शनिवार, 25 मई 2024

अरे, अभी तो गर्मी शुरू हुई है....

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By Jayjeet Aklecha/ जयजीत अकलेचा

इस समय हर शहर, हर कस्बे, हर जगह, हर कोने से एक ही बात उठ रही है- गर्मी बहुत है...।
क्या वाकई बहुत है?
नहीं जी। अभी भी इतनी नहीं है कि हम बारिश की चंद बूंदों के बाद भी इसे याद रख सके...
इतनी भी नहीं है कि कटते पेड़ों की खबरें हमें एंग्जाइटी की हद तक बेचैन कर सके...
इतनी भी नहीं है कि यह हमें हम धर्म, जाति के बजाय पर्यावरण के मुद्दे पर वोट देने को विवश कर सके...
इतनी भी नहीं कि यह नेता लोगों को हमें सुरक्षित पर्यावरण की गारंटी देने के लिए मजबूर कर सके...
तो देखिए, अब भी गर्मी इतनी कहां है?
हमारी-आपकी कॉलोनी में जो जगह बगीचे के लिए रखी गई थी, वहां धर्म के नाम पर कब्जा देखकर क्या हमें गुस्सा आता है?
नया मकान खरीदते हुए क्या हम अपने बिल्डर से यह पूछते हैं कि हरियाली के नाम पर सैकड़ों गैलन पानी पीने वाली कथित हरी घास और केवल ताड़ के पेड़ क्यों?
अगर हम किसान हैं तो कभी खुद से पूछते हैं कि अपने खेतों में दूर-दूर तक एक भी पेड़ क्यों नहीं? या कभी थे तो वे आज कहां हैं?
क्या बड़े-बड़े आर्किटैक्ट खुद से पूछते हैं कि ठंडे यूरोपीय देशों की नकल करने के फेर में वे यह कैसे भूल गए कि भारत जैसे गर्म देशों की इमारतों में इतने शीशों का क्या काम?
तो सूरज देवता, आपसे उम्मीद है कि आप गर्मी का प्रकोप जारी रखेंगे...।
44, 45, 46, ...! इसी से हम घबरा जाएंगे तो 50-55 को कैसे झेलेंगे? ये तो मैच से पहले की नेट प्रैक्टिस है, या कह सकते हैं कयामत की पूर्व संध्या!
आप तो अभ्यास करवाइए...! यह जरूरी है...!!!
और, इतनी भर गर्मी में भी मुझे एक गाना याद आ रहा है- डीजे को भी समझा दो प्यारे म्यूजिक गलती से रुक ना पाए, क्योंकि अभी तो पार्टी शुरू हुई है...!!!

सोमवार, 20 मई 2024

शरद जोशी का व्यंग्य - वोट ले दरिया में डाल


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वर्ष 1960 में नॉर्थ टीटी नगर भोपाल स्थित शासकीय आवास में शरद
जोशीजी का क्लिककिया गया युवावस्था का एक दुर्लभ फोटो।
छायांकन - जगदीश कौशल, भोपाल
शरद जोशी

राजनीति के चरित्र में एक ही खूबी है कि उसका कोई चरित्र नहीं होता। न चरित्र होना ही उसका चरित्र है। चरित्रवान लोग जब राजनीति करते हैं, वे निरन्तर अपने को सच्चरित्र और दुश्चरित्र करते हुए एक क़िस्म से चरित्र-रहित हो जाते हैं। व्यक्तित्व जहाँ बेपेंदी के लोटे होने लगते हैं, वहाँ से राजनीति की शुरुआत होती है। राजनीति एक केन्द्रहीन गोल चक्कर या चक्करों का सिलसिला है, जिसका व्यास, परिधि और केन्द्रबिन्दु अनिश्चित होते हैं। दसों दिशाओं में उसकी गति है जो अपने-आपमें दुर्गति है, मगर किया क्या जा सकता है, क्योंकि यही राजनीति है। जहाँ अधोगति अक्सर प्रगति और प्रगति दुर्गति लगती हो, उस बिन्दु को राजनीति कहते हैं। शब्दों के खेल को आगे बढ़ाते हुए कहूँ कि यही उसकी सद्गति है।

राजनीति में शब्द झूठ के माध्यम हैं और वे लगातार भार ढोते हैं। राजनीति में शब्द केंचुए का जीवन जीते हैं, जिनकी न रीढ़ होती है और न दिशा। वे लगातार एक ही गन्दगी पर चल रही सक्रियता की पहचान बने लगातार वहीं-वहीं हिलते चलते रहते हैं। राजनीति में शब्द भूसे के ढेर हैं, जिसमें से एक भी दाना नहीं निकलता। दाना सत्य होता है और सत्य का राजनीति में एक सिरे से अभाव होता है। राजनीति में सत्य का झूठ की तरह इस्तेमाल किया जाता है। यदि ज़रूरत हो तो राजनीतिज्ञ सच बोल जाता है, जिससे वह बाद में इन्कार कर देता है कि यह झूठ है। राजनीति में अपना-अपना झूठ ही अपना-अपना सच होता है। दूसरे का सच अक्सर झूठ और अपना झूठ सदैव सच होता है; अर्थात् पता नहीं, क्या झूठ और क्या सच होता है। शब्द इसका भार ढोते हैं। वे नहीं जानते, वे क्या कर रहे हैं, क्या भार ढो रहे हैं।

राजनीति में झूठ बयान की स्पष्टता और गरिमा से सामने आता है। आकाश में बयानों का मेला-जमघट बना रहता है। बयान से बयान टकराते हैं, कई बार दो बयान मिल कर एक हो जाते हैं, कई बार एक ही बयान दो भागों में बंट जाता है और दोनों भाग एक-दूसरे के खिलाफ बन जाते हैं। बयान होने पर भी निरर्थक होते हैं, निरर्थक होने पर भी बयान होते हैं। अक्सर खामोशी बयान होती है। शब्द अर्थहीन और अर्थ शब्दहीन हो जाता है। दोनों हीन होते हैं, महीन होते हैं, ज़हीन कभी नहीं होते। आकाश में ऐसे बयानों के जमघट और गरज-तरज से राजनीति चूती है, टपकती है, चुचुआती है। लोग आसमान निहारते रहते हैं। वे छाता लगाए आसमान निहारते हैं। वे पूरी आत्म-सुरक्षा के साथ राजनीति के टपकने, धरती तक आने का इन्तज़ार करते हुए बड़ी प्यासी मुद्रा में पानी पी-पी कर आसमान निहारते हैं और कोसते हैं कि वह नहीं टपकती। सब-कुछ होने पर भी न हो सकने का नाम राजनीति है।

