बुधवार, 23 जून 2021

Satire : तीसरा मोर्चा और मोनालिसा की मुस्कान!

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By Jayjeet

हाल ही में कुछ अखबारों में दो खबरें एक साथ छपीं। एक, गैर भाजपाइयों-गैर कांग्रेसियों का तीसरा मोर्चा बनाने के प्रयासों की खबर थी। दूसरी खबर थी- मोनालिसा की पेंटिंग की एक कॉपी ढाई करोड़ रुपए में बिकी। मोनालिसा ऐसी पेंटिंग है, जिसकी दुनियाभर में भर-भरकर कॉपी हुई है। आज तो खुद लियोनार्दों दा विंची उन्हें देखकर चकमा खा जाए कि उनकी वाली कौन-सी है। आजकल की नकली तो असली वाली से भी ज्यादा असली ही लगेगी। विंची को इस बात का मुगालता हो सकता है कि वे शायद मुस्कान से अपनी वाली मोनालिसा को पहचान जाएंगे। पर मुस्कानों का क्या! उन्हें कॉपी-पेस्ट करना भी कहां मुश्किल है।
खैर, वापस उन्हीं दोनों खबरों पर आते हैं। तीसरे मोर्चे की खबर आई तो लीजिए, मोनालिसा भी आ गई। अब मोनालिसा है तो मुस्कुराएगी ही। पवार साहब शिकायत कर सकते हैं कि देखिए, मीडियावाले सब मिले हैं जी। हमारे प्रयासों पर हंसने वाला कोई और नहीं मिला तो साथ में मोनालिसा की पेेंटिंग लगा दी। लेकिन मोनालिसा तो मुस्कुराती है, हंसती नहीं। मुस्कान तो पॉजिटिविटी लाती है। तो शिकायत क्यों? लेकिन एनसीपी सुप्रीमो अंदर से जानते हैं कि मोनालिसा तीसरे मोर्चे के प्रयासों पर मुस्कुरा तो नहीं सकती। हंस ही सकती है। अब अगर पवार साहब जैसे सीजन्ड लीडर को यह लगता है तो हम सब को भी मान लेना चाहिए कि मोनालिसा हंस ही रही होगी। यह तीसरे मोर्चे के अतीत में हुए हश्र को देखकर पवार साहब के अंदर का वह डर बोल रहा है जो उसके भविष्य को लेकर है।
लेकिन मोनालिसा केवल मुस्कुराती नहीं है, अद्भुत रूप से मुस्कुराती है। कला पारखी कहते हैं कि मोनालिसा की मुस्कान अद्भुत ही नहीं, रहस्यमयी भी हैै। अगर हम कला पारखी नहीं हैं तो हमें बगैर ज्यादा सोचे-विचारे मान लेना चाहिए कि मोनालिसा की मुस्कान वाकई बहुत ही अद्भुत है। रहस्यमयी भी होगी ही। जहां कुछ पता न हो, वहां तर्क-वितर्क करना केवल नेताओं को ही शोभा देता है। जैसे पवार साहब कह सकते हैं कि मोनालिसा मुस्करा नहीं रही है, वह तो हंस रही है, वगैरह वगैरह...। हालांकि पवार ने ऐसा कहा नहीं है। वे वैसे भी बहुत कम कहते हैं। उनका कम कहना ही ज्यादा रहस्यमयी रहा है। बनने वाले कथित तीसरे मोर्चे की बैठक में महाराष्ट्र में सरकार चला रहे दो अन्य साथी दलों के नेता तो न्यौते नहीं गए। अब यह क्या कम रहस्यमयी नहीं है? यह राजनीति की अमूर्त कला है जिसे समझ में न आने पर भी समझा हुआ मानकर आगे बढ़ जाना चाहिए। इसी से हम कला के पारखी कहला सकते हैं।
तो हम वही करते हैं। लो आगे बढ़ गए जी...। राजनीति से ही आगे बढ़ गए। मन की बात सुन मोनालिसा मुंह बिचकाकर-बिचकाकर कितना मुस्कुराएगी या कांग्रेस के वर्चुअल लीडर के ट्वीट्स को पढ़कर पेट पकड़-पकड़कर कितने ठहाके लगाएंगी, हम इन तमाम गैर जरूरी बातों से ही आगे बढ़ जाते हैं। बात केवल मोनालिसा की मुस्कान की करते हैं।
यह मानने के बाद कि मोनालिसा की मुस्कान वाकई बड़ी अद्भुत है, चलिए मान लीजिए रहस्यमयी भी है तब भी यह सवाल मेरे मन में शुरू से रहा है कि क्या वाकई मोनालिया मुस्कुरा रही है? और फिर क्या वह सदियों से ऐसे ही मुस्कुरा रही है? उसको इस दुनिया में आए करीब पांच सौ साल हो गए हैं। तो क्या इन पांच सौ सालों से वह यूं ही मुस्कुराते मुस्कुराते थकी नहीं है? हमारे यहां तो नकली मुस्कान का थेगला लगाए दिग्गज नेता चुनाव प्रचार खत्म होते-होते ही थक जाते हैं। तो मोनालिया क्यों न थकी?
इसमें मोनालिसा का कोई हाथ नहीं है। मोनालिसा को मुस्कान तो आर्टिस्ट ने ही दी होगी। आखिर वह ऐसा कौन-सा खुशी का पल था जिसके वशीभूत होकर आर्टिस्ट ने इसके अधरों पर मुस्कान का स्ट्रोक हमेशा-हमेशा के लिए फेर दिया था? क्या आर्टिस्ट उस समय किसी बहुत मलाईदार पद पर विराजमान था? या उसके किसी भतीजे या साले को माइनिंग का कोई बड़ा ठेका मिल गया था? या फिर क्या उसे किसी कारपोरेशन के अध्यक्ष पद का आश्वासन मिल गया था? ऐसा क्या था? या माफ करना, वह किसी रात शराब के नशे में इतना डूब गया था कि उसे याद ही ना रहा कि मोनालिसा के चेहरे पर मुस्कान को उसने कब स्थाई भाव दे दिया? इतना अन्याय!
सच क्या था, यह विंची साहब ही जानें। पर वे तो चले गए, लेकिन बेचारी मोनालिसा को हमेशा के लिए रहस्यमयी मुस्कान के आवरण में रहने का श्राप दे गए। हर हाल में मुस्कुराना मोनालिसा की जिंदगी की मजबूरी बन गई। बीते 500 सालों में बेचारी मोनालिसा ने क्या-क्या नहीं देखा होगा? यहूदियों पर हिटलर के अत्याचार, अमेरिका के परमाणु हमले में गलते जापानियों के शरीर, अफ्रीकी देशों में भूख से मिट्टी खाने को मजबूर बच्चे। तब से लेकर अब तक न जाने कितने अकाल आए, न जाने कितनी महामारिया आईं, कितने युद्ध लड़े गए, लेकिन मोनालिसा को तो हर हाल में मुस्कुराना ही था। भले ही पवार साहब लाख शिकायत कर लें, मुस्कुराना मोनालिसा की मजबूरी है। अब चाहे तो उसे हंसी मान लीजिए।
मोनालिसा की इस पीड़ा को समझने का प्रयास कीजिए। जिस समय दरिंदों के हाथों निहत्थी निर्भया की लुटी जा रही अस्मत मानवता के चेहरे पर बदनुमा दाग बनने की प्रक्रिया में थी, उस समय भी मुस्कुराना मोनालिसा की मजबूरी थी। गंगा नदी में बहते सैकड़ों शवों को या ऑक्सीजन के अभाव में दम तोड़ते असहाय लोगों को देखकर भी मोनालिसा मुस्कुराई ही होगी। हां, इनसे मुंह चुराकर मुस्कुराई होगी। समस्या से मुंह मोड़कर आप कुछ भी कर सकते हैं, मुस्कुरा भी सकते हैं। जलते हुए रोम की ओर से मुंह फेरकर बांसुरी बजाते हुए नीरो भी हो मुस्कुरा ही रहा होगा। बांसुरी बजाते-बजाते कोई रोता है भला! ऐसा तो हुआ नहीं होगा कि नीरो बांसुरी बजा रहा है और उसकी आंखों से टप-टप आंसू भी गिर रहे हैं।
तो मोनालिसा के लिए मुस्काना उसकी मजबूरी है, पर उसकी मुस्कान रहस्यमयी भी है। कला के ज्ञानी कहते हैं कि उसका एंगल बदलकर देखिए। एंगल बदलते ही मुस्कान की आब कमजोर हो जाती है और कहीं-कहीं तो मुस्कान गायब भी हो जाती है। अब यह एंगल ढूंढने वाला मामला बन गया। मामला पूरा की पूरा सब्जेक्टिव हो गया। कला में अक्सर यही होता है और राजनीति में तो इससे भी ज्यादा होता है।
मोनालिसा की मुस्कान का यह पूरा प्रकरण दिन दहाड़े रोशनी का है। रोशनी में मुस्कुराती है, शायद हंसती है, शायद ठहाके भी लगाती है। पर क्या पता वह रात को रोती हो? क्या किसी ने उन्हें अंधेरे में देखा है? अब इस बात पर पवार साहब खुश होंगे कि नाखुश?

(ए. जयजीत खबरी व्यंग्यकार हैं। अपने इंटरव्यू स्टाइल में लिखे व्यंग्यों के लिए चर्चित हैं।)

गुरुवार, 17 जून 2021

Satire : सत्ता का हाथी और छह आधुनिक अंधे!

 

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By Jayjeet

बात बहुत पुरानी है। बात जितनी पुरानी होती है, उतनी ही भरोसेमंद भी होती है। तो यह भरोसेमंद भी है। किसी जमाने में छह अंधे हुआ करते थे। अंधे तो उस जमाने में और भी बहुत थे, लेकिन एक हाथी ने उन अंधों को अंधत्व के इतिहास में अमर बना दिया। अमर होने का फायदा यह होता है कि आप किसी भी बात को उसकी अमरता पर लाकर खत्म कर सकते हैं। यह बात नेहरू-गांधी के अनुयायियों से बेहतर भला और कौन जान सकता है? तो इन छह अंधों की बात भी हाथी की ऐतिहासिक व्याख्या पर आकर खत्म हो गई। बात भले खत्म हो गई हो, लेकिन अंधत्व की वह परम्परा खत्म नहीं हुई। वैसे यहां कोई राजनीति न ढूंढें, हम वाकई अंधों की ही बात कर रहे हैं। तो बगैर ब्रेक के बढ़ाते है वही बात, अंधों की बात।

तो हुआ यूं कि उन छह अंधों के छह आधुनिक वंशज हाल ही में किसी वेबिनार में मिल गए। चूंकि वे अपने पूर्वजों की अमर परम्परा को जीवित रखने के लिए ही अवतरित हुए थे, ऐसा उन्हीं का मानना था। तो उन्होंने दो काम किए। एक, वे अंधे बने रहे और दूसरा, उन्होंने भी हाथी की व्याख्या करने के अपने पुरखों के पुनीत काम को ही आगे बढ़ाने का फैसला किया। पुरखों का काम आगे बढ़ाने का सबसे बड़ा फायदा यह होता है कि कुछ नया नहीं करना पड़ता है। नुकसान केवल पुरखों का नाम डूबने के खतरे के रूप में होता है। पर चूंकि पुरखे जा चुके होते हैं। तो यह खतरा अक्सर लोग और यहां तक कि पॉलिटिकल पार्टियां भी उठा लेती हैं। 

