रविवार, 28 अप्रैल 2024

'लाड़ली बहना' वाले राज्य से महिलाओं की अस्मिता पर उठे कुछ असहज सवाल... जिन पर उठे कुछ और सवाल...!!!

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By Jayjeet / जयजीत

इस बात को लेकर मेरी धारणा और भी सुदृढ़ हो गई है कि अगर हम तीसरी या चौथी आर्थिक शक्ति बन भी गए, तब भी इसका मतलब यह कदापि नहीं होगा कि हम विकसित राष्ट्र भी बन गए हैं। विकसित राष्ट्र का मतलब है विकसित और प्रगतिशील सोच भी रखना। क्या हमारे नेताओं की सोच विकसित है? नहीं। शायद विकासशील भी नहीं है, बल्कि पतनशील है। वह राज्य जहां से महिलाओं को 'लाड़ली बहना' के रूप में सम्मान देने का राजनीतिक विचार प्रमुखता से निकला, वहां का मुख्यमंत्री इस तरह की सोच रख सकता है, इस पर विश्वास तो नहीं होता, मगर दुर्भाग्य से करना पड़ता है।
एक प्रमुख पार्टी के मुख्यमंत्री ने एक दूसरी प्रमुख पार्टी की एक महिला नेत्री का नाम लिए बगैर उनसे तीन सवाल पूछे हैं। चूंकि सवाल पूछने वाला एक जिम्मेदार संवैधानिक पर बैठा है। इसलिए इन सवालों पर एक जिम्मेदार नागरिक होने के नाते भी कुछ सवाल बनते हैं। ये सवाल पूछना हर जिम्मेदार और प्रगतिशील सोच रखने वाले नागरिक का कर्त्तव्य भी है, फिर वह किसी भी राजनीतिक विचाराधारा से ताल्लुक रखता हो। ये राजनीतिक नहीं, सामाजिक सवाल हैं और बेहद गंभीर विमर्श की मांग करते हैं। इन पर उन तमाम लोगों को जरूर मंथन करना चाहिए, जो चाहते हैं कि उनकी अगली पीढ़ियां एक सार्थक विकसित भारत में सांस लें। हमें ध्यान रखना होगा माननीय नेताजी ने कल जो बातें की हैं, उन्हें केवल चुनावी जुमलेबाजी कहकर खारिज नहीं किया जा सकता। ये गंभीर इसलिए हैं, क्योंकि ऐसी राजनीतिक सोच ही कालांतर में पूरे समाज की सोच में तब्दील हो जाती है।
संवैधानिक पद पर बैठे व्यक्ति का सवाल नंबर 1 था: अरे, तुम्हारी शादी कहां हुई? तुमने तो क्रिश्चियन परिवार में शादी की है।
नागरिक का सवाल: क्या महिला को इस बात पर सफाई देनी होगी, वह भी सार्वजनिक तौर पर, कि उसकी शादी कहां हुई है, किस धर्म में हुई है? (कल से तो किसी महिला से यह भी पूछा जा सकता है कि तुम्हारी शादी क्यों नहीं हुई या तुमने क्यों नहीं की?)
संवैधानिक पद पर बैठे व्यक्ति का सवाल नंबर 2: अरे, तुम तो शादीशुदा होकर भी मंगलसूत्र क्यों नहीं पहनती?
नागरिक का सवाल: पिछड़ों की राजनीति करते-करते सोच इतनी पिछड़ी कैसे हो सकती है कि आप किसी महिला से ऐसा व्यक्तिगत सवाल पूछ सकते हैं? ऐसे सवाल पटियों पर, चौक चौबारों पर बैठने वाले निठल्ले किस्म के लोग आपस में जरूर करते हैं, या सीमित सोच वाली बुजुर्ग महिलाओं के बीच आम होते हैं। क्या ये सार्वजनिक तौर पर, किसी मंच पर उठाए जा सकते हैं, वह भी किसी संवैधानिक पद पर बैठे हुए व्यक्ति द्वारा?
संवैधानिक पद पर बैठे व्यक्ति का सवाल नंबर 3 : जहां शादी हुई है, वहां के परिवार का सरनेम अपने नाम के साथ क्यों नहीं जोड़ा?
नागरिक का सवाल: क्या हम किसी महिला से यह सीधे-सीधे पूछते हैं या पूछने की हिम्मत करते हैं? हममें से कभी किसी ने किसी महिला से ऐसा पूछा है? तो एक मुख्यमंत्री ऐसा कैसे सकता है?
ये सब व्यक्तिगत च्वॉइस की चीजें हैं, जिनमें सामाजिक स्तर पर पारस्परिक सह-सहमति निहित होती है। और यही तो असल लोकतंत्र है। और जब यही खतरे में होगा, तो फिर बाकी कितना भी बचा हो, क्या फर्क पड़ जाएगा!