राजनीति एक स्त्री है जो ऐसे सुकोमल बच्चों को जन्म देती है, जो आगे चल कर विषैले साँप और भुजंग बन जाते हैं। हम राजनीति को एक खूसट माँ की तरह देखते हैं, जो अपने इन भुजंगों के सिर पर हाथ फेरती रहती है। राजनीति एक वेश्या है, जिसे हर ग्राहक पतिव्रता समझता है। राजनीति निष्ठावानों और ईमानदारों की मालकिन और बेईमानों और धोखेबाज़ों की दासी है। राजनीति सबकी हो कर भी किसी की नहीं है। रात की पार्टी में आई चालू औरत की तरह वह सबको निकटता का आभास देती हुई वाक़ई निकट हो सकती है, मगर वह उसकी नहीं है जिसके निकट है। राजनीति किसी की नहीं, यों जब जिसकी हो जाए, उसकी है। सब अपनी-अपनी राजनीति लिए घूमते हैं। वे नहीं जानते कि वास्तव में राजनीति उन्हें लिए घूम रही है। राजनीति आपको ऐसा सुख देती है, जैसे वह आपकी गोद में बैठी हो।

राजनीति एक कचरापेटी है, जिसे खुली तिजोरी की गरिमा प्राप्त है। कचरापेटी में जो कचरा है, वह तिजोरी का रत्न कहलाता है। यह कचरापेटी लगातार हिलती रहती है और कचरा ऊपर-नीचे होता रहता है अर्थात् रत्नों के ढेर में रत्न देखे-परखे जाते हैं। जिस रत्न का भाग्य होता है, वह मुकुट पर लग जाता है। मुकुट पहनने वाला पूरा देश यह नहीं जान पाता कि वह सिर पर कचरा रखे है। राजनीति कचरे को रत्न का ग्लैमर देती है। पत्थर-कंकड़ सितारे लगने लगते हैं। और उन्हें बरसों बाद पता चलता है कि उनकी गतिविधियों का स्वर्ग वास्तव में एक विराट कचरापेटी है। सिद्धान्त रंग के डिब्बों का विभिन्न नाम है। राजनीति अलग-अलग रंग के डिब्बों का प्रयोग कर कचरापेटी का सौन्दर्य बदलती रहती है।

राजनीति महायात्रा है। वह कुर्सियों के प्रदेश तक भेड़ियों की महायात्रा है। ये भेड़िये बकरियों और भेड़ों के गाँव में अपनी पगडंडियाँ तलाशते लगातार आगे बढ़ते जाते हैं। जिसके कब्ज़े में जितनी भेड़-बकरियाँ आती हैं, उसकी यात्रा उतनी ही सुखद और सुरक्षित हो जाती है। बकरियाँ एक भेड़िये से पीछा छुड़ा, दूसरे भेड़िये के चंगुल में फँस जाती हैं। राजनीति की महायात्रा में भेड़-बकरियों का यही योगदान है। भेड़िये बढ़ते रहते हैं। एक-दूसरे को चकमा देते, भूलभुलैया में डालते, घायल करते, नोचते, मारते वे जल्दी-से-जल्दी कुर्सियों के प्रदेश तक पहुँचना चाहते हैं। महायात्रा की अन्तिम मंज़िलों में भेड़िये वेजीटेरियन हो जाते हैं और बकरियों का विश्वास अर्जित करने लगते हैं।

चॉकलेट की कुर्सी है, जिस पर मावे का बंगला बना है और बाहर आइसक्रीम की कार खड़ी है। मंज़िल एक विशाल केक की तरह सामने है। भेड़िये कुर्सी पर चढ़ बँगले में घुस जाते हैं, अन्दर टुकड़ा खाने के लिए बाहर भेड़-बकरियाँ जय-जयकार के नारे लगाती हैं। भेड़िये प्रसन्न हैं, अपनी मंज़िल पर पहुँच कर। राजनीति ऊष्मा है, गर्मी है, जो चॉकलेट की कुर्सी और मावे के बैंगले को पिघला देती है और चाटता हुआ, मुँह पोंछता हुआ भेड़िया फिर लपलपाती निगाहों से बकरियों की ओर देखता नज़र आता है। अपने उच्चतम रूप में राजनीति सिर्फ इतनी है।

#sharad joshi

मंगलवार, 14 मई 2024

उर्दू व्यंग्य : मंटो की रचनाओं का कोलाज़

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अनुवाद एवं संयोजन : अख्तर अली ( प्रख्यात रंगकर्मी, लेखक एवं व्यंग्यकार)

