शुक्रवार, 21 फ़रवरी 2025

हम नदियों को केवल पवित्र मानते हैं, मगर जरूरत उन्हें पवित्र रखने की है!

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By Jayjeet Aklecha

पता नहीं, केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड में ऐसे कौन-से वामपंथी अधिकारी बैठे हुए हैं, जिन्होंने पवित्र गंगा नदी के पानी को प्रदूषित बता दिया। खैर, महंत योगीजी ने उप्र विधानसभा में कह दिया कि गंगा का पानी इतना पवित्र है कि उसका आचमन भी किया जा सकता है तो हम मान सकते हैं कि हां, ऐसा ही होगा! उन्होंने इस रिपोर्ट को महाकुंभ को बदनाम करने की साजिश भी करार दिया (साजिश के इस आरोप का जवाब क्या केंद्र सरकार देगी?) वैसे अगर संगम के जिस आम एरिया में जहां आम लोग पवित्र स्नान वगैरह कर रहे हैं, वहां योगीजी अपनी पूरी कैबिनेट और वरिष्ठ अफसरों के साथ जाकर उस पानी का आचमन करके दिखाते तो यह बोर्ड के साजिशकर्ता अधिकारियों को मुंहतोड़ जवाब होता...!

 वैसे, योगीजी को ऐसा करने की जरूरत नहीं है। हालांकि उन्हें उस रिपोर्ट को खारिज करने की भी जरूरत नहीं थी। कोई भी समझदार आदमी इस सच को स्वीकार करता ही कि करोड़ों लोगों के पवित्र स्नान करने के बाद नदी तो क्या, विशालकाय समुद का पानी भी मानव मल-मूत्र के बैक्टीरिया से बच नहीं पाता। लेकिन शुतुरमुर्गी मानसिकता के चलते दिक्कत यह है कि हम समस्या को स्वीकारते नहीं और इसलिए समस्या सुलझती भी नहीं है। यही वजह है कि दुनिया की टॉप 10 या 15 शीर्ष स्वच्छ नदियों की सूची में हमारी कोई भी पवित्र नदी शामिल नहीं है (केवल मेघालय की छोटी-सी नदी डावकी नदी को छोड़कर। देखें तस्वीर)।


दिक्कत यह भी है कि हम नदियों को केवल पवित्र मानते हैं, उन्हें पवित्र रखने की कोशिश नहीं करते। अगर नदियों को पवित्र रखना हमारा मकसद होता तो महाकुंभ या ऐसे ही आयोजनों को लेकर हमारी सरकारों की रणनीति कुछ अलग होती। लेकिन भारत में ऐसी अलग नीति की उम्मीद नहीं कर सकते...इसलिए हमें ‘पूरब और पश्चिम’ के उस उस फिल्मी गीत को दोहराकर ही संतुष्ट रहना होगा कि ‘हम उस देश के वासी हैं, जहां नदियों को भी माता कहकर बुलाते हैं’ (फिर एक कड़वा विरोधाभास... महिलाओं के खिलाफ छोटे-बड़े अपराधों के मामले में भारत की स्थिति अनेक विकासशील देशों से बदतर है)

 तस्वीर : मेघालय की डावकी नदी। यह इसलिए भी इतनी स्वच्छ है, क्योंकि इसके पानी को ‘पवित्र’ नहीं माना जाता है।

#जयजीत अकलेचा

शुक्रवार, 7 फ़रवरी 2025

जब अगले सप्ताह ट्रम्प से मिलें मोदीजी तो सिकंदर-पोरस की कहानी जरूर सुनाएं…

By Jayjeet Aklecha

हमारे प्रधानमंत्रीजी की एक अच्छी खासियत यह है कि वे जब भी किसी दूसरे देश के राष्ट्रपतिजी या प्रधानमंत्रीजी से मिलते हैं, तो उनसे गले लगकर मिलते हैं। इससे समकक्ष होने का एहसास होता है। सवाल यह है कि जब अगले सप्ताह मोदीजी की ट्रम्पजी से मुलाकात होगी तो तब भी वे क्या ट्रम्प से वैसे ही गले लगकर मिलेंगे? और क्या ट्रम्प उनसे गले लगना चाहेंगे? और सबसे बड़ा सवाल यह भी कि क्या ट्रम्प उन्हें (या किसी और भी) अपना समकक्ष मानते भी हैं?
भारतीय आप्रवासियों (भले ही अवैध हों) को जिस तरह से आतंकियों की तरह भारत भेजा गया, उससे कोई घोर ‘गैर राष्ट्रवादी’ भी आहत हुए बगैर नहीं रह सकता। यह काम तो पाकिस्तान जैसा कथित शत्रु भी नहीं करता, जैसा अमेरिका जैसे कथित मित्र ने किया है। और विदेश मंत्री एस. जयशंकर का वह बयान तो और भी ज्यादा पीड़ादायक है, जिसमें वे कहते हैं कि यह कोई नई बात नहीं है। अमेरिका की यही रणनीति है। उनके बयान को पढ़कर ऐसा महसूस हो रहा है कि वे अमेरिका की ओर से ‘भारत देश’ को सफाई दे रहे हैं। और लगे हाथ वे यह जोड़ना भी नहीं भूले कि पहले भी (2012 में कांग्रेस सरकार के दौरान) ऐसा होता रहा है। तो क्या भविष्य में अगर कोई गैर भाजपा सरकार सत्ता में आती है तो क्या वह इतनी ही बेहयाई से यह कहकर आतंकियों को रिहा कर देगी कि पहले भी ऐसा हुआ है (1999, कंधार)! क्या भविष्य के ऐसे कृत्यों को अतीत के आधार पर जस्टिफाई किया जा सकता है?
खैर, जब मोदी जी अपने दोस्त ट्रम्प ने मिले तो उन्हें सिकंदर और राजा पोरस की वह कहानी जरूर याद करनी चाहिए और हो सके तो सुनाना भी चाहिए। कहानी आप सब जानते ही हैं कि जब परास्त पोरस ने भी सिकंदर जैसे बलशाली राजा से यह कहने की हिम्मत की थी- एक शासक को दूसरे शासक के साथ हमेशा शासक जैसा ही सलूक करना चाहिए... यह बात देशों पर भी लागू होनी चाहिए।

बुधवार, 5 फ़रवरी 2025

आठवें वेतन आयोग और टैक्स रिबेट से तो पैसा बाजार में आएगा, लेकिन गरीबों को मदद सिस्टम पर बोझ!