तो जैसा कि पहले बताया, ये छह अंधे एक वेबिनार में मिले। नए जमाने के नए अंधे। तो हाथी को जंगल में खोजने की मशक्कत करने के बजाय उन्होंने उसे गूगल पर ही खोजने का निर्णय लिया। गूगल का फायदा यह भी होता है कि वह गलत खोजों को भी करेक्ट कर देता है। जैसे इन छह अंधों द्वारा "Elephent' लिखकर सर्च करने पर भी गूगल ने स्पेलिंग ठीक कर ढेरों हाथी सामने पटक दिए। छोटे-बड़े, आड़े-टेढ़े, पस्त और मदमस्त। उन्होंने बहुमत से एक मदमस्त हाथी चुन लिया। हालांकि उन्होंने वही हाथी क्यों चुना, इस बारे में उन्हें कुछ पता नहीं था। बस चुनना था तो चुन लिया। लेकिन खुशी तो उनके चेहरे पर ऐसी थी मानो सरकार चुन ली। दिखावा तो एेसा कि क्या समझ-बूझकर हाथी चुना। चूंकि वे वोर्टस भी थे तो उन्हें ऐसा हाथी चुनने में अपने मतदान का अनुभव काम आया।

खैर हाथी का चुना जाना ज्यादा महत्वपूर्ण था। उन्होंने जो हाथी चुना था, वह शायद उनके चुने जाने से पहले ही मदमस्त था। वह सत्ता का हाथी था जो इन दिनों ट्विटर, वाट्सऐप के पीछे-पीछे गूगल के बाड़े में भी आ धमका था और इसीलिए उन अंधों को वह गूगल पर ही चरते हुए मिल गया। सत्ता का वर्चुअल हाथी उनके सामने तो था, लेकिन उसे न देख पाना उनकी परंपरागत मजबूरी थी।

खैर, अंधों ने वर्चुअल हाथी की वर्चुअल व्याख्या शुरू की, क्योंकि हमने भी तो बात उस व्याख्या के लिए ही शुरू की थी।

पहला अंधा वर्चुअल हाथी के पेट पर अपने कम्प्यूटर माउस का कर्जर रखते ही बोला। अरे यह तो दीवार है। वोटों के लिए हिंदुओं-मुस्लिमों के बीच खींची हुई दीवार।

अब दूसरे अंधे ने अपने माउस का कर्जर हाथी के मुंह की तरफ मोढ़ा। सूंड पर पहुंचते ही बोला, - नहीं जी, यह दीवार नहीं, यह तो सांप है। विष वमन करने वाला सांप, धर्म के नाम पर तो कभी पाकिस्तान के नाम पर।

तीसरे अंधे के माउस का कर्जर हाथी की पूंछ के पास पहुंचा। उसे महसूस करके बोला, - यह रस्सी है, ऐसी रस्सी जो सत्ता में ऊपर चढ़ने के भी काम आए और विरोधियों का गला कसने के भी।

अब चौथे की बारी थी। चौथे अंधे ने हाथी के कानों को छूआ तो बोला, अबे, यह तो सूपड़ा है। जो काम का न हो, उसे झटक देता है। 75 साल के बूढ़ों को साफ करने में यह ज्यादा काम आया।

पांचवें अंधे के माउस का कर्जर हाथी के पैर के पास पहुंचा तो ऐसा उत्साह से भर गया मानो हाथी का रहस्य उसी ने ढूंढ़ लिया हो। वह चिल्लाने ही वाला था कि यकायक चुप हो गया। बाकी के अंधे 'क्या क्या' करते ही रह गए, पर वह न बोला तो न बोला। शायद वह अकल से अंधा न था।  

छठे ने अब ज्यादा इंतजार करना ठीक न समझा। वह अपने आप को ज्यादा बुद्धिमान तो नहीं, लेकन दूसरों को मूर्ख जरूर समझता था। उसने सोचा, बहुत बकवास हो गई। सब घिसी-पिटी बात कर रहे हैं। मैं देखता हूं। उसने हाथी के दांतों तक अपने माउस का कर्जर पहुंचाया और धीरे से बोला, ‘अरे मूर्खों, यह तो बांसुरी है, बांसुरी। यह वही बांसुरी है, जो कभी नीरो बजाया करता था।’

पांचवें को छोड़कर बाकी सभी अंधों ने चिल्लाकर कहा, अरे हां, कुछ दिन पहले यही बांसुरी तो हमने सुनी थी। क्या सुंदर धुन थी। अब वे आंखों से अंधे थे, कानों से बहरे थोड़े ही थे। तो वह सुंदर धुन तो सबने सुनी ही थी, पांचवें वाले ने भी।

अब फिर से पुराने जमाने की कहानी में लौटते हैं। पूर्वजों द्वारा हाथी की व्याख्या में तो वह हाथी कन्फ्यूज हो गया था। लेकिन सत्ता के इस मदमस्त हाथी को कोई कन्फ्यूजन नहीं है। नतीजा : एक अंधे को छोड़कर बाकी सभी धारा 124 के तहत जेल में चक्की पीस रहे हैं। पांचवें अंधे ने हाथी की इमेज को दुरुस्त करने के लिए उसका सोशल मीडिया अकाउंट संभाल लिया है।

(ए. जयजीत खबरी व्यंग्यकार हैं। अपने इंटरव्यू स्टाइल में लिखे व्यंग्यों के लिए चर्चित हैं।)

बुधवार, 16 जून 2021

Humor & Satire : गेहूं की बोरियों का भी वाट्सएप ग्रुप, बारिश में भीगती बोरियां डाल रही हैं स्टेटस

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 By Jayjeet

और तेज हवाओं के साथ झमाझम बारिश होने लगी। मानसून की पहली बारिश थी। बैग में छाता तो था, लेकिन बाइक पर उसे कैसे संभालता। तो रिपोर्टर ने भीगने से बचने के लिए सीधे उस यार्ड की शरण ली जहां गेहूं की बोरियां रखी हुई थीं। लेकिन वहां का सीन देखा तो माथा ठनक गया। गेहूं की एक नहीं, कई बोरियां पहली बारिश में भीगने का लुत्फ उठा रही थीं। छई छप्पा छई, छप्पाक छई... पर डांस कर रही थीं। न कोई लाज, न कोई शरम। रिपोर्टर का रिपोर्टतत्व जागृत हो उठा और अपना छाता तानकर सीधे पहुंच गया ऐसी ही एक बोरी के पास ...

रिपोर्टर : बोरीजी... बोरीजी ssss... ऐ बोरी...

बोरी : कौन भाई। आप कौन? क्यों चिल्ला रहे हों? 

रिपोर्टर : ये आप बारिश में बिंदास भीग रही हैं। क्या आपको ना मालूम कि आपके भीतर बहुत ही कीमती दाना भरा हुआ है?

बोरी : अरे कहां ऐसी छोटी-मोटी बातों में लगे हों। पहली बारिश है। आप भी फेंकिए ना अपना छाता और मस्त भीगिए ना। (और फिर वह लग छई छप्पा छई, छप्पाक छई... ) 

रिपोर्टर : अरे नहीं, मैं तो आपको आपकी जिम्मेदारी का एहसास करवाने आया हूं।

बोरी : देखिए, जब मानसून की पहली बारिश होती है ना तो महीनों की सारी तपन दूर हो जाती है। मेरी सारी सहेलियां और कजीन सब भीगने का मजा ले रही हैं और आप हैं कि अपनी रिपोर्टरगीरी में इन शानदार पलों को खो रहे हों। 

रिपोर्टर : सब भीग रही हैं, मतलब? 

बोरी : हमारा वाट्सएप ग्रुप है। मप्र से लेकर राजस्थान, उप्र, पंजाब, हरियाणा, सब जगह की बोरियां इससे जुड़ी हैं। सब बोरियों ने पहली बारिश में भीगने की सेल्फियां पोस्ट की हैं। तो मैं क्यों यह मौका छोड़ू? अब आप आ ही गए तो मेरी बढ़िया-सी फोटो ही खींच दीजिए। ग्रुप में भी डाल दूंगी और स्टेटस पर भी।

रिपोर्टर (फोटो खींचने के बाद) : बहुत हो गया बोरीजी। मुझे आपके भीतर पड़े दाने की चिंता हो रही है। आप समझती क्यों नहीं?

बोरी : आप क्यों चिंता कर रहे हों? चिंता करने वाले दूसरे लोग हैं ना। अनाज भंडारण केंद्रों के कर्मचारी, मंडियों के अफसर सब हैं ना। कल आएंगे। आंकलन कर लेंगे कि कितना अनाज खराब हुआ, कितना सड़ा। अपने दस्तावेजों में सब दुरुस्त कर लेंगे। बेमतलब की चिंता छोड़िए और आप तो मेरे साथ एक सेल्फी लीजिए। किसी बोरी ने आज तक किसी रिपोर्टर के साथ सेल्फी ना खिंचवाई होगी। आज तो सबको जलाऊंगी...

रिपोर्टर : पर ये कौन अफसर हैं? मुझे जरा उनका नंबर दीजिए, अभी बात करता हूं।

बोरी : आप बहुत ही विघ्न संतोषी टाइप के आदमी मालूम पड़ते हों। लगता है, न आप कभी खुद खुश होते हो और न दूसरों को खुश देख सकते हों... 

रिपोर्टर : अरे, मैं तो उनकी जिम्मेदारी याद दिलाना चाहता हूं, बस।

बोरी : अब आप भी बस कीजिए रिपोर्टर महोदय। बेचारे अफसर पहली बारिश में घर में बैठकर अपनी-अपनी बीवियों के हाथों पकोड़े खा रहे होंगे। आप क्यों छोटी-छोटी बातों पर उन्हें परेशान करना चाहते हैं। आप भी जाकर खाइए ना पकोड़े-सकोड़े... और इतना कहकर फिर लग गई ...छई छप्पा छई, छप्पाक छई...

(ए. जयजीत खबरी व्यंग्यकार हैं। अपने इंटरव्यू स्टाइल में लिखे व्यंग्यों के लिए चर्चित हैं।)


सोमवार, 14 जून 2021

Funny : कोरोना की जिंदगी में भी शुरू हुआ स्यापा!


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By Jayjeet

कोरोना ने हम सब लोगों की जिंदगी में तूफान मचा रखा है। लेकिन अक्षय तृतीया के बाद से अब यह तूफान कोरोना की जिंदगी में उठ रहा है। वजह - उसने कोरोनी से शादी जो कर ली है। कोरोना की जिंदगी में क्या स्यापा चल रहा है, आइए सुनते हैं कोरोना और उसकी धर्मपत्नी यानी कोरोनी की यह बातचीत। बहुत ही गोपनीय ढंग से रिकॉर्ड की गई इस बातचीत की एक्सक्लूसिव सीडी केवल हमारे पास ही है :

कोरोना : हे कोरोनी, तुमने ये इतना बड़ा-सा घुंघट क्यों डाल रखा है?

कोरोनी : आपसे हमें संक्रमण ना हो जाए, इसी खातिर...