शारदा सुनो तो |
हां बोलो ?
आज कल तुम किसके साथ हो ?
कल महेश के साथ थी और आज रमेश के साथ हूं |
और कल ?
कल तो इतवार है कल मैं अपने खुद के साथ रहूंगी |
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अरे दीनानाथ आज कल कहां रहते हो ?
आज कल मैं कहीं नहीं रहता | दिन भर सड़क पर चलता हूं , नल का पानी पीता हूं और रात को किसी बंद दुकान की सीढियों पर सो जाता हूं |
लेकिन तुम्हारे पास तो तुम्हारे रहने लायक एक अच्छा सा घर था |
उसे मकान मालिक ने खाली करा लिया है |
क्यों ?
वहां पर वह अपनी भैंस रखेगा |
वह तो भैंस के रहने लायक जगह है ही नहीं वहां तो उसकी भैंस बीमार हो जायेगी |
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मंटो कल मेरी किताब का विमोचन है आप भी आईएगा |
विमोचन किस के हाथो होगा ?
सेठ दौलत चंद के हाथो |
यानि आप अपनी किताब की नथ उतरवाई की रस्म सेठ जी से करवा रहे है |
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मंटो तुम ज़रा भी मज़हबी नहीं हो |
कैसी बात कर रहे है मैं तो जब भी जुमा को शराब पीता हूं तो पानी बकायदा मस्जिद के हौज़ का ही लेता हूं |
लेकिन कल तुम मौलाना साहब से मस्जिद के संबंध में क्या कह रहे थे ?
वह मस्जिद के संबंध में नहीं गर्मी के संबंध में कह रहा था |
क्या कह रहे थे ?
यही कि गर्मी में वहां का फ़र्श इतना गरम हो जाता है कि मस्जिद में कदम रखते ही लगता है जहन्नम में आ गये |
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जानते हो भारत पाक बटवारे में एक लाख हिंदू और एक लाख मुसलमान मारे गये |
यार तुम्हारे में बात करने की ज़रा भी तमीज़ नहीं है | मत कहो कि एक लाख हिंदू और एक लाख मुसलमान मारे गये | कहो कि दो लाख इंसान मारे गये , कब समझोगे कि बंदूक से मज़हब का शिकार नहीं किया जा सकता |
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तुमने कभी किसी औरत को अपने बच्चे को अपना दूध पिलाते हुए देखा है ?
कैसी बात कर रहे हो यह गंदी बात है |
फिर भी कभी देखना उस वक्त उसके सीने को गोलाइंया मस्जिद के मेहराब के जैसे लगती है वैसी ही पाकीज़गी से भरपूर |
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मैं इस कदर आशिक मिज़ाज हूं कि एक बार तो मैंने एक लड़की से उसे देखे बिना ही मोहब्बत कर ली थी | यह मोहब्बत टेलीफोन पर राँग नंबर पर बात करने के वक्त हुई थी | जब मैंने उससे मोहब्बत का इज़हार किया तो वह बोली – आपने तो मेरे को देखा नहीं है अगर मैं बदसूरत हुई तो ?
मैंने कहा – मैं तब भी तुम से मोहब्बत करुगा क्योकि मैं ख़ुदा नहीं हूं जो सिर्फ़ अच्छे लोगो को ही पसंद करता है |
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आप औरत के बारे में क्या राय रखते है ?
कुछ औरते बोलती बहुत है लेकिन उनका बदन ख़ामोश रहता है और कुछ औरते चुप रहती हैं लेकिन उनका बदन बहुत शोर मचाता है |
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आधी रात हो चुकी थी मंटो की पत्नी सफ़िया ने कहा – क्या बात है आप इतने बेचैन क्यों है ? मंटो ने कहा – मेरे पेट में कहानी का हमल ठहर गया है | मेरे को कागज़ और कलम दो मैं रचना को जन्म देकर आता हूं |
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मंटो तुमने मेरे से पांच रुपये उधार लिये थे अब वापस देदे वरना मैं तुम्हारा सिर फोड़ दूंगा |
ठीक है आप मेरा सिर फोड़ देना लेकिन पहले यह बताइये क्या आप को सिर फोड़ना आता है ? देखिये हर काम करने का तरीका होता है मैं उस आदमी के हाथों अपना सिर नहीं फुडवा सकता जिसके पास सिर फोड़ने का सलीका भी न हो|
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इस्मत चुगताई ने किसी मौके पर कहा था – मंटो की शादी सफ़िया से नहीं मेरे से होनी थी | उसकी बीवी उसे ज़रा भी राईटर होने नहीं देती है | मंटो ने कहा था यह तो बहुत अच्छा हुआ जो मेरी शादी सफ़िया से हुई तुम से होती तो तुम मेरे को ज़रा सा भी शौहर होने नहीं देती |
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हर दिल में मोहब्बत की पैदावार नहीं होती | बहुत से दिलो की ये भूमि बंजर भी होती है | कुछ लोग चाह कर भी मोहब्बत पैदा नहीं कर सकते क्योकि उनकी ख्वाहिशे बाँझ होती है |
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मै ऐसी श्रद्दांजलि को निरस्त करता हूँ जिसमे मरने वाले के चरित्र को लांड्री में भेज कर धुलवाया जाये और बकायदा इस्त्री कर के पेश किया जाये |
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मै उस घर को घर नहीं मानता जिसमें चिमटा चूल्हा और तवा न हो |
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मुंबई की साहित्य बरदारी में यह बात मज़े लेकर कही जाती थी कि उर्दू साहित्य में दो बाते बहुत अच्छी हुई कि ग़ालिब कहानीकार नहीं हुए और मंटो शायर नहीं हुए , ये वही हुए जो इन्हें होना था |
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बुधवार, 8 मई 2024

NOTA के तीन फायदे...!!!


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By Jayjeet Aklecha
लोकसभा चुनाव के लिए प्रचार-प्रसार शुरू हो गया है। हर पार्टी अपने-अपने पक्ष में तर्क-वितर्क-कुतर्क दे रही है। कुछ दिनों पहले नोटा (NOTA) को लेकर चर्चा हो रही थी। चर्चा के दौरान एक का तर्क था कि नोटा मतलब एक वोट की बर्बादी। बिल्कुल, सहमत! यह भी अपने वोट को बर्बाद करने के कई तरीकों में से एक तरीका है। पर नोटा के कई फायदे भी हैं...
पहला, NOTA को वोट देने से आप भविष्य में अपने साथ होने वाले किसी भी 'विश्वासघात' की फीलिंग से बच जाते हैं।
दूसरा, NOTA माने एक निर्जीव चीज। तो उससे कभी भी मोहभंग जैसा आपको फील नहीं होगा।
और तीसरी सबसे बड़ी बात, आप एक आत्मग्लानि से बच जाते हैं। आप वोट देने के चाहें लाख आधार ढूंढ लो- राष्ट्रवाद, हिंदुत्व, धर्मनिरपेक्षता, अपनी कौम, अपनी जाति, अपने वाला... फलाना-ढिकाना। मगर अंदर ही अंदर यह भी जानते हैं कि आपने वोट तो महाभ्रष्टाचारी या महासाम्प्रदायिक या महाजातिवादी या महावंशवादी या जमीनों के महामाफिया या शराब के महामाफिया या महागुंडे या इकोनॉमी के महासत्यानाशी या इसी तरह की महान विशेषताओं वाले गुणी व्यक्ति को दिया है...।
और अब सीरियस बात... लोकतंत्र में प्रतीकों का बड़ा महत्व है। जिस युग में भी 25 फीसदी वोट NOTA को मिलने लगेंगे, बस उस युग से प्रदेश, देश और जनहित में पॉलिसियों के बदलने की युगांतकारी शुरुआत होगी...।
लोकतंत्र में वोट सबसे बड़ी ताकत है और शुक्रिया लोकतंत्र कि उसने NOTA के रूप में इससे भी बड़ी ताकत थमाई है। बस, उन अच्छे दिनों का इंतजार है, जब यह ताकत तमाम महागुणी नेताओं के चेहरों पर तमाचे के रूप में अपनी छाप छोड़ने लगेगी।
तब तक सारे महागुणी नेता हम मतदाताओं को Take It For Granted ले सकते हैं। मतलब हम वोटर्स को महामूर्ख मान सकते हैं, बना सकते हैं...

मंगलवार, 7 मई 2024

एक तरफ खाई, दूसरी तरफ भी खाई... हमारे नेताओं ने कुएं में खुदकुशी करने का विकल्प भी नहीं छोड़ा!!