By Jayjeet

समाज में विषमता केवल पैसे से पैदा नहीं होती। सोच से भी होती है। बीते दिनों दो बड़ी घटनाएं प्रकाश में आईं- एक, सरकार द्वारा आठवें वेतन आयोग के गठन की घोषणा और दूसरी, 12 लाख रुपए तक की आय पर इनकम टैक्स में रिबेट का बजटीय एलान। बेशक, ये दोनों फैसले बहुप्रतीक्षित थे और इससे बड़े वर्ग को राहत मिलेगी। इन दोनों घटनाओं का सरकारी बाशिंदों की तरफ से, समाज के एक बड़े तबके की तरफ से और मीडिया की तरफ से भी यह कहकर अभिनंदन किया गया कि इनसे बड़ी धनराशि बाजार में आएगी और इकोनॉमी को गति मिलेगी। बेशक, काफी हद तक ऐसा होगा।
लेकिन एक बड़ा सवाल - अगर उक्त फैसले इकोनॉमी को गति देने वाले साबित होंगे तो फिर देश के विशालकाय गरीब तबके, खासकर गरीब वर्ग की महिलाओं को मिलने वाली वाली राशि बोझ कैसे हो सकती है? आज यह सवाल केवल इसलिए क्योंकि समाज के बड़े वर्ग की ओर इसे बोझ के रूप में प्रचारित किया जाता रहा है, और इसमें वह भी शामिल है, जिसे उक्त फैसलों से लाभ मिलने वाले हैं। यह उन्हीं लोगों से सवाल है कि अगर वो पैसा बाजार में आकर इकोनॉमी को बढ़ाएगा तो कि क्या गरीबों को दिया जाने वाला पैसा उनकी तिजोरियों में जमा हो रहा है या वह ब्लैक इकोनॉमी में जा रहा है?
सबसे आपत्तिजनक शब्द ‘रेवड़ी' है। क्योंकि अगर ये रेवड़ी है तो साल में 150 दिन छुटि्टयां लेने वाले सरकारी कर्मचारियों के वेतन और पेंशन की बड़ी राशि को क्या कहा जाएगा? (साल भर पहले एक अखबार द्वारा करवाए गए एक सर्वे में इसी वर्ग ने गरीबों को मिलने वाली कथित रेवड़ियों पर सबसे ज्यादा आपत्ति जताई थी)। इसलिए सबसे पहले तो ‘रेवड़ी’ शब्द से मुक्ति पाने की जरूरत है, क्योंकि न वो रेवड़ी है और न ये रेवड़ी है। इसी तरह एक व्यापक स्टडी की भी जरूरत है कि गरीबों को सरकारी मदद के बाद से आर्थिक और सामाजिक तौर पर क्या बदला। कुछ बदला भी या नहीं? हालांकि जिस देश में 15 साल से जनगणना तक ना हुई हो और फिर भी देश को या देशवासियों को कोई फर्क नहीं पड़ रहा हो, वहां इस तरह के असर को जानने के लिए भी कोई ललक होगी, इसकी संभावना कम ही होगी।
पुनश्च... ब्राजील में पिछले 20 साल से एक योजना चल रही है ‘बोल्सा फैमीलिया' योजना। इसमें भी महिलाओं को प्रतिमाह कुछ राशि नकद दी जाती है। इस पर विश्व बैंक की स्टडी कहती है कि इस योजना के तहत खर्च किए गए प्रत्येक एक डॉलर पर स्थानीय अर्थव्यवस्था में 1.78 डॉलर जनरेट हुए। जाहिर है, इकोनॉमी में जनरेट हुई असेट का फायदा तमाम लोगों को मिला होगा!!! बता दें, वहां न तो यह योजना (कमोबेश) राजनीति से प्रेरित है और न ही इसे ‘रेवड़ी’ माना जाता है।

रविवार, 2 फ़रवरी 2025

AI को लेकर हमारा शुतुरमुर्गी रवैया… ऐसे तो विश्वगुरु बनने से रहे!!!

 

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By Jayjeet Aklecha

कई लोगों को भारत को ‘विश्वगुरु’ बोलते हुए एक किस्म की मानसिक शांति का एहसास होता है। इसमें संस्कृति से जुड़ाव महसूस करते हुए दुनिया पर भारत के वर्चस्व की आकांक्षा दिखती है। लेकिन क्या हम विश्वगुरु केवल कहने मात्र से बन जाएंगे? 

हमें बीते 10 दिनों के दौरान हुई दो घोषणाओं पर गौर करना चाहिए। ये आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस (AI) को लेकर है। पहली घोषणा अमेरिका में हुई है। अमेरिकी राष्ट्रपति पद की शपथ लेने के दो दिन बाद ही 22 जनवरी को डोनाल्ड ट्रंप ने एआई के विकास के लिए 500 अरब डॉलर (43,34,500 करोड़ रुपए) के (प्राइवेट फर्म्स के साथ) ज्वाइंट वेंचर की घोषणा की। दूसरी घोषणा कल आए भारत के केंद्रीय बजट में हुई। इसमें एआई के लिए 500 करोड़ रुपए का बजटीय प्रावधान रखा गया है। इन दोनों की तुलना करने के लिए जमीन-आसमान का अंतर वाला मुहावरा भी बहुत छोटा पड़ जाएगा।

