By ए. जयजीत सरकार नामक व्यवस्था का निर्माण कैसे हुआ, इसकी भी एक दिलचस्प दंतकथा है।
बहुत पुरानी बात है। बात जितनी पुरानी होती है, उतनी ही दमदार होती है। तो यह दमदार बात भी है। एक दिन ऊपर बैठी हुई ईश्वरीय शक्ति, जिसे हम आगे शॉर्ट में ईश्वर ही कहेंगे, को बोध हुआ कि धरती पर लोग कुछ भी करते-धरते नहीं हैं। तो क्यों न लोगों को कुछ काम दिया जाए। उसने एक व्यवस्था बनाने पर कार्य शुरू किया। इस व्यवस्था को बाद में कुछ लोगों ने शासन प्रणाली कहा तो कुछ ने सरकार। हम यहां शॉर्ट में इसे सरकार ही कहेंगे क्योंकि शासन प्रणाली उच्चारित करना जरा कठिन है। कठिन चीजों से हमेशा बचना चाहिए।
तो सरकार के तहत कुछ लोगों को भर्ती किया गया। बाद में ईश्वर यह बात भूल गए कि उन्होंने कोई व्यवस्था बनाने की बात सोची थी, कुछ भर्तियां भी की थी। बात आई-गई हो गई। जिन लोगों की भर्ती की गई थी, वे यूं ही निठल्ले बैठे रहते, जैसे कि पहले बैठे हुए थे। यही लोग बाद में चलकर सरकारी कर्मचारी कहलाए।
महीनों बीत गए। फिर उनमें से कुछ ने खुद ही सोचा कि बैठे-बैठे क्या करें, करते हैं कुछ काम। तो वे कुछ करने को निकले। सबसे पहले उन्होंने ऐसी जगह ढूंढने की ठानी जहां बैठकर वे बगैर काम किए भी वे खुद को बिजी दिखला सकें। तो उन्होंने ऐसे ठिकाने ढूंढ लिए। यही ठिकाने बाद में सरकारी दफ्तर कहलाए। ठिकानों पर पहुंचकर सब लोग खुश हुए। सरकारी नौकरी लगने पर खुश होने की महान परंपरा का यहीं से जन्म हुआ। इस तरह सरकार ने पहला कदम आगे बढ़ाया।
अब कर्मचारी थे। दफ्तर भी थे, मगर खाली-खाली थे। महसूस हुआ कि दफ्तर में फर्नीचर, पंखे, फाइलें तो होनी ही चाहिए। और हां, पानी के मटके भी। कुछ मूर्खों ने कहा, चलो फ्री तो बैठे ही हैं। बाजार चलकर खरीद लाते हैं। लेकिन समझदार लोगों ने समझाया - सब कुछ सिस्टेमैटिक होना चाहिए। आखिर सरकारी काम है। कहीं ऊंच-नीच हो जाए तो जवाब कौन देगा? यह दफ्तरों में सवाल पूछने की परंपरा का आगाज था। सबसे इसका स्वागत किया। सदियां बीत गईं, यह उसी
सवाल का प्रताप है कि आज भी हर दफ्तर में जवाबदेही से ज्यादा सवालदेही मिलती है।
हर काम सिस्टैमेटिक हो, पर कैसे हों? इस पर कई लोग साथ बैठते, भर-भरकर विचार करते। यह
मीटिंग्स का शुरुआती काल था जो कालांतर में प्राइवेट दफ्तरों में खूब फला-फूला। खैर, मीटिंग्स पर मीटिंग्स के बाद अंतत: सामान की खरीदी के लिए प्रपोजल्स मंगवाने पर एकराय बनी। जो इस एकराय पर एकमत नहीं थे, वे मीटिंग्स से बाहर चले गए, कानाफूसी करने। तो इस मीटिंग्स से सरकारी दफ्तरों में दो चीजें एकसाथ अस्तित्व में आईं- कानाफुसी और टेंडर। इससे तीन फायदे हुए। दफ्तरों में लोगों को तीन तरह के काम मिलने शुरू हुए - मीटिंग्स करना, कानाफुसी करना और खरीदी के टेंडर निकालना।
तो कुछ चीजों के लिए टेंडर निकाले गए। टेंडर के कार्य के लिए टेबलें जरूरी थीं। तो उन्हें पिछले दरवाजें से बुलवाना पड़ा, बगैर टेंडर के। यहां कर्मचारियों को एक महाज्ञान की प्राप्ति भी हुई - कुछ काम नॉन-सिस्टेमैटिक तरीके से भी हो सकते हैं। जिन्होंने पहले यह ज्ञान दिया कि था कि सब कुछ सिस्टेमैटिक होना चाहिए, वे भी इस नए महाज्ञान पर आसक्त हो गए।
टेंडर के काम के लिए टेबलें तो आ गईं, लेकिन कुर्सियां बुलाना भुल गए। चूंकि वह शुरुआती काल था। तो लोग कुर्सी की महिमा से इतने परिचित नहीं थे। सो, कुर्सी न होने पर भी उन्होंने उस समय मलाल नहीं किया। कुछ लोग टेबलों के ऊपर बैठ गए और कुछ लोग टेबलों के नीचे। नीचे से काम फटाफट होने लगा। टेबलों के ऊपर बैठे लोग भी अब ऊंगली को नीचे करके इशारा करते। यहीं से एक और ज्ञान मिला - काम टेबलों के नीचे से ज्यादा आसानी से हो सकता है, बनिस्बत ऊपर के। इसलिए पंखों, फाइलों से लेकर मटकों तक के टेंडर फटाफट पास हो गए।
