शनिवार, 21 जून 2014

शरद जोशी का व्यंग्य - रेल यात्रा

शरद जोशी/ Sharad Joshi

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रेल विभाग के मंत्री कहते हैं कि भारतीय रेलें तेजी से प्रगति कर रही हैं। ठीक कहते हैं। रेलें हमेशा प्रगति करती हैं। वे बम्‍बई से प्रगति करती हुई दिल्‍ली तक चली जाती हैं और वहाँ से प्रगति करती हुई बम्‍बई तक आ जाती हैं। अब यह दूसरी बात है कि वे बीच में कहीं भी रुक जाती हैं और लेट पहुँचती हैं। आप रेल की प्रगति देखना चाहते हैं तो किसी डिब्‍बे में घुस जाइए। बिना गहराई में घुसे आप सच्‍चाई को महसूस नहीं कर सकते।
जब रेलें नहीं चली थीं, यात्राएँ कितनी कष्‍टप्रद थीं। आज रेलें चल रही हैं, यात्राएँ फिर भी इतनी कष्‍टप्रद हैं। यह कितनी खुशी की बात है कि प्रगति के कारण हमने अपना इतिहास नहीं छोड़ा। दुर्दशा तब भी थी, दुर्दशा आज भी है। ये रेलें, ये हवाई जहाज, यह सब विदेशी हैं। ये न हमारा चरित्र बदल सकती हैं और न भाग्‍य।
भारतीय रेलें चिन्‍तन के विकास में बड़ा योग देती हैं। प्राचीन मनीषियों ने कहा है कि जीवन की अंतिम यात्रा में मनुष्‍य ख़ाली हाथ रहता है। क्‍यों भैया? पृथ्‍वी से स्‍वर्ग तक या नरक तक भी रेलें चलती हैं। जानेवालों की भीड़ बहुत ज्‍़यादा है। भारतीय रेलें भी हमें यही सिखाती हैं। सामान रख दोगे तो बैठोगे कहाँ? बैठ जाओगे तो सामान कहाँ रखोगे? दोनों कर दोगे तो दूसरा कहाँ बैठेगा? वो बैठ गया तो तुम कहाँ खड़े रहोगे? खड़े हो गये तो सामान कहाँ रहेगा? इसलिए असली यात्री वो जो हो खाली हाथ। टिकिट का वज़न उठाना भी जिसे कुबूल नहीं। प्राचीन ऋषि-मुनियों ने ये स्थिति मरने के बाद बतायी है। भारतीय रेलें चाहती हैं वह जीते-जी आ जाए। चरम स्थिति, परम हल्‍की अवस्‍था, ख़ाली हाथ्‍ा, बिना बिस्‍तर, मिल जा बेटा अनन्‍त में! सारी रेलों को अन्‍तत: ऊपर जाना है।
टिकिट क्‍या है? देह धरे को दण्‍ड है। बम्‍बई की लोकल ट्रेन में, भीड़ से दबे, कोने में सिमटे यात्री को जब अपनी देह तक भारी लगने लगती है, वह सोचता है कि यह शरीर न होता, केवल आत्‍मा होती तो कितने सुख से यात्रा करती। 

 रेल-यात्रा करते हुए अक्‍़सर विचारों में डूब जाते हैं। विचारों के अतिरिक्‍त वहाँ कुछ डूबने को होता भी नहीं। रेल कहीं भी खड़ी हो जाती है। खड़ी है तो बस खड़ी है। जैसे कोई औरत पिया के इंतज़ार में खड़ी हो। उधर प्‍लेटफ़ॉर्म पर यात्री खड़े इसका इंतज़ार कर रहे हैं। यह जंगल में खड़ी पता नहीं किसका इंतजार कर रही है। खिड़की से चेहरा टिकाये हम सोचते रहते हैं। पास बैठा यात्री पूछता है - "कहिए साहब, आपका क्‍या ख़याल है इस कण्‍ट्री का कोई फयूचर है कि नहीं?"
"पता नहीं।" आप कहते हैं, "अभी तो ये सोचिए कि इस ट्रेन का कोई फयूचर है कि नहीं?"
फिर एकाएक रेल को मूड आता है और वह चल पड़ती है। आप हिलते-डुलते, किसी सुंदर स्‍त्री का चेहरा देखते चल पड़ते हैं। फिर किसी स्‍टेशन पर वह सुंदर स्‍त्री भी उतर जाती है। एकाएक लगता है सारी रेल ख़ाली हो गयी। मन करता है हम भी उतर जाएँ। पर भारतीय रेलों में आदमी अपने टिकिट से मजबूर होता है। जिसका जहाँ का टिकिट होगा वह वहीं तो उतरेगा। उस सुन्‍दर स्‍त्री का यहाँ का टिकिट था, वह यहाँ उतर गयी। हमारा आगे का टिकिट है, हम वहाँ उतरेंगे।
भारतीय रेलें कहीं-न-कहीं हमारे मन को छूती हैं। वह मनुष्‍य को मनुष्‍य के क़रीब लाती हैं। एक ऊँघता हुआ यात्री दूसरे ऊँघते हुए यात्री के कन्‍धे पर टिकने लगता है। बताइए ऐसी निकटता भारतीय रेलों के अतिरिक्‍त कहाँ देखने को मिलेगी? आधी रात को ऊपर की बर्थ पर लेटा यात्री नीचे की बर्थ पर लेटे इस यात्री से पूछता है - यह कौन-सा स्‍टेशन है? तबीयत होती है कहूँ - अबे चुपचाप सो, क्‍यों डिस्‍टर्ब करता है? मगर नहीं, वह भारतीय रेल का यात्री है और भारतभूमि पर यात्रा कर रहा है। वह जानना चाहता है कि इस समय एक भारतीय रेल ने कहाँ तक प्रगति कर ली है?
आधी रात के घुप्‍प अँधेरे में मैं भारतभूमि को पहचानने का प्रयत्‍न करता हूँ। पता नहीं किस अनजाने स्‍टेशन के अनचाहे सिग्‍नल पर भाग्‍य की रेल रुकी खड़ी है। ऊपर की बर्थवाला अपने प्रश्‍न को दोहराता है। मैं अपनी ख़ामोशी को दोहराता हूँ। भारतीय रेलें हमें सहिष्‍णु बनाती हैं। उत्तेजना के क्षणों में शांत रहना सिखाती हैं। मनुष्‍य की यही प्रगति है।
Short version of रेल यात्रा 


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शरद जोशी का व्यंग्य - जिसके हम मामा हैं


शरद जोशी/ Sharad Joshi


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एक सज्जन बनारस पहुँचे। स्टेशन पर उतरे ही थे कि एक लड़का दौड़ता आया।
'मामाजी! मामाजी!' - लड़के ने लपक कर चरण छूए।
वे पहचाने नहीं। बोले - 'तुम कौन?'
'मैं मुन्ना। आप पहचाने नहीं मुझे?'
'मुन्ना?' वे सोचने लगे।
'हाँ, मुन्ना। भूल गए आप मामाजी! खैर, कोई बात नहीं, इतने साल भी तो हो गए।'
'तुम यहाँ कैसे?'
'मैं आजकल यहीं हूँ।'
'अच्छा।'
'हाँ।'
मामाजी अपने भानजे के साथ बनारस घूमने लगे। चलो, कोई साथ तो मिला। कभी इस मंदिर, कभी उस मंदिर।
फिर पहुँचे गंगाघाट। सोचा, नहा लें।
'मुन्ना, नहा लें?'
'जरूर नहाइए मामाजी! बनारस आए हैं और नहाएँगे नहीं, यह कैसे हो सकता है?'
मामाजी ने गंगा में डुबकी लगाई। हर-हर गंगे।
बाहर निकले तो सामान गायब, कपड़े गायब! लड़का... मुन्ना भी गायब!
'मुन्ना... ए मुन्ना!'
मगर मुन्ना वहाँ हो तो मिले। वे तौलिया लपेट कर खड़े हैं।
'क्यों भाई साहब, आपने मुन्ना को देखा है?'
'कौन मुन्ना?'
'वही जिसके हम मामा हैं।'
'मैं समझा नहीं।'
'अरे, हम जिसके मामा हैं वो मुन्ना।'
वे तौलिया लपेटे यहाँ से वहाँ दौड़ते रहे। मुन्ना नहीं मिला।
भारतीय नागरिक और भारतीय वोटर के नाते हमारी यही स्थिति है मित्रो! चुनाव के मौसम में कोई आता है और हमारे चरणों में गिर जाता है। मुझे नहीं पहचाना मैं चुनाव का उम्मीदवार। होनेवाला एम.पी.। मुझे नहीं पहचाना? आप प्रजातंत्र की गंगा में डुबकी लगाते हैं। बाहर निकलने पर आप देखते हैं कि वह शख्स जो कल आपके चरण छूता था, आपका वोट लेकर गायब हो गया। वोटों की पूरी पेटी लेकर भाग गया।
समस्याओं के घाट पर हम तौलिया लपेटे खड़े हैं। सबसे पूछ रहे हैं - क्यों साहब, वह कहीं आपको नजर आया? अरे वही, जिसके हम वोटर हैं। वही, जिसके हम मामा हैं।
पाँच साल इसी तरह तौलिया लपेटे, घाट पर खड़े बीत जाते हैं।


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मप्र के व्यापमं घोटाले के आरोपी स्टूडेंट‌्स को ग्वांटेनामो जेल भेजने की तैयारी

हाई-प्रोफाइल आरोपियों को गेस्ट हाउस में शिफ्ट किया जाएगा, ताकि वहां उनसे सौहार्द्रपूर्ण माहौल में गपशप हो सके


जयजीत अकलेचा/ Jayjeet Aklecha
ग्वांटेनामो जेल : यहां भेजे जाएंगे स्टूडेंट्स और उनके पैरेंट‌स।