कोरोना : अरे, जबसे तुमसे शादी हुई है, तबसे हममें संक्रमित करने की ना तो इतनी ताकत बची, ना इतना समय..

कोरोनी : तो इसमें हमें काहे दोष देते हों? हमने ऐसा क्या किया?

कोरोना : क्या किया? सुबह से ही बिस्तर पर बैठे-बेठे ऑर्डर देने लगती हो, चाय बनी क्या? नाश्ता बना क्या? चाय-नाश्ता बनाकर फारिग होता ही हूं कि आलू-प्याज की रट लगा देती हो। बस, थैला उठाए आलू-प्याज और सब्जी लेने निकल जाता हूं। लोगों को संक्रमित क्या खाक करुं?

कोरोनी (घुंघट को हटाते हुए) : देखिए जी, अब ये तो ज्यादा हो रहा है... अरे और दूसरे हस्बैंड लोग भी तो हैं। वे अपने पड़ोस में शर्माजी को ही देखो..

कोरोना : शर्माजी, कौन शर्माजी?

कोरोनी : वही शर्माजी, जिनको तुमने हमारी इन्गेजमेंट के दिन ही संक्रमित किया था, भूल गए क्या? देखो उनको भी तो, कैसे बीवी के इशारों पर नाचते हैं, पर बॉस की भी पूरी हाजिरी लगाते हैं। ऐसे एक नहीं, कई लोग हैं जो बीवी और बॉस दोनों की चाकरी पूरे तन-मन से करते हैं और मुंह से उफ्फ तक नहीं निकलाते। और एक तुम हो कि बीवी जरा-से काम क्या बताती, उसी में चाइना वाली नानी याद आने लगती है.... काम धाम कुछ नहीं, शो-बाजी तो पूछो मत...

कोरोना (गुस्से में) : क्या काम-धाम ना करता हूं, बताओ‌ तो जरा? सुबह उठकर चाय-नाश्ता तैयार मैं करता हूं, सब्जी-वब्जी मैं लाता हूं। दोनों टाइम के बर्तन मैं साफ करता हूं। तंग आ गया मैं तो ... घर-गृहस्थी के चक्कर में अपना असली काम ही भूल गया... देखो, कैसे लोग बिंदास बगैर मास्क लगाए घूम रहे हैं, जैसे मुझे चिढ़ा रहे हों कि आ कोरोना आ... पर अब ताकत ही ना बची ...

कोरोनी (मामले को शांत करते हुए) : अरे जानू, तुम तो नाराज हो गए। अच्छा, चलो आज डिनर में चाऊमिन मैं बना दूंगी। .... और सुनो जी, गांधी हॉल में साड़ी की सेल शुरू हुई है। उसमें हजार-हजार की साड़ी पांच-पांच सौ में मिल रही है। चलो ना वहां, तुम्हारा भी मूड फ्रेश हो जाएगा...

कोरोना (सीने पर हाथ रखते हुए) : हे भगवान, क्यों सेल का नाम लेकर मेरा बीपी बढ़ा रही हो? उधर, सरकार ने वैक्सीन पर फिर पॉलिसी बदल ली है। मेरे लिए तो जिंदगी में टेंशन ही टेंशन है। क्या करुं, कहां जाऊं...!!

कोरोनी : हाय दैया, ये सरकार है कि तमाशा है। पल में तोला, पल में माशा। पर सरकार तुम्हारे पीछे हाथ धोकर क्यों पड़ी है?

कोराना : अरे हमें पूरी तरह से नाकारा बनाने के लिए, और क्या! आधे मरे को पूरा मारने के लिए।

कोरोनी : अजी, तब तो तुम टेंशन मत लो। हम सरकार से कह देंगे कि देश में कोनो वैक्सीन-फैक्सीन की जरूरत नहीं है। अब हम है ना...!! और अब फटाफट तैयार हो जाओ। लॉकडाउन खुलने के बाद पहली सेल है। ऐसा ना हो कि सेल में अच्छी-अच्छी साड़ियां पहले ही खतम हो जाए...

और कोरोना "जी जी' करते हुआ तैयार हुआ और कंधे झुकाए निकल पड़ा बाइक पर कपड़ा मारने...


शनिवार, 5 जून 2021

Satire & Humor : उस पौधे से बातचीत जिसे बड़ा होकर नेताओं की कुर्सी बनना है...

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By Jayjeet

कई पौधे पड़े-पड़े मुस्करा रहे थे। बड़ी ही बेसब्री से नेताजी का इंतजार कर रहे थे। उन्हें प्रफुल्लित देखकर ऐसा लग रहा था मानो वे इंसानों को चिढ़ा रहे हों कि आपके अच्छे दिन आए या ना आए, हमारे तो आ गए। पर उन्हीं में से एक पौधा कोने में मुंह फुलाए दीवार के सहारे अधखड़ा था। उसे विश्व पर्यावरण दिवस से रत्तीभर भी फर्क नहीं पड़ रहा था। रिपोर्टर तो हमेशा ऐसे ही असंतुष्ट और बागियों की तलाश में रहते हैं। ब्रेकिंग न्यूज तो आखिर उन्हीं से मिलती है। तो यह रिपोर्टर भी पहुंच गया उसी बागी पौधे के पास और लगा कुरेदने ...

रिपोर्टर : नमस्कार, आज तो आपका दिन है। लेकिन आपके चेहरे पर इतनी मुर्दानगी क्यों छा रही है भाई? 

पौधा : मुझे तो उन पौधों पर तरस आ रहा है तो आज के दिन बड़े खुश हो रहे हैं। देखो, नेताजी के इंतजार में कैसे खुशी से मरे जा रहे हैं।

रिपोर्टर : खुश तो आपको भी होना चाहिए। पर आप तो सचिन पायलट बन रहे हों।

पौधा : तो क्या हमें सिंधियागीरी मिल जाएगी, जो खुश हो जाएं?

रिपोर्टर : वाह, नहले पर दहला जड़ दिया। राजनीति का आपको इतना इल्म कैसे?

पौधा : आपके नेताओं से हमारे बाप-दादाओं का पुराना राब्ता रहा है।

रिपोर्टर : अरे, भला कैसे?

पौधा : आपके नेता लोग लकड़ी की जिन कुर्सियों पर बैठते हैं, वे आखिर हमारे बाप-दादाओं के बलिदान का ही तो प्रतिफल है।

रिपोर्टर : अच्छा, इसीलिए आपके दिलो-दिमाग में नेताजी के प्रति इतनी नफरत भरी है?

पौधा : और नहीं तो क्या! बड़े होकर नेताओं की कुर्सी की लकड़ी बनना ही तो हमारी नियति है। नेताओं से बच गए तो किसी बड़े इंडस्ट्रीयल प्रोजेक्ट के लिए काट दिए जाएंगे।

रिपोर्टर : लेकिन ये भी तो सोचो कि बड़े होने पर अगर किस्मत से जंगल मिल गया तो फिर तो ऐश ही ऐश। मस्ती से कई पीढ़ियां बीत जाएगी आपकी।

पौधा : सब मन बहलाने वाली बात है। अपने पुरखों की आत्मकथाएं बांच रखी हैं मैंने। उनमें वे कटने से पहले विस्तार से बता गए कि कैसे कभी कोयले के लिए, कभी सोने या हीरों के लिए तो कभी बड़े-बड़े बांधों के लिए जंगल के जंगल साफ कर दिए गए। 

रिपोर्टर : लेकिन आप मानवता के काम आ रहे हों, यह सौभाग्य कम ही लोगों को मिलता है।

पौधा : ये अपना इमोशनली ब्लैकमेल वाला फंडा उन मूर्ख पौधों पर आजमाइए जो नेताजी के हाथ से खुद को बर्बाद करने को तैयार बैठे हैं। मैं इंकलाबी खुद को सुखाकर मर मिटूंगा, लेकिन तुम मनुष्यों के लिए कभी नहीं....

वह बागी पौधा अपनी बात पूरी भी नहीं कर पाया कि उससे पहले ही सायरन बजाती गाड़ियां धमक पड़ीं। क्षण भर में ही फॉरेस्ट विभाग के कारकून के दो हाथों ने उस पौधे पर मानो झपट्‌टा-सा मारा। पौधे ने शुरू में प्रतिरोध किया, लेकिन फिर अपनी नियति के लिए निकल पड़ा। फोटोग्राफर्स भी दूर खड़े नेताजी की तरफ लपक पड़े...

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शुक्रवार, 4 जून 2021

व्यंग्य : सरकार के बनने और दौड़ने की एक दंतकथा


 By ए. जयजीत 

सरकार नामक व्यवस्था का निर्माण कैसे हुआ, इसकी भी एक दिलचस्प दंतकथा है। 

बहुत पुरानी बात है। बात जितनी पुरानी होती है, उतनी ही दमदार होती है। तो यह दमदार बात भी है। एक दिन ऊपर बैठी हुई ईश्वरीय शक्ति, जिसे हम आगे शॉर्ट में ईश्वर ही कहेंगे, को बोध हुआ कि धरती पर लोग कुछ भी करते-धरते नहीं हैं। तो क्यों न लोगों को कुछ काम दिया जाए। उसने एक व्यवस्था बनाने पर कार्य शुरू किया। इस व्यवस्था को बाद में कुछ लोगों ने शासन प्रणाली कहा तो कुछ ने सरकार। हम यहां शॉर्ट में इसे सरकार ही कहेंगे क्योंकि शासन प्रणाली उच्चारित करना जरा कठिन है। कठिन चीजों से हमेशा बचना चाहिए।

तो सरकार के तहत कुछ लोगों को भर्ती किया गया। बाद में ईश्वर यह बात भूल गए कि उन्होंने कोई व्यवस्था बनाने की बात सोची थी, कुछ भर्तियां भी की थी। बात आई-गई हो गई। जिन लोगों की भर्ती की गई थी, वे यूं ही निठल्ले बैठे रहते, जैसे कि पहले बैठे हुए थे। यही लोग बाद में चलकर सरकारी कर्मचारी कहलाए। 

महीनों बीत गए। फिर उनमें से कुछ ने खुद ही सोचा कि बैठे-बैठे क्या करें, करते हैं कुछ काम। तो वे कुछ करने को निकले। सबसे पहले उन्होंने ऐसी जगह ढूंढने की ठानी जहां बैठकर वे बगैर काम किए भी वे खुद को बिजी दिखला सकें। तो उन्होंने ऐसे ठिकाने ढूंढ लिए। यही ठिकाने बाद में सरकारी दफ्तर कहलाए। ठिकानों पर पहुंचकर सब लोग खुश हुए। सरकारी नौकरी लगने पर खुश होने की महान परंपरा का यहीं से जन्म हुआ। इस तरह सरकार ने पहला कदम आगे बढ़ाया।

अब कर्मचारी थे। दफ्तर भी थे, मगर खाली-खाली थे। महसूस हुआ कि दफ्तर में फर्नीचर, पंखे, फाइलें तो होनी ही चाहिए। और हां, पानी के मटके भी। कुछ मूर्खों ने कहा, चलो फ्री तो बैठे ही हैं। बाजार चलकर खरीद लाते हैं। लेकिन समझदार लोगों ने समझाया - सब कुछ सिस्टेमैटिक होना चाहिए। आखिर सरकारी काम है। कहीं ऊंच-नीच हो जाए तो जवाब कौन देगा? यह दफ्तरों में सवाल पूछने की परंपरा का आगाज था। सबसे इसका स्वागत किया। सदियां बीत गईं, यह उसी 