गुरुवार, 25 अप्रैल 2024

राजनीति में ज्यादा ज़हर है या हमारी भोजन की थाली में?

 

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By Jayjeet Aklecha

बेहद काम्लीकेट सवाल! शायद दोनों आपस में प्रतिस्पर्धा कर सकते हैं। खैर, राजनीति को ज़हर-ज़हर खेलने दीजिए। आज अपने भोजन की थाली के ज़हर की बात करते हैं।
हममें से कई लोग अपनी थाली में पोषण तत्वों को लेकर चिंतित और जागरूक रहते हैं कि इसमें प्रोटीन कितना है, कार्ब्स कितने हैं, विटामिन्स कितने हैं, फैट कितना है, शुगर कितनी है, कैलोरी कितनी है, वगैरह-वगैरह... मेरे घर में खासकर मेरी बेटी इसको लेकर फिक्रमंद रहती है... लेकिन मुझे इन तत्वों से ज्यादा फिक्र इस बात की होती है कि उसकी प्लेट में ज़हर कितना है? आपने भी कभी सोचा है कि आपकी अपनी थाली या आपके बच्चों की थाली में कितना ज़हर है? या आप अब भी केवल सियासी ज़हर के इंटरटेनमेंट में ही ग़ाफ़िल है?
हमारी थाली में कितना ज़हर है, इस बारे में हमें वाकई कुछ नहीं पता है। हमारी आंख तब खुलती है, जब बाहर का देश हमें अचानक बताता है कि आपके फलाना ब्रांड में ज़हर का स्तर इतना खतरनाक है कि उससे कैंसर हो सकता है। हाल ही में हमारे दो मशहूर ब्रांड्स एवरेस्ट और एमडीएच को लेकर यह शिकायत आई है। जब इतने नामी-गिरानी ब्रांड्स की ये हालत है, तो बाकी हमें क्या खिला-पिला रहे होंगे? हमारे तमाम रेस्तरां, जहां हम चटकारे लेकर लाल रंग में पगी पनीर की सब्जी खाते हैं, उसमें क्या-क्या होता होगा? और सड़कों पर केमिकल चटनी में पानी-पूरी खिलाने वाले गरीब वेंडर का तो पूछिए भी मत!!
वैसे तो ऊपरी तौर पर हम सब जानते हैं कि हम जो सब्जियां या फल खा रहे हैं, वे भयंकर रसायनों से लदे पड़े हैं। केवल खेत में ही नहीं (यह एक हद तक जरूरी हो सकता है), खेद के बाहर भी उन सब्जियों को पकाने या उन्हें सुरक्षित रखने के लिए न जाने कितने कैंसरकारक रसायन इस्तेमाल किए जा रहे हैं। कुछ धनी टाइप के लोग खुद को यह झूठा दिलासा दे सकते हैं कि वे कथित तौर पर आर्गनिक खा रहे हैं, लेकिन भ्रष्टाचार में पगे हमारे देश में ये आर्गनिक वाकई रसायनों से कितने मुक्त होते होंगे, किसी को कुछ पता नहीं है।
भला हो उन देशों का जो हमें बीच-बीच में हमारी विकासशील औकात याद दिलाते रहते हैं, अन्यथा जुमलों की भीड़ में तो यह भूल ही जाते हैं कि विकसित देश के नागरिक बनने की आकांक्षा का मतलब केवल दुनिया की तीसरी या चौथी अर्थशक्ति बनना भर नहीं है। कोई सरकार अपने नागरिकों को भरपेट भोजन देने के साथ क्या उसे सुरक्षित भोजन भी दे रही है, यहां से शुरू होती है किसी देश के विकसित बनने की कहानी। दुर्भाग्य से, यह सपना अब भी करोड़ों प्रकाश वर्ष दूर प्रतीत होता है।
आतंकियों, आतताइयों, मलेच्छों के सिर आपने एक झटके में कुचल दिए। अब माओवादियों की बारी है। हमारे प्रधानमंत्री और गृहमंत्री मुट्‌ठी तान-तानकर हमें बता रहे हैं। बहुत अच्छा है ये सब। मगर देश को कैंसरयुक्त बनाने वाले जो आतंकी हैं, उनका क्या किया या क्या करेंगे? या आप तब तक कुछ ना करेंगे जब तक कि पूरा देश कांग्रेसमुक्त और कैंसरयुक्त नहीं हो जाता!
एक अंतिम बात और... कोई अति आशावादी कह सकता है, चलिए हम हवा खाकर जी लेंगे। पर सवाल यह भी है कि हमारे आसपास की हवा पर भी हम कितना भरोसा करें? वैसे भी हमारी चिंता में तो पॉलिटिकल हवाएं ज्यादा रहती हैं। तो पॉलिटिक्स वाले भी अपनी इसी हवा की चिंता करेंगे ना। लाजिमी है ये तो...!!

