गुरुवार, 29 अगस्त 2024

अंबानी अपने बच्चों की शादियों पर अरबों खर्च कर सकते हैं... मगर स्टीव जॉब्स के बच्चे अपने पिता की कंपनी से भी बाहर...!


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By जयजीत अकलेचा
अंबानी परिवार द्वारा अपने बेटे की शादी पर (कथित तौर पर) 5,000 करोड़ रुपए खर्च करने के बाद एक खबर टाटा से आई। टाटा के वंशज 32 वर्षीय नेविल टाटा को कंपनी में एक बड़ी जिम्मेदारी सौंपी गई है। अडाणी घराने की कमान भी जल्द ही उनके दोनों बेटों के हाथों में होगी। ऐसे में उस कंपनी के बारे में जानना दिलचस्प होगा जो इन तमाम कंपनियों ने कहीं आगे हैं, मार्केट कैपिटलाइलेशन में, रेवेन्यू में, ब्रांड में। यह कंपनी है एपल।
एपल मार्केट कैपिटलाइलेशन में दुनिया की नंबर वन कंपनी है। 3 ट्रिलियन डॉलर यानी 250 ट्रिलियन रुपए का मार्केट कैपिटलाइलेशन है इसका। टाटा की तमाम कंपनियों का मार्केट कैपिटलाइलेशन 33 ट्रिलियन रुपए, रिलायंस का 20 ट्रिलियन रुपए और अडाणी ग्रुप का केवल 3 ट्रिलियन रुपए है।
- एपल की स्थापना की थी स्टीव जॉब्स ने। यह सब जानते हैं। लेकिन यह जानना दिलचस्प है कि आज दुनिया की नंबर वन कंपनी का कोई मालिक नहीं है। असल मालिक शेयरहोल्डर्स हैं, वाकई में शेयर होर्ल्डस, केवल कहने के लिए नहीं।
- चूंकि एक मालिक नहीं है, इसलिए कंपनी शादियों पर करोड़ों खर्च नहीं करती, यहां तक कि कंपनियों के बड़े-बड़े अधिकारी भी सामान्य तरीके से रहते हैं। सीईओ व फाउंडर स्टीव जॉब्स ताउम्र पेलो अल्टो के एक छोटे से घर में और फिर एक ड्यूप्लेक्स में रहे। जब आप उनकी जीवनी (वॉल्टर आइज़ैक्शन की ऑफिशियल बायोग्राफी) पढ़ते है तो यह जानकर आश्चर्य होता है कि उनके घर में लंबे समय तक एक सोफासेट तक नहीं था।
- स्टीव जॉब्स ने चंद डॉलर्स में शुरू की गई कंपनी को अरबों डॉलर तक पहुंचाया। लेकिन इसी कंपनी ने उन्हें बाहर निकाल दिया क्योंकि उसके बोर्ड ऑफ डायरेक्टर्स को लगता था कि जॉब्स कंपनी को नुकसान पहुंचा रहे थे। क्या हमारे यहां किसी कंपनी के संस्थापक को बाहर किया जा सकता है? एपल का यह संस्थापक दस साल तक बाहर रहा। फिर जब बोर्ड ऑफ डायरेक्टर्स को लगा कि कंपनी जॉब्स के बगैर नेक्स्ट लेवल पर नहीं जा सकती तो उन्हें फिर से लेकर आए, सीईओ बनाया... और फिर तो एपल ने इतिहास रच दिया।
- अंबानी परिवार के बच्चे क्या करते हैं? किसी को अंदाजा लगाने की जरूरत भी नहीं है। मगर स्टीव जॉब्स के चार बच्चे हैं और एक भी कंपनी से सीधे कनेक्ट नहीं हैं (बेशक, स्टीव जॉब्स के पर्सनल शेयरों की वजहों से उनके पास भी अपने पिता की करोड़ों डॉलर की सम्पत्ति में बड़ी हिस्सेदारी है)। उनकी एक बेटी पत्रकार व लेखिका हैं, बेटे मेडिकल रिसर्च पर काम करते हैं, एक बेटी फैशन सेक्टर में एक्टिव हैं। किसी के पास भी अपने पिता की स्थापित कंपनी के किसी भी सेक्शन की कोई जिम्मेदारी नहीं है।
- स्टीव जॉब्स की कैंसर से मौत हुई थी। वे बच सकते थे, बशर्ते अगर वे अपने प्रभाव का इस्तेमाल करते और लिवर प्रत्यारोपण के लिए आम लोगों की तरह अपनी बारी का इंतजार नहीं करते। उनके प्रभाव का आकलन केवल इस तथ्य से लगा सकते हैं कि अमेरिका के राष्ट्रपति बिल क्लिंटन और फिर बराक ओबामा से बात करने के लिए उन्हें अपॉइंटमेंट नहीं लेने पड़ते थे।
- ऐसे ढेरों किस्से स्टीव जॉब्स की ऑफिशियल बायोग्राफी में दिए गए हैं। इसके लेखक हैं वॉल्टर आइजैक्शन। इस लेखक के लेवल का अंदाजा लगाइए कि जब स्टीव जॉब्स ने उनसे कहा, 'मैं चाहता हूं कि आप मेरी जीवनी लिखें' तो आइजैक्शन ने इससे इनकार करते हुए कहा, 'अभी नहीं। शायद एक दशक के बाद देखते हैं, जब आप रिटायर हो जाएंगे।' फिर केवल इसलिए लिखी क्योंकि जॉब्स की पत्नी ने उनसे गुजारिश की कि अगर आप अभी नहीं लिख सकते तो फिर कभी नहीं लिख पाएंगे... हालांकि जॉब्स तो इसे कभी पढ़ भी नहीं पाए। उन्होंने अपने लेखक से वादा किया था कि वे प्रकाशन से पहले उसके भीतर झांकेंगे भी नहीं। वे प्रकाशित होने के बाद जरूर पढ़ेंगे। उन्होंने अपना पहला वादा पूरा किया, लेकिन दूसरा वादा नियति ने पूरा नहीं करने दिया। प्रिंट होने के 19 दिन पहले ही इनोवेशन जगत का यह सितारा कहीं दूर जा चुका था।
मुझे वॉल्टर आइजैक्शन की इस ऑफिशियल बायोग्राफी के माध्यम से स्टीव जॉब्स की जिंदगी के अनेक पहलुओं से हाल के महीनों में रूबरू होने का मौका मिला है।
दुर्भाग्य से इस अद्भुत शख्स की यह अद्भुत ऑफिशियल बायोग्राफी वर्षों तक हिंदी में नहीं आ पाई है। ...क्या इसे हिंदी में नहीं छपना चाहिए?