#NOTA #election

By Jayjeet Aklecha

एक तरफ खाई और दूसरी तरफ भी खाई। अगर कुएं का ऑप्शन भी होता तो थोड़ी तसल्ली के साथ खुदकुशी की जा सकती थी। लेकिन दुर्भाग्य से हमारे तमाम नेताओं ने हमारे लिए यह रास्ता भी नहीं छोड़ा है।
दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में चुनाव हो रहे हैं। दो चरण के चुनाव हो भी चुके हैं और किसी दल के पास आज कोई मुद्दा तक ही नहीं है। हाल के वर्षों में दुनिया के किसी भी सभ्य देश में ऐसा कोई उदाहरण नजर नहीं आता, जब देश के प्रधानमंत्री ने अपने ही देश के एक पूरे समुदाय को हाशिये पर पटकने को अपना मुद्दा बना लिया हो। हमारे यहां यह हो रहा है, इससे बड़ा दुर्भाग्य क्या होगा। फिर भी हम हमारे 'लोकतंत्र' पर फुले नहीं समाते।
ठीक है, मोदी एंड कंपनी को भी छोड़ देते हैं। लेकिन उनके सामने मौजूद देश का सबसे 'युवा एवं उत्साही एवं बिंदास' नेता भी कोई ऐसा विजन पेश नहीं कर पा रहा है, जिसको देखकर हम सब कहे- हां, हां इसी की तो हमें तलाश थी। देश की सबसे बड़ी समस्या बेरोजगारी को लेते हैं। राहुल गांधी ने इसे अपना सबसे बड़ा मुद्दा बना रखा है। अच्छा है। लेकन इसको लेकर उनके पास भी ले-देकर केवल एक यही उपाय है- देश का सरकारीकरण। उन्हें लगता है कि केवल सरकारी पदों को भरने भर से यह समस्या दूर हो जाएगी। एक पढ़े-लिखे व्यक्ति को भी अगर यह भान नहीं है कि सरकारीकरण करने से देश की प्रोडक्टिविटी किस स्तर पर पहुंच जाएगी तो चुनावी मैदान में खड़े अनपढ़ों की तो क्या बात ही करें। राहुल का दूसरा मुद्दा है- आरक्षण। बाकी? नील बंटे सन्नाटा।
अब सवाल जनता का। क्या हमें इन्हीं जुमलों, बदजुबानियों, वादों या गारंटियों पर वोट देना चाहिए? बेशक, चुनावों में वोट डालना जरूरी है। यह कर्त्तव्य भी है। इसलिए इस कर्त्तव्य का पालन पूरी शिद्दत से करना चाहिए। लेकिन वोट डालने जितना ही महत्वपूर्ण एक कर्त्तव्य और हैं- सत्ताधारी लोगों से, राजनीतिक दलों से, नेताओं से सवाल पूछना। आज सबसे बड़ा संकट ही सवाल पूछने की हिम्मत का हिम्मत हारना है। हममें से शायद ही कोई यह सवाल पूछ रहा है या पूछने की हिम्मत कर रहा है कि आज 75 साल के बाद भी देश के लोगों को मुफ्त अनाज और आरक्षण की बैसाखियों की जरूरत क्यों पड़ रही है? और पड़ रही है तो फिर आप किस मुंह से हमसे अपने-अपने दल के लिए वोट मांग रहे हैं?
तो आइए वोट डालें, मगर सवाल पूछने की नैतिकता भी बरकरार रखें। वोट डालने जितना ही जरूरी सवाल पूछना भी है, फिर चाहे कोई भी दल हो, किसी भी दल की सरकार हो। और इस सवाल में नैतिक बल तब होगा, जब आप आज किसी के पक्ष में खड़े नहीं होंगे। वोट देने का मतलब 'ज्यादा खराब' और 'उससे भी ज्यादा खराब' में से किसी एक को चुनने की मजबूरी कतई नहीं होनी चाहिए। आखिर यह समझौता क्यों?
हो सकता है NOTA की कोई संवैधानिक वकत ना हो, मगर यह ताकत बन सकता है अपने असंतोष को जताने की...
आइए, हम सभी लोकतंत्र को शुक्रिया कहें, और वोट जरूर डालें...!!

रविवार, 28 अप्रैल 2024

'लाड़ली बहना' वाले राज्य से महिलाओं की अस्मिता पर उठे कुछ असहज सवाल... जिन पर उठे कुछ और सवाल...!!!

mangalsutra issue in election, मंगलसूत्र पर क्या है विवाद, मोहन यादव मंगलसूत्र बयान
By Jayjeet / जयजीत

