(Recently, EU has banned the import of Alphonso Mangoes.)
तोतापरी: अब अकल ठिकाने आई होगी बच्चू की। बड़ा होषियार बनता था। सीधे मुंह बात ही नहीं करता था।
बादामी: तू किसकी बात कर रही है? अल्फांसो की?
तोतापरी: और किसकी? कितना एटीट्यूड था उसमें! बड़ी-बड़ी गाड़ियां, बंगले... बड़े लोगों के दम पर कितना उछलता था।
बादामी: अब यह तो उसकी किस्मत है। कौन कहां पैदा होता है, इसमें क्या किसी का बस चलता है! असली राजा तो वही है। चांदी का चम्मच लेकर पैदा होता है। हम तो उसके दरबारी। इस गलतफहमी में गरीब इंसान हमें भी राजा मान लेते हैं।
तोतापरी: ईयू के बैन के बाद दो दिन में ही भाव जमीन पर आ गए।
बादामी: लेकिन अब भी 200 से कम नहीं होंगे। आम आदमी की औकात नहीं कि उसे हाथ भी लगा ले। मैं अब भी कह रहा हू, अल्फांसो इस द किंग।
‘अरे भाई, हम आमों के बीच यह आम आदमी कौन है? उसे अपने बीच क्यों ले आते हो यार। उसे चुनावों में ही रहने दो, वहीं उसकी इज्जत है।’ यह लंगड़ा था। बैसाखियां साइड में रखकर वह एक कुर्सी पर बैठ गया।
बादामी: सही समय पर आए लंगड़ा भाई। अब आप ही समझाओ तोतापरी को।
सफेदा (बीच में टपकते हुए): वैसे इस साल तो हम भी बड़े घरों में ही जा रहे हैं तोतापरी! परेषान क्यों हो रही हो!
बादामी: सफेदा, यह दिल्लगी हर जगह ठीक नहीं। हम गंभीर मुद्दों पर बात कर रहे हैं।
लंगड़ा: देखा जाए तो ईयू का प्रतिबंध है तो सही। क्यों हम पर कीटनाषक छिड़क रहे हो, क्यों हमें केमिकल में पका रहे हो? क्या हमारे बच्चों को नेचुरली आगे बढ़ने का हक नहीं है? हो सकता है कि ईयू के इस कदम से हमारी सरकार को कुछ अकल आए।
तोतापरी: पर इससे होगा क्या? हो सकता है कि अल्फांसो को सरकार ठील दे दे, लेकिन हमारा कुछ नहीं होने वाला। हम तो पब्लिक आम है। हमें तो उसी केमिकल में मरना और जीना है।
इतने में एक दद्दा का प्रवेष। मुरझाई-सी काया। षरीर में मानो कोई रस ही नहीं।
‘आओ देसी दादा, विराजो’ बादामी ने उन्हें कुर्सी दी।
‘वह भी क्या जमाना था, जब अमीर से लेकर गरीब तक सब हमें समान भाव से खाते थे। सबकी पहुंच में थे हम। न कीट का लफड़ा न केमिकम का झंझट। लेकिन इंसानों ने मुझे तो साइड में पटक दिया और आमों की नई जनरेषन को भी केमिकल खिला-खिलाकर बर्बाद किए जा रहे हैं।’ देसी दादा पुरानी यादों में खो गए। सभी आम भी यह सोचकर जल्दी ही वहां से खिसक लिए कि दादा के पुराने किस्से षुरू हो गए तो सब बैठे-बैठे यही सड़ जाएंगे। आम बहस अधूरी ही रह गई।
कार्टून: गौतम चक्रवर्ती
जयजीत अकलेचा/Jayjeet Aklecha
तोतापरी: अब अकल ठिकाने आई होगी बच्चू की। बड़ा होषियार बनता था। सीधे मुंह बात ही नहीं करता था।
बादामी: तू किसकी बात कर रही है? अल्फांसो की?
तोतापरी: और किसकी? कितना एटीट्यूड था उसमें! बड़ी-बड़ी गाड़ियां, बंगले... बड़े लोगों के दम पर कितना उछलता था।
बादामी: अब यह तो उसकी किस्मत है। कौन कहां पैदा होता है, इसमें क्या किसी का बस चलता है! असली राजा तो वही है। चांदी का चम्मच लेकर पैदा होता है। हम तो उसके दरबारी। इस गलतफहमी में गरीब इंसान हमें भी राजा मान लेते हैं।
तोतापरी: ईयू के बैन के बाद दो दिन में ही भाव जमीन पर आ गए।
बादामी: लेकिन अब भी 200 से कम नहीं होंगे। आम आदमी की औकात नहीं कि उसे हाथ भी लगा ले। मैं अब भी कह रहा हू, अल्फांसो इस द किंग।
‘अरे भाई, हम आमों के बीच यह आम आदमी कौन है? उसे अपने बीच क्यों ले आते हो यार। उसे चुनावों में ही रहने दो, वहीं उसकी इज्जत है।’ यह लंगड़ा था। बैसाखियां साइड में रखकर वह एक कुर्सी पर बैठ गया।
बादामी: सही समय पर आए लंगड़ा भाई। अब आप ही समझाओ तोतापरी को।
सफेदा (बीच में टपकते हुए): वैसे इस साल तो हम भी बड़े घरों में ही जा रहे हैं तोतापरी! परेषान क्यों हो रही हो!
बादामी: सफेदा, यह दिल्लगी हर जगह ठीक नहीं। हम गंभीर मुद्दों पर बात कर रहे हैं।
लंगड़ा: देखा जाए तो ईयू का प्रतिबंध है तो सही। क्यों हम पर कीटनाषक छिड़क रहे हो, क्यों हमें केमिकल में पका रहे हो? क्या हमारे बच्चों को नेचुरली आगे बढ़ने का हक नहीं है? हो सकता है कि ईयू के इस कदम से हमारी सरकार को कुछ अकल आए।
तोतापरी: पर इससे होगा क्या? हो सकता है कि अल्फांसो को सरकार ठील दे दे, लेकिन हमारा कुछ नहीं होने वाला। हम तो पब्लिक आम है। हमें तो उसी केमिकल में मरना और जीना है।
इतने में एक दद्दा का प्रवेष। मुरझाई-सी काया। षरीर में मानो कोई रस ही नहीं।
‘आओ देसी दादा, विराजो’ बादामी ने उन्हें कुर्सी दी।
‘वह भी क्या जमाना था, जब अमीर से लेकर गरीब तक सब हमें समान भाव से खाते थे। सबकी पहुंच में थे हम। न कीट का लफड़ा न केमिकम का झंझट। लेकिन इंसानों ने मुझे तो साइड में पटक दिया और आमों की नई जनरेषन को भी केमिकल खिला-खिलाकर बर्बाद किए जा रहे हैं।’ देसी दादा पुरानी यादों में खो गए। सभी आम भी यह सोचकर जल्दी ही वहां से खिसक लिए कि दादा के पुराने किस्से षुरू हो गए तो सब बैठे-बैठे यही सड़ जाएंगे। आम बहस अधूरी ही रह गई।
कार्टून: गौतम चक्रवर्ती
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें
Thanks for your comment