कांग्रेस के घोषणा पत्र पर मीम

 

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Meme- Congress Manifesto

 

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मंगलवार, 23 अप्रैल 2024

तब तो NOTA के लिए बहुते क्रांतिकारी होगा!!

NOTA

गुजरात की सूरत लोकसभा सीट से भले ही भाजपा के प्रत्याशी मुकेश दलाल को निर्विरोध विजयी घोषित कर दिया गया है और निर्वाचन आयोग ने उन्हें सर्टिफिकेट भी दे दिया है। फिर भी एक हाइपोथेटिकल स्थिति की कल्पना कर रहा हूं कि अगर यह मामला सुप्रीम कोर्ट में जाता है और कोर्ट कहता है कि NOTA के होते हुए किसी को भी निर्विरोध नहीं चुना जा सकता, तब मामला कितना दिलचस्प हो जाएगा!!

तो चुनाव होगा...
नोटा V/s दलाल...!!
अगर ऐसा होता है तो यह NOTA के लिए यह कितना क्रांतिकारी होगा!!!
तब कहलाएगा ये असल लोकतंत्र!!!
पुनश्च... कई लोगों को बड़ा अफसोस हो रहा होगा कि काश, बतौर निर्दलीय वे भी परचा दाखिल कर देते तो लोकतंत्र की बहती गंगा में वे भी हाथ धो लेते।

सबसे बड़े मसले पर हमारी दोनों बड़ी पार्टियां एक राय! मगर ये बेहद शर्मनाक!

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By Jayjeet

भाजपा और कांग्रेस दोनों के विचारों में जमीन-आसमान का अंतर है। दोनों के घोषणा-पत्रों में भी यह अंतर साफ दिखाई देता है। मगर फिर भी कम से कम दोनों एक मसले पर एक ट्रैक पर हैं। दुनिया के सबसे महत्वूपर्ण मसले पर दोनों की एप्रोच एक है...!
आइए, पहले इस सस्पेंस को खत्म करते हैं।
भाजपा ने अपने घोषणा पत्र में पर्यावरण को जगह दी है पेज नंबर 67 पर। यह उसके घोषणा पत्र का समापन बिंदु है।
कांग्रेस ने अपने घोषणा पत्र में पर्यावरण को जगह दी है पेज 41 पर। यह उसका आखिरी अध्याय है।
इस मसले पर दोनों एक राय हैं। दोनों की एप्रोच समान है। और दोनों के लिए एक ही शब्द निकलता है- शर्मनाक।
एक पार्टी का फोकस विकास पर है तो दूसरी पार्टी गरीबों को न्याय देने के नाम पर चुनाव लड़ रही है। लेकिन ऐसी कई रिपोर्ट्स हैं, जिनका लब्बोलुआब यही है कि अगर अब भी पर्यावरण को लेकर हम नहीं जागे तो विकास के तमाम दावे और गरीबी उन्मूलन के तमाम संकल्प, सब धरे के धरे रह जाएंगे। जलवायु परिवर्तन का असर हवा से लेकर पानी तक सब पर पड़ने जा रहा है। अकेले पानी की ही बात कर लेते हैं, जिसका अभूतपूर्व संकट आने वाला है। पानी के बिना सामान्य जीवन-शैली भी मुश्किल है, तो विकास की कल्पना तो एकदम बेमानी है। और फिर भीषण गर्म व उमस भरे परिवेश में हम कितनी कंपनियों को अपने यहां बुला पाएंगे? 'भारत को मैन्युफैक्चरिंग हब बनाएंगे' जैसे ये पांच शब्द बस घोषणा पत्र में ही टँके रह जाएंगे!
उधर, 'एक झटके में गरीबी दूर करने' का दावा करने वाले 'जादूगर' राहुल को भी कम से कम विश्व बैंक की हालिया रिपोर्ट पढ़नी चाहिए। इसके अनुसार जलवायु परिवर्तन के कारण केवल अगले पांच साल में ही दुनिया के 13 करोड़ लोग गरीबी रेखा से नीचे चले जाएंगे। भारत दुनिया से बाहर नहीं है। मौजूद गरीबों का भला तो छोड़ दीजिए, नए गरीबों के साथ न्याय कैसे होगा? इस बारे में कांग्रेस नेता को शायद ही कोई इल्म होगा।
अकेले भारत में ही बढ़ती गर्मी को लेकर कई तरह की डरावनी रिपोर्ट्स हैं। लेकिन केवल रिपोर्ट्स पर भरोसा मत कीजिए। आप तो अपने सहज ज्ञान का इस्तेमाल कीजिए। इस साल गेहूं के उत्पादन में काफी कमी आई है और कई वजहों में एक वजह बढ़ता तापमान भी है। और दुर्भाग्य से, यह स्थाई ट्रेंड बन सकता है। सोचिए, इस साल हमारे यहां बसंत गायब क्यों हो गया? क्यों बेमौसम आंधियां चल रही हैं और क्यों देश के अधिकांश हिस्सों में कभी न पड़ने वाली प्रचंड गर्मी की भविष्यवाणी की गई है? सब हमारे सामने हैं। मगर पार्टियां इसे अपने एजेंड में सबसे पीछे रखे हुए हैं।
इस तरह के मसले पर जनता या मतदाताओं से उम्मीद नहीं की जा सकती। वैसे भी इप्सॉस की एक रिपोर्ट ने भी कह ही दिया है कि 85 फीसदी लोग चाहते हैं कि पर्यावरण में सुधार का काम सरकार ही करें। बिल्कुल, मैं भी सहमत हूं। वैसे भी यह बहुत जटिल मसला है और इस पर कानून बनाने से लेकर जन-जागरूकता तक के तमाम कामों की शुरुआती अपेक्षा सरकारों से ही की जानी चाहिए।
लेकिन सरकार से उम्मीद कर सकते हैं? देश की दो सबसे बड़ी पार्टियां जब इस संकट को लेकर शुतुरमुर्ग बनी हुई हैं और गैर जरूरी मुद्दों पर शर्मनाक तरीकों से आपस में लड़ रही हैं तो उनकी अगुवाई वाली सरकारें भी आखिर कुछ करेंगी, यह बस खयाली पुलाव है।
तो क्या इस पूरे मसले को भगवान भरोसे छोड़ दें? लेकिन जगह-जगह बगीचों को उजाड़कर वहां चार दीवारों के भीतर बैठा दिए गए 'भगवानों' से भी कितनी उम्मीद करें? और क्यों करें?