बेशक, एआई को लेकर हममें से किसी को कुछ पता नहीं है और इसलिए हम इसे बड़ा खतरा मान सकते हैं (और मानना भी चाहिए)। ऐसे में अगर सरकार की मंशा एआई को हतोत्साहित करने वाली है, तो यह अच्छा है। लेकिन सवाल यह भी है कि केवल ऐसी मंशा रखने से भर क्या होगा? क्या हम दुनिया से (खासकर अमेरिका और चीन से) आते इससे खतरे को रोक पाएंगे? यह केवल शुतुरमुर्गी रवैया है कि हम सिर छुपाकर समझ लेंगे कि तूफान से बच गए। लेखक युवाल नोआ हरारी ने अपनी ताजा-तरीन किताब ‘नेक्सस' में इसे और स्पष्ट किया है। उन्होंने लिखा है कि जिस तरह पर्यावरण के नियमों का पालन करने भर से जलवायु परिवर्तन के खतरों से बचा नहीं जा सकता, उसी तरह एआई को नियंत्रित करने या हतोत्साहित करने से हम इसके खतरों से नहीं बच सकते, क्योंकि ये दोनों स्थानीय नहीं, वैश्विक समस्याएं हैं।

मुझे पक्का भरोसा है कि हमारे यहां की कोई भी सरकार इतनी समझदार या संवेदनशील नहीं हो सकती कि उसने एआई के लिए इतना अल्प बजट केवल इसलिए रखा है, क्योंकि उसकी सुमंशा इसके खतरों को रोकना है। दरअसल, यह हमारी तमाम सरकारों की वैज्ञानिक सोच के प्रति उस उदासीनता का प्रतीक है, जो आज से नहीं है, और जिसे वे दशकों से बरतते आ रही हैं। वैज्ञानिक अनुसंधान और वैज्ञानिक मानसिकता ही हमें वैश्विक ताकत में बदल सकती है, इसको लेकर सरकार के स्तर पर कोई सोच नहीं है, न रही है। हम आज भी महज हमारे विशाल बाजार के भरोसे खुद को वैश्विक ताकत में बदलने का ख्वाब देख रहे हैं। आज भी हममें से कई लोग, दुर्भाग्य से सरकार-शासन और वैज्ञानिक प्रतिष्ठानों मंे बैठे लोग भी, मायथोलॉजी के आधार पर उन प्राचीन ‘इनोवेशन’ पर गर्व करते अघाते नहीं कि कैसे दुनिया की पहली प्लास्टिक सर्जरी हमारे यहां हुई या कैसे हमने दुनिया को विमान उड़ाना सिखाया। अक्षत गुप्ता जैसे लेखक इसे ‘सत्यालॉजी’ कहकर इस भ्रम को और गैर-जरूरी बढ़ावा देते हैं। दुर्भाग्य यह भी कि हमारे यहां किसी सरकार की सफलता का पैमाना यह बन जाता है कि वह किसी बड़े धार्मिक आयोजन को कितने अच्छे तरीके से हैंडल कर पाती है।

भारत सरकार एआई को प्रोत्साहित न करें, अच्छी बात है। लेकिन एक यह तथ्य हमें डरा रहा है कि इसकी अवहेलना करने से कोई फर्क नहीं पड़ेगा। आईबीएम एआई एडॉप्शन इंडेक्स की मानें तो एआई को स्वीकार करने के मामले में दुनिया में नंबर वन पर भारत है (59 फीसदी बिजनेस कंपनियों ने एआई को एडॉप्ट करने की इच्छा जताई है), जबकि हमारे पास अपना कोई एआई नहीं है। हो सकता है आगे जाकर हम इस पर भी ‘गर्व’ करने लगे कि भारत दुनिया की सबसे तेजी से बढ़ती एआई कंट्री है, जैसे हम स्मार्टफोन के सबसे बडे एक्सपोर्टर होने पर गर्व करते हैं, जबकि हमारे पास अपना एक ढंग का स्मार्टफोन तक नहीं है।

तो सवाल यह है कि हम या हमारी सरकार क्या करें? सबसे पहले तो हम दिल पर पत्थर रखकर यह स्वीकारें कि खुद को दुनिया की चौथी या पांचवीं आर्थिक शक्ति मानना केवल एक भ्रम है। असल शक्ति न्यू एज इनोवेशन में है। न्यू एज इनोवेशन की गंगा में स्नान करके ही हम असल में 'विश्व गुरु' बन सकते हैं।

गुरुवार, 30 जनवरी 2025

गोडसे ने बापू की डायरी में यह क्यों लिखा : 1,10,234 …?

 

gandhi-godse


By Jayjeet


गोडसे ने आज फिर बापू की डायरी ली और उसमें कुछ लिखा।

गांधी ने पूछा- अब कितना हो गया है रे तेरा डेटा?

एक लाख क्रॉस कर गया बापू। 1 लाख 10 हजार 234… गोडसे बोला

गांधी – मतलब सालभर में बड़ी तेजी से बढ़ोतरी हुई है।

गोडसे : हां, 12 परसेंट की ग्रोथ है। बड़ी डिमांड है …. गोडसे ने मुस्कराकर कहा…

गांधीजी ने भी जोरदार ठहाका लगाया…

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नए-नए अपॉइंट हुए यमदूत से यह देखा ना गया। गोडसे के रवाना होने के बाद उसने अनुभवी यमदूत से पूछा- ये क्या चक्कर है सर? ये गोडसे नरक से यहां सरग में बापू से मिलने क्यों आया था?

अनुभवी यमदूत – यह हर साल 30 जनवरी को नर्क से स्वर्ग में बापू से मिलने आता है। इसके लिए उसने स्पेशल परमिशन ले रखी है।

नया यमदूत – अपने किए की माफी मांगने?

अनभवी – पता नहीं, उसके मुंह से तो उसे कभी माफी मांगते सुना नहीं। अब उसके दिल में क्या है, क्या बताए। हो सकता है कोई पछतावा हो। अब माफी मांगे भी तो किस मुंह से!