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रविवार, 28 जुलाई 2024

इन सड़कों में ही हमारा ‘कल’ छिपा है, इस इनोवेशन के लिए सैल्यूट...!

 

By Jayjeet

इन दिनों हम सबमें इतनी नकारात्मकता भर गई है कि कई असल इनोवेशन भी हमारी नुक्ताचीनी से बच नहीं पाते हैं। हम कुछ न कुछ खामियां ढूंढ़ते रहते हैं। अब इस सड़क को या इसी तरह की और भी सड़कों को देखिए। जबसे बारिश का सीजन आया है, मेरे कान यह सुनते-सुनते पक गए हैं कि देखो, कैसे पहली ही बारिश में सड़क गड्ढों में बदल गई। लेकिन सच तो यह है कि ये असल में एक इनोवेशन है, दूरदर्शिता की अनुपम मिसाल। इसमें ही हमारा कल, हमारा सुखद भविष्य छिपा है।
थोड़ा पीछे चलते हैं। कुछ माह पहले ही हम सब लोग गर्मी से त्राहिमाम कर रहे थे। जमीन के भीतर घटते भू-जल स्तर पर चिंता जताई जा रही थी। स्वाभाविक भी था। हर जगह कांक्रीटीकरण होने से भला पानी जमीन के भीतर जा भी कैसे सकता था?
लेकिन धन्य हो हमारे देश के इंजीनियर-अफसर-ठेकेदार। उन्होंने इस चिंता को समझा और इस तरह वे एक अनूठा कॉन्सेप्ट लेकर आए। इस कॉन्सेप्ट के अनुसार ठंड से लेकर गर्मी तक सड़कें केवल सड़क का काम करेंगी और बारिश होते ही ग्राउंड वॉटर रिचार्जेबल रोड्स में तब्दील हो जाएंगी।
कोशिश यही है कि बारिश की एक भी बूंद बर्बाद ना हो और इसलिए इन सड़कों के निर्माण के दौरान ही एक खास तकनीक का इस्तेमाल किया गया है। तकनीक यह है कि बारिश की पहली बूंदों का स्पर्श होते ही इनमें लगे सेंसर काम करने लगें और वे सड़क को तुरंत गड्ढों में तब्दील कर दें। ऐसी सड़कें पूरे बारिश के महीने में इसी तरह पानी से भरी रहेंगी और जमीन के भीतर पानी की आपूर्ति करती रहेंगी। इस तरह ये हमारा कल सुरक्षित करने का काम करेंगी।
सवाल यह है कि बारिश के बाद क्या होगा? इसकी भी एक स्व-चालित प्रक्रिया है। नया टेंडर पास होगा और फिर ऐसी सड़कें बनाई जाएंगी जो गर्मी तक सड़क जैसा आभास देंगी। ये बारिश होने तक सड़क की तरह काम करती नजर आएंगी, और बारिश की पहली ही बूंदों से हमारे भविष्य को सुरक्षित करने में जुट जाएंगी।
तो जब भी आपको सड़क पर पानी से भरा कोई बड़ा गड्‌ढा नजर आए तो वर्तमान पर दुख जताने के बजाय यह सोचें कि हमारा-आपका भविष्य कितना सुरक्षित है....
ऐसे क्रिएटिव काम करने वालों को सैल्यूट! आप भी कीजिए!!
#monsoon2024 #potholes # जयजीत अकलेचा
(तस्वीर प्रतीकात्मक है, जो हर शहर की अपनी जैसी हर सड़क का प्रतिनिधित्व करती है।)

बुधवार, 5 जून 2024

मोदी ने ‘अटलजी’ बनने का मौका गंवा दिया …?

 

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हारकर भी जीत गए थे अटलजी, ये जीतकर भी हार गए...!!!