सवाल का प्रताप है कि आज भी  हर दफ्तर में जवाबदेही से ज्यादा सवालदेही मिलती है। 

हर काम सिस्टैमेटिक हो, पर कैसे हों? इस पर कई लोग साथ बैठते, भर-भरकर विचार करते। यह

मीटिंग्स का शुरुआती काल था जो कालांतर में प्राइवेट दफ्तरों में खूब फला-फूला। खैर, मीटिंग्स पर मीटिंग्स के बाद अंतत: सामान की खरीदी के लिए प्रपोजल्स मंगवाने पर एकराय बनी। जो इस एकराय पर एकमत नहीं थे, वे मीटिंग्स से बाहर चले गए, कानाफूसी करने। तो इस मीटिंग्स से सरकारी दफ्तरों में दो चीजें एकसाथ अस्तित्व में आईं- कानाफुसी और टेंडर। इससे तीन फायदे हुए। दफ्तरों में लोगों को तीन तरह के काम मिलने शुरू हुए - मीटिंग्स करना, कानाफुसी करना और खरीदी के टेंडर निकालना।

तो कुछ चीजों के लिए टेंडर निकाले गए। टेंडर के कार्य के लिए टेबलें जरूरी थीं। तो उन्हें पिछले दरवाजें से बुलवाना पड़ा, बगैर टेंडर के। यहां कर्मचारियों को एक महाज्ञान की प्राप्ति भी हुई - कुछ काम नॉन-सिस्टेमैटिक तरीके से भी हो सकते हैं। जिन्होंने पहले यह ज्ञान दिया कि था कि सब कुछ सिस्टेमैटिक होना चाहिए, वे भी इस नए महाज्ञान पर आसक्त हो गए।

टेंडर के काम के लिए टेबलें तो आ गईं, लेकिन कुर्सियां बुलाना भुल गए। चूंकि वह शुरुआती काल था। तो लोग कुर्सी की महिमा से इतने परिचित नहीं थे। सो, कुर्सी न होने पर भी उन्होंने उस समय मलाल नहीं किया। कुछ लोग टेबलों के ऊपर बैठ गए और कुछ लोग टेबलों के नीचे। नीचे से काम फटाफट होने लगा। टेबलों के ऊपर बैठे लोग भी अब ऊंगली को नीचे करके इशारा करते। यहीं से एक और ज्ञान मिला - काम टेबलों के नीचे से ज्यादा आसानी से हो सकता है, बनिस्बत ऊपर के। इसलिए पंखों, फाइलों से लेकर मटकों तक के टेंडर फटाफट पास हो गए।

इस तरह सरकार और आगे बढ़ी।

इसी दौरान ईश्वर को अचानक याद आया कि उसे तो कोई व्यवस्था बनानी थी। उसने ऊपर से नीचे झांका। उसे यह देखकर बड़ी खुशी मिली कि कुछ समझदार इंसानों ने आत्मनिर्भर होकर खुद ही कुछ व्यवस्था बना ली। परंतु चूंकि उसे भी कुछ तो करना था। तो उसने उन्हीं इंसानों में से एक को सरकार का मुखिया बना दिया। और इस तरह ईश्वरीय दायित्व पूरा हुआ। इसके बाद से ही मतदान को आज भी ईश्वरीय दायित्व कहा जाता है।

अब मुखिया ने कुछ विभाग बनाए। कुछ को उन विभागों का प्रमुख बना दिया। लेकिन अब वे सब क्या करते? मीटिंग्स भी कितनी करते। कानाफुसी करना छोटा काम था और टेंडर निकालना नीचे वालों का काम था। तो ये विभाग प्रमुख तो निठल्ले के निठल्ले ही रहे।

फिर मुखिया को याद आईं वे फाइलें जो टेंडरों के जरिए खरीदी गई थीं। वे सब धूल खा रही थीं। उसने विभागों के प्रमुखों को आदेश दिया- फाइलें पुट-अप करो। विभागों के प्रमुखों के दिन फिरे। उन्हें अपनी हैसियत के अनुसार प्रॉपर काम मिला। फाइलें पुट-अप होने लगीं। सरकार के मुखिया लिखते- चर्चा करें। कभी लिखते- परामर्श करें।

इस तरह लोग अब मीटिंग्स के अलावा चर्चा और परामर्श भी करने लगे। जो लोग ये काम नहीं कर सकते थे, उन्हें फाइलों को इधर से उधर करने के काम में लगा दिया गया। अब इधर से उधर फाइलें ही फाइलें। एक ठिकाने से दूसरे ठिकाने तक, जो अब ऑफिशियली दफ्तर कहलाने लगे थे, फाइलें चलने लगीं। फाइलों के चलने की गति उस पर रखे गए वजन के समानुपाती होती थी। फाइल पर जितना ज्यादा वजन, उसकी गति उतनी तेज। तो अब सरकार दौड़ने लगी थी।

यहां छोटा-सा एक ब्रेक लेने का वक्त है। लेकिन चूंकि स्टोरी में एक ट्विस्ट आ गया है। तो पहले उस ट्विस्ट की बात कर लेते हैं…

इधर सरकार रुक-रुककर दौड़ रही थी और उधर राज्य में कुछ समाज विरोधी तत्व भी मर-मरकर पैदा हो रहे थे। ये तत्व बाद में क्या कहलाए, आप तय कीजिए, क्योंकि इनको लेकर थोड़ा वैचारिक कन्फ्यूजन है। खैर, इन समाज विरोधी तत्वों ने सरकार से ही सवाल पूछने शुरू कर दिए। वे पूछने लगे, सरकार क्या कर रही है? भला ये भी क्या सवाल हुए!

लेकिन सरकार का मुखिया विचलित नहीं हुआ। सरकार क्या कर रही है, इसी सवाल पर उसने जांच करवाने का ऐलान कर दिया। यहीं से जांच आयोग जैसी महान परंपराओं की शुरुआत हुई। समाज विरोधी तत्व चुप। जनता को तो ईश्वर ने मुखिया चुनने की शक्ति देकर पहले ही चुप करवा दिया था। भला जनता का ऐसे आलतू-फालतू सवालों से क्या लेना-देना?

तो सरकार चलती रही। इस बीच स्पीड ब्रेकर नामक एक महान आविष्कार भी हो चुका था। तो इन स्पीड ब्रेकरों पर सरकार रुकती भी रही और उछलती भी रही। यूं ही रुकते-उछलते-दौड़ते सालों बीत गए।

फिर एक दिन अचानक सरकार के मुखिया को जांच आयोग की रिपोर्ट मिली। लेकिन तब तक वह भूल चुका था कि उसने आखिर जांच आयोग क्यों बिठाया था। उसे कुछ समझ में नहीं आया तो उसने इसका पता लगाने के लिए कुछ कमेटियां बना दी। इसमें उन लोगों को काम मिला जो फाइलें पुट-अप करते-करते अब बूढ़े हो गए थे। बुढ़ापे की इस सरकारी व्यवस्था को तब तक रिटायरमेंट का नाम दे दिया गया था।

कमेटियों के गठन से सरकार और मजबूत हुई। उन कमेटियों की रिपोर्ट का क्या हुआ, सरकार ने कभी इसकी चिंता नहीं की। जनता तो वैसे भी नहीं करती है। तो सरकार चलती रही, दौड़ती रही। स्पीड ब्रेकरों पर रुकती रही और उछलती रही। यह परंपरा आज तक चली आ रही है।

 इति दंतकथा। अब एक लंबा ब्रेक ले लेते हैं...।


सोमवार, 31 मई 2021

Satire: और राह में चलते-चलते, एक दिन कोरोना की बाबाजी से मुलाकात हो गई...

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By Jayjeet

एलोपेथी और आयुर्वेद के बीच जारी विवाद के बीच अचानक ही बाबाजी की कोरोना से मुलाकात हो गई। पहली नजर मिलते ही दोनों एक-दूसरे को देखकर कन्नी काटने लगे। पर जब सामने पड़ ही गए और एक-दूसरे से बचना नामुमकिन हो गया तो औपचारिक हाय-हलो से बात यूं शुरू हुई :  

बाबाजी : अरे कोरोना, क्या हाल है? बहुत मुटा गया इतने दिनों में! 

कोरोना : पर कल मैंने वुहान वीडियो कॉल लगाया था। मम्मी तो कह रही थी कि इंडिया जाकर तू बहुत दुबला हो गया। प्रॉपर खाने को नहीं मिलता क्या?

बाबाजी : अब क्या करें, हर मां को ऐसा ही लगता है। 100 किलो वजनी बेटे को भी यही बोलती है- तू बहुत दुबला हो गया रे। पर तू ने बताया नहीं कि यहां तो तेरी खूब खातिरदारी होती है। लोग पलक-पावड़े बिछाए तेरा इंतजार करते हैं। कई लोग तो तेरे को खुद ही अपने साथ घर ले जाते हैं। 

कोरोना : हां, पर बाबाजी अब मैं बोर हो गया हूं। अब घर की याद आने लगी है। 

बाबाजी : बेटा, इतनी जल्दी चला जाएगा तो हमारा इनोवेशन धरा का धरा ना रह जाएगा? अब तो हम स्वदेशी वैक्सीन के फॉर्मूले पर भी काम करने वाले हैं। 

कोरोना : बाबाजी, तीन करोड़ के करीब मरीज हो तो गए। अब बच्चे की जान लोगे क्या?

बाबाजी : पर तेरे को जल्दी क्या है? मेहमाननवाजी में कोई कमी रह गई है क्या? रोज चाऊमीन खाने को मिल तो रही है। 

कोराना : सोया बड़ी व पत्ता गोभी वाली चाऊमीन भी कोई चाऊमीन होती है क्या? ऊपर से इतना ऑयल अलग डाल देते हो। माना आप लोगों की हमारे चाइना से दुश्मनी है, पर ये दुश्मनी चाऊमीन के साथ क्यों निकालते हों! 

बाबाजी : पर बेटा, अभी तू चाइना वापस जाएगा तो वहां तुझे बहुत दिक्कतें हो सकती हैं। अमेरिका के नए राष्ट्रपति ने वुहान लैब वाला मामला फिर छेड़ दिया है। तो तू जैसे ही चाइना जाएगा, तेरी अपनी सरकार अमेरिका की नजर से बचाने के लिए तुझे ही काल कोठरी में डाल देगी। फिर सड़ते रहना....

कोरोना : तो आप चाहते क्या हो?

बाबाजी : बेटा अगले दो-चार दिन में देश के कई राज्य धीरे-धीरे अनलॉक हो रहे हैं।  देखना फिर लोग मजे में घूमेंगे। न मास्क लगाएंगे, न सोशल डिस्टेंसिंग रखेंगे। तेरे लिए तो स्कोप ही स्कोप है..

कोराना : बाबाजी, इनडायरेक्टली आप इसमें अपना तो स्कोप ना देख रहे हों? वो आपने कौन-सी दवा बनाई। नाम भूल रहा हूं, मेरे ही नाम से मिलती-जुलती है ना ...