इस बात को लेकर मेरी धारणा और भी सुदृढ़ हो गई है कि अगर हम तीसरी या चौथी आर्थिक शक्ति बन भी गए, तब भी इसका मतलब यह कदापि नहीं होगा कि हम विकसित राष्ट्र भी बन गए हैं। विकसित राष्ट्र का मतलब है विकसित और प्रगतिशील सोच भी रखना। क्या हमारे नेताओं की सोच विकसित है? नहीं। शायद विकासशील भी नहीं है, बल्कि पतनशील है। वह राज्य जहां से महिलाओं को 'लाड़ली बहना' के रूप में सम्मान देने का राजनीतिक विचार प्रमुखता से निकला, वहां का मुख्यमंत्री इस तरह की सोच रख सकता है, इस पर विश्वास तो नहीं होता, मगर दुर्भाग्य से करना पड़ता है।
एक प्रमुख पार्टी के मुख्यमंत्री ने एक दूसरी प्रमुख पार्टी की एक महिला नेत्री का नाम लिए बगैर उनसे तीन सवाल पूछे हैं। चूंकि सवाल पूछने वाला एक जिम्मेदार संवैधानिक पर बैठा है। इसलिए इन सवालों पर एक जिम्मेदार नागरिक होने के नाते भी कुछ सवाल बनते हैं। ये सवाल पूछना हर जिम्मेदार और प्रगतिशील सोच रखने वाले नागरिक का कर्त्तव्य भी है, फिर वह किसी भी राजनीतिक विचाराधारा से ताल्लुक रखता हो। ये राजनीतिक नहीं, सामाजिक सवाल हैं और बेहद गंभीर विमर्श की मांग करते हैं। इन पर उन तमाम लोगों को जरूर मंथन करना चाहिए, जो चाहते हैं कि उनकी अगली पीढ़ियां एक सार्थक विकसित भारत में सांस लें। हमें ध्यान रखना होगा माननीय नेताजी ने कल जो बातें की हैं, उन्हें केवल चुनावी जुमलेबाजी कहकर खारिज नहीं किया जा सकता। ये गंभीर इसलिए हैं, क्योंकि ऐसी राजनीतिक सोच ही कालांतर में पूरे समाज की सोच में तब्दील हो जाती है।
संवैधानिक पद पर बैठे व्यक्ति का सवाल नंबर 1 था: अरे, तुम्हारी शादी कहां हुई? तुमने तो क्रिश्चियन परिवार में शादी की है।
नागरिक का सवाल: क्या महिला को इस बात पर सफाई देनी होगी, वह भी सार्वजनिक तौर पर, कि उसकी शादी कहां हुई है, किस धर्म में हुई है? (कल से तो किसी महिला से यह भी पूछा जा सकता है कि तुम्हारी शादी क्यों नहीं हुई या तुमने क्यों नहीं की?)
संवैधानिक पद पर बैठे व्यक्ति का सवाल नंबर 2: अरे, तुम तो शादीशुदा होकर भी मंगलसूत्र क्यों नहीं पहनती?
नागरिक का सवाल: पिछड़ों की राजनीति करते-करते सोच इतनी पिछड़ी कैसे हो सकती है कि आप किसी महिला से ऐसा व्यक्तिगत सवाल पूछ सकते हैं? ऐसे सवाल पटियों पर, चौक चौबारों पर बैठने वाले निठल्ले किस्म के लोग आपस में जरूर करते हैं, या सीमित सोच वाली बुजुर्ग महिलाओं के बीच आम होते हैं। क्या ये सार्वजनिक तौर पर, किसी मंच पर उठाए जा सकते हैं, वह भी किसी संवैधानिक पद पर बैठे हुए व्यक्ति द्वारा?
संवैधानिक पद पर बैठे व्यक्ति का सवाल नंबर 3 : जहां शादी हुई है, वहां के परिवार का सरनेम अपने नाम के साथ क्यों नहीं जोड़ा?
नागरिक का सवाल: क्या हम किसी महिला से यह सीधे-सीधे पूछते हैं या पूछने की हिम्मत करते हैं? हममें से कभी किसी ने किसी महिला से ऐसा पूछा है? तो एक मुख्यमंत्री ऐसा कैसे सकता है?
ये सब व्यक्तिगत च्वॉइस की चीजें हैं, जिनमें सामाजिक स्तर पर पारस्परिक सह-सहमति निहित होती है। और यही तो असल लोकतंत्र है। और जब यही खतरे में होगा, तो फिर बाकी कितना भी बचा हो, क्या फर्क पड़ जाएगा!

गुरुवार, 25 अप्रैल 2024

राजनीति में ज्यादा ज़हर है या हमारी भोजन की थाली में?

 

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By Jayjeet Aklecha

बेहद काम्लीकेट सवाल! शायद दोनों आपस में प्रतिस्पर्धा कर सकते हैं। खैर, राजनीति को ज़हर-ज़हर खेलने दीजिए। आज अपने भोजन की थाली के ज़हर की बात करते हैं।
हममें से कई लोग अपनी थाली में पोषण तत्वों को लेकर चिंतित और जागरूक रहते हैं कि इसमें प्रोटीन कितना है, कार्ब्स कितने हैं, विटामिन्स कितने हैं, फैट कितना है, शुगर कितनी है, कैलोरी कितनी है, वगैरह-वगैरह... मेरे घर में खासकर मेरी बेटी इसको लेकर फिक्रमंद रहती है... लेकिन मुझे इन तत्वों से ज्यादा फिक्र इस बात की होती है कि उसकी प्लेट में ज़हर कितना है? आपने भी कभी सोचा है कि आपकी अपनी थाली या आपके बच्चों की थाली में कितना ज़हर है? या आप अब भी केवल सियासी ज़हर के इंटरटेनमेंट में ही ग़ाफ़िल है?
हमारी थाली में कितना ज़हर है, इस बारे में हमें वाकई कुछ नहीं पता है। हमारी आंख तब खुलती है, जब बाहर का देश हमें अचानक बताता है कि आपके फलाना ब्रांड में ज़हर का स्तर इतना खतरनाक है कि उससे कैंसर हो सकता है। हाल ही में हमारे दो मशहूर ब्रांड्स एवरेस्ट और एमडीएच को लेकर यह शिकायत आई है। जब इतने नामी-गिरानी ब्रांड्स की ये हालत है, तो बाकी हमें क्या खिला-पिला रहे होंगे? हमारे तमाम रेस्तरां, जहां हम चटकारे लेकर लाल रंग में पगी पनीर की सब्जी खाते हैं, उसमें क्या-क्या होता होगा? और सड़कों पर केमिकल चटनी में पानी-पूरी खिलाने वाले गरीब वेंडर का तो पूछिए भी मत!!
वैसे तो ऊपरी तौर पर हम सब जानते हैं कि हम जो सब्जियां या फल खा रहे हैं, वे भयंकर रसायनों से लदे पड़े हैं। केवल खेत में ही नहीं (यह एक हद तक जरूरी हो सकता है), खेद के बाहर भी उन सब्जियों को पकाने या उन्हें सुरक्षित रखने के लिए न जाने कितने कैंसरकारक रसायन इस्तेमाल किए जा रहे हैं। कुछ धनी टाइप के लोग खुद को यह झूठा दिलासा दे सकते हैं कि वे कथित तौर पर आर्गनिक खा रहे हैं, लेकिन भ्रष्टाचार में पगे हमारे देश में ये आर्गनिक वाकई रसायनों से कितने मुक्त होते होंगे, किसी को कुछ पता नहीं है।
भला हो उन देशों का जो हमें बीच-बीच में हमारी विकासशील औकात याद दिलाते रहते हैं, अन्यथा जुमलों की भीड़ में तो यह भूल ही जाते हैं कि विकसित देश के नागरिक बनने की आकांक्षा का मतलब केवल दुनिया की तीसरी या चौथी अर्थशक्ति बनना भर नहीं है। कोई सरकार अपने नागरिकों को भरपेट भोजन देने के साथ क्या उसे सुरक्षित भोजन भी दे रही है, यहां से शुरू होती है किसी देश के विकसित बनने की कहानी। दुर्भाग्य से, यह सपना अब भी करोड़ों प्रकाश वर्ष दूर प्रतीत होता है।
आतंकियों, आतताइयों, मलेच्छों के सिर आपने एक झटके में कुचल दिए। अब माओवादियों की बारी है। हमारे प्रधानमंत्री और गृहमंत्री मुट्‌ठी तान-तानकर हमें बता रहे हैं। बहुत अच्छा है ये सब। मगर देश को कैंसरयुक्त बनाने वाले जो आतंकी हैं, उनका क्या किया या क्या करेंगे? या आप तब तक कुछ ना करेंगे जब तक कि पूरा देश कांग्रेसमुक्त और कैंसरयुक्त नहीं हो जाता!
एक अंतिम बात और... कोई अति आशावादी कह सकता है, चलिए हम हवा खाकर जी लेंगे। पर सवाल यह भी है कि हमारे आसपास की हवा पर भी हम कितना भरोसा करें? वैसे भी हमारी चिंता में तो पॉलिटिकल हवाएं ज्यादा रहती हैं। तो पॉलिटिक्स वाले भी अपनी इसी हवा की चिंता करेंगे ना। लाजिमी है ये तो...!!