नया – और बापू? वो क्यों मिलते हैं उस हरामी से? उसके दिल में भले पछतावा हो, पर बापू तो उसे कभी माफ न करेंगे।

अनुभवी – अरे, बापू ने तो उसे उसी दिन माफ कर दिया था, जिस दिन वे धरती से अपने स्वर्ग में आए थे। मैं उस समय नया-नया ही अपाइंट हुआ था।

नया – गजब आदमी है ये… मैं तो ना करुं, किसी भी कीमत पे..

अनुभवी – इसीलिए तो तू ये टुच्ची-सी नौकरी कर रहा है…

नया – अच्छा, ये गोडसे, बापू की डायरी में क्या लिख रहा था? मेरे तो कुछ पल्ले ना पड़ रहा।

अनुभवी – यही तो हर साल का नाटक है दोनों का। हर साल गोडसे 30 जनवरी को यहां आकर बापू की डायरी को अपडेट कर देता है। वह डायरी में लिखता है कि धरती पर बापू की अब तक कितनी बार हत्या हो चुकी है। गोडसे नरक के सॉफ्टवेयर से ये डेटा लेकर आता है।

नया – अच्छा, तो वो जो ग्रोथ बोल रहा था, उसका क्या मतलब?

अनुभवी – वही जो तुम समझ रहे हो। पिछले कुछ सालों के दौरान गांधी की हत्या सेक्टर में भारी बूम आया हुआ है।

नया – ओ हो, इसीलिए इन दिनों स्वर्ग में आमद थोड़ी कम है…

अनुभवी – अब चल यहां से, कुछ काम कर लेते हैं। वैसे भी यहां मंदी छाई हुई है। नौकरी बचाने के लिए काम का दिखावा तो करना पड़ेगा ना… हमारी तो कट गई। तू सोच लेना….


(Disclaimer : इसका मकसद गांधीजी को बस अपनी तरह से श्रद्धांजलि देना है, गोडसे का रत्तीभर भी महिमामंडन करना नहीं… )

#gandhi #godse 

रविवार, 26 जनवरी 2025

एआई: नए अध्याय का सूत्रपात या आखिरी गलती? (Book Review of 'Nexus' )


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By जयजीत अकलेचा

आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस (एआई) के गॉडफादर कहे जाने वाले जैफ्री ई. हिंटन को बीते साल अक्टूबर माह में जब भौतिकी के क्षेत्र का नोबेल पुरस्कार दिया जा रहा था, तब उनके शब्द थे- ‘हमें एआई के बुरे असर को लेकर भी चिंतित होना चाहिए।’ जिस वक्त हिंटन अपनी ये चिंता व्यक्त कर रहे थे, लगभग उसी समय युवाल नोआ हरारी अपनी सद्य प्रकाशित किताब ‘नेक्सस' के जरिए इसी चिंता को और विस्तार दे रहे थे।

‘सेपियन्स’ के बेस्टसेलिंग लेखक हरारी की यह किताब, जिसका हाल ही में हिंदी संस्करण आया है , पाषाण युग से लेकर आधुनिक काल तक के सूचना तंत्रों का एक संक्षिप्त इतिहास प्रस्तुत करती है। लेकिन इसका सबसे रोचक और रोमांचक हिस्सा (और बेशक डरावना भी) वह तीसरा खंड है, जो एआई और उससे जुड़ी राजनीति पर विमर्श करता है।

दुनिया में एक वर्ग एआई को लेकर जितना उत्साहित या बेफिक्र है, हरारी उतने ही चिंतित नजर आते हैं। वे इसे वैश्विक संकट की आहट मानते हैं। वे लिखते हैं, ‘जिस तरह से जलवायु परिवर्तन उन देशों को भी तबाह कर सकता है, जो पर्यावरण के नियमों का पालन करते हैं, क्योंकि यह राष्ट्रीय समस्या नहीं है। उसी तरह एआई भी एक वैश्विक समस्या है। ऐसे में कुछ देशों का यह सोचना महज उनकी मासूमियत से ज्यादा कुछ नहीं होगा कि वो अपनी सरहदों के भीतर एआई को समझदारी के साथ नियंत्रित कर सकते हैं।’ वे साफ तौर पर आगाह करते हैं कि हमने जिस कृत्रिम मेधा का निर्माण किया है, अगर उसे ठीक से बरतते नहीं हैं तो यह न केवल धरती से मानव वर्चस्व को, बल्कि स्वयं चेतना के प्रकाश को भी खत्म कर देगी।

एआई के प्रति हरारी का दृष्टिकोण अत्यंत निराशावादी लग सकता है (‘गार्डियन’ के शब्दों में कहें तो ‘अपोकैलिप्टिक’ यानी सर्वनाश का भविष्यसूचक)। लेकिन जिन शब्दों तथा तथ्यों की रोशनी में वे बात करते हैं, वह यथार्थपरक भी प्रतीत होता है। वे एक टर्म ‘डेटा उपनिवेशवाद' का प्रवर्तन भी करते हैं और घोषित करते हैं कि जो भी डेटा को नियंत्रित करेगा, दुनिया पर भी उसी का वर्चस्व होगा, बशर्ते यह दुनिया अपने मौजूदा अस्तित्व को बनाए व बचाए रखे। वे दुनिया के अस्तित्व को लेकर बार-बार चिंताएं जताते हैं और बहुत ही वाजिब सवाल पूछते हैं, ‘अगर हम इतने विवेकवान हैं तो फिर इतने आत्मविनाशकारी क्यों हैं?’