बुधवार, 17 अप्रैल 2024

UPSC : क्या 'सत्यमेव जयते' को याद रखेंगी हमारी सबसे चमकदार प्रतिभाएं?

 

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By Jayjeet Aklecha

अभी कुछ दिन पहले ही मेरे एक मित्र को कलेक्टर की पोस्टिंग मिली है। वह उन दुर्लभ ईमानदार अफसरों में से एक है, जिसने हमेशा फील्ड पोस्टिंग को अवॉइड किया, ताकि भ्रष्ट सिस्टम का डायरेक्ट हिस्सा बनने से बच सके। लेकिन अब जब कलेक्टर बना तो उसे जानने-समझने वाले हम तमाम मित्रों के दिमाग में बस यही एक सवाल था- वह वहां कब तक सवाईव कर पाएगा?
जब भी UPSC का रिजल्ट घोषित होता है, तब मेरे दिमाग में सबसे पहला सवाल यही उठता है- ये हमारे देश की सर्वश्रेष्ठ प्रतिभाएं हैं। कड़ी मेहनत से इस मुकाम तक पहुंची हैं। मगर अब ये करेंगी क्या? जब आज सुबह की चाय पर अपनी पत्नी के साथ यूपीएससी रिजल्ट की सुर्खियां पढ़ रहा था और यही सवाल आया तो पत्नी का बेहद मासूमियत भरा जवाब था- करप्शन करेंगी, और क्या? यह बेहद दुर्भाग्यपूर्ण है, मगर आम धारणा यही है कि देश के ब्राइटेस्ट टैलेंट का बड़ा हिस्सा एक भ्रष्ट सिस्टम का हिस्सा बन जाएगा और कुछ चुनिंदा दुर्लभ टाइप के अफसर अपने सर्वाइवल के लिए नए संघर्ष में जुट जाएंगे।
बेशक, मेहनत में भरपूर ईमानदारी बरतने वाले, कई महीनों, बल्कि वर्षों अपनी रातों की नींद खराब करने वाली देश की इन चमकदार प्रतिभाओं के दिमाग में शुरू में यह कतई नहीं रहता होगा कि मैं भ्रष्ट बनकर खूब पैसे कमाऊंगा। आप जब इनके शुरुआती इंटरव्यू पढ़ते हैं तो भले ही उनकी ये बातें हास्यास्पद लगती होंगी कि 'मैं देश और लोगों की सेवा करने के लिए इस क्षेत्र में आया हूं।' लेकिन हमें इससे इनकार नहीं करना चाहिए कि जवाब देने वाले के दिमाग में समाज-देश के लिए कुछ बेहतर कर गुजरने के सपने तो होते ही होंगे। इस परीक्षा की तैयारी करते समय उसने जिस गांधी को, जिस सुभाषचंद्र को, जिस लिंकन को, जिस मंडेला को पढ़ा होता है, वे सब हस्तियां शुरू में तो उसे आलोड़ित करती ही होंगी। लेकिन देश-समाज के लिए कर गुजरने वाले सपने आखिर कुछ ही वर्षों में विलोपित क्यों हो जाते हैं?
इसका एक श्रेष्ठ जवाब जापान और पूर्वी एशियाई देशों में प्रचलित एक कहावत में ढूंढा जा सकता है- 'अगर आपको भावी पीढ़ियों के भविष्य सुरक्षित करना है, तो पहली पीढ़ी को अपना सर्वस्व देना होगा।' लेकिन हमारे देश में क्या ऐसा हुआ? आजादी मिलते ही पहली पीढ़ी ने अंग्रेज अफसरशाही के उसी सिस्टम को हूबहू स्वीकार कर लिया, जिसमें अफसर जनता के प्रति जवाबदेह बनने के बजाय अपने से ऊपर वालों के प्रति समर्पित थे। किसी देश को गुलाम बनाए रखने के लिए एक सिस्टम की यह अनिवार्य शर्त भी थी। लेकिन आजाद देश में यह सिस्टम? यही सिस्टम हमने बनाए रखा और आज भी बना हुआ है, और भी मजबूती से।
हमारे प्रधान सेवक इन दिनों देशभर में घूम-घूमकर भ्रष्टाचार उन्मूलन का दम भर रहे हैं। लेकिन एक सवाल उनके लिए भी बनता है- क्या केवल कुछ चुनिंदा मुख्यमंत्रियों, मंत्रियों को चुन-चुनकर गिरफ्तार करने भर से सिस्टम सुधर सकता है? आपके हिसाब से 2014 एक नए युग की शुरुआत थी। लेकिन यह युग भी उस ईच्छाशक्ति को दर्शाने से चूक गया, जो 1947 के समय चूका था।
बहरहाल, देश के 1,016 ब्राइटेस्ट टैलेंट का हमारे सिस्टम में स्वागत है... उन्हें करोड़-करोड़ बधाइयां!!! उम्मीद करते हैं कि 'सत्यमेव जयते' ये दो शब्द कुछ दिन तक तो उनके जेहन में रहेंगे।
#UPSC #UPSC_Result