कांग्रेस के घोषणा पत्र पर मीम

 

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Meme- Congress Manifesto

 

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मंगलवार, 23 अप्रैल 2024

तब तो NOTA के लिए बहुते क्रांतिकारी होगा!!

NOTA

गुजरात की सूरत लोकसभा सीट से भले ही भाजपा के प्रत्याशी मुकेश दलाल को निर्विरोध विजयी घोषित कर दिया गया है और निर्वाचन आयोग ने उन्हें सर्टिफिकेट भी दे दिया है। फिर भी एक हाइपोथेटिकल स्थिति की कल्पना कर रहा हूं कि अगर यह मामला सुप्रीम कोर्ट में जाता है और कोर्ट कहता है कि NOTA के होते हुए किसी को भी निर्विरोध नहीं चुना जा सकता, तब मामला कितना दिलचस्प हो जाएगा!!

तो चुनाव होगा...
नोटा V/s दलाल...!!
अगर ऐसा होता है तो यह NOTA के लिए यह कितना क्रांतिकारी होगा!!!
तब कहलाएगा ये असल लोकतंत्र!!!
पुनश्च... कई लोगों को बड़ा अफसोस हो रहा होगा कि काश, बतौर निर्दलीय वे भी परचा दाखिल कर देते तो लोकतंत्र की बहती गंगा में वे भी हाथ धो लेते।

सबसे बड़े मसले पर हमारी दोनों बड़ी पार्टियां एक राय! मगर ये बेहद शर्मनाक!

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By Jayjeet

भाजपा और कांग्रेस दोनों के विचारों में जमीन-आसमान का अंतर है। दोनों के घोषणा-पत्रों में भी यह अंतर साफ दिखाई देता है। मगर फिर भी कम से कम दोनों एक मसले पर एक ट्रैक पर हैं। दुनिया के सबसे महत्वूपर्ण मसले पर दोनों की एप्रोच एक है...!
आइए, पहले इस सस्पेंस को खत्म करते हैं।
भाजपा ने अपने घोषणा पत्र में पर्यावरण को जगह दी है पेज नंबर 67 पर। यह उसके घोषणा पत्र का समापन बिंदु है।
कांग्रेस ने अपने घोषणा पत्र में पर्यावरण को जगह दी है पेज 41 पर। यह उसका आखिरी अध्याय है।
इस मसले पर दोनों एक राय हैं। दोनों की एप्रोच समान है। और दोनों के लिए एक ही शब्द निकलता है- शर्मनाक।
एक पार्टी का फोकस विकास पर है तो दूसरी पार्टी गरीबों को न्याय देने के नाम पर चुनाव लड़ रही है। लेकिन ऐसी कई रिपोर्ट्स हैं, जिनका लब्बोलुआब यही है कि अगर अब भी पर्यावरण को लेकर हम नहीं जागे तो विकास के तमाम दावे और गरीबी उन्मूलन के तमाम संकल्प, सब धरे के धरे रह जाएंगे। जलवायु परिवर्तन का असर हवा से लेकर पानी तक सब पर पड़ने जा रहा है। अकेले पानी की ही बात कर लेते हैं, जिसका अभूतपूर्व संकट आने वाला है। पानी के बिना सामान्य जीवन-शैली भी मुश्किल है, तो विकास की कल्पना तो एकदम बेमानी है। और फिर भीषण गर्म व उमस भरे परिवेश में हम कितनी कंपनियों को अपने यहां बुला पाएंगे? 'भारत को मैन्युफैक्चरिंग हब बनाएंगे' जैसे ये पांच शब्द बस घोषणा पत्र में ही टँके रह जाएंगे!
उधर, 'एक झटके में गरीबी दूर करने' का दावा करने वाले 'जादूगर' राहुल को भी कम से कम विश्व बैंक की हालिया रिपोर्ट पढ़नी चाहिए। इसके अनुसार जलवायु परिवर्तन के कारण केवल अगले पांच साल में ही दुनिया के 13 करोड़ लोग गरीबी रेखा से नीचे चले जाएंगे। भारत दुनिया से बाहर नहीं है। मौजूद गरीबों का भला तो छोड़ दीजिए, नए गरीबों के साथ न्याय कैसे होगा? इस बारे में कांग्रेस नेता को शायद ही कोई इल्म होगा।
अकेले भारत में ही बढ़ती गर्मी को लेकर कई तरह की डरावनी रिपोर्ट्स हैं। लेकिन केवल रिपोर्ट्स पर भरोसा मत कीजिए। आप तो अपने सहज ज्ञान का इस्तेमाल कीजिए। इस साल गेहूं के उत्पादन में काफी कमी आई है और कई वजहों में एक वजह बढ़ता तापमान भी है। और दुर्भाग्य से, यह स्थाई ट्रेंड बन सकता है। सोचिए, इस साल हमारे यहां बसंत गायब क्यों हो गया? क्यों बेमौसम आंधियां चल रही हैं और क्यों देश के अधिकांश हिस्सों में कभी न पड़ने वाली प्रचंड गर्मी की भविष्यवाणी की गई है? सब हमारे सामने हैं। मगर पार्टियां इसे अपने एजेंड में सबसे पीछे रखे हुए हैं।
इस तरह के मसले पर जनता या मतदाताओं से उम्मीद नहीं की जा सकती। वैसे भी इप्सॉस की एक रिपोर्ट ने भी कह ही दिया है कि 85 फीसदी लोग चाहते हैं कि पर्यावरण में सुधार का काम सरकार ही करें। बिल्कुल, मैं भी सहमत हूं। वैसे भी यह बहुत जटिल मसला है और इस पर कानून बनाने से लेकर जन-जागरूकता तक के तमाम कामों की शुरुआती अपेक्षा सरकारों से ही की जानी चाहिए।
लेकिन सरकार से उम्मीद कर सकते हैं? देश की दो सबसे बड़ी पार्टियां जब इस संकट को लेकर शुतुरमुर्ग बनी हुई हैं और गैर जरूरी मुद्दों पर शर्मनाक तरीकों से आपस में लड़ रही हैं तो उनकी अगुवाई वाली सरकारें भी आखिर कुछ करेंगी, यह बस खयाली पुलाव है।
तो क्या इस पूरे मसले को भगवान भरोसे छोड़ दें? लेकिन जगह-जगह बगीचों को उजाड़कर वहां चार दीवारों के भीतर बैठा दिए गए 'भगवानों' से भी कितनी उम्मीद करें? और क्यों करें?