इस तरह सरकार और आगे बढ़ी।
इसी दौरान ईश्वर को अचानक याद आया कि उसे तो कोई व्यवस्था बनानी थी। उसने ऊपर से नीचे झांका। उसे यह देखकर बड़ी खुशी मिली कि कुछ समझदार इंसानों ने आत्मनिर्भर होकर खुद ही कुछ व्यवस्था बना ली। परंतु चूंकि उसे भी कुछ तो करना था। तो उसने उन्हीं इंसानों में से एक को सरकार का मुखिया बना दिया। और इस तरह ईश्वरीय दायित्व पूरा हुआ। इसके बाद से ही मतदान को आज भी ईश्वरीय दायित्व कहा जाता है।
अब मुखिया ने कुछ विभाग बनाए। कुछ को उन विभागों का प्रमुख बना दिया। लेकिन अब वे सब क्या करते? मीटिंग्स भी कितनी करते। कानाफुसी करना छोटा काम था और टेंडर निकालना नीचे वालों का काम था। तो ये विभाग प्रमुख तो निठल्ले के निठल्ले ही रहे।
फिर मुखिया को याद आईं वे फाइलें जो टेंडरों के जरिए खरीदी गई थीं। वे सब धूल खा रही थीं। उसने विभागों के प्रमुखों को आदेश दिया- फाइलें पुट-अप करो। विभागों के प्रमुखों के दिन फिरे। उन्हें अपनी हैसियत के अनुसार प्रॉपर काम मिला। फाइलें पुट-अप होने लगीं। सरकार के मुखिया लिखते- चर्चा करें। कभी लिखते- परामर्श करें।
इस तरह लोग अब मीटिंग्स के अलावा चर्चा और परामर्श भी करने लगे। जो लोग ये काम नहीं कर सकते थे, उन्हें फाइलों को इधर से उधर करने के काम में लगा दिया गया। अब इधर से उधर फाइलें ही फाइलें। एक ठिकाने से दूसरे ठिकाने तक, जो अब ऑफिशियली दफ्तर कहलाने लगे थे, फाइलें चलने लगीं। फाइलों के चलने की गति उस पर रखे गए वजन के समानुपाती होती थी। फाइल पर जितना ज्यादा वजन, उसकी गति उतनी तेज। तो अब सरकार दौड़ने लगी थी।
यहां छोटा-सा एक ब्रेक लेने का वक्त है। लेकिन चूंकि स्टोरी में एक ट्विस्ट आ गया है। तो पहले उस ट्विस्ट की बात कर लेते हैं…
इधर सरकार रुक-रुककर दौड़ रही थी और उधर राज्य में कुछ समाज विरोधी तत्व भी मर-मरकर पैदा हो रहे थे। ये तत्व बाद में क्या कहलाए, आप तय कीजिए, क्योंकि इनको लेकर थोड़ा वैचारिक कन्फ्यूजन है। खैर, इन समाज विरोधी तत्वों ने सरकार से ही सवाल पूछने शुरू कर दिए। वे पूछने लगे, सरकार क्या कर रही है? भला ये भी क्या सवाल हुए!
लेकिन सरकार का मुखिया विचलित नहीं हुआ। सरकार क्या कर रही है, इसी सवाल पर उसने जांच करवाने का ऐलान कर दिया। यहीं से जांच आयोग जैसी महान परंपराओं की शुरुआत हुई। समाज विरोधी तत्व चुप। जनता को तो ईश्वर ने मुखिया चुनने की शक्ति देकर पहले ही चुप करवा दिया था। भला जनता का ऐसे आलतू-फालतू सवालों से क्या लेना-देना?
तो सरकार चलती रही। इस बीच स्पीड ब्रेकर नामक एक महान आविष्कार भी हो चुका था। तो इन स्पीड ब्रेकरों पर सरकार रुकती भी रही और उछलती भी रही। यूं ही रुकते-उछलते-दौड़ते सालों बीत गए।
फिर एक दिन अचानक सरकार के मुखिया को जांच आयोग की रिपोर्ट मिली। लेकिन तब तक वह भूल चुका था कि उसने आखिर जांच आयोग क्यों बिठाया था। उसे कुछ समझ में नहीं आया तो उसने इसका पता लगाने के लिए कुछ कमेटियां बना दी। इसमें उन लोगों को काम मिला जो फाइलें पुट-अप करते-करते अब बूढ़े हो गए थे। बुढ़ापे की इस सरकारी व्यवस्था को तब तक रिटायरमेंट का नाम दे दिया गया था।
कमेटियों के गठन से सरकार और मजबूत हुई। उन कमेटियों की रिपोर्ट का क्या हुआ, सरकार ने कभी इसकी चिंता नहीं की। जनता तो वैसे भी नहीं करती है। तो सरकार चलती रही, दौड़ती रही। स्पीड ब्रेकरों पर रुकती रही और उछलती रही। यह परंपरा आज तक चली आ रही है।
इति दंतकथा। अब एक लंबा ब्रेक ले लेते हैं...।