बुधवार, 10 अप्रैल 2024

शुक्र है, चुनाव होते रहते हैं... इससे विकसित देशों के बर-अक्स हमें हमारी जमीनी हकीकत पता चलती रहती है...!!!

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By Jayjeet

सुप्रीम कोर्ट ने कल एक छोटी-सी व्यवस्था देते हुए कहा है कि मतदाताओं को उम्मीदवारों की हर चल सम्पत्ति के बारे में जानने का अधिकार नहीं है। इसलिए हलफनामे में इसका खुलासा करने की भी दरकार नहीं है।
अदालत ने बिल्कुल सही फरमाया है। आखिर हम मतदाता ऐसी चीजों के बारे में जानकर करेंगे भी क्या? एडीआर नामक एक संस्था है। यह आए दिन फालतू की रिपोर्ट जारी करती रहती है कि फलाना उम्मीदवार इतना करोड़पति, फलाना के खिलाफ इतने अपराध... हमें इन आंकड़ों से कोई लेना-देना ही नहीं है। अगर हमें यह पता भी चल जाए कि अमुक की सम्पति पांच साल में बढ़कर पचास गुना हो गई है, वह भी गलत तरीकों से, तब भी हम क्या करते हैं? क्या उसे वोट नहीं देते हैं? वैसे भी हर क्षेत्र के मतदाताओं को पता ही होता है कि उसका उम्मीदवार कितना करोड़पति, कितना अरबपति है, कितना बड़ा भूमाफिया है, कितना भ्रष्ट है, उसके खिलाफ कितने संगीन मामले दर्ज हैं। पर इससे मतदाताओं को रत्ती भर भी फर्क पड़ता है? फिर यह बात किसी हलफनामे में या रिपोर्ट में भी आ जाए तो क्या? मतदाता तो केवल यह देखता है कि किस उम्मीदवार ने कितने भंडारे करवाए, कितनी इफ्तार पार्टियां की, कितने मंदिरों को दान दिया, या अंदरखाने कितनी मस्जिदों के लिए पैसे की व्यवस्था की।
कुल मिलाकर मतदाता के काम की बस एक ही चीज है- उम्मीदवार की जाति या उसका धर्म क्या है। वह इसी आधार पर मतदान करता है, तो उसे बस यही जानने का अधिकार होना चाहिए। कोर्ट से निवदेन है कि वह हलफनामे में चल-अचल सम्पत्ति, अपराध के विवरण जैसी गैर जरूरी चीजों का उल्लेख करवाना ही अनिवार्य रूप से बंद करवा दें। बस, एक ही विवरण रखें- उम्मीदवार का धर्म क्या है? जाति क्या है? उप जाति क्या है? और उप जाति की भी कोई उप-उप जाति हो तो वो...। बस, इतने भर से हमारा काम चल जाएगा। हम वोट दे आएंगे। हम ऐसे ही वोट देते रहे हैं और देते रहेंगे।
शुक्र है, हमारे देश में बीच-बीच में चुनाव होते रहते हैं। इससे हमें यह पता चलता रहता है कि विकसित देशों के बर-अक्स हम कितने पानी में हैं! नहीं तो नेता लोग तो विकसित विकसित कहके न जाने कहां-कहां के सपने दिखाते रहते हैं...!!

