By Jayjeet Aklecha/ जयजीत अकलेचा
यहां आपको कॉन्टेंट मिलेगा कभी कटाक्ष के तौर पर तो कभी बगैर लाग-लपेट के दो टूक। वैसे यहां हरिशंकर परसाई, शरद जोशी जैसे कई नामी व्यंग्यकारों के क्लासिक व्यंग्य भी आप पढ़ सकते हैं।
शनिवार, 25 मई 2024
अरे, अभी तो गर्मी शुरू हुई है....
सोमवार, 20 मई 2024
शरद जोशी का व्यंग्य - वोट ले दरिया में डाल
वर्ष 1960 में नॉर्थ टीटी नगर भोपाल स्थित शासकीय आवास में शरद जोशीजी का क्लिककिया गया युवावस्था का एक दुर्लभ फोटो। छायांकन - जगदीश कौशल, भोपाल |
राजनीति के चरित्र में एक ही खूबी है कि उसका कोई चरित्र नहीं होता। न चरित्र होना ही उसका चरित्र है। चरित्रवान लोग जब राजनीति करते हैं, वे निरन्तर अपने को सच्चरित्र और दुश्चरित्र करते हुए एक क़िस्म से चरित्र-रहित हो जाते हैं। व्यक्तित्व जहाँ बेपेंदी के लोटे होने लगते हैं, वहाँ से राजनीति की शुरुआत होती है। राजनीति एक केन्द्रहीन गोल चक्कर या चक्करों का सिलसिला है, जिसका व्यास, परिधि और केन्द्रबिन्दु अनिश्चित होते हैं। दसों दिशाओं में उसकी गति है जो अपने-आपमें दुर्गति है, मगर किया क्या जा सकता है, क्योंकि यही राजनीति है। जहाँ अधोगति अक्सर प्रगति और प्रगति दुर्गति लगती हो, उस बिन्दु को राजनीति कहते हैं। शब्दों के खेल को आगे बढ़ाते हुए कहूँ कि यही उसकी सद्गति है।
राजनीति में शब्द झूठ के माध्यम हैं और वे लगातार भार ढोते हैं। राजनीति में शब्द केंचुए का जीवन जीते हैं, जिनकी न रीढ़ होती है और न दिशा। वे लगातार एक ही गन्दगी पर चल रही सक्रियता की पहचान बने लगातार वहीं-वहीं हिलते चलते रहते हैं। राजनीति में शब्द भूसे के ढेर हैं, जिसमें से एक भी दाना नहीं निकलता। दाना सत्य होता है और सत्य का राजनीति में एक सिरे से अभाव होता है। राजनीति में सत्य का झूठ की तरह इस्तेमाल किया जाता है। यदि ज़रूरत हो तो राजनीतिज्ञ सच बोल जाता है, जिससे वह बाद में इन्कार कर देता है कि यह झूठ है। राजनीति में अपना-अपना झूठ ही अपना-अपना सच होता है। दूसरे का सच अक्सर झूठ और अपना झूठ सदैव सच होता है; अर्थात् पता नहीं, क्या झूठ और क्या सच होता है। शब्द इसका भार ढोते हैं। वे नहीं जानते, वे क्या कर रहे हैं, क्या भार ढो रहे हैं।
राजनीति में झूठ बयान की स्पष्टता और गरिमा से सामने आता है। आकाश में बयानों का मेला-जमघट बना रहता है। बयान से बयान टकराते हैं, कई बार दो बयान मिल कर एक हो जाते हैं, कई बार एक ही बयान दो भागों में बंट जाता है और दोनों भाग एक-दूसरे के खिलाफ बन जाते हैं। बयान होने पर भी निरर्थक होते हैं, निरर्थक होने पर भी बयान होते हैं। अक्सर खामोशी बयान होती है। शब्द अर्थहीन और अर्थ शब्दहीन हो जाता है। दोनों हीन होते हैं, महीन होते हैं, ज़हीन कभी नहीं होते। आकाश में ऐसे बयानों के जमघट और गरज-तरज से राजनीति चूती है, टपकती है, चुचुआती है। लोग आसमान निहारते रहते हैं। वे छाता लगाए आसमान निहारते हैं। वे पूरी आत्म-सुरक्षा के साथ राजनीति के टपकने, धरती तक आने का इन्तज़ार करते हुए बड़ी प्यासी मुद्रा में पानी पी-पी कर आसमान निहारते हैं और कोसते हैं कि वह नहीं टपकती। सब-कुछ होने पर भी न हो सकने का नाम राजनीति है।