हालांकि निराशाओं के बीच भी वे किताब की अंतिम पंक्तियों में, मगर छिपी हुई चेतावनी के साथ, क्षणिक-सी आशा बिखेरते हुए लिखते हैं, 'आने वाले वर्षों में हम सभी जो भी निर्णय लेंगे, उससे ही यह तय होगा कि इस अजनबी बुद्धि (एआई) का आह्वान करना हमारी आखिरी गलती है या इससे जीवन के विकास में एक नए अध्याय का सूत्रपात होगा।’

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शुक्रवार, 3 जनवरी 2025

केवल अंग्रेजी नव वर्ष को ताना मारने से क्या होगा?

By Jayjeet

नए साल की शुभकामनाओं का सिलसिला अब तक जारी है। इस बार कतिपय शुभकामनाओं के आगे ‘अंग्रेजी' (नव वर्ष) जोड़कर यह संकेत दिए गए कि शुभकामनाएं तो ले लीजिए, लेकिन ज्यादा खुश मत होइए, क्योंकि ‘ये हमारा नव वर्ष नहीं है।’ और कुछ ने तो बाकायदा ‘हमारा नया साल तो चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से' तक के मैसेज प्रसारित किए। बीजेपी के तेज-तर्रार प्रवक्ता सुधांशु त्रिवेदी का बीजेपी मुख्यालय में इस तरह से नववर्ष की शुभकामनाएं देते हुए वह वीडियो भी खूब वायरल हुआ और किया गया कि ‘पोप ग्रेगरी 13वें द्वारा 1582 में करेक्टेड और अंग्रेजों द्वारा 1752 में अंगीकृत इस अंग्रेजी नववर्ष के प्रथम दिन की आप सभी को बधाई।'

ऐसे संदेशों और ऐसी भाषा के पीछे सांस्कृतिक उत्कर्ष की एक प्रबल आकांक्षा है, इससे इनकार नहीं। अपनी संस्कृति पर गर्व होना चाहिए और यह खूब बढ़े तथा निखरे, इसकी तमन्ना भी होनी चाहिए। लेकिन अंग्रेजी नव वर्ष को जिस तरह से एक धार्मिक संस्कृति से जोड़कर देखा गया और देखा जा रहा है, वह कितना उचित है, इस पर विचार करने की जरूरत है, ताकि इस कठिन आर्थिक दौर में देश किसी और राह पर ना निकल पड़े।

इस समय कथित राष्ट्रवादियों का एक तबका अंग्रेजी नव वर्ष को दबे-छिपे तौर पर धर्म विशेष से जोड़कर जरूर देख रहा है, लेकिन सच तो यह है कि इसका ज्यादा संबंध अर्थ से है, धर्म से नहीं। जिस दौर में ग्रेगेरियन कैलेंडर को सबसे पहले अपनाया गया, वह वो दौर था, जब ब्रिटेन की आर्थिक तरक्की व सियासी दबदबे का सूरज ऊपर चढ़ रहा था। 1600 से ब्रिटेन तरक्की की जिस राह पर आगे बढ़ा (बेशक इसमें ईस्ट इंडिया जैसी कंपनियों की औपनिवेशिक ब्लैक स्टोरीज भी शामिल हैं, मगर दबदबे का यह भी तो एक माध्यम था!), वह अठारवी सदी के उत्तरार्द्ध में वहां शुरू हुई पहली औद्योगिक क्रांति तक लगातार विस्तार पाती गई। यही वह समय था, जब दुनिया तेजी से ग्रेगेरियन कैलेंडर (अंग्रेजी कैलेंडर) को अपनाती गई।

कुछ ने बेहद ड्रैमेटिक अंदाज में अंग्रेजों को शुक्रिया अदा करते हुए कहा कि ‘अच्छा हुआ, आप पधार गए। नहीं तो भारत के घर-घर हिजरी कैलेंडर होते।’ यह भी कैलेंडर पर धार्मिकता का चोला पहनाने का ही एक क्रिएटिव तरीका था, जबकि तथ्य यह है कि आज ईरान और अफगानिस्तान को छोड़कर दुनिया के तमाम बड़े व महत्वपूर्ण मुस्लिम देशों में भी धार्मिक के अलावा अन्य सभी गतिविधियां अंग्रेजी कैलेंडर द्वारा ही संचालित होती हैं। इनमें मुस्लिम जगत के प्रभावी मुल्क सऊदी अरब, यूएई से लेकर दुनिया का सबसे बड़ा मुस्लिम बहुल राष्ट्र इंडोनेशिया भी शामिल है। वजह वही – आर्थिक, धार्मिक नहीं। अगर मुस्लिम देशों या कम्युनिटी का दुनिया में आर्थिक व सियासी दबदबा होता तो भारत तो क्या, ब्रिटेन में ही हिजरी संवत ही होता।

आज ब्रिटेन की वह आर्थिक हैसियत नहीं रही, लेकिन उसकी जगह अमेरिका ने ले ली है। वही अमेरिका जिसने भी 1752 में ब्रिटेन के साथ ही ग्रेगेरियन कैलेंडर को अपनाया था। आज उसका दबदबा है। वहां की एक सिलिकॉन वैली में मौजूद 6,500 कंपनियों में से केवल एक कंपनी एपल का ही बाजार मूल्य हाल ही में भारत की जीडीपी को पार कर गया है। आज अमेरिका भले ही कई मायनों में भ्रष्ट व पतित हो, लेकिन किसी के पास उसके आर्थिक राष्ट्रवाद का कोई तोड़ नहीं है।

सुधांशु जी जैसों से यह निवेदन तो बनता है कि वे हिंदुओं में सांस्कृतिक गर्व पैदा करने के साथ-साथ वैज्ञानिक व आर्थिक दृष्टिकोण भी पैदा करेंगे तो बेहतर रहेगा। वे लोगों को इनोवेशन, न्यू एज टेक्नोलॉजी में एक्सप्लोरेशन के लिए प्रेरित करें।और सबसे बड़ी बात, देश को भ्रष्ट सिस्टम से कैसे छुटकारा मिले, इसकी कोई राह अपनी सरकार को सुझाएं, क्योंकि इसके बगैर देश और संस्कृति का कल्याण नहीं हो सकता।