मंगलवार, 9 अप्रैल 2024

राहुल का एक अहम सवाल.... मगर पहले खुद जवाब देना होगा!!!

 

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By Jayjeet

इस शाश्वत सत्य से कौन इनकार करेगा कि जब आप सामने वाले पर एक उंगली उठाते हैं तो तीन उंगलियां आपकी ओर भी उठती हैं। कल मप्र के मंडला में राहुल गांधी की एक चुनावी सभा में यही दृश्य था। उन्होंने  एक बड़ा महत्वपूर्ण सवाल पूछा था। सवाल यह था कि हिंदुस्तान की बड़ी कंपनियों के मालिकों में, उनके सीनियर मैनेजमेंट में, बड़े-बड़े पत्रकारों में, बड़े-बड़े एंकरों में आखिर आदिवासी कितने हैं? इसका जवाब भी खुद ही दिया- एक भी नहीं। आरोप रूपी यह सवाल मोदी सरकार पर लक्षित था, लेकिन चिलचिलाती धूप में इसकी बड़ी-सी छाया उनकी ही धवल टी-शर्ट को लगभग पूरा ढंक रही थी।  

राहुल की कम से कम इस बात के लिए तारीफ की जा सकती है कि वे बड़े अच्छे सवाल, बड़े अच्छे से उठाते हैं। और इससे भी अच्छी बात यह है कि सवाल उठाते हुए वे जाने या अनजाने में विपक्ष के साथ-साथ अपनी पूर्ववर्ती सरकारों को भी कठघरे में खड़ा करने में कोहाही नहीं बरतते हैं। कल का सवाल भी कुछ इसी तरह का था। यह सवाल पूछते हुए एक उंगली तो उन्होंने मोदी सरकार पर उठाई थी, लेकिन तीन उंगलियां उन पूर्ववर्ती कांग्रेस सरकारों पर भी उठ रही थीं, जिनका ज्यादातर नेतृत्व उनके ही परिवार के पास रहा है। 

मोदी सरकार से तो वैसे भी  किसी सवाल के जवाब की उम्मीद नहीं की जानी चाहिए। लेकिन सवाल यह है कि क्या इस सवाल का जवाब खुद राहुल भी देने का नैतिक साहस करेंगे? क्या वे जवाब देंगे कि आखिर 55 साल तक सत्ता में काबिज उनकी पार्टी की सरकारों ने भी आदिवासियों की हैसियत महज एक वोट बैंक से ज्यादा क्यों नहीं समझी? (बल्कि दलितों, और मुस्लिमों की भी)। तमाम सरकारों ने आदिवासियों और दलितों के लिए महज सरकारी नौकरियों में आरक्षण सुनिश्चित कर यह मान लिया और मनवा लिया कि वे प्रगति की राह पर आगे बढ़ जाएंगे। बेशक,आरक्षण से वंचित तबकों के बड़े हिस्से को एक हद तक आगे बढ़ाना संभव हो सका है, लेकिन घनघोर प्रतिस्पर्धा वाले कॉरपोरेट संसार में ये तरीके काम नहीं आ सकते। क्या कांग्रेस सरकारों ने इसके लिए उन्हें तैयार करने का प्रयास किया या तैयार करने की इच्छाशक्ति दिखाई? 

मान लेते हैं, वह जमाना राहुल का नहीं था। लेकिन अब तो पार्टी को कमोबेश राहुल ही लीड कर रहे हैं। उन्होंने जो मोदी सरकार से पूछा, क्या उसका समाधान उनके पास है? इसके जवाब के लिए कांग्रेस का घोषणा-पत्र देखिए। अधिकांश वादे सरकारी नौकरियों में भर्ती और आरक्षण तक सीमित है, जबकि आने वाला दौर कॉरपोरेट का ही है। तो फिर महज चुनावी जुमलेबाजी से क्या हासिल होगा? 

पुनश्च... मौजूदा मोदी सरकार अक्सर बड़े गर्व (आप चाहें तो अहंकार भी पढ़ सकते हैं) से कहती है कि हमने एक आदिवासी को राष्ट्रपति बनाया। 'बनाना' और 'बनना', इसमें जमीन-आसमान का फर्क है। कांग्रेस जब सत्ता में होती थी, तब वह भी कुछ ऐसे ही जुमलों का प्रयोग करती थी। जब तक हमारे राजनीतिक दल एहसान जताने वाले शब्दों से ऊपर उठकर वास्तविक सशक्तिकरण के प्रयास नहीं करेंगे, इन वर्गों का कुछ भी भला नहीं हो सकेगा और ये महज सियासी चारा बने रहेंगे। फिर चाहें कितने भी सवाल उठते रहे, उठाते रहें...! 