By Jayjeet Aklecha
वह 13 मई 2004 की वैसे ही तपती दोपहरी थी। 12 बजते-बजते चौदहवीं लोकसभा चुनावों के नतीजों का एक मोटा-मोटा रुझान सामने आ चुका था। अटल बिहारी वाजपेयी चुनाव हारने जा रहे थे। ‘इंडिया शाइनिंग’ का नारा जमीन पर चित्त पड़ा था।
आज 4 जून 2024 की दोपहर भी इससे जुदा नहीं थी। उतनी ही गर्मी थी, सियासी भी और मौसमी भी। तो क्या इन चुनावों के नतीजों ने भी उसी परिदृश्य को दोहराया है? भाजपा के समर्थकों (जिनका अब भक्तों के तौर पर रूपांतरण हो चुका है) में जिस तरह से मातम पसरा हुआ है, उससे तो ऐसा ही प्रतीत हो रहा है।
लेकिन नहीं। हो सकता है मातम उतना ही हो, मगर परिदृश्य बिल्कुल अलग है। अटलजी ने वह चुनाव ‘इंडिया शाइनिंग' के स्लोगन पर लड़ा था। हां, वही स्लोगन जिसका कई लोग आज भी मजाक उड़ाते हैं। लेकिन जरा अटलजी के इस स्लोगन का मोदी के ‘इंडिया ग्लूमिंग' वाले टोन के साथ तुलना कीजिए। एक पल में आपको वो नारा बेहद खूबसूरत नजर आने लगेगा। मुझे तो आता है। सबसे बड़ा अंतर ही यही है कि जहां अटलजी सकारात्मक मुद्दों पर चुनाव हारे, वहीं मोदी एंड टीम ने पूरे चुनाव को नकारात्मक मु्द्दों से इतना भर दिया कि उनकी इस लगभग जीत को भी ‘हार’ की तरह ट्रीट किया जा रहा है! घुसैठिए, मंगलसूत्र और न जाने क्या-क्या... नैराश्य से मचा हुआ। हममें से ऐसा कौन है, जो बीते दो माह के इस चुनाव प्रचार को याद भी रखना चाहेगा?
और एक और अंतर… अटलजी ने सत्ता गंवा दी। प्रधानमंत्री नहीं रहे। उस सदमे से वे कभी उबर भी नहीं पाए, मगर विनम्रता और असहमति का भी सम्मान करने की भावना जैसे कई उदात्त गुणों की वजह से इतिहास ने उन्हें एक ‘स्टेट्समैन' के तौर पर याद किया। आज भी करता है और हमेशा करता रहेगा।
मोदी ने जीतकर भी यह मौका गंवा दिया है। अगर वे 370 सीटें भी जीत जाते, या 400 भी या 543 भी, तब भी इतिहास उन्हें ‘स्टेट्समैन' का दर्जा कभी नहीं देता। न कभी देगा। साल 2019 की शुरुआत तक मोदी में भी एक ‘स्टेट्समैन' बनने की प्रबल संभावनाएं थीं। मगर दुर्भाग्य से, उन्होंने प्रयास किया एक ‘कल्ट लीडर’ बनने का। तो वे इतिहास में भी इसी रूप में याद रखे जाएंगे: भक्तों के एक चमत्कारी नेता के तौर पर, राजनेता के तौर पर कदापि नहीं। मोदी जीतकर भी हार गए...। 24*7 काम करने वाले एक परिश्रमी नेता का ऐसा पराभव दु:खद भी है।
पुनश्च… मेरा एक मित्र अभी-अभी कह रहा था कि देश दु:खी है… मोदीजी ने राम मंदिर बनवाया, कश्मीर से धारा 370 हटाई, दुनिया में देश का मान बढ़ाया, जीडीपी की ग्रोथ बढ़ाई, फिर भी लोगों ने उन्हें हरा दिया…
मेरा सवाल - मोदी एंड टीम ने एग्रेसिवली होकर क्या इन मुद्दों पर वोट भी मांगे थे? और जब नहीं मांगे, तो फिर देश को मलाल क्यों?

शनिवार, 25 मई 2024

अरे, अभी तो गर्मी शुरू हुई है....

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By Jayjeet Aklecha/ जयजीत अकलेचा

इस समय हर शहर, हर कस्बे, हर जगह, हर कोने से एक ही बात उठ रही है- गर्मी बहुत है...।
क्या वाकई बहुत है?
नहीं जी। अभी भी इतनी नहीं है कि हम बारिश की चंद बूंदों के बाद भी इसे याद रख सके...
इतनी भी नहीं है कि कटते पेड़ों की खबरें हमें एंग्जाइटी की हद तक बेचैन कर सके...
इतनी भी नहीं है कि यह हमें हम धर्म, जाति के बजाय पर्यावरण के मुद्दे पर वोट देने को विवश कर सके...
इतनी भी नहीं कि यह नेता लोगों को हमें सुरक्षित पर्यावरण की गारंटी देने के लिए मजबूर कर सके...
तो देखिए, अब भी गर्मी इतनी कहां है?
हमारी-आपकी कॉलोनी में जो जगह बगीचे के लिए रखी गई थी, वहां धर्म के नाम पर कब्जा देखकर क्या हमें गुस्सा आता है?
नया मकान खरीदते हुए क्या हम अपने बिल्डर से यह पूछते हैं कि हरियाली के नाम पर सैकड़ों गैलन पानी पीने वाली कथित हरी घास और केवल ताड़ के पेड़ क्यों?
अगर हम किसान हैं तो कभी खुद से पूछते हैं कि अपने खेतों में दूर-दूर तक एक भी पेड़ क्यों नहीं? या कभी थे तो वे आज कहां हैं?
क्या बड़े-बड़े आर्किटैक्ट खुद से पूछते हैं कि ठंडे यूरोपीय देशों की नकल करने के फेर में वे यह कैसे भूल गए कि भारत जैसे गर्म देशों की इमारतों में इतने शीशों का क्या काम?
तो सूरज देवता, आपसे उम्मीद है कि आप गर्मी का प्रकोप जारी रखेंगे...।
44, 45, 46, ...! इसी से हम घबरा जाएंगे तो 50-55 को कैसे झेलेंगे? ये तो मैच से पहले की नेट प्रैक्टिस है, या कह सकते हैं कयामत की पूर्व संध्या!
आप तो अभ्यास करवाइए...! यह जरूरी है...!!!
और, इतनी भर गर्मी में भी मुझे एक गाना याद आ रहा है- डीजे को भी समझा दो प्यारे म्यूजिक गलती से रुक ना पाए, क्योंकि अभी तो पार्टी शुरू हुई है...!!!

सोमवार, 20 मई 2024

शरद जोशी का व्यंग्य - वोट ले दरिया में डाल


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वर्ष 1960 में नॉर्थ टीटी नगर भोपाल स्थित शासकीय आवास में शरद
जोशीजी का क्लिककिया गया युवावस्था का एक दुर्लभ फोटो।
छायांकन - जगदीश कौशल, भोपाल
शरद जोशी

राजनीति के चरित्र में एक ही खूबी है कि उसका कोई चरित्र नहीं होता। न चरित्र होना ही उसका चरित्र है। चरित्रवान लोग जब राजनीति करते हैं, वे निरन्तर अपने को सच्चरित्र और दुश्चरित्र करते हुए एक क़िस्म से चरित्र-रहित हो जाते हैं। व्यक्तित्व जहाँ बेपेंदी के लोटे होने लगते हैं, वहाँ से राजनीति की शुरुआत होती है। राजनीति एक केन्द्रहीन गोल चक्कर या चक्करों का सिलसिला है, जिसका व्यास, परिधि और केन्द्रबिन्दु अनिश्चित होते हैं। दसों दिशाओं में उसकी गति है जो अपने-आपमें दुर्गति है, मगर किया क्या जा सकता है, क्योंकि यही राजनीति है। जहाँ अधोगति अक्सर प्रगति और प्रगति दुर्गति लगती हो, उस बिन्दु को राजनीति कहते हैं। शब्दों के खेल को आगे बढ़ाते हुए कहूँ कि यही उसकी सद्गति है।

