By Jayjeet
और उस दिन तंत्र की जन से मुलाकात हो गई। पाठकों को लग सकता है कि भाई तंत्र और जन दोनों की मुलाकात का क्या चक्कर है? दोनों तो साथ ही रहते हैं - जनतंत्र।
जी नहीं, ऐसे लिखे हुए पर बिल्कुल ना जाइए। इसमें तो भारी धोखा है। ऐसा लिखा हुआ तो खूब मिलेगा। कानूनों की किताबों में खूब अच्छी-अच्छी बातें मिलेंगी, पर सब अच्छा-अच्छा होता है क्या! दरअसल, जन और तंत्र दोनों जनतंत्र नहीं, जन-तंत्र की तरह रहते आए हैं। जन और तंत्र के बीच एक बहुत बड़ा डैश है। सरकारी स्कूलों का मास्टर उसे समझाने के लिए डंडा कहता है। यही डंडा तंत्र के पास है, जन के पास नहीं। इसलिए दोनों साथ-साथ रहते हुए भी साथ नहीं हैं। एक डंडे का फासला है दोनों के बीच। जन जब मजबूरी में तंत्र से मिलने के लिए उसके पास जाता है, कभी थाने में, कभी तहसील कार्यालय में, कभी कोर्ट-कचहरी में, तो इसी एक डंडे के फासले पर मिलता है।
पर अभी तो तंत्र ही जन से मिलने आया है। ऐसा कैसे? तंत्र को क्या पड़ी कि अपनी कुर्सी छोड़कर जन से मिलने चला आए? होती है भाई, साल में कम से कम दो बार तंत्र की जन से मुलाकात होती है। वे दिन ही ऐसे होते हैं। उन दिनों तंत्र बहुत भावुक हो जाता है। राष्ट्रभक्ति के गीत उसे रुलाने लगते हैं। उसे बापू, नेताजी बोस, भगतसिंह याद आने लगते हैं और इसी भावुकतावश वह जन से मिलने चले आता है।
तंत्र आज फिर जन से मिला है। इतना पुनीत मौका है तो व्यर्थ की बातें छोड़कर उनकी बातें सुन लेते हैं।
'नमस्कार जन महोदय, कैसे हों?' विनम्रता का दिखावा करते हुए भी एटीट्यूड तो वही है जो तंत्र में होता है। जरूरी भी है। नहीं तो दो टके के जन को सिर चढ़ने में समय नहीं लगता है।
'अरे सर। आज आप कैसे? हमारा अहोभाग्य। आप खुद मिलने चले आए।' जन जितना संभव हो सके, झुकने की कोशिश में है। वैसे पिछले 75 साल में झुकते-झुकते वह झुकने के मैग्जीमम लेवल पर तो पहुंच ही चुका है। फिर भी तंत्र के इगो को सेटिस्फाई करने के लिए कोशिश करते दिखना जरूरी है।
'अबे, पहली बार मिल रहे हैं क्या? याद ना आ रहा? तंत्र ने हल्की सी झिड़की लगाई जो न चाहते हुए भी तगड़ी हो गई। ऐसी कभी-कभार की सौजन्य मुलाकातों से आदतें थोड़ी बदलती हैं। इसलिए 'अबे' यकायक मुंह से निकल गया। विनम्रता साइड में चली गई।
'सर माफी चाहूंगा, याद ना आ रहा। पर आप अचानक मिलने क्यों आए?' देखिए जन का हरामीपना। अपनी छोटी-छोटी समस्याओं में याद ही नहीं रहता कि कुछ माह पहले ही तो तंत्र उससे मिलने आया था। 26 जनवरी के आस-पास का ही समय होगा। साल में दो बार मिलते ही हैं तंत्र महोदय, फिर भी भूल जाता है जन।