बुधवार, 3 अप्रैल 2024

शुक्र है, खास लोगों को पता तो चला कि आम लोगों के साथ क्या-क्या होता है...!!

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By Jayjeet

यह मप्र के एक मंत्री पुत्र की तस्वीर है, जिस पर गुंडागर्दी करने का आरोप है। उधर, मंत्री पुत्र का आरोप है कि उसे पुलिस ने उसी तरह पीटा जैसे आम गुंडों को पीटते हैं। हालांकि इस पुलिसिया समाजवाद का खामियाजा चार पुलिसकर्मियों को भुगतना पड़ा और उन्हें सस्पेंड होना पड़ा।
खैर मंत्री पुत्र और पुलिस पर लगे आरोप-प्रत्यारोपों में मेरी कोई खास दिलचस्पी नहीं है। इस पूरे वाकये में मुझे सबसे दिलचस्प बात लगी मंत्री पुत्र का बयान - 'पुलिस ने मेरे साथ ऐसा किया तो आम लोगों के साथ क्या करती होगी?' यह अहंकार का नेक्स्ट लेवल है। केवल पिताश्री मंत्री हैं तो आप 'आम' से ऊपर हो गए...! इससे एक दिन पहले मंत्रीजी का अखबारों में छपा बयान भी पढ़ लेते हैं, जब वे अपने प्रिय बेटे को छुड़ाने के लिए थाने पहुंचे थे- 'मंत्री के बेटे के साथ पुलिस का यह व्यवहार है तो पुलिस आम जनता के साथ क्या करती होगी।'
शु्क्र है, इन खास लोगों को कुछ-कुछ तो पता चला कि आम लोगों के साथ क्या-क्या होता है!!! लेकिन अब भी पूरा पता नहीं चला है। नया अघोषित नियम तो यह कहता है कि अगर किसी आम आदमी के परिवार का कोई नालायक बेटा कोई गलती कर देता है तो प्रशासन उसके घर पर या घर के अवैध हिस्सों पर बुलडोजर चलाने में देर नहीं करता है। खबरों के मुताबिक इसी मंत्री पुत्र के आदरणीय पिताश्री ने भोपाल की एक पॉश कॉलोनी में आम लोगों के लिए बने एक बगीचे पर कब्जा कर रखा है। क्या सिस्टम कम से कम उस पर कब्जे पर ही बुलडोजर चलाने की हिम्मत करेगा? उम्मीद है, बिल्कुल नहीं!!
आम लोगों के वोटों से खास बने लोगों को आम लोग बस उस समय याद आते हैं, जब सिस्टम आमवाली पर ऊपर आता है। क्या हम आम लोगों को प्रार्थना करनी चाहिए कि बीच-बीच में, जस्ट फॉर ए चेंज, ऐसी आमवाली पर सिस्टम आता रहे, ताकि आम लोगों के साथ क्या-क्या होता है, इसका कुछ-कुछ इल्म कम से कम ऐसे खास लोगों को ऐसे ही होता रहे।

शनिवार, 16 मार्च 2024

गब्बर, चुनाव और साम्बा की होशियारी...!

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( Disclaimer: होली पर गब्बर घिस-घिसकर बहुत घिसा-पिटा हो गया है, मगर फिर भी ऐसे घिसे-पिटे सब्जेक्ट वैसे ही चलते रहते हैं, जैसे घिसे-पिटे नेता...। तो इसे पढ़कर वैसे ही भूल जाइए, जैसे हम इलेक्टोरल बॉन्ड के महाघोटाले को भूल जाएंगे...)
  

By Jayjeet Aklecha

गब्बर को गलतफहमी है कि 'होली कब है, कब है होली' जैसा कुछ कहने के बजाय 'चुनाव कब है, कब है चुनाव' कहने से उसे चुनाव का टिकट मिल जाएगा। टिकट दल बदलने से मिलता है, जुमले बदलने से नहीं। और उसे इस बात की और भी गलतफहमी है कि डकैत होना उसकी एडिशनल क्वालिफिकेशन है। डकैत की ड्रेस पहनने भर से टिकट मिल जाता तो इलेक्टोरल बॉन्ड की डकैती की जरूरत ही क्यों होती! सोचने की बात है...! गब्बर ने अपनी जात नहीं बताई... डकैत तो डकैत होता है। उसकी क्या जात और क्या पात? लो, ऐसी नैतिकता का ऐसा झंझट तो अपन वोटर लोग भी नहीं पालते और ये डकैत होकर पाले हुए हैं। शायद, इसीलिए नेताओं के बीहड़ों में इसके डकैतपने की कोई औकात नहीं है। तो टिकट कैसे मिलेगा, कैसे मिलेगा टिकट? भाईसाब, रामगढ़... मोबाइल में घुसे पड़े नल्ले साम्भा के मुंह से कुछ फूटा...। पहाड़ी की चोटी पर अब वह केवल नेटवर्क के मारे ही बैठता है। क्याssssss? रामगढ़ssssss। रामगढ़ का कनेक्शन बताइए और टिकट पाइएsssssssss। साम्भा भी उतना ही जोर से चिल्लाया। वाह, साम्भा के मुंह से पहली बार कोई कायदे की बात फूटी है। टीवी चैनलों पर न्यूज टाइप की चीजें देखकर आदमी ज्ञानी भी हो लेता है... मॉरल ऑफ द स्टोरी फ्रॉम द ग्रेट साम्बा...जिसके पास धेले का भी काम नहीं, वह न्यूज चैनलों पर एंटरटेनमेंट जरूर करें। बीच-बीच में गजब का ज्ञान भी मिल जाता है। चलते-चलते... कांग्रेस तो दो बोरी गेहूं के बदले ही टिकट देने को तैयार है, मगर साम्भा ने चेताया, भाई साब ले मत लेना, अभी तो आप जमानत पर बाहर है। वह भी जब्त हो जाएगी। एक तो कांग्रेस, ऊपर से ईडी का झमेला...। (देखो तो जरा साम्भा को, नीम और करेला की कहावत का इल्म भी आ गया... )