राजनीति में शब्द झूठ के माध्यम हैं और वे लगातार भार ढोते हैं। राजनीति में शब्द केंचुए का जीवन जीते हैं, जिनकी न रीढ़ होती है और न दिशा। वे लगातार एक ही गन्दगी पर चल रही सक्रियता की पहचान बने लगातार वहीं-वहीं हिलते चलते रहते हैं। राजनीति में शब्द भूसे के ढेर हैं, जिसमें से एक भी दाना नहीं निकलता। दाना सत्य होता है और सत्य का राजनीति में एक सिरे से अभाव होता है। राजनीति में सत्य का झूठ की तरह इस्तेमाल किया जाता है। यदि ज़रूरत हो तो राजनीतिज्ञ सच बोल जाता है, जिससे वह बाद में इन्कार कर देता है कि यह झूठ है। राजनीति में अपना-अपना झूठ ही अपना-अपना सच होता है। दूसरे का सच अक्सर झूठ और अपना झूठ सदैव सच होता है; अर्थात् पता नहीं, क्या झूठ और क्या सच होता है। शब्द इसका भार ढोते हैं। वे नहीं जानते, वे क्या कर रहे हैं, क्या भार ढो रहे हैं।

राजनीति में झूठ बयान की स्पष्टता और गरिमा से सामने आता है। आकाश में बयानों का मेला-जमघट बना रहता है। बयान से बयान टकराते हैं, कई बार दो बयान मिल कर एक हो जाते हैं, कई बार एक ही बयान दो भागों में बंट जाता है और दोनों भाग एक-दूसरे के खिलाफ बन जाते हैं। बयान होने पर भी निरर्थक होते हैं, निरर्थक होने पर भी बयान होते हैं। अक्सर खामोशी बयान होती है। शब्द अर्थहीन और अर्थ शब्दहीन हो जाता है। दोनों हीन होते हैं, महीन होते हैं, ज़हीन कभी नहीं होते। आकाश में ऐसे बयानों के जमघट और गरज-तरज से राजनीति चूती है, टपकती है, चुचुआती है। लोग आसमान निहारते रहते हैं। वे छाता लगाए आसमान निहारते हैं। वे पूरी आत्म-सुरक्षा के साथ राजनीति के टपकने, धरती तक आने का इन्तज़ार करते हुए बड़ी प्यासी मुद्रा में पानी पी-पी कर आसमान निहारते हैं और कोसते हैं कि वह नहीं टपकती। सब-कुछ होने पर भी न हो सकने का नाम राजनीति है।

राजनीति एक स्त्री है जो ऐसे सुकोमल बच्चों को जन्म देती है, जो आगे चल कर विषैले साँप और भुजंग बन जाते हैं। हम राजनीति को एक खूसट माँ की तरह देखते हैं, जो अपने इन भुजंगों के सिर पर हाथ फेरती रहती है। राजनीति एक वेश्या है, जिसे हर ग्राहक पतिव्रता समझता है। राजनीति निष्ठावानों और ईमानदारों की मालकिन और बेईमानों और धोखेबाज़ों की दासी है। राजनीति सबकी हो कर भी किसी की नहीं है। रात की पार्टी में आई चालू औरत की तरह वह सबको निकटता का आभास देती हुई वाक़ई निकट हो सकती है, मगर वह उसकी नहीं है जिसके निकट है। राजनीति किसी की नहीं, यों जब जिसकी हो जाए, उसकी है। सब अपनी-अपनी राजनीति लिए घूमते हैं। वे नहीं जानते कि वास्तव में राजनीति उन्हें लिए घूम रही है। राजनीति आपको ऐसा सुख देती है, जैसे वह आपकी गोद में बैठी हो।

राजनीति एक कचरापेटी है, जिसे खुली तिजोरी की गरिमा प्राप्त है। कचरापेटी में जो कचरा है, वह तिजोरी का रत्न कहलाता है। यह कचरापेटी लगातार हिलती रहती है और कचरा ऊपर-नीचे होता रहता है अर्थात् रत्नों के ढेर में रत्न देखे-परखे जाते हैं। जिस रत्न का भाग्य होता है, वह मुकुट पर लग जाता है। मुकुट पहनने वाला पूरा देश यह नहीं जान पाता कि वह सिर पर कचरा रखे है। राजनीति कचरे को रत्न का ग्लैमर देती है। पत्थर-कंकड़ सितारे लगने लगते हैं। और उन्हें बरसों बाद पता चलता है कि उनकी गतिविधियों का स्वर्ग वास्तव में एक विराट कचरापेटी है। सिद्धान्त रंग के डिब्बों का विभिन्न नाम है। राजनीति अलग-अलग रंग के डिब्बों का प्रयोग कर कचरापेटी का सौन्दर्य बदलती रहती है।

राजनीति महायात्रा है। वह कुर्सियों के प्रदेश तक भेड़ियों की महायात्रा है। ये भेड़िये बकरियों और भेड़ों के गाँव में अपनी पगडंडियाँ तलाशते लगातार आगे बढ़ते जाते हैं। जिसके कब्ज़े में जितनी भेड़-बकरियाँ आती हैं, उसकी यात्रा उतनी ही सुखद और सुरक्षित हो जाती है। बकरियाँ एक भेड़िये से पीछा छुड़ा, दूसरे भेड़िये के चंगुल में फँस जाती हैं। राजनीति की महायात्रा में भेड़-बकरियों का यही योगदान है। भेड़िये बढ़ते रहते हैं। एक-दूसरे को चकमा देते, भूलभुलैया में डालते, घायल करते, नोचते, मारते वे जल्दी-से-जल्दी कुर्सियों के प्रदेश तक पहुँचना चाहते हैं। महायात्रा की अन्तिम मंज़िलों में भेड़िये वेजीटेरियन हो जाते हैं और बकरियों का विश्वास अर्जित करने लगते हैं।