भोपाल। मप्र में व्यापमं घोटाले की जांच में लगी स्पेशल टास्क फोर्स (एसटीएफ) परीक्षाओं में गड़बड़ी के आरोपी छात्र-छात्राओं और उनके अभिभावकों को दुनिया की ‘ख्यातनाम’ जेलों में से एक ग्वांटेनामो जेल में ले जाकर पूछताछ करने पर विचार कर रही है। एसटीएफ का मानना है कि इस जेल में अच्छे-अच्छे दुर्दांत आतंकियों ने भी अपना जुर्म कबूल कर लिया। ऐसे में इन स्टूडेंट्स और उनके पैरेेंट‌्स से भी जुर्म कबुलवाने में उसे कोई दिक्कत नहीं होगी और वह मानवाधिकार आयोग की नजरों से भी बची रहेगी। इस बीच, इस मामले में गिरफ्त में अाए हाई-प्रोफाइल आरोपियों को गेस्ट हाउस में शिफ्ट करने की तैयारी है, ताकि वहां सौहार्द्रपूर्ण माहौल में उनके साथ गपशप हो सके।
सूत्रों के अनुसार मप्र हाईकोर्ट की कड़ी फटकार के बाद एसटीएफ काफी दबाव में है। इसलिए उसने आनन-फानन में कई स्टूडेंट्स और उनके अभिभावकों को गिरफ्तार तो कर लिया, लेकिन अब इसके वरिष्ठ अधिकारी चाहते हैं कि अगली फटकार पड़ने से पहले ही वह कोई चमत्कार कर दिखाए। इसी फेर में एसटीएफ के एक सीनियर अफसर ने ग्वांटेनामो जेल का सुझाव दिया है। इस अफसर की मानें तो उसे गूगल और विकिपीडिया पर जो जानकारी मिली है, उसके अनुसार गिरफ्तार छात्र-छात्राओं और उनके अभिभावकों के लिए ग्वांटेनामो जेल ही उपयुक्त होगी। इस जेल की महिमा इतनी निराली है कि वहां जाते ही आराेपी अपना अपराध स्वीकार कर लेता है। इस अधिकारी का यह भी तर्क था कि अाराेपी छात्र-छात्राओं को सुविधाएं देने के संबंध में मप्र राज्य मानवाधिकार आयोग ने जो अनावश्यक स्वत: संज्ञान लिया है, वह भी वहां निष्क्रिय हो जाएगा। क्योंकि इस जेल में तो एमनेस्टी इंटरनेशनल की नहीं चली तो राज्य मानवाधिकार आयोग क्या चीज है!
एसटीएफ से जुड़े एक अन्य सूत्र का कहना है कि इस संबंध में हुई बैठक में एक जूनियर अधिकारी ने सवाल उठाया था कि पकड़े गए स्टूडेंट्स और उनके अभिभावकों में से कुछ निर्दोष भी हो सकते हैं। इस पर उस सीनियर अफसर ने उसे यह कहकर चुप करा दिया कि यह तय करने वाले हम कौन होते हैं? ग्वांटेनामो बे जेल दूध का दूध, पानी का पानी कर देगी।
अमेरिकी अफसरों से सेटिंग की कोशिश : इस बीच, पता चला है कि ग्वांटेनामो जेल का अध्ययन करने के लिए एसटीएफ के एक अधिकारी को ग्वांटेनामो बे भेजा जा सकता है। यह जेल जिस जगह स्थित है, वह बहुत ही खूबसूरत तटीय इलाका है और इसलिए सभी अफसर वहां स्टडी टूर पर जाने का प्रयास कर रहे हैं। माना जा रहा है कि सरकार एक से ज्यादा अफसरों को भी वहां भेज सकती है, ताकि इतनी भाग-दौड़ के कारण हुई थकान दूर हो सके। चूंकि यह जेल अमेरिका के कब्जे में है, ऐसे में दिल्ली स्थित विदेश मंत्रालय में कुछ जुगाड़ के माध्यम से अमेरिकी अधिकारियों से संपर्क करने का भी प्रयास किया जा रहा है।

शुक्रवार, 20 जून 2014

कांग्रेस के अच्छे दिन आए, सड़कों पर जश्न का माहौल

घर का कोना छोड़कर बाहर निकले राहुल, दिग्गी ने दी अगला प्रधानमंत्री बनने की बधाई


जयजीत अकलेचा/ Jayjeet Aklecha
कांग्रेस में अच्छे दिनों का जश्न!
नई दिल्ली। मोदी सरकार द्वारा रेल भाड़े में बढ़ोतरी करते ही कांग्रेस सहित तमाम विपक्षी दलों के अच्छे दिनों की शुरुआत हो गई। शुक्रवार को इसकी आधिकारिक घोषणा भी कर दी गई। इसके बाद देशभर में कांग्रेस कार्यकर्ताओं में खुशी की लहर दौड़ गई। उन्होंने ढोल नगाड़े बजाकर मिठाइयां बांटी और जमकर आतिशबाजी की। कांग्रेस के तमाम बड़े नेताओं ने इस सफलता के लिए कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी और उपाध्यक्ष राहुल गांधी को बधाई दी है।
शुक्रवार दोपहर को जैसे ही देश के टीवी चैनलों पर विपक्षी दलों के लिए अच्छे दिनों का ऐलान किया गया, कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी तुरंत अपने घर से बाहर आए और अकबर रोड स्थित कांग्रेस मुख्यालय पहुंचे। उनके साथ कुछ जमीनी नक्शों के साथ रॉबर्ट वाड्रा भी थे। वहां उनका कांग्रेस के अनेक वरिष्ठ नेताओं ने स्वागत किया। बाद में संवाददाताओं को संबोधित करते हुए राहुल ने इसे अपनी मम्मी सोनिया गांधी की नीतियों की जीत बताया। उन्होंने कहा कि मम्मी ने उनसे धैर्य रखने को कहा था। उसके बाद से ही वे अपने घर के एक कोने में बैठकर इस दिन का इंतजार कर रहे थे। इस बीच, दिग्गी ने एक ट्वीट कर राहुल गांधी को अगला प्रधानमंत्री बनने की बधाई दी। उन्होंने ट्वीट में लिखा, 'राहुल बाबा, अच्छे दिन आ गए, तैयारी कर लीजिए।'
 
लालू संग थिरकी आजम की भैंसें : अच्छे दिनों की खबर मिलते ही सपा नेता आजम खान की भैंसें भी खुद को थिरकने से रोक नहीं सकीं। रंभा, काली, कनकटी और श्यामा सहित तमाम भैंसों ने उम्मीद जताई कि अगर ऐसा ही चलता रहा तो जल्दी ही उनके मालिक उन्हें फिर से सही ढंग से दूह सकेंगे। भैंसों ने अपने पुराने मित्र लालू को भी बधाई देते हुए कहा कि इससे उनके साथ चारा खाने की उम्मीदें बढ़ गई हैं।

शरद जोशी का व्यंग्य - भूतपूर्व प्रेमिकाओं को पत्र

शरद जोशी/ Sharad Joshi

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देवी, माता या बहन,
अब मात्र यही संबोधन बचे हैं, जिनसे इस देश में एक पुराना प्रेमी अपनी अतीत की प्रेमिकाओं को पुकार सकता है। वे सब कोमल मीठे शब्द, जिनका उपयोग मैं प्रति मिनट दस की रफ्तार से नदी किनारों और पार्क की बेंचों पर तुम्हारे लिए करता था, तुम्हारे विवाह की शहनाइयों के साथ हवा हो गए। अब मैं तुम्हें भाषण देने वाले की दूरी से माता और बहन कहकर आवाज दे सकता हूं। वक्त के गोरखनाथ ने मुझे भरथरी बना दिया और तुम्हें माता पिंगला। मैं अपनी राह लगा और तुम अपनी। आत्महत्या ना तुमने की, ना मैंने। मेरे प्रेमपत्रों को चूल्हे में झोंक तुमने अपने पति के लिए चाय बनाई और मैंने पत्रों की इबारतें कहानियों में उपयोग कर पारिश्रमिक लूटा। 'साथ मरेंगे, साथ जिएंगे' के वे वचन जो हमने एक दूसरे को दिए थे, किसी राजनीतिक पार्टी के चुनाव घोषणा पत्र में किए गए वायदों की तरह खुद हमने भुला दिए। वे तीर जिनसे दिल बिंधे थे, वक्त के सर्जन ने निहायत खूबसूरती से ऑपरेशन कर निकाल दिए और तुम्हारी आंखें, जो अपने जमाने में तीरों का कारखाना रही थीं, अब शान्त और बुझी हुई रहने लगीं, मानो उनका लाइसेंस छिन गया।
मेरी एक्स-प्राणेश्वरी कुन्तला (मैं तुम्हारा वास्तविक नाम शकुन्तला नहीं लिखता क्योंकि तुम्हारे उस झक्की पति को पता लग जाएगा), तुम मेरी जिंदगी में तब आई थी, जब मुझे 'प्रेम' शब्द समझने के लिए डिक्शनरी टटोलनी पड़ती थी। पत्र लेखन में बतौर एक्सरसाइज किया करता था। घर की देहरी पर बैठा मैं मुगल साम्राज्य के पतन के कारण रटता और तुम सामने नल पर घड़े भरतीं या रस्सिया कूदतीं। मानती हो कि मैंने अपनी प्रतिभा के बल पर तुम्हें आखें मिलाना और लजाना सिखाया। मैंने तुम्हें ज्योमैट्री सिखाते वक्त बताया था कि यदि दो त्रिभुजों की भुजाएं बराबर हों तो कोण भी बराबर रहते हैं और सिद्ध भी कर दिखाया था। पर वह गलत था। बाद में तुम्हारे पिताजी ने मुझे समझाया कि अगर दहेज बराबर हो तो कोण भी बराबर हो जाते हैं और भुजाएं भी बराबर हो जाती हैं। मैं अपने बिन्दु पर परपेण्डिकुलर खड़ा तुम्हें ताकता रहा और तुम आग के आसपास गोला बना चजुर्भज हो गईं।
कुन्तला, मुझे तुम अपने बच्चों की ट्यूशन पर क्यों नहीं लगा लेतीं? तुम तीनों बच्चों के लिए अस्सी रुपए उस मास्टर को देती हो। मैं तुम्हारे बच्चे पढ़ा दूंगा, मुझे दिया करो वे रुपए। सच कहता हूं कि एक शान्त मास्टर की तरह घर आऊंगा। प्रेम की तीव्रता से अधिक जरूरी है अस्सी की आमदनी निरंतर बनी रहे। तुम मेरी प्रेम की पीड़ा दूर नहीं कर सकीं, तुम मेरी गरीबी की पीड़ा दूर कर सकती हो।


