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जयजीत अकलेचा/Jayjeet Aklecha
जयजीत अकलेचा/Jayjeet Aklecha
पिछले कई दिनों से नेताजी की रीढ़ की हड्डी चटख रही थी, बहुत दर्द हो रहा था। राजनीति में इतने साल हो गए है तो अब दर्द तो उठना ही था। वार्ड से षुरुआत की थी, तब पहली बार अपनी पार्टी के वार्ड प्रमुख के सामने रीढ़ झुकी थी। इसके बाद रीढ़ ने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा। झुकना-उठना चलता ही रहा। कई बार तो ऐसे भी मौके आए कि महीनों तक यूं झुकाकर ही रहना पड़ा। रीढ़ दिल की बहुत दिलदार थी। इसलिए झुक गई, लेकिन टूटी नहीं। फिर नेताजी भी पक्के देषभक्त और ईमानदार। सत्ता में जो भी आता, उसके प्रति पूरी निष्ठा दिखाते और जब-जब भी अवसर आता या नहीं भी आता, तब-तब पूरी ईमानदारी के साथ रीढ़ झुकाने को तत्पर रखते। कहीं कोई ना-नुकुर नहीं।
लेकिन अब तो इंतहा हो गई। दर्द है कि रुकने का नाम नहीं ले रहा है। डाॅक्टर के पास गए तो डाॅक्टर ने भी हाथ खड़े कर दिए। झुक-झुककर कलपुर्जे ढीले पड़ गए हैं। डाॅक्टर भी क्या करे! अब उनके ही किसी पट्ठे ने सुझाव दिया, ‘नेताजी, आप तो रीढ़ ही निकलवा दीजिए।’
‘अबे क्या बकता है, रीढ़ ही नहीं रही तो फिर झुकूंगा उठूगा कैसे?’
‘अब उठना क्या, झुके रहो हरदम। कोई मना करता है क्या? राजनीति में रीढ़ ताने खड़े रहने का भी कोई मतलब है क्या! ऐसे कितने ही लोगों की रीढ़ टूट गई। आप ही तो कहा करते थे कि राजनीति में रीढ़ होती ही है झुकाने के लिए।’
लेकिन नेताजी अब भी कन्फ्यूज हंै। बार-बार रीढ़ पर हाथ फेर रहे हैं, थोड़ी-सी भी सीधी करते तो कड़-कड़ सी आवाज होती। पता नहीं लचक कहां चली गई।
‘क्या सोच रहे हैं आप? मैं तो फिर कहता हूं निकलवा ही लीजिए। जो थोड़ा बहुत दर्द आपको उठता भी है, वह भी गायब हो जाएगा, रीढ़ ही नहीं रहेगी तो काहें का दर्द। मुंषीजी को देख लो, जबसे रीढ़ हटवाई है, ताजगी महसूस कर रहे हैं। और मुझे तो लगता है, वह रीढ़ ही थी जो सालों से उन्हें मंत्री नहीं बनने दे रही थी।’
नेताजी पचास साल से राजनीति में हैं और अपनी रीढ़ को ढोए जा रहे हैं। जिस पार्टी में गए, रीढ़ को साथ ले गए। उनका मानना है कि अपनी प्रतिबद्धता साबित करने के लिए रीढ़ का होना जरूरी है, क्योंकि यही तो एक पैमाना होगा कि मेरी रीढ़ उसकी रीढ़ से कितनी ज्यादा झुकी। लेकिन फिर उनके सामने ऐसे कई लोगों के चेहरे घूम गए जिन्होंने राजनीति में आने से पहले ही रीढ़ निकलवाकर अपने-अपने घरों के तहखानों में रखवा दी थी। अब वे सभी उंचे ओहदों पर हैं। अपने पट्ठे की बात उन्हें भी जंच गई और वे अस्पताल की ओर चल पड़े, रीढ़ निकलवाने।
‘अबे क्या बकता है, रीढ़ ही नहीं रही तो फिर झुकूंगा उठूगा कैसे?’
‘अब उठना क्या, झुके रहो हरदम। कोई मना करता है क्या? राजनीति में रीढ़ ताने खड़े रहने का भी कोई मतलब है क्या! ऐसे कितने ही लोगों की रीढ़ टूट गई। आप ही तो कहा करते थे कि राजनीति में रीढ़ होती ही है झुकाने के लिए।’
लेकिन नेताजी अब भी कन्फ्यूज हंै। बार-बार रीढ़ पर हाथ फेर रहे हैं, थोड़ी-सी भी सीधी करते तो कड़-कड़ सी आवाज होती। पता नहीं लचक कहां चली गई।
‘क्या सोच रहे हैं आप? मैं तो फिर कहता हूं निकलवा ही लीजिए। जो थोड़ा बहुत दर्द आपको उठता भी है, वह भी गायब हो जाएगा, रीढ़ ही नहीं रहेगी तो काहें का दर्द। मुंषीजी को देख लो, जबसे रीढ़ हटवाई है, ताजगी महसूस कर रहे हैं। और मुझे तो लगता है, वह रीढ़ ही थी जो सालों से उन्हें मंत्री नहीं बनने दे रही थी।’
नेताजी पचास साल से राजनीति में हैं और अपनी रीढ़ को ढोए जा रहे हैं। जिस पार्टी में गए, रीढ़ को साथ ले गए। उनका मानना है कि अपनी प्रतिबद्धता साबित करने के लिए रीढ़ का होना जरूरी है, क्योंकि यही तो एक पैमाना होगा कि मेरी रीढ़ उसकी रीढ़ से कितनी ज्यादा झुकी। लेकिन फिर उनके सामने ऐसे कई लोगों के चेहरे घूम गए जिन्होंने राजनीति में आने से पहले ही रीढ़ निकलवाकर अपने-अपने घरों के तहखानों में रखवा दी थी। अब वे सभी उंचे ओहदों पर हैं। अपने पट्ठे की बात उन्हें भी जंच गई और वे अस्पताल की ओर चल पड़े, रीढ़ निकलवाने।
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