चॉकलेट की कुर्सी है, जिस पर मावे का बंगला बना है और बाहर आइसक्रीम की कार खड़ी है। मंज़िल एक विशाल केक की तरह सामने है। भेड़िये कुर्सी पर चढ़ बँगले में घुस जाते हैं, अन्दर टुकड़ा खाने के लिए बाहर भेड़-बकरियाँ जय-जयकार के नारे लगाती हैं। भेड़िये प्रसन्न हैं, अपनी मंज़िल पर पहुँच कर। राजनीति ऊष्मा है, गर्मी है, जो चॉकलेट की कुर्सी और मावे के बैंगले को पिघला देती है और चाटता हुआ, मुँह पोंछता हुआ भेड़िया फिर लपलपाती निगाहों से बकरियों की ओर देखता नज़र आता है। अपने उच्चतम रूप में राजनीति सिर्फ इतनी है।

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मंगलवार, 14 मई 2024

उर्दू व्यंग्य : मंटो की रचनाओं का कोलाज़

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अनुवाद एवं संयोजन : अख्तर अली ( प्रख्यात रंगकर्मी, लेखक एवं व्यंग्यकार)

शारदा सुनो तो |
हां बोलो ?
आज कल तुम किसके साथ हो ?
कल महेश के साथ थी और आज रमेश के साथ हूं |
और कल ?
कल तो इतवार है कल मैं अपने खुद के साथ रहूंगी |
XXXXXXXXXXXXXXXXX
अरे दीनानाथ आज कल कहां रहते हो ?
आज कल मैं कहीं नहीं रहता | दिन भर सड़क पर चलता हूं , नल का पानी पीता हूं और रात को किसी बंद दुकान की सीढियों पर सो जाता हूं |
लेकिन तुम्हारे पास तो तुम्हारे रहने लायक एक अच्छा सा घर था |
उसे मकान मालिक ने खाली करा लिया है |
क्यों ?
वहां पर वह अपनी भैंस रखेगा |
वह तो भैंस के रहने लायक जगह है ही नहीं वहां तो उसकी भैंस बीमार हो जायेगी |
XXXXXXXXXXXXXXXXX
मंटो कल मेरी किताब का विमोचन है आप भी आईएगा |
विमोचन किस के हाथो होगा ?
सेठ दौलत चंद के हाथो |
यानि आप अपनी किताब की नथ उतरवाई की रस्म सेठ जी से करवा रहे है |
XXXXXXXXXXXXXXXX
मंटो तुम ज़रा भी मज़हबी नहीं हो |
कैसी बात कर रहे है मैं तो जब भी जुमा को शराब पीता हूं तो पानी बकायदा मस्जिद के हौज़ का ही लेता हूं |
लेकिन कल तुम मौलाना साहब से मस्जिद के संबंध में क्या कह रहे थे ?
वह मस्जिद के संबंध में नहीं गर्मी के संबंध में कह रहा था |
क्या कह रहे थे ?
यही कि गर्मी में वहां का फ़र्श इतना गरम हो जाता है कि मस्जिद में कदम रखते ही लगता है जहन्नम में आ गये |
XXXXXXXXXXXXXXX
जानते हो भारत पाक बटवारे में एक लाख हिंदू और एक लाख मुसलमान मारे गये |
यार तुम्हारे में बात करने की ज़रा भी तमीज़ नहीं है | मत कहो कि एक लाख हिंदू और एक लाख मुसलमान मारे गये | कहो कि दो लाख इंसान मारे गये , कब समझोगे कि बंदूक से मज़हब का शिकार नहीं किया जा सकता |
XXXXXXXXXXXXXXXX
तुमने कभी किसी औरत को अपने बच्चे को अपना दूध पिलाते हुए देखा है ?
कैसी बात कर रहे हो यह गंदी बात है |
फिर भी कभी देखना उस वक्त उसके सीने को गोलाइंया मस्जिद के मेहराब के जैसे लगती है वैसी ही पाकीज़गी से भरपूर |
XXXXXXXXXXXXXXX
मैं इस कदर आशिक मिज़ाज हूं कि एक बार तो मैंने एक लड़की से उसे देखे बिना ही मोहब्बत कर ली थी | यह मोहब्बत टेलीफोन पर राँग नंबर पर बात करने के वक्त हुई थी | जब मैंने उससे मोहब्बत का इज़हार किया तो वह बोली – आपने तो मेरे को देखा नहीं है अगर मैं बदसूरत हुई तो ?
मैंने कहा – मैं तब भी तुम से मोहब्बत करुगा क्योकि मैं ख़ुदा नहीं हूं जो सिर्फ़ अच्छे लोगो को ही पसंद करता है |
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आप औरत के बारे में क्या राय रखते है ?
कुछ औरते बोलती बहुत है लेकिन उनका बदन ख़ामोश रहता है और कुछ औरते चुप रहती हैं लेकिन उनका बदन बहुत शोर मचाता है |
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आधी रात हो चुकी थी मंटो की पत्नी सफ़िया ने कहा – क्या बात है आप इतने बेचैन क्यों है ? मंटो ने कहा – मेरे पेट में कहानी का हमल ठहर गया है | मेरे को कागज़ और कलम दो मैं रचना को जन्म देकर आता हूं |
XXXXXXXXXXXXXXXX
मंटो तुमने मेरे से पांच रुपये उधार लिये थे अब वापस देदे वरना मैं तुम्हारा सिर फोड़ दूंगा |
ठीक है आप मेरा सिर फोड़ देना लेकिन पहले यह बताइये क्या आप को सिर फोड़ना आता है ? देखिये हर काम करने का तरीका होता है मैं उस आदमी के हाथों अपना सिर नहीं फुडवा सकता जिसके पास सिर फोड़ने का सलीका भी न हो|
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इस्मत चुगताई ने किसी मौके पर कहा था – मंटो की शादी सफ़िया से नहीं मेरे से होनी थी | उसकी बीवी उसे ज़रा भी राईटर होने नहीं देती है | मंटो ने कहा था यह तो बहुत अच्छा हुआ जो मेरी शादी सफ़िया से हुई तुम से होती तो तुम मेरे को ज़रा सा भी शौहर होने नहीं देती |
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हर दिल में मोहब्बत की पैदावार नहीं होती | बहुत से दिलो की ये भूमि बंजर भी होती है | कुछ लोग चाह कर भी मोहब्बत पैदा नहीं कर सकते क्योकि उनकी ख्वाहिशे बाँझ होती है |
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मै ऐसी श्रद्दांजलि को निरस्त करता हूँ जिसमे मरने वाले के चरित्र को लांड्री में भेज कर धुलवाया जाये और बकायदा इस्त्री कर के पेश किया जाये |
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मै उस घर को घर नहीं मानता जिसमें चिमटा चूल्हा और तवा न हो |
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मुंबई की साहित्य बरदारी में यह बात मज़े लेकर कही जाती थी कि उर्दू साहित्य में दो बाते बहुत अच्छी हुई कि ग़ालिब कहानीकार नहीं हुए और मंटो शायर नहीं हुए , ये वही हुए जो इन्हें होना था |
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बुधवार, 8 मई 2024