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रविवार, 10 मार्च 2024

कांग्रेस की आत्मा तो अजर-अमर है! बस देह बदलकर भाजपा में प्रवेश कर रही है...!!

 

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By Jayjeet Aklecha

 शुरुआत मशहूर व्यंग्यकार शरद जोशी जी की इन पंक्तियों से... कांग्रेस अमर है, वह मर नहीं सकती। उसके दोष बने रहेंगे और गुण लौट-लौट कर आएंगे। जब तक पक्षपात, दोमुंहापन, पूर्वग्रह, ढोंग, दिखावा, सस्ती आकांक्षा और लालच कायम है, इस देश से कांग्रेस को कोई समाप्त नहीं कर सकता। कांग्रेस कायम रहेगी।


नित दिन जब खबर आती है कि अमुक कांग्रेसी ने भाजपा ज्वॉइन कर ली है तो यह भाजपा मुक्त भारत की दिशा में एक और ठोस कदम होता है। क्या कांग्रेसियों ने साजिश रच रखी है भाजपा को खत्म करने की? वाकई, राजनीति में कांग्रेसियों का कोई मुकाबला नहीं! ऐसा जाल बिछाया कि कांग्रेस मुक्त भारत करते-करते भाजपाइयों ने अनजाने में देश को भाजपा मुक्त कर दिया।

मैं उस भविष्य की ओर देख रहा हूं, जब देश में केवल दो पार्टियां होंगी - भाजपा () और भाजपा (सी) यानी भाजपा (ओरिजिनल) और भाजपा (कांग्रेस) कई लोगों को आशंका और उम्मीद है कि भविष्य में हमारा भारत महान चीन की तर्ज पर एक पार्टी सिस्टम पर जा सकता है और वह पार्टी होगी भाजपा (सी) यकीन मानिए, इसमें भाजपा की केवल देह होगी, भीतर आत्मा तो कांग्रेस की ही होगी।
 

आजादी के बाद कांग्रेस ने जो संघर्ष किया है, उसे भाजपा कभी नहीं समझ सकती।। शरद जोशी जी द्वारा गिनाए गए नैतिक पतन के तमाम आदर्श उसे स्वयं अपने हाथों से गढ़ने पड़े। भाजपा किस्मतवाली रही कि उसे नैतिक पतन के ये गुण विरासत में मिल गए। उसे आजादी के लिए संघर्ष करना पड़ा और ऐसे उच्च आदर्शों के लिए। बस, उसे कांग्रेस को अपने भीतर समाने की जरूरत थी। बेशक, यह बेहद मुश्किल था। पर भाजपा को साधुवाद! उसने कांग्रेस के गुणों को अपनाने में 10 साल भी नहीं लगाए।

आज अटल जी जहां कहीं भी होंगे, क्या सोच रहे होंगे? दु:खी हो रहे होंगे या खुश हो रहे होंगे? मुझे लगता है कि वे यह सोच-सोचकर खुद को भाग्यशाली मान रहे होंगे कि वे ' पार्टी विद डिफरंस' की ऐसी मौत अपनी आंखों से देखने से बच गए। आडवाणीजी एक बार फिर से अटलजी की किस्मत पर रश्क कर सकते हैं...!

समापन भी शरद जोशी की पंक्तियों से ही... दाएं, बाएं, मध्य, मध्य के मध्य, गरज यह कि कहीं भी किसी भी रूप में आपको कांग्रेस नजर आएगी। इस देश में जो भी होता है, अंततः कांग्रेस होता है। जनता पार्टी (आज पढ़ें भारतीय जनता पार्टी) भी अंततः कांग्रेस हो जाएगी।

 (Disclaimer : विचार व्यक्तिगत हैं।)

 

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