Short version of भूतपूर्व प्रेमिकाओं को पत्र 

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हरिशंकर परसाई का व्यंग्य - प्रेम की बिरादरी

हरिशंकर परसाई/ Harishankar Parsai
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उनका सबकुछ पवित्र है। जाति में बाजे बजाकर शादी हुई। पत्नी ने सात जन्मों में किसी दूसरे पुरुष को नहीं देखा। उन्होंने अपने लड़के-लड़की की शादी मंडप में की। लड़की के लिए दहेज दिया और लड़के के लिए लिया। एक लड़की खुद पसंद की और लड़के की पत्नी बना दिया।
फुरसत में रहते हैं। दूसरों की कलंक चर्चा में समय काटते हैं। जो समय फिर भी बच जाता है उसमें मूंछ के सफेद बाल उखाड़ते हैं और बर्तन बेचने वाली की राह देखते हैं। अभी उस दिन दांत खोदते आए और कलंक चर्चा का चूर्ण फांकना शुरू कर दिया, 'आपने सुना, अमुक साहब की लड़की अमुक लड़के के साथ भाग गई और दोनों ने शादी कर ली। कैसा बुरा जमाना आ गया है।'  मैं जानता हूं कि वे बुरा जमाना आने से दुखी नहीं, सुखी हैं। जितना बुरा जमाना आएगा, वे उतने ही सुखी होंगे। तब वे यह महसूस करेंगे कि इतने बुरे जमाने में भी हम अच्छे हैं। वे कहने लगे, 'और जानते हैं लड़का-लड़की अलग जाति के हैं?' मैंने पूछा, 'मनुष्य जाति के तो हैं ना?' वे बोले, 'हां, उसमें क्या शक है?'
ये घटनाएं बढ़ रही हैं। दो तरह की चिट्ठियां पेटेंट हो गई हैं। उनके मजमून ये हैं। जिन्हें भागकर शादी करना है वे और जिन्हें नहीं करना है, वे भी इनका उपयोग कर सकते हैं।
चिट्ठी नं. 1
पूज्य पिताजी,
मैंने यहां रमेश से शादी कर ली है। हम अच्छे हैं। आप चिंता मत करिए। आशा है आप और अम्मा मुझे माफ कर देंगे।
आपकी बेटी
सुनीता।
चिट्ठी नं. 2
प्रिय रमेश,
मैं अपने माता-पिता के विरुद्ध नहीं जा सकती। तुम मुझे माफ कर देना। तुम जरूर शादी कर लेना और सुखी रहना। तुम दुखी रहोगे तो मुझे जीवन में सुख नहीं मिलेगा। ह्रदय से तो मैं तुम्हारी हूं। (4-5 साल बाद आओगे तो पप्पू से कहूंगी - बेटा, मामाजी को नमस्ते करो।)
तुम्हारी
विनीता।
इसके बाद एक मजेदार क्रम चालू होता है। मां-बाप कहते हैं, वह हमारे लिए मर चुकी है। अब हम उसका मुंह नहीं देखेंगे। फिर कुछ महीने बाद मैं उनके यहां जाता हूं तो वही लड़की चाय लेकर आती है। मैं उनसे पूछता हूं, 'यह तो आपके लिए मर चुकी थी। 'वे जवाब देेते हैं, 'आखिर लड़की ही तो है।' और मैं सोचता रह जाता हूं कि जो आखिर में लड़की है वह शुरू में लड़की क्यों नहीं थी?
एक लड़की दूसरी जाति के लड़के से शादी करना चाहती थी। लड़का अच्छा कमाता था लेकिन लड़की के माता-पिता ने शादी अपनी ही जाति के लड़के से कर दी जो कम तो कमाता ही था, पत्नी को पीटता भी था। एक दिन मैंने उन सज्जन से कहा, 'सुना है वह लड़की को पीटता है।'  वे जवाब देते भी तो क्या देते, सिवा इसके कि संतोष है कि जातिवाले से पिट रही है।
इस सबको देखते हुए आगे चलकर युवक-युवती के मिलने पर प्रेम का दृश्य ऐसा होगा -
युवक - क्या आप ब्राह्मण हैं और ब्राह्मण हैं तो किस प्रकार के ब्राह्मण हैं?
युवती - क्यों, क्या बात है?
युवक - कुछ नहीं! जरा आपसे प्रेम करने का इरादा है।
युवती - मैं तो खत्री हूं।
युवक - तो फिर मेरा आपसे प्रेम नहीं हो सकता, क्योंकि मैं ब्राह्मण हूं।

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शरद जोशी का व्यंग्य - नेतृत्व की ताकत

 शरद जोशी/ Sharad Joshi

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नेता शब्द दो अक्षरों से बना है। ‘ने’ और ‘ता’। इनमें एक भी अक्षर कम हो, तो कोई नेता नहीं बन सकता। मगर हमारे शहर के एक नेता के साथ अजीब ट्रेजडी हुई। एक दिन यह हुआ कि उनका ‘ता’ खो गया। सिर्फ ‘ने’ रह गया। इतने बड़े नेता और ‘ता’ गायब। उन्हें सेक्रेटरी ने बताया कि सर आपका ‘ता’ नहीं मिल रहा। आप सिर्फ ‘ने’ से काम चला रहे हैं। नेता बड़े परेशान। नेता का मतलब होता है, नेतृत्व करने की ताकत। ताकत चली गई, सिर्फ नेतृत्व रह गया। ‘ता’ के साथ ताकत गई। तालियां गईं, जो ‘ता’ के कारण बजती थीं। नेता बहुत चीखे। पर जिसका ‘ता’ चला गया, उस नेता की सुनता कौन है? खूब जांच हुई पर ‘ता’ नहीं मिला। नेता ने एक सेठ से कहा, ‘यार हमारा ‘ता’ गायब है। अपने ताले में से ‘ता’ हमें दे दो।’ सेठ बोला, ‘यह सच है कि ‘ले’ की मुझे जरूरत रहती है, क्योंकि ‘दे’ का तो काम नहीं पड़ता, मगर ताले का ‘ता’ चला जाएगा तो लेकर रखेंगे कहां? सब इनकम टैक्स वाले ले जाएंगे। कभी तालाबंदी करनी पड़ी तो? ऐसे वक्त तू तो मजदूरों का साथ देगा। मुझे ‘ता’ थोड़े देगा।’ सेठ को नेता ने बहुत समझाया। जब तक नेता रहूंगा, मेरा ‘ता’ आपके ताले का समर्थन करेगा। आप ‘ता’ मुझे दे दें और फिर ‘ले’ आपका। लेते रहिए, मैं कुछ नहीं कहूंगा। सेठ जी नहीं माने। विरोधी मजाक बनाने लगे। अखबारों में खबर उछली कि नेता का ‘ता’ नहीं रहा। अगर ‘ने’ भी चला गया तो यह कहीं का नहीं रहेगा। खुद नेता के दल के लोगों ने दिल्ली जाकर शिकायत की। आपने एक ऐसा नेता हमारे सिर थोप रखा है, जिसके पास ‘ता’ नहीं है।
नेता दुखी था पर उसमें इतनी हिम्मत नहीं थी कि वह जनता के पास जाए और कबूल करे कि उसमें ‘ता’ नहीं है। एक दिन उसने अजीब काम किया। कमरा बंद कर जूता में से ‘ता’ निकाला और ‘ने’ से चिपकाकर फिर नेता बन गया। यद्यपि उसके व्यक्तित्व से दुर्गन्ध आ रही थी। मगर वह खुश था कि चलो नेता तो हूं। पार्टी ने भी कहा, जो भी नेता है, ठीक है। समस्या सिर्फ यह रह गई कि लोगों को पता चल गया। आज स्थिति यह है कि लोग नेता को देखते हैं और अपना जूता हाथ में उठा लेते हैं। उन्हें डर है कि कहीं वह इनके जूतों में से ‘ता’ ना चुरा ले। पत्रकार पूछते हैं, ‘सुना आपका ‘ता’ गायब हो गया था?’ वह धीरे से कहते हैं, ‘गायब नहीं हुआ था। माताजी को चाहिए था तो मैंने दे दिया। आज मैं जो भी हूं, उनके ही कारण हूं। वह ‘ता’ क्या मेरा ‘ने’ भी ले लें तो मैं इनकार नहीं करूंगा।’ नेता की नम्रता देखते ही बनती है। लेकिन मेरा विश्वास है मित्रो जब भी संकट आएगा, नेता का ‘ता’ नहीं रहेगा, लोग निश्चित ही जूता हाथ में ले बढ़ेंगे और प्रजातंत्र की प्रगति में अपना योगदान देंगे।

Short version of  नेतृत्व की ताकत

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हरिशंकर परसाई का व्यंग्य - विज्ञापन में बिकती नारी