राजनीति एक स्त्री है जो ऐसे सुकोमल बच्चों को जन्म देती है, जो आगे चल कर विषैले साँप और भुजंग बन जाते हैं। हम राजनीति को एक खूसट माँ की तरह देखते हैं, जो अपने इन भुजंगों के सिर पर हाथ फेरती रहती है। राजनीति एक वेश्या है, जिसे हर ग्राहक पतिव्रता समझता है। राजनीति निष्ठावानों और ईमानदारों की मालकिन और बेईमानों और धोखेबाज़ों की दासी है। राजनीति सबकी हो कर भी किसी की नहीं है। रात की पार्टी में आई चालू औरत की तरह वह सबको निकटता का आभास देती हुई वाक़ई निकट हो सकती है, मगर वह उसकी नहीं है जिसके निकट है। राजनीति किसी की नहीं, यों जब जिसकी हो जाए, उसकी है। सब अपनी-अपनी राजनीति लिए घूमते हैं। वे नहीं जानते कि वास्तव में राजनीति उन्हें लिए घूम रही है। राजनीति आपको ऐसा सुख देती है, जैसे वह आपकी गोद में बैठी हो।
राजनीति एक कचरापेटी है, जिसे खुली तिजोरी की गरिमा प्राप्त है। कचरापेटी में जो कचरा है, वह तिजोरी का रत्न कहलाता है। यह कचरापेटी लगातार हिलती रहती है और कचरा ऊपर-नीचे होता रहता है अर्थात् रत्नों के ढेर में रत्न देखे-परखे जाते हैं। जिस रत्न का भाग्य होता है, वह मुकुट पर लग जाता है। मुकुट पहनने वाला पूरा देश यह नहीं जान पाता कि वह सिर पर कचरा रखे है। राजनीति कचरे को रत्न का ग्लैमर देती है। पत्थर-कंकड़ सितारे लगने लगते हैं। और उन्हें बरसों बाद पता चलता है कि उनकी गतिविधियों का स्वर्ग वास्तव में एक विराट कचरापेटी है। सिद्धान्त रंग के डिब्बों का विभिन्न नाम है। राजनीति अलग-अलग रंग के डिब्बों का प्रयोग कर कचरापेटी का सौन्दर्य बदलती रहती है।
राजनीति महायात्रा है। वह कुर्सियों के प्रदेश तक भेड़ियों की महायात्रा है। ये भेड़िये बकरियों और भेड़ों के गाँव में अपनी पगडंडियाँ तलाशते लगातार आगे बढ़ते जाते हैं। जिसके कब्ज़े में जितनी भेड़-बकरियाँ आती हैं, उसकी यात्रा उतनी ही सुखद और सुरक्षित हो जाती है। बकरियाँ एक भेड़िये से पीछा छुड़ा, दूसरे भेड़िये के चंगुल में फँस जाती हैं। राजनीति की महायात्रा में भेड़-बकरियों का यही योगदान है। भेड़िये बढ़ते रहते हैं। एक-दूसरे को चकमा देते, भूलभुलैया में डालते, घायल करते, नोचते, मारते वे जल्दी-से-जल्दी कुर्सियों के प्रदेश तक पहुँचना चाहते हैं। महायात्रा की अन्तिम मंज़िलों में भेड़िये वेजीटेरियन हो जाते हैं और बकरियों का विश्वास अर्जित करने लगते हैं।
चॉकलेट की कुर्सी है, जिस पर मावे का बंगला बना है और बाहर आइसक्रीम की कार खड़ी है। मंज़िल एक विशाल केक की तरह सामने है। भेड़िये कुर्सी पर चढ़ बँगले में घुस जाते हैं, अन्दर टुकड़ा खाने के लिए बाहर भेड़-बकरियाँ जय-जयकार के नारे लगाती हैं। भेड़िये प्रसन्न हैं, अपनी मंज़िल पर पहुँच कर। राजनीति ऊष्मा है, गर्मी है, जो चॉकलेट की कुर्सी और मावे के बैंगले को पिघला देती है और चाटता हुआ, मुँह पोंछता हुआ भेड़िया फिर लपलपाती निगाहों से बकरियों की ओर देखता नज़र आता है। अपने उच्चतम रूप में राजनीति सिर्फ इतनी है।
#sharad joshi
मंगलवार, 14 मई 2024
उर्दू व्यंग्य : मंटो की रचनाओं का कोलाज़
बुधवार, 8 मई 2024
NOTA के तीन फायदे...!!!
