हैं हीं साथ ही 'इंटरव्यू' प्रारूप में भी बड़ी दिलचस्प रचनाएं देनें में वे सफल हुए हैं।
मैं इस पुस्तक की हर पंक्ति से ध्यानपूर्वक गुजरा हूँ और कह सकता हूँ कि हर शब्द और वाक्य पाठक को रोमांचित करता है और बहुत प्रभावी रूप से बांधे रखता है। पहले सोच रहा था कुछ पंक्तियों के उदाहरण देकर अपनी बात को पुष्टि दूँ किन्तु यह बिल्कुल भी सम्भव नहीं। हर पंक्ति देकर समीक्षा को लंबा खींचना न सिर्फ लेखक की प्रतिभा के प्रति बल्कि संभावित पाठकों की जिज्ञासा के प्रति भी गलत होगा। पाठक इस किताब को मंगवाकर अवश्य पढ़ें। लेखक की गहरी व्यंग्य समझ और रोचक, मारक प्रस्तुति के कायल हुए बगैर नहीं रहेंगे।
यद्यपि लेखक बड़ी विनम्रता से इब्ने इंशा के कथन को उद्धरित कर कहते हैं, हमने इस किताब में कोई नई बात नहीं लिखी है,वैसे भी आजकल किसी भी किताब में कोई नई बात लिखने का रिवाज़ नहीं है। परंतु मेरा मानना है नया और मौलिक तो कुछ दुनिया में होता ही नही है, हर नई बात एक लंबी परंपरा का नए तरीके से विकास होता है। जयजीत इस किताब में विधा के विकास में एक नया और सार्थक प्रयोग करते हैं। हिंदी व्यंग्य शैली में इन दिनों आई बोझिलता और एकरसता को तोड़ते हैं।
देश दुनिया में प्रजातंत्र के चार स्तंभों की स्थिति कुछ भी चल रही हो, जयजीत अकलेचा का 'पांचवां स्तम्भ' निसंदेह व्यंग्य विधा का ध्वज फहराने योग्य है। बहुत बधाई।
(पुस्तक: पांचवां स्तम्भ, लेखक :जयजीत ज्योति अकलेचा, प्रकाशक : मेंड्रेक पब्लिकेशन भोपाल, कीमत : 199 रुपये)
यह किताब अमेजन पर उपलब्ध है : https://amzn.to/3z543lm
(ब्रजेश कानूनगो वरिष्ठ कथाकार एवं व्यंग्यकार हैं।)
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गुरुवार, 9 जून 2022
शरद जोशी का व्यंग्य... कांग्रेस के 30 साल
(कांग्रेस के शासनकान के 30 साल पूरे होने पर लिखा गया व्यंग्य...)
शरद जोशी
कांग्रेस को राज करते करते तीस साल बीत गए। कुछ कहते हैं, तीन सौ साल बीत गए। गलत है! सिर्फ तीस साल बीते। इन तीस सालों में कभी देश आगे बढ़ा, कभी कांग्रेस आगे बढ़ी। कभी दोनों आगे बढ़ गए, कभी दोनों नहीं बढ़ पाए फिर यों हुआ कि देश आगे बढ़ गया और कांग्रेस पीछे रह गई। तीस सालों की यह यात्रा कांग्रेस की महायात्रा है। वह खादी भंडार से आरम्भ हुई और सचिवालय पर समाप्त हो गई।
पूरे तीस साल तक कांग्रेस हमारे देश पर तम्बू की तरह तनी रही, गुब्बारे की तरह फैली रही, हवा की तरह सनसनाती रही, बर्फ सी जमी रही। पुरे तीस साल तक कांग्रेस ने देश में इतिहास बनाया, उसे सरकारी कर्मचारियों ने लिखा और विधानसभा के सदस्यों ने पढ़ा। पोस्टरों, किताबों, सिनेमा की स्लाइडों, गरज यह है कि देश के जर्रे-जर्रे पर कांग्रेस का नाम लिखा रहा।
रेडियो, टीवी डाक्यूमेंट्री, सरकारी बैठकों और सम्मेलनों में, गरज यह कि दसों दिशाओं में सिर्फ एक ही गूँज थी और वह कांग्रेस की थी! कांग्रेस हमारी आदत बन गई, कभी न छुटने वाली बुरी आदत। हम सब यहाँ वहां से दिल दिमाग और तोंद से कांग्रेसी होने लगे। इन तीस सालों में हर भारतवासी के अंतर में कांग्रेस गेस्ट्रिक ट्रबल की तरह समां गई!