बाबाजी : (बीच में बात काटते हुए) : आज तू कुछ ज्यादा समझदारी की बात ना कर रहा! 

कोरोना : समझदार होता तो यूं इंडिया में आता क्या? यहां आकर वजन बढ़ा सो बढ़ा, पर न जाने कितनी ही बीमारियां और हो गईं। 

बाबाजी : हर बीमारी का मेरे पास इलाज है। कल से आ जा मेरे पास। दो चार महीने योगासन करेगा तो सारी बीमारियां छूमंतर हो जाएंगी। 

कोरोना : बाबा, ये वो बीमारियां नहीं हैं, जो किसी योग से जाएंगी। ब्लैक मार्केटिंग, नकली दवाइयों का धंधा, झूठ, चमचागीरी, भाई-भतीजावाद, वंशवाद, भ्रष्टाचार, बेमतलब पंगेबाजी जो आपने अभी ली है, इन सब बीमारियों के लक्षण मैं यहां इंडिया में आकर फील कर रहा हूं। इनका कोई इलाज हो तो बताओ आपके पास...

बाबाजी : हूंम्म... बताता हूं, पर अभी जरा बिजी हूं, वो एलोपैथी वालों को दो-चार जवाब और दे दूं, फिर इसके बाद अपने सीईओ के साथ एक जरूरी बिजनेस मीटिंग है। अपन फिर मिलते हैं... पर ये शीर्षासन जरा करते रहता... सबसे बढ़िया आसन है।   

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शनिवार, 29 मई 2021

Not Funny : बक्सवाहा में हीरों का खनन - असली हीरों को नष्ट कर नकली हीरों की तलाश!

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By  ए. जयजीत

मप्र के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान बहुत संवेदनशील हैं, हां वाकई...! गत सप्ताह जैसे ही सुंदरलाल बहुगुणा के निधन की खबर आई, उन्होंने तत्काल ट्विटर पर उनके प्रति संवेदना व्यक्त की। दूसरे नेता भी पीछे ना रहे। सब ट्विटाने लगे। वाह, क्या पल थे! प्रकृति का एक संरक्षक विदा हुआ और ट्विटर संवेदनाओं से कलरव (tweets) करने लगा। लेकिन यहां मप्र के मुख्यमंत्री का कलरव ज्यादा मायने रखता है। क्यों? क्योंकि इन्हीं के मप्र में, माफ कीजिएगा, हम सबके मप्र के एक इलाके में हमें फिर से एक सुंदरलाल बहुगुणा की जरूरत महसूस हो रही, कहीं शिद्दत से... यह क्षेत्र है मप्र के छतरपुर जिले का बक्सवाहा। 

बक्सवाहा के जंगल की जमीन बहुत ही बहुमूल्य है। अब और भी बहुमूल्य हो गई है। उसके नीचे छिपे हैं हीरे, अनगिनत। हीरे बहुमूल्य होते हैं। मगर इतने भी नहीं कि इन हीरों को पाने के लिए उन पेड़ों को नष्ट कर दिया जाए, उस पर्यावरण को भ्रष्ट कर दिया जाए, जो अनमोल है। आज से दो साल पहले तत्कालीन कमलनाथ सरकार ने एक निजी कंपनी को बक्सवाहा के जंगलों की हीरा भंडार वाली 62 हेक्टेयर जमीन को 50 साल के लिए लीज पर दे दिया था। अब कंपनी ने कुछ सौ हेक्टेयर जंगल और मांगा है, ताकि वह वहां भी खदानों से निकले मलबे को डंप कर सके। किसी जंगल की वर्जिन भूमि को माइनिंग के लिए लीज पर देने का मतलब जानते हैं? यह उतना ही भयावह हो सकता है, जितना कि किसी निहत्थी निर्भया का हवसियों के हाथों में पड़ जाना। जंगलों में हीरों या खनिज का 'खनन' इसी 'हवस' का पर्यायवाची है। 

तो इतना पढ़ने और लिखने के बाद सवाल अब भी रहा अनुत्तरित का अनुत्तरित। करना क्या है? अब से करीब सप्ताह भर बाद विश्व पर्यावरण दिवस है। हमेशा की तरह हम सब इस दिवस की औपचारिकता निभाने के लिए तैयार बैठे हैं। बीते दिनों ऑक्सीजन की मारामारी के बीच हम सबको पेड़ों के साथ ऑक्सीजन को नत्थी दिखाने का भी अच्छा मौका मिल गया है। तो तमाम नेता भी इस दिन एक पौधा तो जरूर रोपेंगे। उम्मीद है जब मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान एक पौधा रोपेंगे तो उस पौधे के बड़े-बुजुर्ग भी उन्हें जरूर याद आएंगे जो बक्सवाहा के जंगलों में अपने संभावित कत्लेआम इंतजार कर रहे हैं। इन बड़े-बुजुर्गों की संख्या करीब सवा दो लाख आंकी गई है। आखिर शिवराज सिंह मप्र के कई बुजुर्गों को तीरथ करवाकर 'बेटे' का स्वतमगा हासिल कर चुके हैं। इतिहास उन्हें एक और तमगा हासिल करने मौका दे रहा है। फिर विश्व पर्यावरण दिवस का मौका भी सामने है। सुंदरलाल बहुगुणा को याद करने वाला उनका ट्वीट भी ट्विटर के आर्काइव में अब तक जिंदा है... 

उम्मीद को एक मौका तो देना चाहिए...हालांकि कड़वी राजनीतिक और वित्तीय हकीकत और तथाकथित विकास का रटा-रटाया फॉर्मूला इस उम्मीद पर भारी नजर आ रहा है... 

(लेखक पत्रकार और खबरी व्यंग्यकार हैं।)


सोमवार, 24 मई 2021

Satire : विश्व कछुआ दिवस पर जब कुछ कछुए टी पार्टी में मिले

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By Jayjeet

कल (23 मई) को विश्व कछुआ दिवस था। इस मौके को सेलिब्रेट करने के लिए कुछ कछुए सोशल डिस्टेंसिंग के साथ चाय पर चर्चा के लिए जुटे। उनके बीच क्या बातचीत हुई, एक रपट ....
कछुआ : सबको बहुत-बहुत बधाइयां, कछुआ दिवस की।
सरकारी फाइल : क्या दिन आ गए हमारे कि अब आपके साथ चाय पीनी पड़ रही है!!
न्यायिक सिस्टम (सरकारी फाइल से) : लॉकडाउन में पड़े-पड़े मुटा गए हों और टांटबाजी बेचारे कछुए पर कर रहे हों? इट्स नॉट फेयर...
सरकारी फाइल (न्यायिक सिस्टम से) : आप तो अभी समर वैकेशन पर हैं तो वैकेशन पर ही रहिए। ज्यादा मुंह मत खुलवाइए। मुंह खुल गया तो आपकी कछुआवत सबके सामने आ जाएगी।
कछुआ : क्या हुआ भाई सरकारी फाइल? इतने फ्रस्टेट क्यों हो रहे हों? न्यायिक सिस्टम हमारे बीच अपनी कछुआवत की वजह से ही है। इसके लिए उन पर क्या ताना मारना!
लॉकडाउन (दिल्लगी करते हुए) : सरकारी फाइल भाईसाहब इसलिए फ्रस्टेट हो रहे हैं क्योंकि पिछले कई दिनों से इन पर कोई वजन नहीं रखा गया है। इसलिए बेचारे जहां पड़े है, वहीं सड़े हैं टाइप मामला हो रहा है।
सरकारी फाइल : इसमें हंसने की क्या बात है? हमारी मजबूरी पर हंस रहे हों? हमारे भगवान लोगों ने हमें बनाया ही ऐसा है तो क्या करे। पीठ पर जितना वजन होगा, उतना ही तो आगे बढ़ेंगे!
लॉकडाउन (फिर दिल्लगी) : कौन हैं ये आपके भगवान टाइप के लोग? हम भी तो सुनें जरा? हां हां हां...
सरकारी फाइल (लॉकडाउन से) : ये वही 'भगवान' हैं, जिन्होंने तुम्हें बनाया है और आज तुम हमारी संगत में बैठने की औकात पाए हो।
न्यायिक सिस्टम (बढ़ती गर्माहट के मद्देनजर बीच में दखल देते हुए) : मिस्टर कछुए, आप तो हमारे होस्ट हों। व्हाय आर यू सो वरीड? कहां उलझे हुए हों?
कछुआ : वैक्सीनेशन प्रोसेस का इंतजार कर रहा हूं। उन्हें चीफ गेस्ट बनाया था। पता नहीं कब आएंगे?
बाकी सभी : ओह नो..., ये हमारे चीफ गेस्ट हैं? तब तो आ गए। फोकट हमारा टाइम खोटी कर दिया। अच्छे भले सो रहे थे...।

Not Funny : बड़े वकीलों की दिल्लगी...और कुछ नॉटी गॉसिप्स...!!

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By Jayjeet

दो दिन पहले सुप्रीम कोर्ट की एक ऑनलाइन सुनवाई के दौरान देश के कुछ वरिष्ठ वकीलों ने हंसी-दिल्लगी के दौरान एक ऐसे विषय की ओर ध्यान आकृष्ट किया है, जो अब गंभीर चर्चा की डिमांड कर रहा है। एक अंग्रेजी अखबार में छपी एक खबर के अनुसार देश के लब्ध प्रतिष्ठ वकीलों के बीच मजाक का विषय यह था कि कौन-सा वकील सबसे ज्यादा पैसा लेता है। इस हंसी-मजाक में शामिल थे अभिषेक मनु सिंघवी, सुप्रीम कोर्ट बॉर एसोसिएशन के अध्यक्ष विकास सिंह, अटॉर्नी जनरल केके वेणुगोपाल और सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता। 

वकीलों ने आपसी मजाक में इस बात का खुलासा किया कि देश के कुछ वकील ऐसे हैं जो महज 10 मिनट की पैरवी के लिए ही दस लाख रुपए तक लेते हैं। इस बात का खुलासा भी हुआ कि सालों पहले वकीलों द्वारा ली जाने वाली भारी-भरकम फीस को अनुचित मानते हुए सुप्रीम कोर्ट बॉर एसोसिएशन के तत्कालीन प्रेसिडेंट मुरली भंडारे फीस की ऊपरी सीमा तय करने के लिए प्रस्ताव भी लाए थे जिसे शांतिभूषण ने यह कहते हुए डस्टबीन के हवाले कर दिया था कि सुप्रीम कोर्ट बार एसोसिएशन ऐसा करने वाला कौन? 

वहां ये सब बातें बेहद हल्के-फुल्के अंदाज में कही जा रही थी और इसलिए ऑनलाइन सुनवाई के लिए जजों के आते ही उनकी इस टिप्पणी के साथ खत्म हो गई कि जज बनने से पहले हम भी वकील थे और जानते हैं कि वकील किस तरह की 'नॉटी गॉसिप' करते हैं। 

सही है, बड़े-बड़े वकीलों के लिए तो यह नॉटी गॉसिप ही है। और हमारी न्याय प्रणाली में ऐसी छोटी-छोटी नॉटी गासिपें चलती रहती हैं कि किस तरह लॉकडाउन की तरह कोर्ट केसेस में तारीख पे तारीख बढ़ती रहती है, किस तरह फैसले आने में 30 से 40 साल तक लग जाते हैं, किस तरह लाखों की तादाद में हर साल मामलों के अंबार लगते रहते हैं, किस तरह आज भी हमारा पूरा न्यायिक सिस्टम 40-50 दिन के समर वैकेशन पर जाना समृद्ध परंपरा का अभिन्न हिस्सा समझता है, आदि आदि... ये सब छोटी-छोटी नॉटी गॉसिप्स हैं, इनके क्या मायने भला?  