हरिशंकर परसाई/ Harishankar Parsai

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मैंने तय किया पंखा खरीदा जाए। अखबार में पंखों के विज्ञापन देखे। हर कंपनी के पंखे सामने स्त्री है। एक पंखे से उसकी साड़ी उड़ रही है और दूसरे से उसके केश। एक विज्ञापन में तो सुंदरी पंखे के फलक पर ही बैठी हुई है। मुझे डर लगा, कहीं किसी ने स्विच दबा दिया तो? ऐसी बदमाशियां आजकल होती रहती हैं। मैं सुंदरी के लिए चिंतित हुआ। पिछले साल मेरा एक महीना ऐसी ही चिंता में कटा था। एक पत्रिका ने मुखपृष्ठ सजाने के लिए चित्र छापा था - तीसरी मंजिल पर स्त्री पैर लटकाए बैठी है। मैं परेशान हो गया। रात को एकाएक नींद खुल जाती और मैं सोचता पता नहीं उसका क्या हुआ! कहीं गिर तो नहीं पड़ी। अगला अंक जब आया और मैंने देखा कि लड़की उतर गई है, तब चैन पड़ा।
सोचा, यही पंखा खरीद लूं। स्त्री को उतारकर घर पहुंचा दूं और कहूं- बहनजी, इस तरह पंखे पर नहीं बैठा करते। पंखे तो बिक ही जाएंगे। तुम उनके लिए जान जोखिम में क्यों डालती हो?
मैंने बहुत पंखे देखे। किसी के आगे कोई पुरुष बैठा हुआ हवा नहीं ले रहा है। लेकिन कमोबेश हर चीज का यही हाल है। टूथपेस्ट के इतने विज्ञापन हैं, मगर हर एक में स्त्री ही 'उजले दांत' दिखा रही है। एक भी ऐसा मंजन बाजार में नहीं है जिससे पुरुष के दांत साफ हो जाएं। या कहीं ऐसा तो नहीं है कि इस देश का आदमी मुंह साफ करता ही नहीं। यह सोचकर बड़ी घिन आई कि ऐसे लोगों के बीच में रहता हूं, जो मुंह भी साफ नहीं करते।
इस विज्ञापन में लड़के ने एक खास मोटरसाइकिल खरीद ली है। पास ही लड़की खड़ी है। बड़े प्रेम से उसे देखकर मुस्करा रही है। अगर लड़का दूसरी कंपनी की साइकिल खरीद लेता, तो लड़की उससे कहती - हटो, हम तुमसे नहीं बोलते। तुमने अमुक मोटरसाइकिल नहीं खरीदी।
ये चार-पांच सुंदरियां उस युवक की तरफ एकटक देख रही हैं।
-सुंदरियों, तुम उस युवक पर क्यों मुग्ध हो? वह सुंदर है, इसलिए?
-नहीं, वह अमुक मिल का कपड़ा पहने है, इसलिए। वह किसी दूसरी मिल का कपड़ा पहन ले, तो हम उसकी तरफ देखेंगी भी नहीं। हम मिल की तरफ से मुग्ध होने की ड्यूटी पर हैं?
सुंदरी का कोई भरोसा नहीं। अगर कोई सुंदरी पुरुष से लिपट जाए तो यह सोचना भ्रम है कि वह तुमसे लिपट रही है। शायद वह रामप्रसाद मिल्स के सूट के कपड़े से लिपट रही है। अगर कोई सुंदरी तुम्हारे पांवों की तरफ देख रही है, तो वह 'सतयुगी समर्पिता' नारी नहीं है। वह तुम्हारे पांवों में पड़े धर्मपाल शू कंपनी के जूते पर मुग्ध है। सुंदरी आंखों में देखे तो जरूरी नहीं कि वह आंख मिला रही है। वह शायद 'नेशनल ऑप्टिशियन्स' के चश्मे से आंख मिला रही है। प्रेम व सौंदर्य का सारा स्टॉक कंपनियों ने खरीद लिया है। अब ये उन्हीं की मारफत मिल सकते हैं।

Short version of विज्ञापन में बिकती नारी 

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14 सितंबर को मनाया जाएगा ‘इंग्लिश डे’, तमिलनाडु में तमिल दिवस

जयजीत अकलेचा/ Jayjeet Aklecha
नई दिल्ली। इस साल से अब देशभर में हर 14 सितंबर को ‘इंग्लिश डे’ मनाया जाएगा। इस आशय का एक सर्कुलर केंद्र सरकार शीघ्र ही जारी करने जा रही है। केंद्र ने यह कदम तमिलनाडु के पूर्व मुख्यमंत्री और डीएमके प्रमुख एम करुणानिधि की उस आपत्ति के मददेनजर उठाया है जिसमें उन्होंने कहा था कि सरकार हिंदी को बढ़ावा देकर अन्य भाषाओं की उपेक्षा कर रही है। 
प्रधानमंत्री कार्यालय में उच्च पदस्थ सूत्र ने नाम न छापने की शर्त पर बताया कि ‘इंग्लिश डे’ मनाने की विधिवत् घोषणा 14 सितंबर को ही नई दिल्ली में अायोजित एक कार्यक्रम में स्वयं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी करेंगे। वे अपनी जिंदगी में पहली बार लिखा हुआ भाषण पढ़ेंगे क्योंकि यह अंग्रेजी में होगा। इस अवसर पर उन विशिष्ट लोगाें का सम्मान भी किया जाएगा जो अपनी मातृभाषा छोड़कर अंग्रेजी में बोलना पसंद करते हैं। ‘इंग्लिश डे’ के उपलक्ष्य में पूरे देशभर में इंग्लिश एसे कॉम्पीटिशन, इंग्लिश डिबैट कॉम्पीटिशन, इंग्लिश स्पीच कॉम्पीटिशन, इंग्लिश क्वीज जैसी कई प्रतियोगिताएं करवाई जाएंगी। सूत्र ने यह भी साफ कर दिया कि इस दिवस पर संबंधित राज्य चाहें तो अपना-अपना भाषा दिवस मना सकते हैं, जैसे तमिलनाडु में तमिल दिवस, कर्नाटक में कन्नड़ दिवस, महाराष्ट्र में मराठी दिवस इत्यादि। 
गौरतलब है कि गृह मंत्रालय ने गुुरुवार को हिंदी का अधिक से अधिक प्रयोग करने संबंधी एक निर्देश जारी किया था। इसके बाद से ही हाथ में मुद‌दा आने के कारण करुणानिधि काफी खुश नजर आ रहे थे। बाद में अपनी खुशी दबाते हुए पत्रकारों से बातचीत में केंद्र के इस रवैये की कड़ी आलोचना करते हुए उन्हाेंने कहा था कि यह कदम गैर हिंदी भाषी लोगों को दोयम दर्जे की तरह समझने का है। इस आलोचना से हरकत में आई नरेंद्र मोदी सरकार ने बिजली से भी अधिक तेजी से कार्रवाई करते हुए ‘इंग्लिश डे’ मनाने का फैसला ले लिया। इसका आधिकारिक सर्कुलर एक-दो दिन में जारी हो जाएगा।

गुरुवार, 19 जून 2014

वाॅव, मैं शर्मिंदा हूं! अमेजिंग!!

जयजीत अकलेचा/ Jayjeet Aklecha

कार्टून: गौतम चक्रवर्ती
हाल ही में एक भारतीय ने किसी अन्य देश में रह रहे अपने एक मित्र को पत्र लिखा था। इसमें उसने शर्मसार होने के फीलगुड का अद्भुत वर्णन किया है। कुछ मित्रों ने तो इसे पढ़कर फेसबुक पर यहां तक सुझाव दे डाला है कि अब हमें ‘शर्म’ नामक दसवें रस की व्युत्पत्ति कर ही देनी चाहिए। खैर, सुझाव अपनी जगह। इस पत्र के मुख्य अंश:
हैलो मिस्टर जाॅन,
आपके लिए यह बड़े गर्व की बात है कि आपको हिंदी आती है। मुझे अंग्रेजी नहीं आती है और इसके लिए वाकई मैं शर्मिंदा हूं। हिंदी में लिखते हुए मैं जो शर्मिंदगी महसूस कर रहा हूं, उसकी अनुभूति ही अलग है। वैसे मुझे इस बात का गर्व है कि यहां रोजाना शर्मसार होने की कोई न कोई वजह मिल ही जाती है। वाव! शर्मिंदा होने की भी क्या फीलिंग होती है। मैं फेसबुक पर नहीं हूं, न ही ट्विटर पर हूं। मैं तो शर्म से गड़ा जा रहा हूं। वाॅव! शर्मिंदा होने से आगे की स्टेज है शर्म से गड़ा जाना। इसका एहसास ही खूबसूरत है। आप तो फील ही नहीं कर सकते। मेरे पास स्मार्टफोन भी नहीं, वो क्या बोलते है वाॅट्सअप! उसका तो सवाल ही नहीं। अगेन वाॅव! वाॅट ए शर्मिंदगी।
और ताजा शर्मिंदगी हाॅकी में उठानी पड़ी है। हाॅकी वल्र्डकप में हम नौवें स्थान पर रहे। नेशनल शेमनेस। मैं तो शर्मसार हूं ही, हाॅकी के कर्णधारों के चेहरों को तो देखो। शर्म से फूलकर कुप्पा हो रहे हैं। शर्मिंदगी के इस भाव पर कोई भी वारा जाए। अमेजिंग!! पर हाय फुटबाॅल। काश, हमें भी वल्र्ड कप में खेलने का मौका मिलता। हम आठ-आठ दस-दस गोल से हारते। कितने मस्त शर्मसार होते।
पत्र बड़ा हो रहा है, इसलिए मैं सीधे मुद्दे की शर्म पर आता हूं। आप भी सोच रहे होंगे कि मैं पाॅलिटिकल शेम की बात क्यों नहीं कर रहा हूं। दरअसल, मैं बच रहा था। कहीं आपको काॅम्लैक्स नहीं आ जाए। लेकिन यह सच है कि पाॅलिटिकल शेम के बगैर बात अधूरी ही रह जाएगी। यहां पाॅलिटिकल करप्शन, भाई-भतीजावाद, एक-दूसरे की टांग खिंचाई... सब अद्भुत है। यह सब हमको इतना शर्मसार करते हैं कि लगता है अगर धरती पर कहीं स्वर्ग है तो यहीं है यहीं है यहीं है। आपको इस बात पर बेहद गुस्सा आएगा कि हमारे (आपके) यहां ऐसा क्यों नहीं है! हमने ऐसा क्या बिगाड़ा था! सही बात है भाई, यह इनजस्टिस है। भगवान सब को शर्मिंदा होने का मौका दें। हम तो प्रार्थना ही कर सकते हैं, और क्या!
खैर, आप चाहें तो हमारे यहां के सबसे बड़े स्टेट में आकर भरपूर शर्मिंदा हो सकते हैं। आप जैसे फाॅरेनर टूरिस्टों के लिए यहां की सरकार ने जंगल टूरिज्म डिपार्टमेंट ही खोल दिया है। आप वहां के कुछ पेड़ों से लटककर शर्म की फीलिंग कर सकते हैं। उम्मीद है कि जब आप यहां आओगे तो शर्मसार होने के दो-चार मौके आपके सामने भी आ जाएंगे। खुद लाइव शर्मसार हो जाना।
तो देर मत करो। गारंटी है, आपको शर्मिंदा करने की हम भरपूर कोशिश करेंगे। सड़क पर पहली पीक मैं ही मारुंगा। डन रहा!
आपका ही
एक भारतीय दोस्त

पैसा और समय बचाने फेसबुक पर होंगी कैबिनेट की बैठकें!

