A satire how government/administration works in our country
जयजीत अकलेचा/Jayjeet Aklecha
सरकार नामक व्यवस्था का निर्माण कैसे हुआ, इसकी भी एक दिलचस्प दंतकथा है। सुनिए...
बहुत पुरानी बात है। एक दिन ईष्वर को बोध हुआ कि धरती पर लोग कुछ करते-धरते नहीं। क्यों न लोगों को कुछ काम दिया जाए। उसने एक व्यवस्था बनाने की सोची (इसी का नाम बाद में सरकार पड़ा)। इसके लिए उसने कुछ लोगों की भर्तियां की। लेकिन बाद में वे भूल गए। बात आई-गई हो गई। जिन लोगों की भर्ती की गई थी, वे यूं ही निठल्ले बैठे रहते (यही लोग बाद में सरकारी कर्मचारी कहलाए)। महीनों बीत गए। फिर कुछ ने सोचा कि चलो, कोई ठिकाना ढूंढ लेते हैं (यही ठिकाने बाद में दफतर के नाम से गौरवान्वित हुए)। दफतर मिल गया। सब लोग खुष हुए। सरकार ने पहला कदम आगे बढ़ाया।
अब लोग थे। दफतर भी थे, मगर खाली-खाली। महसूस हुआ कि दफतर में फर्नीचर, पंखे, फाइलें चाहिए। और हां, पानी के मटके भी। कुछ ने कहा, चलो बाजार से खरीद लेते हैं। लेकिन कुछ समझदारों ने कहा, नहीं सब कुछ सिस्टमैटिक होना चाहिए। आखिर सरकारी काम है। कहीं उंच-नीच हो जाए तो जवाब कौन देगा? यहीं से टेंडर अस्तित्व में आए। टेंडर बुलाए गए। कुछ लोग टेंडर के काम में लग गए। टेंडर के कार्य के लिए पिछले दरवाजे से कुछ टेबलें बुला ली गई। कुर्सियां बुलाना भुल गए, लेकिन लोगों ने बुरा नहीं माना। कुछ लोग टेबलों के उपर बैठ गए और कुछ लोग टेबलों के नीचे। नीचे से काम फटाफट हो गया। यहीं से लोगों को ज्ञान हुआ कि जो काम टेबलों के नीचे से आसानी से हो सकता है, वह उपर से नहीं हो सकता। खैर, पंखों, फाइलों से लेकर मटकों तक के टेंडर फटाफट पास हो गए। सरकार और आगे बढ़ी।
इतने में ईष्वर को सरकार वाली बात याद आ गई। इंसानों द्वारा अब तक की गई प्रगति को देखकर ईष्वर खुष हुआ। उसने उन्हीं इंसानों में से एक को सरकार का मुखिया बना दिया। मुखिया ने कुछ विभाग बनाए। कुछ को उन विभागों को मुखिया बना दिया। लेकिन अब वे सब मुखिया क्या करते? बैठे रहते। फिर सरकार के मुखिया को याद आई वे फाइलें जो टेंडरों के जरिए खरीदी गई थी। वे धूल खा रही थी। उसने विभागीय मुखियाओ को आदेष दिया- फाइलें पुट-अप करो। विभागों के मुखियाओं के दिन फिरे। उन्हें काम मिला। फाइलें पुट-अप होने लगीं। सरकार के मुखिया लिखते- चर्चा करें। कभी लिखते- परामर्ष करें। बचे-खुचे लोगों को भी काम मिल गया। वे अब चर्चा और परामर्ष करने लगे। जो लोग ये काम नहीं कर सकते थे, उन्हें फाइलांे को इधर से उधर करने के काम में लगा दिया गया। अब इधर से उधर फाइलें ही फाइलें। कभी अटक भी जातीं तो कोई समझदार उन पर वजन रख देता। वे फिर चलने लगती। सरकार अब दौड़ने लगी थी।
इस बीच राज्य में कुछ ऐसे समाज विरोधी तत्व पैदा हो गए थे, जिन्होंने सरकार से सवाल पूछने षुरू कर दिए थे। वे पूछने लगे, सरकार क्या कर रही है? भला ये भी क्या सवाल हुए! लेकिन सरकार का मुखिया विचलित नहीं हुआ। उसने जांच करवाने का ऐलान कर दिया (यहीं से जांच आयोग जैसी महान परंपराओं की षुरुआत हुई)। समाज विरोधी तत्व चुप। जनता तो पहले से ही चुप थी। चुप रहना मानो उसका आनुवांषिक गुण हो। इसीलिए वह आज भी चुप रहती है और युगों-युगों तक चुप रहेगी। भला उसका ऐसे सवालों से क्या लेना-देना?
सरकार चलती रही। सालों बीत गए। फिर एक दिन अचानक सरकार के मुखिया को जांच आयोग की रिपोर्ट मिली। लेकिन तब तक वह भूल चुका था कि उसने आखिर जांच आयोग क्यों बिठाया था। उसे कुछ समझ में नहीं आया तो उसने इसका पता लगाने केलिए कुछ कमेटियां बना दी। इसमें उन लोगों को काम मिला तो फाइलें पुट-अप करते-करते बुढ़े हो गए थे। कमेटियों के गठन से सरकार और मजबूत हुई। उन कमेटियों की रिपोर्ट का क्या हुआ, सरकार ने कभी इसकी चिंता नहीं की। जनता तो वैसे भी नहीं करती है। तो सरकार चलती रही। आज भी चल रही है, बिंदास। इति दंतकथा।
ग्राफिक: गौतम चक्रवर्ती
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