जैसे ही आजादी मिली कांग्रेस ने यह महसूस किया कि खादी का कपड़ा मोटा, भद्दा और खुरदुरा होता है और बदन बहुत कोमल और नाजुक होता है। इसलिए कांग्रेस ने यह निर्णय लिया कि खादी को महीन किया जाए, रेशम किया जाए, टेरेलीन किया जाए।
अंग्रेजों की जेल में कांग्रेसी के साथ बहुत अत्याचार हुआ था। उन्हें पत्थर और सीमेंट की बेंचों पर सोने को मिला था। अगर आजादी के बाद अच्छी क्वालिटी की कपास का उत्पादन बढ़ाया गया, उसके गद्दे-तकिये भरे गए। और कांग्रेसी उस पर विराज कर, टिक कर देश की समस्याओं पर चिंतन करने लगे।
देश में समस्याएँ बहुत थीं, कांग्रेसी भी बहुत थे।समस्याएँ बढ़ रही थीं, कांग्रेस भी बढ़ रही थी। एक दिन ऐसा आया की समस्याएं कांग्रेस हो गईं और कांग्रेस समस्या हो गई। दोनों बढ़ने लगे।
पूरे तीस साल तक देश ने यह समझने की कोशिश की कि कांग्रेस क्या है? खुद कांग्रेसी यह नहीं समझ पाया कि कांग्रेस क्या है? लोगों ने कांग्रेस को ब्रह्म की तरह नेति-नेति के तरीके से समझा। जो दाएं नहीं है वह कांग्रेस है। जो बाएँ नहीं है वह कांग्रेस है। जो मध्य में भी नहीं है वह कांग्रेस है। जो मध्य से बाएँ है वह कांग्रेस है।
मनुष्य जितने रूपों में मिलता है, कांग्रेस उससे ज्यादा रूपों में मिलती है। कांग्रेस सर्वत्र है। हर कुर्सी पर है। हर कुर्सी के पीछे है। हर कुर्सी के सामने खड़ी है। हर सिद्धांत कांग्रेस का सिद्धांत है है। इन सभी सिद्धांतों पर कांग्रेस तीस साल तक अचल खड़ी हिलती रही।
तीस साल का इतिहास साक्षी है कांग्रेस ने हमेशा संतुलन की नीति को बनाए रखा। जो कहा वो किया नहीं, जो किया वो बताया नहीं, जो बताया वह था नहीं, जो था वह गलत था।
अहिंसा की नीति पर विश्वास किया और उस नीति को संतुलित किया लाठी और गोली से। सत्य की नीति पर चली, पर सच बोलने वाले से सदा नाराज रही। पेड़ लगाने का आन्दोलन चलाया और ठेके देकर जंगल के जंगल साफ़ कर दिए। राहत दी मगर टैक्स बढ़ा दिए। शराब के ठेके दिए, दारु के कारखाने खुलवाए; पर नशाबंदी का समर्थन करती रही। हिंदी की हिमायती रही अंग्रेजी को चालू रखा। योजना बनायी तो लागू नहीं होने दी। लागू की तो रोक दिया। रोक दिया तो चालू नहीं की। समस्याएं उठी तो कमीशन बैठे, रिपोर्ट आई तो पढ़ा नहीं।
कांग्रेस का इतिहास निरंतर संतुलन का इतिहास है। समाजवाद की समर्थक रही, पर पूंजीवाद को शिकायत का मौका नहीं दिया। नारा दिया तो पूरा नहीं किया। प्राइवेट सेक्टर के खिलाफ पब्लिक सेक्टर को खड़ा किया, पब्लिक सेक्टर के खिलाफ प्राइवेट सेक्टर को। दोनों के बीच खुद खड़ी हो गई । तीस साल तक खड़ी रही। एक को बढ़ने नहीं दिया। दूसरे को घटने नहीं दिया।
आत्मनिर्भरता पर जोर देते रहे, विदेशों से मदद मांगते रहे। ‘यूथ’ को बढ़ावा दिया, बुड्द्धों को टिकट दिया। जो जीता वह मुख्यमंत्री बना, जो हारा सो गवर्नर हो गया। जो केंद्र में बेकार था उसे राज्य में भेजा, जो राज्य में बेकार था उसे उसे केंद्र में ले आए। जो दोनों जगह बेकार थे उसे एम्बेसेडर बना दिया। वह देश का प्रतिनिधित्व करने लगा।
एकता पर जोर दिया आपस में लड़ाते रहे। जातिवाद का विरोध किया, मगर अपनेवालों का हमेशा ख्याल रखा। प्रार्थनाएं सुनीं और भूल गए। आश्वासन दिए, पर निभाए नहीं। जिन्हें निभाया वे आश्वश्त नहीं हुए। मेहनत पर जोर दिया, अभिनन्दन करवाते रहे। जनता की सुनते रहे अफसर की मानते रहे। शांति की अपील की, भाषण देते रहे।
खुद कुछ किया नहीं दूसरे का होने नहीं दिया। संतुलन की इन्तहां यह हुई कि उत्तर में जोर था तब दक्षिण में कमजोर थे। दक्षिण में जीते तो उत्तर में हार गए। तीस साल तक पूरे, पूरे तीस साल तक, कांग्रेस एक सरकार नहीं, एक संतुलन का नाम था। संतुलन, तम्बू की तरह तनी रही,गुब्बारे की तरह फैली रही, हवा की तरह सनसनाती रही बर्फ सी जमी रही पुरे तीस साल तक।
कांग्रेस अमर है वह मर नहीं सकती। उसके दोष बने रहेंगे और गुण लौट-लौट कर आएँगे। जब तक पक्षपात, निर्णयहीनता ढीलापन, दोमुंहापन, पूर्वाग्रह, ढोंग, दिखावा, सस्ती आकांक्षा और लालच कायम है, इस देश से कांग्रेस को कोई समाप्त नहीं कर सकता। कांग्रेस कायम रहेगी।
दाएं, बाएँ, मध्य, मध्य के मध्य, गरज यह कि कहीं भी किसी भी रूप में आपको कांग्रेस नजर आएगी। इस देश में जो भी होता है अंततः कांग्रेस होता है। जनता पार्टी भी अंततः कांग्रेस हो जाएगी। जो कुछ होना है उसे आखिर में कांग्रेस होना है। तीस नहीं तीन सौ साल बीत जाएँगे, कांग्रेस इस देश का पीछा नहीं छोड़ने वाली।