NOTA के तीन फायदे...!!!


NOTA in election , NOTA, नोटा, विधानसभा चुनाव
By Jayjeet Aklecha
लोकसभा चुनाव के लिए प्रचार-प्रसार शुरू हो गया है। हर पार्टी अपने-अपने पक्ष में तर्क-वितर्क-कुतर्क दे रही है। कुछ दिनों पहले नोटा (NOTA) को लेकर चर्चा हो रही थी। चर्चा के दौरान एक का तर्क था कि नोटा मतलब एक वोट की बर्बादी। बिल्कुल, सहमत! यह भी अपने वोट को बर्बाद करने के कई तरीकों में से एक तरीका है। पर नोटा के कई फायदे भी हैं...
पहला, NOTA को वोट देने से आप भविष्य में अपने साथ होने वाले किसी भी 'विश्वासघात' की फीलिंग से बच जाते हैं।
दूसरा, NOTA माने एक निर्जीव चीज। तो उससे कभी भी मोहभंग जैसा आपको फील नहीं होगा।
और तीसरी सबसे बड़ी बात, आप एक आत्मग्लानि से बच जाते हैं। आप वोट देने के चाहें लाख आधार ढूंढ लो- राष्ट्रवाद, हिंदुत्व, धर्मनिरपेक्षता, अपनी कौम, अपनी जाति, अपने वाला... फलाना-ढिकाना। मगर अंदर ही अंदर यह भी जानते हैं कि आपने वोट तो महाभ्रष्टाचारी या महासाम्प्रदायिक या महाजातिवादी या महावंशवादी या जमीनों के महामाफिया या शराब के महामाफिया या महागुंडे या इकोनॉमी के महासत्यानाशी या इसी तरह की महान विशेषताओं वाले गुणी व्यक्ति को दिया है...।
और अब सीरियस बात... लोकतंत्र में प्रतीकों का बड़ा महत्व है। जिस युग में भी 25 फीसदी वोट NOTA को मिलने लगेंगे, बस उस युग से प्रदेश, देश और जनहित में पॉलिसियों के बदलने की युगांतकारी शुरुआत होगी...।
लोकतंत्र में वोट सबसे बड़ी ताकत है और शुक्रिया लोकतंत्र कि उसने NOTA के रूप में इससे भी बड़ी ताकत थमाई है। बस, उन अच्छे दिनों का इंतजार है, जब यह ताकत तमाम महागुणी नेताओं के चेहरों पर तमाचे के रूप में अपनी छाप छोड़ने लगेगी।
तब तक सारे महागुणी नेता हम मतदाताओं को Take It For Granted ले सकते हैं। मतलब हम वोटर्स को महामूर्ख मान सकते हैं, बना सकते हैं...

मंगलवार, 7 मई 2024

एक तरफ खाई, दूसरी तरफ भी खाई... हमारे नेताओं ने कुएं में खुदकुशी करने का विकल्प भी नहीं छोड़ा!!