पर इन गॉसिप से इतर एक बड़े सवाल पर चर्चा करना जरूरी है। जब इतने बड़े-बड़े वकील इतनी बड़ी-बड़ी फीस लेते हैं तो उन्हें देने वाला भी तो बड़ा ही होता होगा। और कोई उन्हें इतनी भारी-भरकम फीस क्यों देता है? अभी कुछ दिन पहले ही हम सबने वेब सीरीज 'स्कैम 92' देखी है। याद कीजिए, वेब सीरीज का वह दृश्य जिसमें राम जेठमलानी की बाजू में हर्षद मेहता बैठा हुआ है। राम जेठमलानी जी स्वर्ग सिधार चुके हैं। इसलिए संस्कार यही कहते हैं कि हम उनके बारे में अच्छी बातें ही करें। तो अच्छी बात यह थी कि उन्होंने जनहित के कई मामले फ्री में लड़ें... हां, फ्री में भी... एक दावे के अनुसार 90 फीसदी मामले उन्होंने फ्री में लड़े। जो पैसा कमाया, वह केवल हर्षद मेहता स्कैम, हाजी मस्तान स्मगलिंग केस, जेसिका लाल मर्डर केस फेम मनु शर्मा जैसों से कमाया। आज जो लब्ध प्रतिष्ठ वकील हैं, जिनमें से कई बड़ी-बड़ी राजनीतिक पार्टियों से भी जुडे़ हैं, कई मंत्री हैं और कई मंत्री रह चुके हैं, वे भी जनहित के कई मामले फ्री में लड़ते हैं...। वे भी हर्षद मेहताओं, मनु शर्माओं से ही पैसा कमाते हैं या फिर मधु कोड़ाओं जैसे भ्रष्ट नेताओं से। हालांकि ऐसा भी नहीं है कि भारी-भरकम पैसा देने वाले सभी अपने अपराधों से बच ही जाते होंगे। फिर भी भारी-भरकम फीस दी जा रही है। बड़े-बड़े वकीलों के टैलेंट का इस्तेमाल हो रहा है। यह इस्तेमाल कैसा और कहां होता होगा, हम-आप जैसे सामान्य लोग तो कभी समझ भी नहीं पाएंगे। हम तो बस हिरण हत्याकांड जैसे मामलों की कोर्ट कार्रवाई में कभी-कभार जाते हुए अपने सल्लू भाई को अपने प्रशंसकों के सामने हाथ हिलाते ही देख पाते हैं, कहीं और 'हाथ मिलाते' हुए नहीं...। 

खैर, देश को अगर वाकई बदलना है तो क्या इसकी चिंता भी नहीं करनी चाहिए कि वकीलों की फीस कितनी होनी चाहिए? मजाक में नहीं, हकीकत में....पर कौन करेगा, कैसे करेगा, पता नहीं क्योंकि माननीय जज तो कह ही चुके हैं - जज बनने से पहले हम भी वकील ही होते हैं...

तो क्या बेहतर नहीं होगा कि बड़े-बड़े वकील ही इसकी चिंता करें...? क्योंकि जेब वाले कफन बनने तो अभी शुरू हुए नहीं। कफनों को तो मैनुप्यूलेट नहीं किया जा सकता...कम से कम अभी नहीं...!

शुक्रवार, 21 मई 2021

शरद जोशी का व्यंग्य – ‘अथ श्री गणेशाय नम:’ यानी देश के चूहों की कहानी

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शरद जोशी

अथ श्री गणेशाय नम:, बात गणेश जी से शुरू की जाए, वह धीरे-धीरे चूहे तक पहुँच जाएगी। या चूहे से आरंभ करें और वह श्री गणेश तक पहुँचे। या पढ़ने-लिखने की चर्चा की जाए। श्री गणेश ज्ञान और बुद्धि के देवता हैं। इस कारण सदैव अल्पमत में रहते होंगे, पर हैं तो देवता। सबसे पहले वे ही पूजे जाते हैं। आख़िर में वे ही पानी में उतारे जाते हैं। पढ़ने-लिखने की चर्चा को छोड़ आप श्री गणेश की कथा पर आ सकते हैं।

विषय क्या है, चूहा या श्री गणेश? भई, इस देश में कुल मिलाकर विषय एक ही होता है – ग़रीबी। सारे विषय उसी से जन्म लेते हैं। कविता कर लो या उपन्यास, बात वही होगी। ग़रीबी हटाने की बात करने वाले बातें कहते रहे, पर यह न सोचा कि ग़रीबी हट गई, तो लेखक लिखेंगे किस विषय पर? उन्हें लगा, ये साहित्य वाले लोग ‘ग़रीबी हटाओ’ के ख़िलाफ़ हैं। तो इस पर उतर आए कि चलो साहित्य हटाओ।

वह नहीं हट सकता। श्री गणेश से चालू हुआ है। वे ही उसके आदि देवता हैं। ‘ऋद्धि-सिद्धि’ आसपास रहती हैं, बीच में लेखन का काम चलता है। चूहा पैरों के पास बैठा रहता है। रचना ख़राब हुई कि गणेश जी महाराज उसे चूहे को दे देते हैं। ले भई, कुतर खा। पर ऐसा प्राय: नहीं होता। ‘निज कवित्त’ के फीका न लगने का नियम गणेश जी पर भी उतना ही लागू होता है। चूहा परेशान रहता है। महाराज, कुछ खाने को दीजिए। गणेश जी सूँड पर हाथ फेर गंभीरता से कहते हैं, लेखक के परिवार के सदस्य हो, खाने-पीने की बात मत किया करो। भूखे रहना सीखो। बड़ा ऊँचा मज़ाक-बोध है श्री गणेश जी का। चूहा सुन मुस्कुराता है। जानता है, गणेश जी डायटिंग पर भरोसा नहीं करते, तबीयत से खाते हैं, लिखते हैं, अब निरंतर बैठे लिखते रहने से शरीर में भारीपन तो आ ही जाता है।

चूहे को साहित्य से क्या करना। उसे चाहिए अनाज के दाने। कुतरे, खुश रहे। सामान्य जन की आवश्यकता उसकी आवश्यकता है। खाने, पेट भरने को हर गणेश-भक्त को चाहिए। भूखे भजन न होई गणेशा। या जो भी हो। साहित्य से पैसा कमाने का घनघोर विरोध वे ही करते हैं, जिनकी लेक्चररशिप पक्की हो गई और वेतन नए बढ़े हुए ग्रेड में मिल रहा है। जो अफ़सर हैं, जिन्हें पेंशन की सुविधा है, वे साहित्य में क्रांति-क्रांति की उछाल भरते रहते हैं।

राष्ट्रीय दृष्टिकोण से सोचिए। पता है आपको, चूहों के कारण देश का कितना अनाज बरबाद होता है। चूहा शत्रु है। देश के गोदामों में घुसा चोर है। हमारे उत्पादन का एक बड़ा प्रतिशत चूहों के पेट में चला जाता है। चूहे से अनाज की रक्षा हमारी राष्ट्रीय समस्या है। कभी विचार किया अापने इस पर? बड़े गणेश-भक्त बनते हैं।

विचार किया। यों ही गणेश-भक्त नहीं बन गए। समस्या पर विचार करना हमारा पुराना मर्ज़ है। हा-हा-हा, ज़रा सुनिए।

आपको पता है, दाने-दाने पर खाने वाले का नाम लिखा रहता है। यह बात सिर्फ़ अनार और पपीते को लेकर ही सही नहीं है, अनाज के छोटे-छोटे दाने को लेकर भी सही है। हर दाने पर नाम लिखा रहता है खाने वाले का। कुछ देर पहले जो पराठा मैंने अचार से लगाकर खाया था, उस पर जगह-जगह शरद जोशी लिखा हुआ था। छोटा-मोटा काम नहीं है, इतने दानों पर नाम लिखना। यह काम कौन कर सकता है? गणेश जी, और कौन? वे ही लिख सकते हैं। और किसी के बस का नहीं है यह काम। परिश्रम, लगन और न्याय की ज़रूरत होती है। साहित्य वालों को यह काम सौंप दो, दाने-दाने पर नाम लिखने का। बस, अपने यार-दोस्तों के नाम लिखेंगे, बाकी को छोड़ देंगे भूखा मरने को। उनके नाम ही नहीं लिखेंगे दानों पर। जैसे दानों पर नाम नहीं, साहित्य का इतिहास लिखना हो, या पिछले दशक के लेखन का आकलन करना हो कि जिससे असहमत थे, उसका नाम भूल गए।

दृश्य यों होता है। गणेश जी बैठे हैं ऊपर। तेज़ी से दानों पर नाम लिखने में लगे हैं। अधिष्ठाता होने के कारण उन्हें पता है, कहाँ क्या उत्पन्न होगा। उनका काम है, दानों पर नाम लिखना ताकि जिसका जो दाना हो, वह उस शख़्स को मिल जाए। काम जारी है। चूहा नीचे बैठा है। बीच-बीच में गुहार लगाता है, हमारा भी ध्यान रखना प्रभु, ऐसा न हो कि चूहों को भूल जाओ। इस पर गणेश जी मन ही मन मुस्कुराते हैं। उनके दाँत दिखाने के और हैं, मुस्कराने के और। फिर कुछ दानों पर नाम लिखना छोड़ देते हैं, भूल जाते हैं। वे दाने जिन पर किसी का नाम नहीं लिखा, सब चूहे के। चूहा गोदामों में घुसता है। जिन दानों पर नाम नहीं होते, उन्हें कुतर कर खाता रहता है। गणेश-महिमा।

एक दिन चूहा कहने लगा, गणेश जी महाराज! दाने-दाने पर मानव का नाम लिखने का कष्ट तो आप कर ही रहे हैं। थोड़ी कृपा और करो। नेक घर का पता और डाल दो नाम के साथ, तो बेचारों को इतनी परेशानी नहीं उठानी पड़ेगी। मारे-मारे फिरते हैं, अपना नाम लिखा दाना तलाशते। भोपाल से बंबई और दिल्ली तलक। घर का पता लिखा होगा, तो दाना घर पहुँच जाएगा, ऐसे जगह-जगह तो नहीं भटकेंगे।

अपने जाने चूहा बड़ी समाजवादी बात कह रहा था, पर घुड़क दिया गणेशजी ने। चुप रहो, ज़्यादा चूं-चूं मत करो।

नाम लिख-लिख श्री गणेश यों ही थके रहते हैं, ऊपर से पता भी लिखने बैठो। चूहे का क्या, लगाई जुबान ताल से और कह दिया। न्याय स्थापित कीजिए, दोनों का ठीक-ठाक पेट भर बँटवारा कीजिए। नाम लिखने की भी ज़रूरत नहीं। गणेश जी कब तक बैठे-बैठे लिखते रहेंगे?

