By Jayjeet Aklecha
बेहद काम्लीकेट सवाल! शायद दोनों आपस में प्रतिस्पर्धा कर सकते हैं। खैर, राजनीति को ज़हर-ज़हर खेलने दीजिए। आज अपने भोजन की थाली के ज़हर की बात करते हैं।
हममें से कई लोग अपनी थाली में पोषण तत्वों को लेकर चिंतित और जागरूक रहते हैं कि इसमें प्रोटीन कितना है, कार्ब्स कितने हैं, विटामिन्स कितने हैं, फैट कितना है, शुगर कितनी है, कैलोरी कितनी है, वगैरह-वगैरह... मेरे घर में खासकर मेरी बेटी इसको लेकर फिक्रमंद रहती है... लेकिन मुझे इन तत्वों से ज्यादा फिक्र इस बात की होती है कि उसकी प्लेट में ज़हर कितना है? आपने भी कभी सोचा है कि आपकी अपनी थाली या आपके बच्चों की थाली में कितना ज़हर है? या आप अब भी केवल सियासी ज़हर के इंटरटेनमेंट में ही ग़ाफ़िल है?
हमारी थाली में कितना ज़हर है, इस बारे में हमें वाकई कुछ नहीं पता है। हमारी आंख तब खुलती है, जब बाहर का देश हमें अचानक बताता है कि आपके फलाना ब्रांड में ज़हर का स्तर इतना खतरनाक है कि उससे कैंसर हो सकता है। हाल ही में हमारे दो मशहूर ब्रांड्स एवरेस्ट और एमडीएच को लेकर यह शिकायत आई है। जब इतने नामी-गिरानी ब्रांड्स की ये हालत है, तो बाकी हमें क्या खिला-पिला रहे होंगे? हमारे तमाम रेस्तरां, जहां हम चटकारे लेकर लाल रंग में पगी पनीर की सब्जी खाते हैं, उसमें क्या-क्या होता होगा? और सड़कों पर केमिकल चटनी में पानी-पूरी खिलाने वाले गरीब वेंडर का तो पूछिए भी मत!!
वैसे तो ऊपरी तौर पर हम सब जानते हैं कि हम जो सब्जियां या फल खा रहे हैं, वे भयंकर रसायनों से लदे पड़े हैं। केवल खेत में ही नहीं (यह एक हद तक जरूरी हो सकता है), खेद के बाहर भी उन सब्जियों को पकाने या उन्हें सुरक्षित रखने के लिए न जाने कितने कैंसरकारक रसायन इस्तेमाल किए जा रहे हैं। कुछ धनी टाइप के लोग खुद को यह झूठा दिलासा दे सकते हैं कि वे कथित तौर पर आर्गनिक खा रहे हैं, लेकिन भ्रष्टाचार में पगे हमारे देश में ये आर्गनिक वाकई रसायनों से कितने मुक्त होते होंगे, किसी को कुछ पता नहीं है।
भला हो उन देशों का जो हमें बीच-बीच में हमारी विकासशील औकात याद दिलाते रहते हैं, अन्यथा जुमलों की भीड़ में तो यह भूल ही जाते हैं कि विकसित देश के नागरिक बनने की आकांक्षा का मतलब केवल दुनिया की तीसरी या चौथी अर्थशक्ति बनना भर नहीं है। कोई सरकार अपने नागरिकों को भरपेट भोजन देने के साथ क्या उसे सुरक्षित भोजन भी दे रही है, यहां से शुरू होती है किसी देश के विकसित बनने की कहानी। दुर्भाग्य से, यह सपना अब भी करोड़ों प्रकाश वर्ष दूर प्रतीत होता है।
आतंकियों, आतताइयों, मलेच्छों के सिर आपने एक झटके में कुचल दिए। अब माओवादियों की बारी है। हमारे प्रधानमंत्री और गृहमंत्री मुट्ठी तान-तानकर हमें बता रहे हैं। बहुत अच्छा है ये सब। मगर देश को कैंसरयुक्त बनाने वाले जो आतंकी हैं, उनका क्या किया या क्या करेंगे? या आप तब तक कुछ ना करेंगे जब तक कि पूरा देश कांग्रेसमुक्त और कैंसरयुक्त नहीं हो जाता!
एक अंतिम बात और... कोई अति आशावादी कह सकता है, चलिए हम हवा खाकर जी लेंगे। पर सवाल यह भी है कि हमारे आसपास की हवा पर भी हम कितना भरोसा करें? वैसे भी हमारी चिंता में तो पॉलिटिकल हवाएं ज्यादा रहती हैं। तो पॉलिटिक्स वाले भी अपनी इसी हवा की चिंता करेंगे ना। लाजिमी है ये तो...!!
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