बुधवार, 17 अप्रैल 2024

UPSC : क्या 'सत्यमेव जयते' को याद रखेंगी हमारी सबसे चमकदार प्रतिभाएं?

 

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By Jayjeet Aklecha

अभी कुछ दिन पहले ही मेरे एक मित्र को कलेक्टर की पोस्टिंग मिली है। वह उन दुर्लभ ईमानदार अफसरों में से एक है, जिसने हमेशा फील्ड पोस्टिंग को अवॉइड किया, ताकि भ्रष्ट सिस्टम का डायरेक्ट हिस्सा बनने से बच सके। लेकिन अब जब कलेक्टर बना तो उसे जानने-समझने वाले हम तमाम मित्रों के दिमाग में बस यही एक सवाल था- वह वहां कब तक सवाईव कर पाएगा?
जब भी UPSC का रिजल्ट घोषित होता है, तब मेरे दिमाग में सबसे पहला सवाल यही उठता है- ये हमारे देश की सर्वश्रेष्ठ प्रतिभाएं हैं। कड़ी मेहनत से इस मुकाम तक पहुंची हैं। मगर अब ये करेंगी क्या? जब आज सुबह की चाय पर अपनी पत्नी के साथ यूपीएससी रिजल्ट की सुर्खियां पढ़ रहा था और यही सवाल आया तो पत्नी का बेहद मासूमियत भरा जवाब था- करप्शन करेंगी, और क्या? यह बेहद दुर्भाग्यपूर्ण है, मगर आम धारणा यही है कि देश के ब्राइटेस्ट टैलेंट का बड़ा हिस्सा एक भ्रष्ट सिस्टम का हिस्सा बन जाएगा और कुछ चुनिंदा दुर्लभ टाइप के अफसर अपने सर्वाइवल के लिए नए संघर्ष में जुट जाएंगे।
बेशक, मेहनत में भरपूर ईमानदारी बरतने वाले, कई महीनों, बल्कि वर्षों अपनी रातों की नींद खराब करने वाली देश की इन चमकदार प्रतिभाओं के दिमाग में शुरू में यह कतई नहीं रहता होगा कि मैं भ्रष्ट बनकर खूब पैसे कमाऊंगा। आप जब इनके शुरुआती इंटरव्यू पढ़ते हैं तो भले ही उनकी ये बातें हास्यास्पद लगती होंगी कि 'मैं देश और लोगों की सेवा करने के लिए इस क्षेत्र में आया हूं।' लेकिन हमें इससे इनकार नहीं करना चाहिए कि जवाब देने वाले के दिमाग में समाज-देश के लिए कुछ बेहतर कर गुजरने के सपने तो होते ही होंगे। इस परीक्षा की तैयारी करते समय उसने जिस गांधी को, जिस सुभाषचंद्र को, जिस लिंकन को, जिस मंडेला को पढ़ा होता है, वे सब हस्तियां शुरू में तो उसे आलोड़ित करती ही होंगी। लेकिन देश-समाज के लिए कर गुजरने वाले सपने आखिर कुछ ही वर्षों में विलोपित क्यों हो जाते हैं?
इसका एक श्रेष्ठ जवाब जापान और पूर्वी एशियाई देशों में प्रचलित एक कहावत में ढूंढा जा सकता है- 'अगर आपको भावी पीढ़ियों के भविष्य सुरक्षित करना है, तो पहली पीढ़ी को अपना सर्वस्व देना होगा।' लेकिन हमारे देश में क्या ऐसा हुआ? आजादी मिलते ही पहली पीढ़ी ने अंग्रेज अफसरशाही के उसी सिस्टम को हूबहू स्वीकार कर लिया, जिसमें अफसर जनता के प्रति जवाबदेह बनने के बजाय अपने से ऊपर वालों के प्रति समर्पित थे। किसी देश को गुलाम बनाए रखने के लिए एक सिस्टम की यह अनिवार्य शर्त भी थी। लेकिन आजाद देश में यह सिस्टम? यही सिस्टम हमने बनाए रखा और आज भी बना हुआ है, और भी मजबूती से।
हमारे प्रधान सेवक इन दिनों देशभर में घूम-घूमकर भ्रष्टाचार उन्मूलन का दम भर रहे हैं। लेकिन एक सवाल उनके लिए भी बनता है- क्या केवल कुछ चुनिंदा मुख्यमंत्रियों, मंत्रियों को चुन-चुनकर गिरफ्तार करने भर से सिस्टम सुधर सकता है? आपके हिसाब से 2014 एक नए युग की शुरुआत थी। लेकिन यह युग भी उस ईच्छाशक्ति को दर्शाने से चूक गया, जो 1947 के समय चूका था।
बहरहाल, देश के 1,016 ब्राइटेस्ट टैलेंट का हमारे सिस्टम में स्वागत है... उन्हें करोड़-करोड़ बधाइयां!!! उम्मीद करते हैं कि 'सत्यमेव जयते' ये दो शब्द कुछ दिन तक तो उनके जेहन में रहेंगे।
#UPSC #UPSC_Result

बुधवार, 10 अप्रैल 2024

शुक्र है, चुनाव होते रहते हैं... इससे विकसित देशों के बर-अक्स हमें हमारी जमीनी हकीकत पता चलती रहती है...!!!