प्रश्न यह है, तब चूहों का क्या होगा? वे जो हर व्यवसाय में अपने प्रतिशत कुतरते रहते हैं, उनका क्या होगा?

वही हुआ ना! बात श्री गणेश से शुरू कीजिए तो धीरे-धीरे चूहे तक पहुँच जाती है। क्या कीजिएगा!


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शरद जोशी का व्यंग्य - चौथा बंदर

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शरद जोशी

एक बार कुछ पत्रकार और फोटोग्राफर गांधी जी के आश्रम में पहुंचे। वहां उन्होंने देखा कि गांधी जी के तीन बंदर हैं। एक आंख बंद किए है, दूसरा कान बंद किए है, तीसरा मुंह बंद किए है। एक बुराई नहीं देखता, दूसरा बुराई नहीं सुनता और तीसरा बुराई नहीं बोलता। पत्रकारों को स्टोरी मिली, फोटोग्राफरों ने तस्वीरें लीं और आश्रम से चले गए।

उनके जाने के बाद गांधी जी का चौथा बंदर आश्रम में आया। वह पास के गांव में भाषण देने गया था। वह बुराई देखता था, बुराई सुनता था, बुराई बोलता था। उसे जब पता चला कि आश्रम में पत्रकार आए थे, फोटोग्राफर आए थे, तो वह बड़ा दु:खी हुआ और धड़धड़ाता हुआ गांधी जी के पास पहुंचा। ‘सुना बापू, यहां पत्रकार और फोटोग्राफर आए थे। बड़ी तस्वीरें ली गईं। आपने मुझे खबर भी न की। यह तो मेरे साथ बड़ा अन्याय किया है बापू।’ गांधी जी ने चरखा चलाते हुआ कहा, ‘जरा देश को आजाद होने दे बेटे! फिर तेरी ही खबरें छपेंगी, तेरी ही फोटो छपेगी। इन तीनों बंदरों के जीवन में तो यह अवसर एक बार ही आया है। तेरे जीवन में तो यह रोज-रोज आएगा।’

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गुरुवार, 20 मई 2021

Humor & Satire : जब कहानी की जगह कविता सुनाने लगा बेताल

 

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By Jayjeet

रिपोर्टर बरगद के पेड़ के नीचे फेसबुक चेक करने को रुका ही था कि अचानक उसकी बाइक की पिछली सीट पर अट्‌टहास करती एक आकृति कूद पड़ी। सामान्य काल होता तो रिपोर्टर चौंककर हॉस्पिटल में होता, लेकिन अब कोई भी घटना चौंकाती नहीं। आंखें थोड़ी फटी जरूर लेकिन मन में ब्रेकिंग न्यूज का सैलाब उमड़ने लगा। तो आंखों में डर की जगह चमक आ गई। चुपचाप से फोन का कैमरा चालू कर शुरू हो गया...

रिपोर्टर : अरे, बेताल जी, अचानक इतने दिनों बाद आप यहां कैसे?
बेताल : आपने मुझे पहचान लिया? घोर आश्चर्य...
रिपोर्टर : हां, आप तो बिल्कुल ना बदले। वैसे ही सेम टू सेम हैं। आपको बचपन में देखा था टीवी पर।
बेताल : हां, कुछ चीजें कभी ना बदलतीं। जैसे सिस्टम...
रिपोर्टर (बीच में रोकते हुए) : बस, बस...। इस पर काफी बात हो गई है। हम सब पक गए हैं सिस्टम-विस्टम की बातें सुनते-सुनते। आप तो कोई नई कहानी सुनाइए। ... लेकिन राजा विक्रमादित्य कहां गए? उन्हें कहां छोड़कर आ गए?
(बेताल ने कोई जवाब नहीं दिया) बात बदलते हुए : कहानी...! हां जरूर, लेकिन पहले तू कविता सुन। इन दिनों कविताएं भी शुरू की हैं...
रिपोर्टर : अच्छा, अब समझा कि महाराज विक्रमादित्य क्यों गायब हो गए...
(इस पर भी बेताल की कोई प्रतिक्रिया नहीं मिली) अपनी बात कन्टीन्यू करते हुए : मस्त कविता है, सुन...फिर कहानी भी सुनाता हूं...
रिपोर्टर : चलिए, सुनाइए, अगर कहानी सुनाने की यही शर्त है तो...
बेताल : मुर्दा बोला मुर्दे से, क्या है तेरी औकात। अब क्या बचा इस दुनिया में, कर लें मन की बात...। ओ बेटा, ओ बाबू, कर लें मन की बात...(ढाई-तीन मिनट तक तुकबंदियों का यह भयंकर तूफान चलता रहा)
रिपोर्टर : यह तो सोशल मीडिया से चुराई हुई है, मैंने कहीं पढ़ी है! शायद रवीश की वॉल पर। ओह नो, मतलब आप सोशल मीडिया पर भी...!!
बेताल : मैं तो नहीं हूं। हां, बीते दिनों विक्रम ने जरूर सोशल मीडिया ज्वॉइन किया था। हो सकता है उन्होंेने ही वायरल की हो मेरी कविताएं...
रिपोर्टर : अच्छा, पर आप तो कहानी ही सुनाइए, वही आपकी यूएसपी है
बेताल : तो अब कहानी सुन...। और ये तेरे कैमरे के फोकस को भी ठीक कर लें। मेरा पूरा चेहरा नहीं आ पा रहा।
रिपार्टर : जी, बिल्कुल। अब तो फेसबुक लॉइव कर दिया, पूरा देश सुन रहा है...सुनाइए ...
बेताल (नाराज होते हुए) : अरे, क्या राष्ट्र के नाम संबोधन है जो पूरे देश को सुना रहा है?
रिपोर्टर : आप चिंता मत कीजिए। राष्ट्र के नाम संबोधन भी कहानीनुमा ही होते हैं। आप तो शुरू कीजिए।
बेताल : अभी कैमरा बंद कर। थोड़ा मेक-अप तो करने दें। राष्ट्र के नाम संबोधन में तो आदमी को गेट-अप में लगना चाहिए।
रिपोर्टर : पर एक्चुअल में आप राष्ट्र के नाम संबोधन नहीं दे रहे। आपको तो कहानी सुनाना है। और हिंदी में कहानियां सुनाने वाला आप जैसा थोड़ा विनीत ही दिखना चाहिए (विनीत की जगह फटीचर पढ़ें, पर रिपोर्टर बेताल से यह कहने की हिम्मत न कर सका।)
बेताल : ठीक है, मैं कहानी तो सुनाऊंगा। पर तुझे मालूम ही है कि कहानी के अंत में मैं एक सवाल भी पूछता हूं। जब पूरा देश मुझे सुन रहा होगा तो जवाब कौन देगा? हर कोई जवाब देने लगेगा तो भगदड़ नहीं मच जाएगी?
रिपोर्टर : इसकी चिंता मत कीजिए। कोई जवाब नहीं मिलने वाला आपको। जो जवाबदेह हैं, वे भी आपको जवाब नहीं देंगे। बची पब्लिक। तो उसका काम तो हाथ पर हाथ धरके केवल सुनना ही रहा है। आज से नहीं, सालों से। कभी भाषण सुन लेती है, कभी भागवत कथा तो कभी राष्ट्र के नाम संबोधन। थोड़ा-बहुत टाइम बच जाता तो क्रिकेट की कॉमेन्ट्री सुन लेती।
बेताल : पर, जवाब पता होते हुए भी अगर कोई जवाब नहीं देता है तो उसके सिर के टुकड़े-टुकड़े हो जाते हैं। यह शाश्वत नियम है। विक्रम भी इसका पालन करता है।
रिपोर्टर : आप नियम-वियम छोड़िए, कहानी सुनाइए। हम सब एंटरटेनमेंट पसंद लोग हैं...
बेताल: अबे मुझे क्या फालतू समझा? इससे तो विक्रम ही ठीक थे। मुझे ध्यान से सुनते तो थे और जवाब भी देते थे।
रिपोर्टर : पर ये राजा विक्रमादित्य हैं कहां? मैं आपसे लगातार वही तो पूछ रहा था इतनी देर से? आप टाल रहे थे। बताइए ना...
बेताल (ठंडी आहें भरते हुए) : वे तो गंगा के किनारे बैठे हैं। बहते शवों को देखकर इतने डिप्रेस हो गए कि उल-जुलूल बोलने लगे। न्याय-व्याय, शासन व्यवस्था जैसी बातें करने लगे। तो मुझसे बहस हो गई और उन्हें वहीं छोड़कर यहां उड़ आया। पर अब मैं उनके पास ही जा रहा हूं। पता नहीं, किस हाल में होंगे बेचारे...
और बेताल, फेसबुक लाइव शुरू होने से पहले ही ह हा हा करते हुए लौट चला... बेचारा रिपोर्टर उसका केवल हवा में जाते हुए फोटो ही खींच सका, वो भी धुंधला-सा (देखें तस्वीर)

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रविवार, 16 मई 2021

Humour : डॉक्टर कितने तरह के होते हैं?



डॉक्टर दो तरह के होते हैं : एक, झोला झाप और दूसरा सूटकेस छाप।

झोला छाप डॉक्टरों की इस समय खूब लानत-मलानत हो रही है। कुछ टीवी चैनलों ने हाल ही में उनका स्टिंग भी किया। जब टीवी चैनलों के पास कोई काम नहीं होता तो वे ऐसे ही स्टिंग करते हैं। सूटकेस छाप डॉक्टर ऐसे स्टिंग से मुक्त होते हैं। वे तो स्टिंग देते हैं...

झोला छाप डॉक्टरों के पास डिग्रियां नहीं होतीं। इसलिए उनके पास डॉक्टरी का लाइसेंस भी नहीं होता। डॉक्टरी का लाइसेंस न होने पर भी वे लोगों को मूर्ख बनाने का प्रयास करते हैं। सूटकेस छाप डॉक्टरों के पास बड़ी-बड़ी डिग्रियां होती हैं। ये डिग्रियां उनके लिए मूर्ख बनाने का डिफॉल्ट लाइसेंस होती हैं...। तो इन्हें प्रयास करने की जरूरत नहीं होती।

झोला छाप डॉक्टरों को कुछ पता नहीं होता। इसलिए ये 'मन के गुलाम' होते हैं। जो मन कहे, वही दवाइयां लिखते हैं। सूटकेस छाप डॉक्टरों को सबकुछ पता होता है। इसीलिए ये 'मनी के गुलाम' होते हैं। इसलिए जो मनी कहती है, ये वही लिखते हैं- टेस्ट से लेकर दवाइयां तक...

झोला छाप डॉक्टर सेहत के लिए खतरनाक होते हैं। सूटकेस छाप डॉक्टर आर्थिक सेहत के लिए घातक होते हैं।

हमें न झोपा छाप डॉक्टर चाहिए। न सूटकेस छाप डॉक्टर।

(जैसा कि जॉली एलएलबी-2 में वकील बने अक्षय कहते हैं - हमें न कादरी जैसे टेररिस्ट चाहिए, न सत्यवीर जैसे करप्ट पुलिस अफसर...)

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तो कौन-से डॉक्टर चाहिए, महाराज? डॉक्टर पुराण बहुत हो गई...