पर आज तंत्र ने बुरा नहीं माना। बुरा मानने का अभी मौका नहीं है। बोला, 'तूफान से लाए हैं कश्ती निकालकर टाइप कुछ सुना तो अचानक भावुक हो गया और लगा कि तुमसे मिलने का वक्त फिर आ गया है। ऐसे गाने पता नहीं कौन लिख गया। कसम से, रुला देते हैं।' हाथ जेब में रखे रुमाल की ओर जाते-जाते रुक गया। आंखों को भी पता है कि कहां रोना है। जन के सामने भावुकताभरी बातें कहने से ही काम चल जाता है, तो झूठे आंसू बहाने का क्या मतलब।
'जी सर। प्रदीप जी लिख गए।' जन ज्ञान बघारने का मौका नहीं छोड़ता, वाट्सऐप हो या सीधे तंत्र से बातचीत। 'वैसे सर, मुझे तो अभी पिछले हफ्ते बाढ़ की वजह से जो हालात हुए, उन्हें देख-देखकर रोना आ रहा है। बेचारे कितने लोग बेघर हो गए, कितनी फसलें नष्ट हो गईं।' जन ने बात जारी रखी।
'फिर वही तुच्छ बातें। भाई, जरा अपना स्तर बढ़ाओ। वो कौन-सा गीत था ना! उसे सुनकर तो पंडितजी भी रो दिए थे। अपने वर्तमान पीएम साहब भी अभी किसी बड़ी बात पर रो दिए थे। देखो, बड़े लोग कैसी बड़ी-बड़ी बातों पर रोते हैं और तुम स्साला छोटी-छोटी चीजों का ही रोना रोते रहते हों कि सड़क खराब है, पानी गंदा आ रहा है, कचरा गाड़ी नहीं आ रही, फसल खराब हो गई, काम-धंधा नहीं है। इसीलिए हम तंत्र लोगन को तुम जन लोगन से मिलने की इच्छा नहीं होती।' तंत्र भावुकता के साथ व्यावहारिकता का पुट डाल रहा है।
'पर सर, स्तर बढ़ाने के लिए अतिरिक्त चार पैरों की जरूरत पड़ती है। वे कहां से लाएं?' यह बात जन ने कटाक्ष में कही या असल में, जन ही जाने। उसका इशारा कुर्सी की ओर है। ऐसा कहते हुए उसकी रीढ़ दो इंच ऊपर उठ गई है। हिम्मत भले ही अनजाने में की गई हो, रीढ़ की हड्डी को थोड़ा ऊंचा कर ही देती है।
इधर, चार पैरों का उल्लेख होते ही तंत्र के चेहरे पर मलाई जैसी चमक आ गई। तंत्र को बखूबी पता है इन चार पैरों की इस ताकत के बारे में। उसे ना पता होगा तो किसे होगा। तंत्र और चार पैर अब एक-दूसरे के पूरक हो चुके हैं। पूरा तंत्र इन चार पैरों पर चलता है। चार पैरों की महिमा ही है कि तंत्र के दरवाजे के बाहर चार पैर वाले स्टूल पर बैठे हुए चपरासी में भी तंत्र की वही शक्ति आ जाती है, जो दरवाजे के अंदर बड़ी-सी कुर्सी पर बैठे किसी मंत्री या अफसर के पास होती है। भले ही मौके-बेमौकों पर भावुकतावश तंत्र अपने दो पैरों पर जन से मिलने चला आता हो, लेकिन जन यह न मान ले कि तंत्र अपने चार पैर कहीं छोड़कर उससे मिलने आता है। चार पैरों का दंभ उसकी मानसिकता के साथ चिपककर उसके साथ ही आता है।
75 साल का यही हिसाब-किताब है। यह कोई छोटी उपलब्धि नहीं है! देवलोक में बैठे हमारे स्वतंत्रता सेनानी इस पर अक्सर आंसू बहाते हैं। आज खुशी का मौका है। तो उन्हें खुशी के आंसू ही मान लेते हैं..!!
(ए. जयजीत संवाद की अपनी विशिष्ट शैली में लिखे गए तात्कालिक ख़बरी व्यंग्यों के लिए चर्चित हैं। मूलत: पत्रकार जयजीत फिलहाल भोपाल स्थित एक प्रतिष्ठित मीडिया हाउस में कार्यरत हैं। प्रिंट, इलेक्ट्रॉनिक और डिजिटल मीडिया तीनों का उन्हें लंबा अनुभव रहा है।)