अगर हमने हमारे करप्ट सिस्टम को ठीक नहीं किया, न्यू एज इनोवेशन में काम नहीं किया, वैज्ञानिक दृष्टिकोण विकसित नहीं किया तो तय मानिए हमारी आने वाली अनेक पीड़ियों के घरों में भी बड़ी शान से अंग्रेजी कैलेंडर ही लटका मिलेगा; उन घरों में भी जो आज प्रेस कॉन्फ्रेंस करके ‘नव वर्ष’ को ताना मार रहे हैं।

# SudhanshuTrivedi #newyear #Gregorian_Calendar #JayjeetAklecha 

शनिवार, 21 दिसंबर 2024

कौन हैं आम्बेडकरद्रोही? आइए, बाबा साहब की छलनी आत्मा से पूछते हैं…!

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By Jayjeet Aklecha

डॉ. आम्बेडकर के मसले पर ‘नूरा कुश्ती’ के साथ आखिर सदन की कार्यवाही स्थगित हो गई। उम्मीद है देश ने राहत की सांस ली होगी!
देश के दो प्रमुख राजनीतिक 'सम्प्रदायों' के बीच सबसे बड़ी प्रतिस्पर्धा यही थी कि स्वयं को आम्बेडकर का भक्त ठहराकर दूसरे पक्ष को आम्बेडकरद्रोही साबित किया जा सके...
कौन कितना आम्बेडकर द्रोही है, यह जानने के लिए ये चंद पंक्तियां पढ़ते हैं। लोकसभा के पूर्व महासचिव और जाने-माने संविधान विशेषज्ञ सुभाष सी. कश्यप से आज से तीन साल पहले 6 दिसंबर 2021 को आम्बेडर की पुण्यतिथि पर ये शब्द कहे थे: "अगर आज डॉ. बीआर आम्बेडकर जीवित होते तो यह देखकर उनकी आत्मा छलनी हो जाती कि आज भी अनुसूचित जाति और जनजाति के लोगों को आरक्षण की जरूरत है।’
आज 75 साल के बाद एक सियासी सम्प्रदाय जो करीब 50 साल सत्ता में रहा, संविधान बचाने के नाम पर ‘आरक्षण’ का सबसे बड़ा पैरोकार होने का दावा कर रहा है, करता आ रहा है।
दूसरा सियासी सम्प्रदाय बार-बार इस बात की गारंटी देते नहीं थकता कि इस देश से आरक्षण कभी खत्म नहीं होगा ("मोदी की गारंटी है कि एससी, एसटी, ओबीसी का आरक्षण खत्म नहीं होगा।" - नरेंद्र मोदी,अप्रैल 2024, टोंक-सवाईमाधोपुर की रैली में)। यहां यह भी उल्लेखनीय है कि आम्बेडकर ने आरक्षण के प्रावधान को रखते हुए स्पष्ट कहा था कि इसका विस्तार SC/ST समुदायों से परे नहीं होना चाहिए।
सुभाष कश्यप की अपनी युवावस्था के दौरान संसद की लाइब्रेरी में आम्बेडकर के साथ कई बार मुलाकातें और उनके साथ आरक्षण को लेकर चर्चाएं भी हुई थीं। साल 2021 के भाषण में कश्यप ने ऑम्बेडकर के हवाले से कहा था- “डॉ. आम्बेडकर ने एससी और एसटी के लिए आरक्षण के संदर्भ में कहा था कि 10 साल का समय बहुत कम है और इसे 40 साल होना चाहिए। लेकिन उसके बाद संसद को कानून द्वारा आरक्षण को बढ़ाने का कोई अधिकार नहीं होना चाहिए। वे स्थायी रूप से आरक्षण के खिलाफ थे।” ऑम्बेडकर ने यह भी कहा था, “मैं नहीं चाहता कि वह प्रतीक भारतीय समाज में हमेशा के लिए बना रहे।” (द हिंदू, 6 दिसंबर 2021)
मेरा एक ही सवाल है : जो भी सियासी सम्प्रदाय एक-दूसरे पर आम्बेडकर के अपमान के लिए अंगुली उठा रहा है, वह बची हुई तीन उंगलियां भी देख लें। वे उनके स्वयं के गिरेबान की ओर आ रही हैं... 40 साल के बाद भी आरक्षण जारी है। क्यों जारी है? आम्बेडकर का अनुचर साबित करने से पहले उनकी आत्मा को इसका जवाब भी तो दे दीजिए!!
पर बड़ा सवाल यह भी है : पिछले लोकसभा चुनाव में जिन 66 करोड़ लोगों ने जिस भी सियासी सम्प्रदाय को वोट दिए, वे धर्म और जाति से परे हटकर उनसे महंगाई, बेरोजगारी, शिक्षा, स्वास्थ्य, पर्यावरण, इनोवेशन की कमी जैसे मसलों पर सवाल पूछना कब शुरू करेंगे? सवाल केवल आरक्षण के हटाने या ना हटाने का नहीं है। सवाल यह है कि जिस आरक्षण की भूमिका देश के कुल वर्क फोर्स में डेढ़ फीसदी भी नहीं है, उसके नाम पर हम कब तक मूर्ख बनते और बनाए जाते रहेंगे?