#NOTA #election

By Jayjeet Aklecha

एक तरफ खाई और दूसरी तरफ भी खाई। अगर कुएं का ऑप्शन भी होता तो थोड़ी तसल्ली के साथ खुदकुशी की जा सकती थी। लेकिन दुर्भाग्य से हमारे तमाम नेताओं ने हमारे लिए यह रास्ता भी नहीं छोड़ा है।
दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में चुनाव हो रहे हैं। दो चरण के चुनाव हो भी चुके हैं और किसी दल के पास आज कोई मुद्दा तक ही नहीं है। हाल के वर्षों में दुनिया के किसी भी सभ्य देश में ऐसा कोई उदाहरण नजर नहीं आता, जब देश के प्रधानमंत्री ने अपने ही देश के एक पूरे समुदाय को हाशिये पर पटकने को अपना मुद्दा बना लिया हो। हमारे यहां यह हो रहा है, इससे बड़ा दुर्भाग्य क्या होगा। फिर भी हम हमारे 'लोकतंत्र' पर फुले नहीं समाते।
ठीक है, मोदी एंड कंपनी को भी छोड़ देते हैं। लेकिन उनके सामने मौजूद देश का सबसे 'युवा एवं उत्साही एवं बिंदास' नेता भी कोई ऐसा विजन पेश नहीं कर पा रहा है, जिसको देखकर हम सब कहे- हां, हां इसी की तो हमें तलाश थी। देश की सबसे बड़ी समस्या बेरोजगारी को लेते हैं। राहुल गांधी ने इसे अपना सबसे बड़ा मुद्दा बना रखा है। अच्छा है। लेकन इसको लेकर उनके पास भी ले-देकर केवल एक यही उपाय है- देश का सरकारीकरण। उन्हें लगता है कि केवल सरकारी पदों को भरने भर से यह समस्या दूर हो जाएगी। एक पढ़े-लिखे व्यक्ति को भी अगर यह भान नहीं है कि सरकारीकरण करने से देश की प्रोडक्टिविटी किस स्तर पर पहुंच जाएगी तो चुनावी मैदान में खड़े अनपढ़ों की तो क्या बात ही करें। राहुल का दूसरा मुद्दा है- आरक्षण। बाकी? नील बंटे सन्नाटा।
अब सवाल जनता का। क्या हमें इन्हीं जुमलों, बदजुबानियों, वादों या गारंटियों पर वोट देना चाहिए? बेशक, चुनावों में वोट डालना जरूरी है। यह कर्त्तव्य भी है। इसलिए इस कर्त्तव्य का पालन पूरी शिद्दत से करना चाहिए। लेकिन वोट डालने जितना ही महत्वपूर्ण एक कर्त्तव्य और हैं- सत्ताधारी लोगों से, राजनीतिक दलों से, नेताओं से सवाल पूछना। आज सबसे बड़ा संकट ही सवाल पूछने की हिम्मत का हिम्मत हारना है। हममें से शायद ही कोई यह सवाल पूछ रहा है या पूछने की हिम्मत कर रहा है कि आज 75 साल के बाद भी देश के लोगों को मुफ्त अनाज और आरक्षण की बैसाखियों की जरूरत क्यों पड़ रही है? और पड़ रही है तो फिर आप किस मुंह से हमसे अपने-अपने दल के लिए वोट मांग रहे हैं?
तो आइए वोट डालें, मगर सवाल पूछने की नैतिकता भी बरकरार रखें। वोट डालने जितना ही जरूरी सवाल पूछना भी है, फिर चाहे कोई भी दल हो, किसी भी दल की सरकार हो। और इस सवाल में नैतिक बल तब होगा, जब आप आज किसी के पक्ष में खड़े नहीं होंगे। वोट देने का मतलब 'ज्यादा खराब' और 'उससे भी ज्यादा खराब' में से किसी एक को चुनने की मजबूरी कतई नहीं होनी चाहिए। आखिर यह समझौता क्यों?
हो सकता है NOTA की कोई संवैधानिक वकत ना हो, मगर यह ताकत बन सकता है अपने असंतोष को जताने की...
आइए, हम सभी लोकतंत्र को शुक्रिया कहें, और वोट जरूर डालें...!!

रविवार, 28 अप्रैल 2024

'लाड़ली बहना' वाले राज्य से महिलाओं की अस्मिता पर उठे कुछ असहज सवाल... जिन पर उठे कुछ और सवाल...!!!

mangalsutra issue in election, मंगलसूत्र पर क्या है विवाद, मोहन यादव मंगलसूत्र बयान
By Jayjeet / जयजीत

इस बात को लेकर मेरी धारणा और भी सुदृढ़ हो गई है कि अगर हम तीसरी या चौथी आर्थिक शक्ति बन भी गए, तब भी इसका मतलब यह कदापि नहीं होगा कि हम विकसित राष्ट्र भी बन गए हैं। विकसित राष्ट्र का मतलब है विकसित और प्रगतिशील सोच भी रखना। क्या हमारे नेताओं की सोच विकसित है? नहीं। शायद विकासशील भी नहीं है, बल्कि पतनशील है। वह राज्य जहां से महिलाओं को 'लाड़ली बहना' के रूप में सम्मान देने का राजनीतिक विचार प्रमुखता से निकला, वहां का मुख्यमंत्री इस तरह की सोच रख सकता है, इस पर विश्वास तो नहीं होता, मगर दुर्भाग्य से करना पड़ता है।
एक प्रमुख पार्टी के मुख्यमंत्री ने एक दूसरी प्रमुख पार्टी की एक महिला नेत्री का नाम लिए बगैर उनसे तीन सवाल पूछे हैं। चूंकि सवाल पूछने वाला एक जिम्मेदार संवैधानिक पर बैठा है। इसलिए इन सवालों पर एक जिम्मेदार नागरिक होने के नाते भी कुछ सवाल बनते हैं। ये सवाल पूछना हर जिम्मेदार और प्रगतिशील सोच रखने वाले नागरिक का कर्त्तव्य भी है, फिर वह किसी भी राजनीतिक विचाराधारा से ताल्लुक रखता हो। ये राजनीतिक नहीं, सामाजिक सवाल हैं और बेहद गंभीर विमर्श की मांग करते हैं। इन पर उन तमाम लोगों को जरूर मंथन करना चाहिए, जो चाहते हैं कि उनकी अगली पीढ़ियां एक सार्थक विकसित भारत में सांस लें। हमें ध्यान रखना होगा माननीय नेताजी ने कल जो बातें की हैं, उन्हें केवल चुनावी जुमलेबाजी कहकर खारिज नहीं किया जा सकता। ये गंभीर इसलिए हैं, क्योंकि ऐसी राजनीतिक सोच ही कालांतर में पूरे समाज की सोच में तब्दील हो जाती है।
संवैधानिक पद पर बैठे व्यक्ति का सवाल नंबर 1 था: अरे, तुम्हारी शादी कहां हुई? तुमने तो क्रिश्चियन परिवार में शादी की है।
नागरिक का सवाल: क्या महिला को इस बात पर सफाई देनी होगी, वह भी सार्वजनिक तौर पर, कि उसकी शादी कहां हुई है, किस धर्म में हुई है? (कल से तो किसी महिला से यह भी पूछा जा सकता है कि तुम्हारी शादी क्यों नहीं हुई या तुमने क्यों नहीं की?)
संवैधानिक पद पर बैठे व्यक्ति का सवाल नंबर 2: अरे, तुम तो शादीशुदा होकर भी मंगलसूत्र क्यों नहीं पहनती?
नागरिक का सवाल: पिछड़ों की राजनीति करते-करते सोच इतनी पिछड़ी कैसे हो सकती है कि आप किसी महिला से ऐसा व्यक्तिगत सवाल पूछ सकते हैं? ऐसे सवाल पटियों पर, चौक चौबारों पर बैठने वाले निठल्ले किस्म के लोग आपस में जरूर करते हैं, या सीमित सोच वाली बुजुर्ग महिलाओं के बीच आम होते हैं। क्या ये सार्वजनिक तौर पर, किसी मंच पर उठाए जा सकते हैं, वह भी किसी संवैधानिक पद पर बैठे हुए व्यक्ति द्वारा?
संवैधानिक पद पर बैठे व्यक्ति का सवाल नंबर 3 : जहां शादी हुई है, वहां के परिवार का सरनेम अपने नाम के साथ क्यों नहीं जोड़ा?
नागरिक का सवाल: क्या हम किसी महिला से यह सीधे-सीधे पूछते हैं या पूछने की हिम्मत करते हैं? हममें से कभी किसी ने किसी महिला से ऐसा पूछा है? तो एक मुख्यमंत्री ऐसा कैसे सकता है?
ये सब व्यक्तिगत च्वॉइस की चीजें हैं, जिनमें सामाजिक स्तर पर पारस्परिक सह-सहमति निहित होती है। और यही तो असल लोकतंत्र है। और जब यही खतरे में होगा, तो फिर बाकी कितना भी बचा हो, क्या फर्क पड़ जाएगा!