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By Jayjeet

सुप्रीम कोर्ट ने कल एक छोटी-सी व्यवस्था देते हुए कहा है कि मतदाताओं को उम्मीदवारों की हर चल सम्पत्ति के बारे में जानने का अधिकार नहीं है। इसलिए हलफनामे में इसका खुलासा करने की भी दरकार नहीं है।
अदालत ने बिल्कुल सही फरमाया है। आखिर हम मतदाता ऐसी चीजों के बारे में जानकर करेंगे भी क्या? एडीआर नामक एक संस्था है। यह आए दिन फालतू की रिपोर्ट जारी करती रहती है कि फलाना उम्मीदवार इतना करोड़पति, फलाना के खिलाफ इतने अपराध... हमें इन आंकड़ों से कोई लेना-देना ही नहीं है। अगर हमें यह पता भी चल जाए कि अमुक की सम्पति पांच साल में बढ़कर पचास गुना हो गई है, वह भी गलत तरीकों से, तब भी हम क्या करते हैं? क्या उसे वोट नहीं देते हैं? वैसे भी हर क्षेत्र के मतदाताओं को पता ही होता है कि उसका उम्मीदवार कितना करोड़पति, कितना अरबपति है, कितना बड़ा भूमाफिया है, कितना भ्रष्ट है, उसके खिलाफ कितने संगीन मामले दर्ज हैं। पर इससे मतदाताओं को रत्ती भर भी फर्क पड़ता है? फिर यह बात किसी हलफनामे में या रिपोर्ट में भी आ जाए तो क्या? मतदाता तो केवल यह देखता है कि किस उम्मीदवार ने कितने भंडारे करवाए, कितनी इफ्तार पार्टियां की, कितने मंदिरों को दान दिया, या अंदरखाने कितनी मस्जिदों के लिए पैसे की व्यवस्था की।
कुल मिलाकर मतदाता के काम की बस एक ही चीज है- उम्मीदवार की जाति या उसका धर्म क्या है। वह इसी आधार पर मतदान करता है, तो उसे बस यही जानने का अधिकार होना चाहिए। कोर्ट से निवदेन है कि वह हलफनामे में चल-अचल सम्पत्ति, अपराध के विवरण जैसी गैर जरूरी चीजों का उल्लेख करवाना ही अनिवार्य रूप से बंद करवा दें। बस, एक ही विवरण रखें- उम्मीदवार का धर्म क्या है? जाति क्या है? उप जाति क्या है? और उप जाति की भी कोई उप-उप जाति हो तो वो...। बस, इतने भर से हमारा काम चल जाएगा। हम वोट दे आएंगे। हम ऐसे ही वोट देते रहे हैं और देते रहेंगे।
शुक्र है, हमारे देश में बीच-बीच में चुनाव होते रहते हैं। इससे हमें यह पता चलता रहता है कि विकसित देशों के बर-अक्स हम कितने पानी में हैं! नहीं तो नेता लोग तो विकसित विकसित कहके न जाने कहां-कहां के सपने दिखाते रहते हैं...!!

मंगलवार, 9 अप्रैल 2024

राहुल का एक अहम सवाल.... मगर पहले खुद जवाब देना होगा!!!

 

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By Jayjeet

इस शाश्वत सत्य से कौन इनकार करेगा कि जब आप सामने वाले पर एक उंगली उठाते हैं तो तीन उंगलियां आपकी ओर भी उठती हैं। कल मप्र के मंडला में राहुल गांधी की एक चुनावी सभा में यही दृश्य था। उन्होंने  एक बड़ा महत्वपूर्ण सवाल पूछा था। सवाल यह था कि हिंदुस्तान की बड़ी कंपनियों के मालिकों में, उनके सीनियर मैनेजमेंट में, बड़े-बड़े पत्रकारों में, बड़े-बड़े एंकरों में आखिर आदिवासी कितने हैं? इसका जवाब भी खुद ही दिया- एक भी नहीं। आरोप रूपी यह सवाल मोदी सरकार पर लक्षित था, लेकिन चिलचिलाती धूप में इसकी बड़ी-सी छाया उनकी ही धवल टी-शर्ट को लगभग पूरा ढंक रही थी।  

राहुल की कम से कम इस बात के लिए तारीफ की जा सकती है कि वे बड़े अच्छे सवाल, बड़े अच्छे से उठाते हैं। और इससे भी अच्छी बात यह है कि सवाल उठाते हुए वे जाने या अनजाने में विपक्ष के साथ-साथ अपनी पूर्ववर्ती सरकारों को भी कठघरे में खड़ा करने में कोहाही नहीं बरतते हैं। कल का सवाल भी कुछ इसी तरह का था। यह सवाल पूछते हुए एक उंगली तो उन्होंने मोदी सरकार पर उठाई थी, लेकिन तीन उंगलियां उन पूर्ववर्ती कांग्रेस सरकारों पर भी उठ रही थीं, जिनका ज्यादातर नेतृत्व उनके ही परिवार के पास रहा है। 

मोदी सरकार से तो वैसे भी  किसी सवाल के जवाब की उम्मीद नहीं की जानी चाहिए। लेकिन सवाल यह है कि क्या इस सवाल का जवाब खुद राहुल भी देने का नैतिक साहस करेंगे? क्या वे जवाब देंगे कि आखिर 55 साल तक सत्ता में काबिज उनकी पार्टी की सरकारों ने भी आदिवासियों की हैसियत महज एक वोट बैंक से ज्यादा क्यों नहीं समझी? (बल्कि दलितों, और मुस्लिमों की भी)। तमाम सरकारों ने आदिवासियों और दलितों के लिए महज सरकारी नौकरियों में आरक्षण सुनिश्चित कर यह मान लिया और मनवा लिया कि वे प्रगति की राह पर आगे बढ़ जाएंगे। बेशक,आरक्षण से वंचित तबकों के बड़े हिस्से को एक हद तक आगे बढ़ाना संभव हो सका है, लेकिन घनघोर प्रतिस्पर्धा वाले कॉरपोरेट संसार में ये तरीके काम नहीं आ सकते। क्या कांग्रेस सरकारों ने इसके लिए उन्हें तैयार करने का प्रयास किया या तैयार करने की इच्छाशक्ति दिखाई? 

मान लेते हैं, वह जमाना राहुल का नहीं था। लेकिन अब तो पार्टी को कमोबेश राहुल ही लीड कर रहे हैं। उन्होंने जो मोदी सरकार से पूछा, क्या उसका समाधान उनके पास है? इसके जवाब के लिए कांग्रेस का घोषणा-पत्र देखिए। अधिकांश वादे सरकारी नौकरियों में भर्ती और आरक्षण तक सीमित है, जबकि आने वाला दौर कॉरपोरेट का ही है। तो फिर महज चुनावी जुमलेबाजी से क्या हासिल होगा? 

पुनश्च... मौजूदा मोदी सरकार अक्सर बड़े गर्व (आप चाहें तो अहंकार भी पढ़ सकते हैं) से कहती है कि हमने एक आदिवासी को राष्ट्रपति बनाया। 'बनाना' और 'बनना', इसमें जमीन-आसमान का फर्क है। कांग्रेस जब सत्ता में होती थी, तब वह भी कुछ ऐसे ही जुमलों का प्रयोग करती थी। जब तक हमारे राजनीतिक दल एहसान जताने वाले शब्दों से ऊपर उठकर वास्तविक सशक्तिकरण के प्रयास नहीं करेंगे, इन वर्गों का कुछ भी भला नहीं हो सकेगा और ये महज सियासी चारा बने रहेंगे। फिर चाहें कितने भी सवाल उठते रहे, उठाते रहें...!