प्रयोग सफल रहा तो संसद की बहस भी सोशल मीडिया के माध्यम से हो सकेगी

जयजीत अकलेचा/ Jayjeet Aklecha

अब फेसबुक से चलेगी सरकार!
नई दिल्ली। सरकारी खर्चों में कटौती करने, कामकाज में तेजी लाने और सरकार को पेशेवर बनाने के मकसद से केंद्र की मोदी सरकार ने कैबिनेट की बैठकें फेसबुक पर करने का निर्णय लिया है। इसके लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने उन कैबिनेट मंत्रियों को भी अपने फेसबुक अकाउंट खुलवाने के निर्देश दिए हैं, जिनके अब तक ऐसे अकाउंट नहीं हैं। हालांिक विपक्ष ने इसे केवल आईएसओ 9001 सर्टिफिकेट हासिल करने की सस्ती कवायद करार िदया है।
पीएमओ के उच्च पदस्थ सूत्रों के अनुसार मोदी कैबिनेट के कई मंत्री पहले से ही टि‌‌वटर और फेसबुक पर अपने फैसलांे की जानकारी देते आ रहे हैं। एेसे में प्रधानमंत्री का मत था कि क्यों न कैबिनेट की बैठकें ही सोशल मीडिया के माध्यम से कर ली जाएं। इसका एक फायदा तो यह होगा िक बैठकों में आने-आने और नाश्ता-पानी पर होने वाला खर्च बचेगा। दूसरा कैबिनेट के फैसलांे के बारे में तत्काल बैठे-बैठे ही आम जनता को अपडेट कर दिया जाएगा। इससे लोगों के बीच संदेश जाएगा कि सरकार काम कर रही है। 
संसदीय कार्यवाही पर ही दोहराएंगे प्रयोग! : सूत्रों का कहना है कि अगर कैबिनेट की बैठकों को लेकर यह प्रयोग सफल रहता है तो इसे आगे संसद में होने वाली कार्यवाही पर भी दोहराया जा सकता है। इसके लिए सभी सांसद फेसबुक पर चैटिंग जैसे ऑप्शनों का इस्तेमाल कर बहस कर सकेंगे। इसके लिए फेसबुक से भी विशेष प्रावधान करने का आग्रह किया जा सकता है। हालांकि कोई भी फैसला लेने से पहले सर्वदलीय बैठक बुलाकर सर्वसम्मति ली जाएगी। माना जा रहा है िक कांग्रेस से आपत्ति आ सकती है, क्योंकि राहुल गांधी खुद फेसबुक फ्रेंडली नहीं हैं।
केवल आईएसओ 9001 सर्टिफिकेट हासिल करना मकसद : विपक्ष
विपक्षों दलांे ने मोदी सरकार की इस पहल को केवल आईएसओ 9001 सर्टिफिकेट हासिल करने की सस्ती कवायद करार िदया है। कांग्रेस नेता राजीव शुक्ला ने पत्रकारों से बात करते हुए कहा कि सरकार तेज काम करने का नाटक करना चाहती है और इसका मकसद केवल आईएसओ 9001 सर्टिफिकेट हासिल करना है। यह पूछे जाने पर कि क्या कांग्रेस इसका विरोध केवल इसलिए कर रही है क्योंकि राहुल गांधी फेसबुक फ्रेंडली नहीं हैं, राजीव ने इसका खंडन करते हुए कहा कि राहुलजी का अपना खुद का फेसबुक अकाउंट है। जैसे ही उन्हें फ्रेंडशिप रिक्वेस्ट मिलेगी, वे उस पर एक्टिव हो जाएंगे।

बुधवार, 18 जून 2014

हरिशंकर परसाई का व्यंग्य - उखड़े खंभे

हरिशंकर परसाई/ Harishankar Parsai
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एक दिन राजा ने खीझकर घोषणा कर दी कि मुनाफाखोरों को बिजली के खम्भे से लटका दिया जाएगा। सुबह होते ही लोग बिजली के खम्भों के पास जमा हो गए। उन्होंने खम्भों की पूजा की, आरती उतारी और उन्हें तिलक किया।
शाम तक वे इंतजार करते रहे कि अब मुनाफाखोर टांगे जाएंगे- और अब। पर कोई नहीं टाँगा गया।
लोग जुलूस बनाकर राजा के पास गये और कहा," महाराज, आपने तो कहा था कि मुनाफाखोर बिजली के खम्भे से लटकाये जाएंगे, पर खम्भे तो वैसे ही खड़े हैं और मुनाफाखोर स्वस्थ और सानन्द हैं।"
राजा ने कहा," कहा है तो उन्हें खम्भों पर टाँगा ही जाएगा। थोड़ा समय लगेगा। टाँगने के लिये फन्दे चाहिये। मैंने फन्दे बनाने का आर्डर दे दिया है। उनके मिलते ही, सब मुनाफाखोरों को बिजली के खम्भों से टाँग दूँगा।
भीड़ में से एक आदमी बोल उठा," पर फन्दे बनाने का ठेका भी तो एक मुनाफाखोर ने ही लिया है।"
राजा ने कहा,"तो क्या हुआ? उसे उसके ही फन्दे से टाँगा जाएगा।"
तभी दूसरा बोल उठा," पर वह तो कह रहा था कि फाँसी पर लटकाने का ठेका भी मैं ही ले लूँगा।"
राजा ने जवाब दिया," नहीं, ऐसा नहीं होगा। फाँसी देना निजी क्षेत्र का उद्योग अभी नहीं हुआ है।"
लोगों ने पूछा," तो कितने दिन बाद वे लटकाये जाएंगे।"
राजा ने कहा,"आज से ठीक सोलहवें दिन वे तुम्हें बिजली के खम्भों से लटके दीखेंगे।"
लोग दिन गिनने लगे।
सोलहवें दिन सुबह उठकर लोगों ने देखा कि बिजली के सारे खम्भे उखड़े पड़े हैं। वे हैरान हो गये कि रात न आँधी आयी न भूकम्प आया, फिर वे खम्भे कैसे उखड़ गये!
उन्हें खम्भे के पास एक मजदूर खड़ा मिला। उसने बतलाया कि मजदूरों से रात को ये खम्भे उखड़वाये गये हैं। लोग उसे पकड़कर राजा के पास ले गये।
उन्होंने शिकायत की ,"महाराज, आप मुनाफाखोरों को बिजली के खम्भों से लटकाने वाले थे ,पर रात में सब खम्भे उखाड़ दिये गये। हम इस मजदूर को पकड़ लाये हैं। यह कहता है कि रात को सब खम्भे उखड़वाये गये हैं।"
राजा ने मजदूर से पूछा,"क्यों रे,किसके हुक्म से तुम लोगों ने खम्भे उखाड़े?"
उसने कहा,"सरकार ,ओवरसियर साहब ने हुक्म दिया था।"
तब ओवरसियर बुलाया गया।
उससे राजा ने कहा," तुमने रातों-रात खम्भे क्यों उखड़वा दिये?"
"सरकार,इंजीनियर साहब ने कल शाम हुक्म दिया था कि रात में सारे खम्भे उखाड़ दिये जाए।"
अब इंजीनियर बुलाया गया। उसने कहा उसे बिजली इंजीनियर ने आदेश दिया था कि रात में सारे खम्भे उखाड़ देना चाहिये।
बिजली इंजीनियर से कैफियत तलब की गयी,तो उसने हाथ जोड़कर कहा,"सेक्रेटरी साहब का हुक्म मिला था।"
विभागीय सेक्रेटरी से राजा ने पूछा, खम्भे उखाड़ने का हुक्म तुमने दिया था।"
सेक्रेटरी ने स्वीकार किया,"जी सरकार!"
राजा ने कहा," यह जानते हुये भी कि आज मैं इन खम्भों का उपयोग मुनाफाखोरों को लटकाने के लिये करने वाला हूँ,तुमने ऐसा दुस्साहस क्यों किया।"
सेक्रेटरी ने कहा,"साहब ,पूरे शहर की सुरक्षा का सवाल था। अगर रात को खम्भे न हटा लिये जाते, तो आज पूरा शहर नष्ट हो जाता!"
राजा ने पूछा,"यह तुमने कैसे जाना? किसने बताया तुम्हें?
सेक्रेटरी ने कहा,"मुझे विशेषज्ञ ने सलाह दी थी कि यदि शहर को बचाना चाहते हो तो सुबह होने से पहले खम्भों को उखड़वा दो।"
राजा ने पूछा,"कौन है यह विशेषज्ञ? भरोसे का आदमी है?"
सेक्रेटरी ने कहा,"बिल्कुल भरोसे का आदमी है सरकार।घर का आदमी है। मेरा साला है। मैं उसे हुजूर के सामने पेश करता हूँ।"
विशेषज्ञ ने निवेदन किया," सरकार ,मैं विशेषज्ञ हूँ और भूमि तथा वातावरण की हलचल का विशेष अध्ययन करता हूँ। मैंने परीक्षण के द्वारा पता लगाया है कि जमीन के नीचे एक भयंकर प्रवाह घूम रहा है। मुझे यह भी मालूम हुआ कि आज वह बिजली हमारे शहर के नीचे से निकलेगी। आपको मालूम नहीं हो रहा है ,पर मैं जानता हूँ कि इस वक्त हमारे नीचे भयंकर बिजली प्रवाहित हो रही है। यदि हमारे बिजली के खम्भे जमीन में गड़े रहते तो वह बिजली खम्भों के द्वारा ऊपर आती और उसकी टक्कर अपने पावरहाउस की बिजली से होती। तब भयंकर विस्फोट होता। शहर पर हजारों बिजलियाँ एक साथ गिरतीं। तब न एक प्राणी जीवित बचता ,न एक इमारत खड़ी रहती। मैंने तुरन्त सेक्रेटरी साहब को यह बात बतायी और उन्होंने ठीक समय पर उचित कदम उठाकर शहर को बचा लिया।
लोग बड़ी देर तक सकते में खड़े रहे। वे मुनाफाखोरों को बिल्कुल भूल गये। वे सब उस संकट से अभिभूत थे ,जिसकी कल्पना उन्हें दी गयी थी। जान बच जाने की अनुभूति से दबे हुये थे। चुपचाप लौट गये।
उसी सप्ताह बैंक में इन नामों से ये रकमें जमा हुईं:-
सेक्रेटरी की पत्नी के नाम- दो लाख रुपये
श्रीमती बिजली इंजीनियर- एक लाख
श्रीमती इंजीनियर -एक लाख
श्रीमती विशेषज्ञ - पच्चीस हजार
श्रीमती ओवरसियर-पांच हजार