गुरुवार, 25 अप्रैल 2024

राजनीति में ज्यादा ज़हर है या हमारी भोजन की थाली में?

 

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By Jayjeet Aklecha

बेहद काम्लीकेट सवाल! शायद दोनों आपस में प्रतिस्पर्धा कर सकते हैं। खैर, राजनीति को ज़हर-ज़हर खेलने दीजिए। आज अपने भोजन की थाली के ज़हर की बात करते हैं।
हममें से कई लोग अपनी थाली में पोषण तत्वों को लेकर चिंतित और जागरूक रहते हैं कि इसमें प्रोटीन कितना है, कार्ब्स कितने हैं, विटामिन्स कितने हैं, फैट कितना है, शुगर कितनी है, कैलोरी कितनी है, वगैरह-वगैरह... मेरे घर में खासकर मेरी बेटी इसको लेकर फिक्रमंद रहती है... लेकिन मुझे इन तत्वों से ज्यादा फिक्र इस बात की होती है कि उसकी प्लेट में ज़हर कितना है? आपने भी कभी सोचा है कि आपकी अपनी थाली या आपके बच्चों की थाली में कितना ज़हर है? या आप अब भी केवल सियासी ज़हर के इंटरटेनमेंट में ही ग़ाफ़िल है?
हमारी थाली में कितना ज़हर है, इस बारे में हमें वाकई कुछ नहीं पता है। हमारी आंख तब खुलती है, जब बाहर का देश हमें अचानक बताता है कि आपके फलाना ब्रांड में ज़हर का स्तर इतना खतरनाक है कि उससे कैंसर हो सकता है। हाल ही में हमारे दो मशहूर ब्रांड्स एवरेस्ट और एमडीएच को लेकर यह शिकायत आई है। जब इतने नामी-गिरानी ब्रांड्स की ये हालत है, तो बाकी हमें क्या खिला-पिला रहे होंगे? हमारे तमाम रेस्तरां, जहां हम चटकारे लेकर लाल रंग में पगी पनीर की सब्जी खाते हैं, उसमें क्या-क्या होता होगा? और सड़कों पर केमिकल चटनी में पानी-पूरी खिलाने वाले गरीब वेंडर का तो पूछिए भी मत!!
वैसे तो ऊपरी तौर पर हम सब जानते हैं कि हम जो सब्जियां या फल खा रहे हैं, वे भयंकर रसायनों से लदे पड़े हैं। केवल खेत में ही नहीं (यह एक हद तक जरूरी हो सकता है), खेद के बाहर भी उन सब्जियों को पकाने या उन्हें सुरक्षित रखने के लिए न जाने कितने कैंसरकारक रसायन इस्तेमाल किए जा रहे हैं। कुछ धनी टाइप के लोग खुद को यह झूठा दिलासा दे सकते हैं कि वे कथित तौर पर आर्गनिक खा रहे हैं, लेकिन भ्रष्टाचार में पगे हमारे देश में ये आर्गनिक वाकई रसायनों से कितने मुक्त होते होंगे, किसी को कुछ पता नहीं है।
भला हो उन देशों का जो हमें बीच-बीच में हमारी विकासशील औकात याद दिलाते रहते हैं, अन्यथा जुमलों की भीड़ में तो यह भूल ही जाते हैं कि विकसित देश के नागरिक बनने की आकांक्षा का मतलब केवल दुनिया की तीसरी या चौथी अर्थशक्ति बनना भर नहीं है। कोई सरकार अपने नागरिकों को भरपेट भोजन देने के साथ क्या उसे सुरक्षित भोजन भी दे रही है, यहां से शुरू होती है किसी देश के विकसित बनने की कहानी। दुर्भाग्य से, यह सपना अब भी करोड़ों प्रकाश वर्ष दूर प्रतीत होता है।
आतंकियों, आतताइयों, मलेच्छों के सिर आपने एक झटके में कुचल दिए। अब माओवादियों की बारी है। हमारे प्रधानमंत्री और गृहमंत्री मुट्‌ठी तान-तानकर हमें बता रहे हैं। बहुत अच्छा है ये सब। मगर देश को कैंसरयुक्त बनाने वाले जो आतंकी हैं, उनका क्या किया या क्या करेंगे? या आप तब तक कुछ ना करेंगे जब तक कि पूरा देश कांग्रेसमुक्त और कैंसरयुक्त नहीं हो जाता!
एक अंतिम बात और... कोई अति आशावादी कह सकता है, चलिए हम हवा खाकर जी लेंगे। पर सवाल यह भी है कि हमारे आसपास की हवा पर भी हम कितना भरोसा करें? वैसे भी हमारी चिंता में तो पॉलिटिकल हवाएं ज्यादा रहती हैं। तो पॉलिटिक्स वाले भी अपनी इसी हवा की चिंता करेंगे ना। लाजिमी है ये तो...!!