(Jayjeet Aklecha, जयजीत अकलेचा, Dr. BR Ambedkar)

शुक्रवार, 20 दिसंबर 2024

इलॉन मस्क - भविष्य के वास्तुकार : एक लीजेंड की ज़िंदगी का एनालिसिस


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 * विश्वदीप नाग

अपनी उद्यमशीलता से जुड़े कीर्तिमानों और विवादास्पद बयानों के लिए अक्सर चर्चा में रहने वाले इलॉन मस्क दुनिया की सबसे चर्चित हस्तियों में गिने जाते हैं। उनके विराट और रहस्यमय व्यक्तित्व और उनकी जीवन यात्रा को समझना आसान नहीं है। टेस्ला और स्पेसएक्स जैसी अरबों डॉलर की कंपनियों के शिल्पकार के रूप में वे दुनिया के सबसे अमीर व्यक्ति बन गए हैं। 2022 में, उन्होंने ट्विटर को ख़रीदने की बोली के साथ दुनियाभर में सुर्खियाँ बटोरी थीं। दक्षिण अफ़्रीका की अपनी जड़ों से आगे जाकर मस्क ने अपने लिए काफ़ी नाम कमाया है।

दक्षिण अफ़्रीकी पत्रकार और लेखक माइकल व्लिसमस ने  'इलॉन मस्क: रिस्किंग इट ऑल' में कामयाबी की जीवंत किंवदंती बन चुके इस व्यक्तित्व की सच्ची कहानी का सिलसिलेवार वर्णन प्रस्तुत किया है। मंजुल पब्लिशिंग हाउस ने 'इलॉन मस्क : भविष्य के वास्तुकार'  शीर्षक से इसका हिंदी अनुवाद प्रकाशित किया है।  गहन शोध के बाद लिखी गई यह आकर्षक किताब कई मिथकों को दूर करती है तथा मस्क के पिता से जुड़े विवाद के अन्य पक्षों को भी प्रस्तुत करती है।  
 
व्लिसमस अन्य जीवनीकारों से अलग
व्लिसमस उन अन्य जीवनीकारों से अलग हैं, जिन्होंने मस्क के पीछे छिपे विशाल व्यक्तित्व को समझने की कोशिश की है। व्लिसमस के बारे में ख़ास बात यह है कि मस्क और उन्होंने प्रिटोरिया में एक ही स्कूल में पढ़ाई की है। लिहाज़ा, व्लिसमस उस माहौल को अच्छी तरह से जानते हैं, जिसने मस्क की जीवन यात्रा और कामयाबी  को आकार दिया।

 यह जीवनी इसलिए इतनी समृद्ध है, क्योंकि इसमें  मस्क को व्यक्तिगत रूप से जानने वाले और दक्षिण अफ़्रीका में उनके प्रारंभिक वर्षों का हिस्सा रहे लोगों के प्रत्यक्ष अनुभवों को समाविष्ट किया गया है, जो इस सवाल का जवाब देने की कोशिश करती है:  मस्क वास्तव में हैं कौन?

दुर्लभ जानकारी
व्लिसमस ने अपने अनुभवों को मस्क के बचपन के दोस्तों, शिक्षकों और परिचितों के अनुभवों के साथ मिलाकर 1980 के दशक में दक्षिण अफ़्रीकी शिक्षा प्रणाली की तस्वीर पेश की है। यह एक ऐसी दुनिया थी, जिसमें समझौता न करने वाला अनुशासन, सामाजिक विभाजन, नस्लीय तनाव और हिंसक उत्पात शामिल थे।

यह जीवनी मस्क के बचपन के दिनों की खोज है, जैसा कि वास्तव में वहाँ मौजूद लोगों ने बताया।  व्लिसमस पाठकों को मस्क के शुरुआती वर्षों के बारे में दुर्लभ जानकारी प्रदान करते हैं, इससे पहले कि युवा मस्क आज के उद्योग जगत के विवादास्पद बादशाह  बन गए, जिसके लिए उन्होंने सब कुछ जोखिम में डाल दिया और अपनी तक़दीर ख़ुद लिख दी।

जीवनी यह पड़ताल करती है कि मंगल ग्रह पर बसने की भव्य योजनाओं की बात करने वाले इस नवाचारी धन्नासेठ की दृष्टि के केंद्र में क्या है? वे जोखिम से इतना बेखौफ़ क्यों हैं? अजीबोगरीब प्रिटोरिया स्कूली लड़के के रूप में  कॉमिक्स और विज्ञान कथाएँ पसंद थीं, लेकिन उनके शुरुआती साल और पारिवारिक पृष्ठभूमि उनकी शानदार महत्वाकांक्षाओं को आकार देने में किस प्रकार महत्वपूर्ण थे ? मस्क के विकास बारे में लेखक नई अंतर्दृष्टि प्रदान करते हैं, जिसमें पिता के साथ उनके परेशान रिश्ते भी शामिल हैं।

विलक्षण हस्ती का बख़ूबी चित्रण
यह कृति मस्क के दक्षिण अफ़्रीकी बचपन से लेकर 17 साल की उम्र में कैनेडा और फिर अमेरिका जाने तक, उनके उल्लेखनीय जीवन का पता लगाते हुए एक ऐसे व्यक्ति की कहानी है,  जो मानवता में आशावाद को बनाए रखने और ‘सितारों के बीच’ मनुष्यों के लिए भविष्य खोजने की दिशा में प्रेरित है। इसमें उनकी व्यावसायिक उपलब्धियों के साथ-साथ, उनके निजी जीवन के भी अनेक क़िस्से हैं, चाहे वह मॉडल और गायकों के साथ उनके संबंध हों, या बच्चों के दिलचस्प नाम। मस्क बहुत ही विलक्षण व्यक्ति हैं, यह जीवनी इसे बख़ूबी चित्रित करती है।

शानदार अनुवाद
अँग्रेज़ी में लिखी गई मूल कृति के हिंदी संस्करण की ख़ासियत इसका शानदार अनुवाद है, जो वरिष्ठ पत्रकार जयजीत अकलेचा ने किया है। वे शाब्दिक अनुवाद से बचे हैं और उन्होंने इसकी सुबोधगम्यता को क़ायम रखा  है। इसकी वजह से जीवनी का हिंदी अनुवाद बेहद पठनीय हो गया है।    

( समीक्षक वरिष्ठ पत्रकार हैं , संपर्क  - 62607 74189)