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हरिशंकर परसाई का व्यंग्य - अश्लील पुस्तकें

हरिशंकर परसाई/ Harishankar Parsai
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शहर में ऐसा शोर था कि अश्‍लील साहित्‍य का बहुत प्रचार हो रहा है। अखबारों में समाचार और नागरिकों के पत्र छपते कि सड़कों के किनारे खुलेआम अश्‍लील पुस्‍तकें बिक रही हैं।
दस-बारह उत्‍साही समाज-सुधारक युवकों ने टोली बनाई और तय किया कि जहाँ भी मिलेगा हम ऐसे साहित्‍य को छीन लेंगे और उसकी सार्वजनिक होली जलाएँगे।
उन्‍होंने एक दुकान पर छापा मारकर बीच-पच्‍चीस अश्‍लील पुस्‍तकें हाथों में कीं। हरके के पास दो या तीन किताबें थीं। मुखिया ने कहा - आज तो देर हो गई। कल शाम को अखबार में सूचना देकर परसों किसी सार्वजनिक स्‍थान में इन्‍हें जलाएँगे। प्रचार करने से दूसरे लोगों पर भी असर पड़ेगा। कल शाम को सब मेरे घर पर मिलो। पुस्‍तकें में इकट्ठी अभी घर नहीं ले जा सकता। बीस-पच्‍चीस हैं। पिताजी और चाचाजी हैं। देख लेंगे तो आफत हो जाएगी। ये दो-तीन किताबें तुम लोग छिपाकर घर ले जाओ। कल शाम को ले आना।
दूसरे दिन शाम को सब मिले पर किताबें कोई नहीं लाया था। मुखिया ने कहा - किताबें दो तो मैं इस बोरे में छिपाकर रख दूँ। फिर कल जलाने की जगह बोरा ले चलेंगे।
किताब कोई लाया नहीं था।
एक ने कहा - कल नहीं, परसों जलाना। पढ़ तो लें।
दूसरे ने कहा - अभी हम पढ़ रहे हैं। किताबों को दो-तीन बाद जला देना। अब तो किताबें जब्‍त ही कर लीं।
उस दिन जलाने का कार्यक्रम नहीं बन सका। तीसरे दिन फिर किताबें लेकर मिलने का तय हुआ।
तीसरे दिन भी कोई किताबें नहीं लाया।
एक ने कहा - अरे यार, फादर के हाथ किताबें पड़ गईं। वे पढ़ रहे हैं।
दसरे ने कहा - अंकिल पढ़ लें, तब ले आऊँगा।
तीसरे ने कहा - भाभी उठाकर ले गई। बोली की दो-तीन दिनों में पढ़कर वापस कर दूँगी।
चौथे ने कहा - अरे, पड़ोस की चाची मेरी गैरहाजिर में उठा ले गईं। पढ़ लें तो दो-तीन दिन में जला देंगे।
अश्‍लील पुस्‍तकें कभी नहीं जलाई गईं। वे अब अधिक व्‍यवस्थित ढंग से पढ़ी जा रही हैं। 

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प्रभाकर माचवे का व्यंग्य - एक कुत्ते की डायरी

प्रभाकर माचवे/ Prabhakar Machwe
 प्रभाकर माचवे , prabhakar machwe

मेरा नाम 'टाइगर' है, गो शक्‍ल-सूरत और रंग-रूप में मेरा किसी भी शेर या 'सिंह' से कोई साम्‍य नहीं। मैं दानवीर लाला अमुक-अमुक का प्रिय सेवक हूँ; यद्यपि वे मुझे प्रेम से कभी-कभी थपथपाते हुए अपना मित्र और प्रियतम भी कह देते हैं। मतलब यह है कि लालाजी का मुझ पर पुत्रवत प्रेम है। नीचे मैं अपने एक दिन के कार्यक्रम का ब्‍यौरा उपस्थित करता हूँ -
6 बजे सवेरे - घर की महरी बहुत बदमाश हो गई है। मेरी पूँछ पर पैर रखकर चली गई। अंधी हो गई क्‍या? और ऊपर से कहती है - अँधेरा था। किसी दिन काट खाऊँगा। गुर्र-गुर्र... अच्‍छा-चंगा हड्डीदार सपना देख रहा था और यह महरी आ गई - इसने मेरे सपने के स्‍वर्ण-संसार पर पानी फेर दिया। ... फिर सो गया।
7 बजे - कोई कम्‍बख्‍त आ ही गया। नवागन्‍तुक दिखाई देता है। बहुत भूँका - पर नहीं माना। जरूर परिचित होगा। जाने दो - अपने बाबा का क्‍या जाता है?
8 बजे - नाश्‍ता-पानी। आज ब्रेकफास्‍ट की चाय पर बहुत गर्मागर्म बहस हो रही है! मालिक कह रहे हैं कि इन मजदूरों ने आजकल जहाँ देखो वहाँ सिर उठा रखा है। कुचलना होगा इन्‍हें! मालिक के मित्र बतला रहे थे कि हड़तालों के मारे तबाही मची हुई है। ऐसा कहते हुए उन्‍होंने अपनी नई 'सुपरफाइन' धोती से चश्‍मे की काँच पोंछ कर साफ की थी।
10 बजे - एक नए ढंग के जानवर से मुलाकात हो गई। यह 'फट् फट् फट्' आवाज बहुत करता है, नथुनों से धुआँ उगलता मालिक चाहता है तब रुकता है, चाहता है तब सरपट दौड़ता है। मैंने भरसक उसकी नकल में भूँकने और दौड़ने की कोशिश की - मगर यह किसी विदेश से आया हुआ प्राणी जान पड़ता है। जाने दो, अपने को विदेशियों से क्या पड़ी है?
11 बजे - भोजन। इस संबंध में इतना ही कहना पर्याप्‍त होगा कि अच्‍छे-अच्‍छे तनखावाले बाबुओं को जो नसीब न होगा, ऐसा उम्‍दा पकवान हमें मिल जाता है। सब भगवान की लीला है। जब वह खाता हूँ तो भूल जाता हूँ कि मेरे गले में कोई पट्टा भी है या मुझे भी कभी मालिक ठोकर मारता है।
12 बजे से 3 बजे तक - विश्रांति।
3 बजे - सहसा किसी का स्‍वर। निश्‍चय ही वह मालिक की बड़ी लड़की का मुलाकाती, भूरे-भूरे बालोंवाला तरुण है! वह मखमल की पैंट पहनता है, पहले मैंने उसे किसी चितकबरी बिल्‍ली का बदन ही समझा
5 बजे - बाहर फिर घूमने के लिए चला। मालकिन मेमसाहिबा खास कपड़े पहने, ऊँची एड़ी के जूते, रंगीन साड़ी वगैरह के साथ थीं। मेरी भी चेन खास ढंग की थी। यह तभी पहनाई जाती है जब मालकिन किसी उत्‍सव-विशेष या बाइस्‍कोप वगैरह में शामिल होती हैं।
6 से 8.30 बजे तक - एक सफेद पर्दे पर हिलती-बोलती तस्‍वीरें देखीं। अरे, तो यह आदमी जो अपने आपको बहुत सभ्‍य समझता है सो कुछ नहीं है। जैसे हम लोगों में प्रेमातुरता होती है, वैसे ही इनके चलचित्रों की नायक-नायिकाएँ दिखाती हैं। अच्‍छा हुआ मैंने यह दृश्‍य देख लिया। मेरा स्‍वप्‍न भंग हो गया। मानव जाति को मैं बड़ा आदर्श समझता था - परंतु वैसी कोई विशेष बात नहीं।
9 बजे - सोया। क्‍योंकि फिर सवेरे जागना है, वही पूँछ हिलाना है - तब डबलरोटी का टुकड़ा शायद मिले; और ज्‍यादा खुशामद करने पर दूध भी मिल सकता है!

