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यह एकदम सच्ची कहानी है। इस पर आप उतना ही भरोसा कर सकते हैं, जितना कि मोदी सरकार के इस आश्वासन पर कि वह विदेशों में जमा काला धन देश में जरूर लाएगी और उससे महंगाई कम हो जाएगी।
आइए, सरकार को छोड़कर सरदारजी की यह कहानी सुनें। यह कहानी मेरे शहर के एक ढाबेवाले की है। दरअसल, कुछ दिन पहले तक ढाबे के मालिक यानी सरदारा सिंह का ढाबा खूब चलता था। लेकिन जबसे उनके ढाबे के पास एक-दो पिज्जा वालों ने अपनी दुकानें क्या खोल ली, तभी से उनका धंधा बैठ गया। लोग कारों से उतरते और पास में ही पिज्जा शाॅप्स पर जा-जाकर पिज्जा तोड़-तोड़कर खाते। कई तो इसलिए खाते क्योंकि उन्हें बताया गया था कि इसे पिज्जा कहते हैं और उनको लगता था कि इसको खाने से इज्जत बढ़ जाती है। बेचारे जबरदस्ती खाते। सरदारजी को अपना ढाबा न चलने से भी ज्यादा दुख उन पिज्जा खाने वालों के मुुंह को देख-देखकर होता। बेचारे कितनी तकलीफ उठाते।
तो हमारे इस सरदारा सिंह से लोगों का दुख देखा नहीं गया। लेकिन क्या करें हम हिंदुस्तानियों का, वे पिज्जा को तो छोड़ने से रहे। तभी सरदारजी के दिमाग में एक मनोवैज्ञानिक आइडिया आया। वाकई बेहद क्रांतिकारी था यह आइडिया। उन्होंने अपने ढाबे के मीनू में रोटी का नाम बदलकर पिज्जा रख दिया। अब उनके मीनू के नाम भी बदल गए- पिज्जा-राजमा, पिज्जा-छोला, पिज्जा-दाल मखानी, पिज्जा बैंगन का भर्ता, पिज्जा बटर-पनीर मसाला और न जाने क्या-क्या। इतना ही नहीं, पिज्जा की भी कई वैराइटिज रख दी जैसे तंदूरी पिज्जा, तवा पिज्जा, मिस्सी पिज्जा, नान पिज्जा। उसके बाद से ही पड़ोस के पिज्जा वालों की दुकानों पर शटर लग चुके हैं। अब लोग सरदारा सिंह के ढाबे पर मजे से पिज्जा खा रहे हैं। कोई दाल मखानी के साथ तो कोई पनीर बटर मसाला के साथ। किसी को कोई तकलीफ नहीं। अब डोमेनिस और पिज्जा हट के बाप-दादा भी स्वर्ग में बैठे सोच रहे हैं कि काश, यह असरदार आइडिया हमें मिल जाता तो भारतीयों को इतनी तकलीफ क्यों देते भला!