हमें तो वही डॉक्टर चाहिए जो कभी देवलोक से आते थे, डैपुटेशन पर... भगवान के दूत के रूप में...

पर देवलोक ने डैपुटेशन पर डॉक्टर भिजवाने की व्यवस्था तो कब की बंद कर दी है...

अच्छा, इसीलिए तमाम सूटकेस छाप डॉक्टर डैपुटेशन वाले नहीं, डोनेशन वाले हैं...कुछ रिजर्वेशन वाले भी हैं शायद...

और जो बचे, वे झोला झाप हैं, कितना सिंपल तो है
 
तो चलिए, इसी स्टॉक में से चुनते हैं...🙁

(By : Jayjeet)

शनिवार, 15 मई 2021

शरद जोशी का व्यंग्य - शेर की गुफा में न्याय

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जंगल में शेर के उत्पात बहुत बढ़ गए थे. जीवन असुरक्षित था और बेहिसाब मौतें हो रही थीं. शेर कहीं भी, किसी पर हमला कर देता था. इससे परेशान हो जंगल के सारे पशु इकट्ठा हो वनराज शेर से मिलने गए. शेर अपनी गुफा से बाहर निकला – कहिए क्या बात है?

उन सबने अपनी परेशानी बताई और शेर के अत्याचारों के विरुद्ध आवाज उठाई. शेर ने अपने भाषण में कहा –

‘प्रशासन की नजर में जो कदम उठाने हमें जरूरी हैं, वे हम उठाएंगे. आप इन लोगों के बहकावे में न आवें जो हमारे खिलाफ हैं. अफवाहों से सावधान रहें, क्योंकि जानवरों की मौत के सही आंकड़े हमारी गुफा में हैं जिन्हें कोई भी जानवर अंदर आकर देख सकता है. फिर भी अगर कोई ऐसा मामला हो तो आप मुझे बता सकते हैं या अदालत में जा सकते हैं.’

चूंकि सारे मामले शेर के खिलाफ थे और शेर से ही उसकी शिकायत करना बेमानी था इसलिए पशुओं ने निश्चय किया कि वे अदालत का दरवाजा खटखटाएंगे.

जानवरों के इस निर्णय की खबर गीदड़ों द्वारा शेर तक पहुंच गई थी. उस रात शेर ने अदालत का शिकार किया. न्याय के आसन को पंजों से घसीट अपनी गुफा में ले आया.

शेर ने अपनी नई घोषणाओं में बताया – जंगल के पशुओं की सुविधा के लिए, गीदड़ मंडली के सुझावों को ध्यान में रखकर हमने अदालत को सचिवालय से जोड़ दिया है

जंगल में इमर्जेंसी घोषित कर दी गई. शेर ने अपनी नई घोषणाओं में बताया – जंगल के पशुओं की सुविधा के लिए, गीदड़ मंडली के सुझावों को ध्यान में रखकर हमने अदालत को सचिवालय से जोड़ दिया है, ताकि न्याय की गति बढ़े और व्यर्थ की ढिलाई समाप्त हो. आज से सारे मुकदमों की सुनवाई और फैसले हमारे गुफा में होंगे.

इमर्जेंसी के दौर में जो पशु न्याय की तलाश में शेर की गुफा में घुसा उसका अंतिम फैसला कितनी शीघ्रता से हुआ इसे सब जानते हैं.

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गुरुवार, 13 मई 2021

Humor : नीरो की बंशी को लेकर नया खुलासा, बदलनी पड़ेगी अब इतिहास की किताबें!

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By Jayjeet

रिपोर्टर तो अक्सर गढ़े मुर्दों की तलाश में रहते ही हैं। एक दिन ऐसे ही एक मुर्दा तलाशते-तलाशते रिपोर्टर के हाथ लग गई एक खास बंसी, जिस पर लिखा था- मेड इन रोम। उससे थोड़ी हाय-हेलो हुई तो पता चला कि यह वही ऐतिहासिक बंसी है जो कभी नीरो ने बजाई थी। अब इतनी कीमती चीज हाथ लगी हो तो रिपोर्टर एक्सक्लूसिव इंटरव्यू का मौका कैसे छोड़ सकता था। पढ़िए उसी इंटरव्यू के मुख्य अंश...

रिपोर्टर : जब रोम जल रहा था, तब आप कहां थीं?

नीरो की बंसी : नीरो जी के हाथों में।

रिपोर्टर : तो मतलब यह बात सही है ना कि जब रोम जल रहा था, तब नीरो बंसी ही बजा रहे थे?

बंसी: हां, लेकिन यह पूरा सच भी नहीं है।

रिपोर्टर: पर इतिहास में भी यही लिखा है कि....

बंसी: आपने इतिहास में जो पढ़ा है, वे केवल आरोप हैं जो उस समय नीरो जी के विरोधियों ने लगाए थे। मीडिया ट्रायल में उन्हें दोषी मान लिया गया और वही इतिहास का हिस्सा हो गया।

रिपोर्टर: लगता है आप नीरो की बड़ी भक्त रही हैं।

बंसी: भक्ति, चमचागीरी तो आपके यहां की महामारियां हैं जी। मैं तो तथ्यों के प्रकाश में यह बात कर रही हूं।

रिपोर्टर: तो तथ्य ही बताइए, पहेलियां बहुत हो गईं।

बंसी: तो सुनिए। जिस समय रोम जल रहा था, उस समय मैं नीरो के पास ही थी। वे वैसे ही बंसी वादन कर रहे थे, जैसा अभी आपके यहां हो रहा है। लेकिन आपके और हमारे यहां जो अंतर है, वह विपक्ष का है। हमारे यहां का विपक्ष एग्रेसिव था, आपके यहां जैसा नहीं कि बस दो-चार चिटि्ठयां लिख दो, ट्विट कर दो, हो गई विपक्षगीरी। तब हमारे यहां विपक्षियों ने रोम की गली-गली गुंजा दी थी - इस्तीफा दो इस्तीफा दो, बंसी वादक नीरो, इस्तीफा दो।

रिपोर्टर : सही तो था। पूरा रोम जल गया तो इस्तीफा तो बनता ही था।

बंसी:
 इस्तीफा इसलिए नहीं मांगा गया था कि रोम जल गया था। रोम की किसको चिंता थी? चिंता का विषय तो केवल यह था कि नीरो जी बांसुरी क्यों बजा रहे थे?

रिपोर्टर: उफ, मतलब सदियां बीत जाती हैं, लेकिन राजनीति नहीं बदलती। हमारे यहा, आपके यहां सब शेम टू शेम... अच्छा, आगे बताइए, फिर क्या हुआ? इस्तीफा दिया?

बंसी: अब ऐसे छोटे-मोटे मामलों मंे इस्तीफा कैसे दे दें? पर विपक्ष का भी तो मुंह बंद करना था। तो सरकार ने बंसी कांड की जांच के लिए तीन सदस्यों की एक जांच समिति बैठा दी ।

रिपोर्टर: तो जांच समिति ने अपनी जांच में क्या कहा?

बंसी: लंबे समय तक तो मामले की जांच ही नहीं हो पाई।

रिपोर्टर: क्यों?

नीरो: दरअसल जांच समिति के सदस्यों ने अपने घर से ऑफिस और ऑफिस से घर आने-जाने तथा अपनी पत्नियों के लिए बाजार जाने के वास्ते एयरकंडिशनर रथों की मांग कर दी। अब जब तक इनके पास अपना वाहन न हों, वे जांच कर भी कैसे सकते थे।

रिपोर्टर: हां, रथ की मांग तो जायज थी। तो उनके लिए स्पेशल रथों की व्यवस्था कैसे की गई?

बंसी: यही तो पेंच था। रथों की स्वीकृति उस समय साम्राज्य की सीनेट की उच्चाधिकार प्राप्त समिति से जरूरी थी। इस स्वीकृति में डेढ़ साल लग गया। इसके बाद रथों के लिए टेंडर बुलाए गए। टेंडर एक पार्टी को दे भी दिए गए। लेकिन फिर विपक्ष ने नया आरोप लगा दिया कि टेंडर में भारी घोटाला हुआ है। टेंडर नीरो के भतीजे के नाम पर बनाई गई एक फर्जी फर्म को दे दिए गए थे। इसको लेकर विपक्ष के लोगों ने इतना हंगामा किया कि सरकार को अंतत: झुकना पड़ा। टेंडर निरस्त कर दिए गए। विपक्ष यहीं तक नहीं रुका। उसने टेंडर घोटाले की जांच के लिए एक अलग से कमेटी गठित करने को भी मजबूर कर दिया।

रिपोर्टर: पर उस बंसी जांच समिति का क्या हुआ? रथों का क्या हुआ?

बंसी: समिति के सदस्यों को सरकारी रथ नहीं मिले तो नहीं मिले, लेकिन फिर भी उनके महल रूपी बंगलों में अत्याधुनिक रथ देखे गए, ऐसा लोगों का कहना था। पर मैं मान ही नहीं सकती कि उन्होंेने जांच के दौरान कोई भ्रष्टाचार किया होगा। बहुत ही सज्जन लोग थे तीनों के तीनों। इतने सज्जन कि नीरो के आगे हमेशा हाथ जोड़े खड़े रहते। मैं खुद चश्मदीद रही।

रिपोर्टर: इतनी राम कहानी आपने कह दी। पर मुद्दे की बात तो बताइए, जांच हुई भी कि नहीं? रिपोर्ट आई कि नहीं?

बंसी: जैसा कि हर जांच समिति के लिए रिपोर्ट पेश करना नैतिक दायित्व होता है, तो नीरो बंसी जांच समिति ने भी अपना नैतिक दायित्व पूरा किया। सीनेट के पटल पर बाकायदा रिपोर्ट रखी गई। रिपोर्ट में जांच समिति के माननीय सदस्यों ने सर्वसम्मति से लिखा - 'नीरो पर लगाए गए आरोप तथ्य आधारित प्रतीत नहीं होते। हमारी विस्तृत जांच से पता चलता है कि यह बात सत्य नहीं है कि 'जब रोम जल रहा था, तब नीरो बंसी बजा रहे थे।' सत्य इसके बिल्कुल विपरीत है और सत्य यह है कि 'जब नीरो बंसी बजा रहे थे, तब रोम जल रहा था।' इसलिए इसमें गलती नीरो की नहीं, बल्कि रोम की है। नीरो के बंसी बजाने के मौके पर रोम ने स्वयं आगे आकर जलने का जो आपराधिक कृत्य किया, उसके लिए समिति रोम को कड़ी से कड़ी सजा दिए जाने की अनुशंसा करती है और नीरो को तमाम आरोपों से मुक्त करती है।' नीरो पक्ष ने करतल ध्वनि के साथ रिपोर्ट को मंजूर कर लिया और विपक्ष ने पूरे मामले में एक नई जांच समिति की मांग करते हुए सीनेट की कार्रवाई का बायकॉट कर दिया।

रिपोर्टर : ओह, यह तो बिल्कुल नई ऐतिहासिक जानकारी है।

नीरो की बंसी : जी, और अब अपने इतिहासकारों से भी कहिएगा कि वे किताबों में जरूरी बदलाव करें। जबरन हमारे-तुम्हारे नीरो बदनाम हो गए। अब मैं चलती हूं।

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