Short version of एक कुत्ते की डायरी  
(Courtesy :  www.hindisatire.com)

 प्रभाकर माचवे , prabhakar machwe

महंगाई के लिए मानसून को जिम्मेदार क्या ठहराया, बिफर पड़े इंद्र देव

जयजीत अकलेचा/Jayjeet Aklecha

देवलोक / नई दिल्ली
देवलोक में अपने अफसरों के बीच नाराज इंद्र। सौजन्य : लाइफ ओके
बारिश के देवता इंद्र ने भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को एक पत्र लिखकर वित्त मंत्री अरुण जेटली के उस बयान पर गहरी निराशा जताई है जिसमें उन्होंने कहा था कि कमजोर मानसून के कारण देश में महंगाई बढ़ने की आशंका है।
इंद्र ने अपने पत्र, जिसकी प्रति हमारे पास है, में लिखा है कि धरती पर सदियों से यह एक बहुत ही गलत परंपरा पड़ गई है कि किसी भी काम के लिए देवलोक में बैठे देवताओं को दोषी ठहरा दो। पिछले कुछ सालों से खासकर बारिश बरसाने से संबंधित मेरे कामकाज पर जो टिप्पणियां की गई हैं, वह काफी खेदजनक हैं। उन्होंने पूछा, महंगाई बढ़ने से लेकर केदारनाथ जैसे हादसों के लिए आखिर मैं कैसे जिम्मेदार हो गया? क्या धरती के लोगों का कोई जिम्मा नहीं बनता? सरकार का जिम्मा नहीं है? उन्होंने आगे लिखा,‘पिछली सरकारों से तो मुझे उम्मीद नहीं थी। लेकिन जब आपने सत्ता संभाली तो लगा कि अब कोई बहानेबाजी नहीं चलेगी। हमें लगा कि अब हमारे भी अच्छे दिन आ जाएंगे, लेकिन आपके मंत्री के बयान ने निराश कर िदया है।’
इंद्र देवता के इस पत्र पर प्रधानमंत्री की कोई प्रतिक्रिया नहीं आई है, लेकिन उच्च पदस्थ सूत्रों का कहना है कि उन्होंने इस मामले को गंभीरता से लिया है। उन्होंने सभी मंत्रियों से कहा है िक भविष्य में मानसून का उल्लेख करते समय भगवान इंद्र की भावनाअों का ख्याल जरूर रखें। उधर शाम को उन्होंने टेलीफोन पर इंद्र से इस मामले में बात की। बातचीत क्या हुई, इसका खुलासा नहीं हुआ, लेकिन इंद्र भवन के सूत्रों के अनुसार भगवान इंद्र ने भारतीय पीएम के साथ बातचीत पर संतोष जताया है।

एक ढाबेवाला का क्रांतिकारी कदम

Photo Courtesy : king-anjan.blogspot.in 
जयजीत अकलेचा/ Jayjeet Aklecha
यह एकदम सच्ची कहानी है। इस पर आप उतना ही भरोसा कर सकते हैं, जितना कि मोदी सरकार के इस आश्वासन पर कि वह विदेशों में जमा काला धन देश में जरूर लाएगी और उससे महंगाई कम हो जाएगी।
आइए, सरकार को छोड़कर सरदारजी की यह कहानी सुनें। यह कहानी मेरे शहर के एक ढाबेवाले की है। दरअसल, कुछ दिन पहले तक ढाबे के मालिक यानी सरदारा सिंह का ढाबा खूब चलता था। लेकिन जबसे उनके ढाबे के पास एक-दो पिज्जा वालों ने अपनी दुकानें क्या खोल ली, तभी से उनका धंधा बैठ गया। लोग कारों से उतरते और पास में ही पिज्जा शाॅप्स पर जा-जाकर पिज्जा तोड़-तोड़कर खाते। कई तो इसलिए खाते क्योंकि उन्हें बताया गया था कि इसे पिज्जा कहते हैं और उनको लगता था कि इसको खाने से इज्जत बढ़ जाती है। बेचारे जबरदस्ती खाते। सरदारजी को अपना ढाबा न चलने से भी ज्यादा दुख उन पिज्जा खाने वालों के मुुंह को देख-देखकर होता। बेचारे कितनी तकलीफ उठाते।
तो हमारे इस सरदारा सिंह से लोगों का दुख देखा नहीं गया। लेकिन क्या करें हम हिंदुस्तानियों का, वे पिज्जा को तो छोड़ने से रहे। तभी सरदारजी के दिमाग में एक मनोवैज्ञानिक आइडिया आया। वाकई बेहद क्रांतिकारी था यह आइडिया। उन्होंने अपने ढाबे के मीनू में रोटी का नाम बदलकर पिज्जा रख दिया। अब उनके मीनू के नाम भी बदल गए- पिज्जा-राजमा, पिज्जा-छोला, पिज्जा-दाल मखानी, पिज्जा बैंगन का भर्ता, पिज्जा बटर-पनीर मसाला और न जाने क्या-क्या। इतना ही नहीं, पिज्जा की भी कई वैराइटिज रख दी जैसे तंदूरी पिज्जा, तवा पिज्जा, मिस्सी पिज्जा, नान पिज्जा। उसके बाद से ही पड़ोस के पिज्जा वालों की दुकानों पर शटर लग चुके हैं। अब लोग सरदारा सिंह के ढाबे पर मजे से पिज्जा खा रहे हैं। कोई दाल मखानी के साथ तो कोई पनीर बटर मसाला के साथ। किसी को कोई तकलीफ नहीं। अब डोमेनिस और पिज्जा हट के बाप-दादा भी स्वर्ग में बैठे सोच रहे हैं कि काश, यह असरदार आइडिया हमें मिल जाता तो भारतीयों को इतनी तकलीफ क्यों देते भला!

हरिशंकर परसाई का व्यंग्य - लघुशंका गृह और क्रांति

harishankar parsai vyangya , हरिशंकर परसाई के व्यंग्य, हरिशंकर परसाई रचनाएं , harishankar parsai stories in hindi, harishankar parsai ki rachnaye, harishankar parsai quotes  मंत्रिमंडल की बैठक में शिक्षा मंत्री ने कहा, ‘यह छात्रों की अनुशासनहीनता है। यह निर्लज्ज पीढ़ी है। अपने बुजुर्गो से लघुशंका गृह मांगने में भी इन्हें शर्म नहीं आती।’ किसी मंत्री ने कहा, ‘इन लड़कों को विरोधी दल भड़का रहे हैं। मुझे इसकी जानकारी है। मैं जानता हूं कि विरोधी दल देश के तरुणों को लघुशंका करने के लिए उकसाते हैं। यदि इस पर रोक नहीं लगी तो ये हर उस चीज पर लघुशंका करने लगेंगे, जो हमने बनाकर रखी है।’ गृहमंत्री ने कहा, ‘यह मामला अंतत: कानून और व्यवस्था का है। सरकार का काम लघुशंका गृह बनवाना नहीं, लॉ एंड ऑर्डर बनाए रखना है।’ तब प्रधानमंत्री ने कहा, ‘प्रश्न यह है कि लघुशंका गृह बनवाया जाए या नहीं। इस कॉलेज में पैंतीस साल से लघुशंका गृह नहीं बना। अब एकदम लघुशंका गृह बनवा देना बहुत क्रांतिकारी काम हो जाएगा। क्या हम इतना क्रांतिकारी कदम उठाने को तैयार हैं? हम धीरे-धीरे विकास में विश्वास रखते है, क्रांति में नहीं। यदि हमने ये क्रांतिकारी कदम उठा लिया तो सरकार का जो रूप देश-विदेश के सामने आएगा, उसके व्यापक राजनीतिक परिणाम होंगे। मेरा ख्याल है, सरकार अपने को इतना क्रांतिकारी कदम उठाने के लिए समर्थ नहीं पाती।’
इसी वक्त छात्रों का धीरज टूट गया। उन्होंने आंदोलन छेड़ दिया। दूसरे कॉलेजों में लड़कों को चूड़ियां भेज दी गईं - आंदोलन करो या चूड़ियां पहनकर घर बैठो। चूड़ियों ने आग लगा दी। जगह- जगह आंदोलन भड़क उठा। यहां का आदमी अकाल बताने को उतना उत्सुक नहीं रहता , जितना नरता बताने को। अगर किसी ने कहा कि अपने सिर पर जूता मारो या ये चूड़ियां पहन लो। तो वह चूड़ी के डर से जूता मार लेगा। लोगों ने लड़कों से पूछा, ‘यह आंदोलन किस हेतु कर रहे हो?’ लड़कों ने कहा, ‘हमें नहीं मालूम। हमें तो चूड़ियां आ गईं थीं। इसलिए कर रहे हैं।’ 
मगर राजधानी के विदेशी दूतावास और पत्रकार चौंक पड़े। यह क्या हो रहा है? विद्रोह? क्रांति? एक दौर लाठी चार्ज और फायरिंग का चला। विदेशी पत्रकार मंत्रमुग्ध घूम रहे थे। उन्होंने संघर्ष समिति के प्रतिनिधि से मुलाकात की। कहा, ‘आपका व्यापी विद्रोह देखकर हम सब चकित हैं। आप देश को बदलना चाहते हैं। अपना ‘मेनिफेस्टो’ हमें दीजिए। हमें बताइए कि इस देश के सामाजिक-आर्थिक ढांचे में क्या बुनियादी परिवर्तन आप लोग चाहते है?’ 
छात्र नेता ने जवाब दिया, ‘हमें तो बस एक लघुशंका गृह चाहिए।’

