जयजीत अकलेचा
छह अंधे बहुत दिनों से बेकार बैठे हुए थे। एक दिन उन्हें पता चला कि लोकतंत्र के जंगल में सत्ता का हाथी भटक रहा है। पहले वे एक हाथी को छूकर ज्ञानी हो चुके थे। उन्होंने सोचा, चलो इस बार सत्ता के इस हाथी का परीक्षण करते हैं। सभी उसके पास पहुंचे। पहले अंधे ने हाथी के पेट को हाथ लगाया तो वह बोला- अरे यह तो दीवार है। यानी सत्ता दीवार होती है। बाकी अंधे बोले, एक्सप्लेन इट। पहला अंधा- ‘दीवार और सत्ता का निकट संबंध है। पहले वोटों के लिए जाति, धर्म, संप्रदाय की दीवारें खड़ी कर दो और फिर कुर्सी के लिए विचारधारा की दीवारों को गिरा दो। देखना, एक-दो दिन में यही होने वाला है।‘अब दूसरा अंधा हाथी के मुंह की तरफ बढ़ा। उसने सूंड को हाथ लगाया तो बोल उठा- ‘यह दीवार नहीं, सर्प है, घातक जहरीला सांप।’ उसने टीवी पर किसी के मुंह से सुन रखा था कि सत्ता जहर के समान होती है। तो उसने अपना फैसला सुना दिया कि सत्ता या तो सांपनाथ होती होगी या नागनाथ। वैसे भी पिछले डेढ़-दो महीनों के दौरान लोकतंत्र के जंगल में इतना विष वमन हो चुका था कि उसे यह फैसला करने में देर नहीं लगी।
तीसरा अंधा हाथी की पूंछ के पास पहुंचा। उसे छूकर बोला, ‘सत्ता रस्सी होती है, रस्सी। इसके सहारे खुद उपर चढ़ते जाओ। फिर अपने सगे-संबंधियों को भी चढ़ा लो। सुना है कि कोई जीजाश्री सत्ता की ऐसी ही रस्सी के सहारे काफी उपर पहुंच गए हैं।’
अब चैथे की बारी थी। उसने हाथी के पैर को छूआ तो ऐसा उत्साह से भर गया मानो सत्ता का रहस्य उसी ने ढूंढ़ लिया हो। चिल्लाकर बोला, ‘सत्ता और कुछ नहीं, पेड़ का तना है। आंधी चल रही हो तो इससे चिपक जाओ। उड़ोगो नहीं और फिर लता की तरह उस पर रेंगते रहो। देखना, ऐसी ही कई लताएं फलती-फूलती नजर आएंगी।’
पांचवें अंधे ने हाथी के कानों को छूआ तो बोला, ‘ तुम सब गलत हो। सत्ता तो सूपड़ा है। सूपड़े का तो नेचर ही होता है कि जो काम के नहीं हैं, हल्के हैं, उन्हें झटक दो। भारी वहीं बने रहते हैं। पिछले 60 साल से सत्ता का यह हाथी ऐसे ही काम करते आया है।’
छठे ने सोचा, बहुत बकवास हो गई। मैं देखता हूं। वह हाथी के दांतों के पास पहुंचा और उन्हें छूकर बोलो, ‘अरे मूर्खो, सत्ता तो तलवार है, दोधारी तलवार। सही इस्तेमाल करोगे तो यह आपकी जीत का मार्ग प्रषस्त करेगी, लेकिन जरा-सी लापरवाही आपको ही काट देगी। सुना है कोई नया आदमी अब तलवार घुमाने आने वाला है।’
तो छह अंधे, छह बातें। यानी कन्फ्यूजन ही कन्फ्यूजन। इतने में पास से एक समझदार किस्म का बंदा गुजरा। षायद वह कोई विष्लेषक था और पिछले डेढ़ महीने से टीवी पर आ-आकर और भी समझदार बन गया था। अब अंधों ने उसे ही फैसला करने को कहा। उसने कहा- ‘तुम सब सही हो। सत्ता का हाथी ऐसा ही होता है। अच्छी बात यह है कि तुम लोगों ने अंधे होकर भी सत्ता के इस हाथी को पहचान लिया, जबकि अनेक आंखवाले देखकर भी अंधे बने रहते हैं। इसीलिए सत्ता का यह हाथी अपनी चाल चलता रहता है।’
कार्टून: गौतम चक्रवर्ती
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