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रविवार, 24 नवंबर 2024

ब्राजील की Bolsa Família योजना : हर ‘रेवड़ी’ खराब नहीं होती, बशर्ते…

 

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By Jayjeet Aklecha

पहले मप्र और अब महाराष्ट्र तथा झारखंड के चुनाव नतीजों से साफ हो गया है कि महिलाओं को नकद भुगतान जैसी योजनाएं (जिन्हें हम प्यार से ‘रेवड़ियां’ भी कहते हैं) पॉलिटिकली गेम चेंजर साबित हो रही हैं। अब जिन-जिन राज्यों में ऐसे चुनाव होंगे, वहां इस तरह की योजनाएं आनी तय हैं।
कई लोग इन योजनाओं को ‘अच्छी राजनीति' मगर ‘खराब अर्थनीति' भी कहते हैं। दरअसल, इन योजनाओं का राजनीति से प्रेरित होना ही इसका सबसे खराब पहलू है, अन्यथा ये कैश ट्रांसफर स्कीम्स पॉलिटिकली ही नहीं, सामाजिक, शैक्षणिक और आर्थिक रूप से भी गेम चेंजर हो सकती हैं।
माझी लाडकी बहीण, मईया (और साथ ही मप्र की लाड़ली बहना) योजनाओं की पृष्ठभूमि में ब्राजील की उस योजना की चर्चा करना लाजिमी है, जिसने इस विकासशील देश की सोशल-इकोनॉमिक तस्वीर को बदलने में अहम भूमिका निभाई है। यह योजना बताती है कि भले ही स्कीम में नकद पैसा दिया जा रहा हो, लेकिन अगर उसे लागू करने वाले लीडर्स की नीयत अच्छी है, नजरिया व्यापक है और मकसद (कमोबेश) पवित्र है तो इन पर खर्च किया गया पैसा व्यर्थ नहीं जाता है। दुर्भाग्य से, हमारे यहां के लीडर्स की नीयत में इतनी खोट है कि सैद्धांतिक तौर पर बेहतर नजर आने वाली योजनाएं भी अपने मकसद में कामयाब नहीं हो पातीं।
बोल्सा फैमीलिया (Bolsa Família) योजना ब्राजील की ऐसी ही एक योजना है, जो पिछले करीब 20 साल से चल रही है। इस पर विश्व बैंक, इंटरनेशनल लेबर ऑर्गनाइजेशन, आईएमएफ जैसे तमाम कुख्यात-विख्यात संगठनों ने स्टडीज की हैं और तारीफ भी। और अब तो वित्तीय मदद भी दे रहे हैं। बातें कुछ पाइंट्स में ताकि समझने में आसानी हो...
- इस योजना को अक्टूबर 2003 में ब्राजील के तत्कालीन राष्ट्रपति लुइज लूला दा सिल्वा ने शुरू किया था। इसमें एक सीमा से कम आय अर्जित करने वाले परिवारों को नकद सहायता दी जाती है, जो उस परिवार की महिला प्रमुख के खाते में जाती है, बिल्कुल हमारे यहां की योजनाओं की तरह।
- मगर एक अंतर है। वहां इसे एजुकेशन और टीकाकरण से जोड़ा गया है। सहायता उसी परिवार को दी जाती है, जिस परिवार के बच्चों की स्कूल में उपस्थिति कम से कम 85 फीसदी हो। साथ ही टीकाकरण भी अनिवार्य है (ये शुरुआती शर्तें थीं। अब समय के साथ कुछ बदलाव हुए हैं।)
- इस पर खर्च कितना होता है? 2023 में इसका बजट 29 अरब डॉलर यानी भारतीय मुद्रा में हर साल 2,450 अरब रुपए था। टैक्स भरने का दम भरने वाले कई लोगों की सांसें तो यह आंकड़ा सुनकर ही फूल जाएंगी।
- इसमें प्रति परिवार प्रति माह 35 डॉलर (करीब 3,000 रुपए भारतीय मुद्रा में ) दिए जाते हैं। इसका फायदा 1.3 करोड़ परिवारों (लगभग 5 करोड़ लोगों) को हुआ।
- तो इससे क्या बदला? सबसे महत्वपूर्ण यही जानना है। इसको लेकर विश्व बैंक ने एक विस्तृत स्टडी की थी। ऐसी योजनाओं पर होने वाले खर्च को लेकर चिंता जताने वालों के लिए एक महत्वपूर्ण आंकड़ा है : खर्च किए गए प्रत्येक एक डॉलर पर स्थानीय अर्थव्यवस्था में 1.78 डॉलर जनरेट हुए। इसके अलावा सामाजिक पहलू : 3.6 करोड़ लोग गरीबी की रेखा से बाहर आए। बच्चों की स्कूल में उपस्थिति 8% बढ़ी, जिससे बाल श्रम में कमी आई और बाल मृत्यु दर में 20% की गिरावट हुई।
तो सबक क्या हैं? पहला, हमारे लीडर्स को हर स्कीम को केवल राजनीतिक चश्मे से देखने की आदत छोड़नी होगी। दूसरा, कैश ट्रांसफर वाली हर स्कीम खराब ही होती हो, ऐसा बिल्कुल नहीं है, बशर्ते उसे सुविचारित व सुव्यवस्थित ढंग से लागू किया जाए, वोट के अलावा भी उसका कोई मकसद हो। बेशक, ऐसी योजनाओं का ऊपरी तौर पर राज्य के खजाने पर असर दिखता है, मगर दूसरे अनेक प्रभाव उसे संतुलित कर देते हैं।
और फाइनली, इसका परोक्ष फायदा उन्हें भी होता है, जो कथित तौर पर ‘हमारे टैक्स के पैसे' का रोना-धोना करने से थकते नहीं हैं। उन्हें यह भी पता होना चाहिए कि उनके टैक्स की बड़ी धनराशि तो करप्शन की भेंट चढ़ जाती है, जिस पर शायद ही कभी आंसू बहाए जाते हों।

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