Short version of  लघुशंका गृह और क्रांति 

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मंगलवार, 17 जून 2014

शरद जोशी का व्यंग्य - अतिथि! तुम कब जाओगे

शरद जोशी/ Sharad Joshi
sharad joshi vyang , शरद जोशी के व्यंग्य, शरद जोशी की रचनाएं, शरद जोशी के लघु व्यंग्य, भारत के महान व्यंग्यकार, शरद जोशी किताबेंतुम्हारे आने के चौथे दिन, बार-बार यह प्रश्न मेरे मन में उमड़ रहा है, तुम कब जाओगे अतिथि! तुम जिस सोफे पर टांगें पसारे बैठे हो, उसके ठीक सामने एक कैलेंडर लगा है, जिसकी फड़फड़ाती तारीखें मैं तुम्हें रोज दिखाकर बदल रहा हूं। मगर तुम्हारे जाने की कोई संभावना नजर नहीं आती। लाखों मील लंबी यात्रा कर एस्ट्रोनॉट्स भी चांद पर इतने नहीं रुके, जितने तुम रुके। क्या तुम्हें तु्म्हारी मिट्टी नहीं पुकारती? जिस दिन तुम आए थे, कहीं अंदर ही अंदर मेरा बटुआ कांप उठा था। फिर भी मैं मुस्कुराता हुआ उठा और तुम्हारे गले मिला। तुम्हारी शान में ओ मेहमान, हमने दोपहर के भोजन को लंच में बदला और रात के खाने को डिनर में। हमने तुम्हारे लिए सलाद कटवाया, रायता बनवाया और मिठाइयां बुलवाईं। इस उम्मीद में कि दूसरे दिन शानदार मेहमान नवाजी की छाप लिए तुम रेल के डिब्बे में बैठ जाओगे। मगर, आज चौथा दिन है और तुम यहीं हो। कल रात हमने खिचड़ी बनाई, फिर भी तुम यहीं हो। तुम्हारी उपस्थिति यूं रबर की तरह खिंचेगी, हमने कभी नहीं सोचा था। सुबह तुम आए और बोले, ‘लॉन्ड्री में कपड़े देने हैं।’ मतलब? मतलब यह कि जब तक कपड़े धुलकर नहीं आएंगे, तुम नहीं जाओगे? यह चोट मार्मिक थी, यह आघात अप्रत्याशित था। मैंने पहली बार जाना कि अतिथि केवल देवता नहीं होता। वह मनुष्य और कई बार राक्षस भी हो सकता है। यह देख मेरी पत्नी की आंखें बड़ी-बड़ी हो गईं। तुम शायद नहीं जानते कि पत्नी की आंखें जब बड़ी-बड़ी होती हैं, मेरा दिल छोटा-छोटा होने लगता है। कपड़े धुलकर आ गए और तुम यहीं हो। तुम्हारे प्रति मेरी प्रेमभावना गाली में बदल रही है। मैं जानता हूं कि तुम्हें मेरे घर में अच्छा लग रहा है। सबको दूसरों के घर में अच्छा लगता है। यदि लोगों का बस चलता तो वे किसी और के ही घर में रहते। किसी दूसरे की पत्नी से विवाह करते। मगर घर को सुंदर और होम को स्वीट होम इसलिए कहा गया है कि मेहमान अपने घर वापिस भी लौट जाएं। देखो, शराफत की भी एक सीमा होती है और गेट आउट भी एक वाक्य है, जो बोला जा सकता है। कल का सूरज तुम्हारे आगमन का चौथा सूरज होगा। और वह मेरी सहनशीलता की अंतिम सुबह होगी। उसके बाद मैं लड़खड़ा जाऊंगा। यह सच है कि अतिथि होने के नाते तुम देवता हो, मगर मैं भी आखिर मनुष्य हूं। एक मनुष्य ज्यादा दिनों तक देवता के साथ नहीं रह सकता। देवता का काम है कि वह दर्शन दे और लौट जाए। तुम लौट जाओ अतिथि। इसके पूर्व कि मैं अपनी वाली पर उतरूं तुम लौट जाओ।

Short version of अतिथि! तुम कब जाओगे 

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शूमाकर की रिकवरी में भारतीय डॉक्टरों का “योगदान”!

जयजीत अकलेचा/ Jayjeet Aklecha


पेरिस। फॉर्मूला वन रेसर माइकल शूमाकर कोमा से बाहर आ गए हैं, लेकिन आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि इसका पूरा श्रेय भारतीय डॉक्टरों को जाता है। कैसे, इसकी भी एक दिलचस्प कहानी है। 
दरअसल, शूमाकर को गत 29 दिसंबर को स्कीइंग करते समय घातक चोट के बाद फ्रांस के ग्रेनोबेल स्थित जिस अस्पताल में भर्ती करवाया गया था, वह भारतीय डॉक्टराें के ही एक समूह का है। शूमाकर को भर्ती करवाते समय ही इन डॉक्टरों को लग गया था कि शूमाकर अब नहीं बचेंगे। एक या दो दिन के ही मेहमान हैं। अगर दूसरे डॉक्टर्स होते तो वे शूमाकर को घर ले जाने की सलाह देते। लेकिन इन भारतीयों डॉक्टरों ने अपनी योग्यतानुसार शूमाकर को कुछ दिन कोमा में बताकर अस्पताल के आईसीयू में रख दिया। डॉक्टरों के दिमाग में तो एक ही बात थी कि आईसीयू का एक दिन का चार्ज 800 डॉलर है। फिर कुछ दिन बाद उन्हें वेंिटलेटर पर रख दिया गया। चार्ज प्रति दिन 1200 डॉलर। हालांकि डॉक्टरों को मालूम था कि शूमाकर को बचाना नामुमकिन है, फिर भी वे उनके परिजनों को आश्वासन देते गए। एक सूत्र ने नाम नहीं छापने की शर्त पर बताया कि चूंकि ये सभी भारतीय डॉक्टर सारे भारत से आए थे और इसलिए उन्हें पता था कि किसी मरीज के परिजनों को किस तरह इमोशनली ब्लैकमेल किया जा सकता है। उन्होंने वही किया। छह माह में सवा दस लाख डॉलर (करीब छह करोड़ रुपए) की वसूली के बाद जब डॉक्टरों से सोचा कि अब शूमाकर के परिजनों को दुखद खबर बताने का वक्त आ गया है तो उसी समय इस खिलाड़ी के शरीर में हरकत हुई और वे कोमा से बाहर आ गए। 
बाद में इन डॉक्टरों ने एक बुलेटिन जारी कर कहा कि हमारी दवा और शूमाकर के प्रशंसकों की दुआओं का ही नतीजा है कि वे आज कोमा से बाहर आ गए हैं। फ्रांसीसी मीडिया ने भी इन भारतीय डॉक्टरों की प्रशंसा करते हुए इन्हें भगवान करार दिया है। इस बीच, ग्रेनोबेल स्थित इस निजी अस्पताल का विस्तार करते हुए इसमें तीन नए आईसीयू बनाए जा रहे हैं। डॉक्टरों के स्टाॅफ में भी सात नए भारतीय डॉक्टरों को शामिल कर लिया गया है।

सोमवार, 16 जून 2014

आशुतोष गोवारिकर बनाएंगे आम आदमी पार्टी पर पीरियड फिल्म!

जयजीत अकलेचा/ Jayjeet Aklecha
खांसी ने बदली राजनीति की दिशा

मुंबई। लगान और जोधा-अकबर जैसी सफल पीरियड फिल्मों का निर्देशन करने वाले आशुतोष गोवारिकर जल्द ही आम आदमी पार्टी पर एक पीरियड फिल्म बनाने जा रहे हैं। यह फिल्म बताएगी कि कैसे खांसी और मफलर ने भारत नामक देश में राजनीति की पूरी दिशा ही बदल दी। इसमें जाने-माने समाजसेवी अन्ना हजारे कैमियो करने को राजी हो गए हैं। 

गोवारिकर के करीबी सूत्रों के अनुसार निर्देशक ने इस संबंध में आम आदमी पार्टी के नेता अरविंद केजरीवाल से भी मुलाकात की और उनसे फिल्म निर्माण की अनुमति मांगी। अरविंद ने आम लोगों की राय के बाद ही इसकी अनुमति देने की बात कही। हालांकि पंद्रह मिनट के बाद ही उन्होंने करीब एक करोड़ लोगों से बातचीत और उनके एसएमएस के आधार पर फिल्म निर्माण की मंजूरी दे दी। यह फिल्म मूलतः अरविंद केजरीवाल की खांसी और उनके मफलर पर केंद्रित रहेगी। 

गोवारिकर की गिनती ऐसे निर्देशकों में होती है, जो अपनी फिल्मों के एक-एक दृश्य को बहुत ही बारीकी से बुनते हैं। इसलिए उन्होंने खांसी के अध्ययन के लिए डाॅक्टरों की एक विशेष टीम हायर की है। यह टीम बताएगी कि फिल्म का मुख्य पात्र किस तरह खांसता था और उसी के अनुरूप फिल्मांकन किया जाएगा। इसी तरह उस मफलर की तलाश के लिए गोवारिकर ने एक टीम विदेशों में भिजवाई है जो अरविंद इस्तेमाल करते थे। अरविंद ने यह कहकर अपना मफलर देने से इनकार कर दिया कि फिलहाल उनके जीवन में इसकी कोई अहमियत नहीं है।   

कौन निभाएगा मुख्य किरदार? मुख्य किरदार निभाने के लिए गोवारिकर शीघ्र ही देश के प्रमुख टीबी हाॅस्पिटलों में जाकर काॅस्टिंग और आॅडिशन करेंगे। उन्हें उम्मीद है कि वहां ऐसा कोई व्यक्ति जरूर मिल जाएगा जिसे ‘आम आदमी पार्टी’ फिल्म में मुख्य किरदार का रोल दिया जा सके। गोवारिकर के एक अनुभवी क्रू मेंबर ने बताया, ‘हमने अरविंद केजरीवाल की खांसी का गहन अध्ययन किया है। वे जब खांसते हैं तो लगता ही नहीं है कि कोई ड्रामा या एक्टिंग कर रहे हैं। बिल्कुल रियल खांसी। हम इस रोल के लिए किसी ऐसे ही शख्स की तलाश में हैं जो आम आदमी जैसा लगे और उसकी खांसी भी नेचुरल हो।’ अन्ना हजारे द्वारा कैमियो रोल करने की संभावना है, हालांकि अन्ना ने इसकी पुष्टि नहीं की है।