मंगलवार, 7 मई 2024
एक तरफ खाई, दूसरी तरफ भी खाई... हमारे नेताओं ने कुएं में खुदकुशी करने का विकल्प भी नहीं छोड़ा!!
By Jayjeet Aklecha
रविवार, 28 अप्रैल 2024
'लाड़ली बहना' वाले राज्य से महिलाओं की अस्मिता पर उठे कुछ असहज सवाल... जिन पर उठे कुछ और सवाल...!!!
गुरुवार, 25 अप्रैल 2024
राजनीति में ज्यादा ज़हर है या हमारी भोजन की थाली में?
By Jayjeet Aklecha
मंगलवार, 23 अप्रैल 2024
तब तो NOTA के लिए बहुते क्रांतिकारी होगा!!
गुजरात की सूरत लोकसभा सीट से भले ही भाजपा के प्रत्याशी मुकेश दलाल को निर्विरोध विजयी घोषित कर दिया गया है और निर्वाचन आयोग ने उन्हें सर्टिफिकेट भी दे दिया है। फिर भी एक हाइपोथेटिकल स्थिति की कल्पना कर रहा हूं कि अगर यह मामला सुप्रीम कोर्ट में जाता है और कोर्ट कहता है कि NOTA के होते हुए किसी को भी निर्विरोध नहीं चुना जा सकता, तब मामला कितना दिलचस्प हो जाएगा!!
सबसे बड़े मसले पर हमारी दोनों बड़ी पार्टियां एक राय! मगर ये बेहद शर्मनाक!
By Jayjeet
बुधवार, 17 अप्रैल 2024
UPSC : क्या 'सत्यमेव जयते' को याद रखेंगी हमारी सबसे चमकदार प्रतिभाएं?
बुधवार, 10 अप्रैल 2024
शुक्र है, चुनाव होते रहते हैं... इससे विकसित देशों के बर-अक्स हमें हमारी जमीनी हकीकत पता चलती रहती है...!!!
मंगलवार, 9 अप्रैल 2024
राहुल का एक अहम सवाल.... मगर पहले खुद जवाब देना होगा!!!
By Jayjeet
इस शाश्वत सत्य से कौन इनकार करेगा कि जब आप सामने वाले पर एक उंगली उठाते हैं तो तीन उंगलियां आपकी ओर भी उठती हैं। कल मप्र के मंडला में राहुल गांधी की एक चुनावी सभा में यही दृश्य था। उन्होंने एक बड़ा महत्वपूर्ण सवाल पूछा था। सवाल यह था कि हिंदुस्तान की बड़ी कंपनियों के मालिकों में, उनके सीनियर मैनेजमेंट में, बड़े-बड़े पत्रकारों में, बड़े-बड़े एंकरों में आखिर आदिवासी कितने हैं? इसका जवाब भी खुद ही दिया- एक भी नहीं। आरोप रूपी यह सवाल मोदी सरकार पर लक्षित था, लेकिन चिलचिलाती धूप में इसकी बड़ी-सी छाया उनकी ही धवल टी-शर्ट को लगभग पूरा ढंक रही थी।
राहुल की कम से कम इस बात के लिए तारीफ की जा सकती है कि वे बड़े अच्छे सवाल, बड़े अच्छे से उठाते हैं। और इससे भी अच्छी बात यह है कि सवाल उठाते हुए वे जाने या अनजाने में विपक्ष के साथ-साथ अपनी पूर्ववर्ती सरकारों को भी कठघरे में खड़ा करने में कोहाही नहीं बरतते हैं। कल का सवाल भी कुछ इसी तरह का था। यह सवाल पूछते हुए एक उंगली तो उन्होंने मोदी सरकार पर उठाई थी, लेकिन तीन उंगलियां उन पूर्ववर्ती कांग्रेस सरकारों पर भी उठ रही थीं, जिनका ज्यादातर नेतृत्व उनके ही परिवार के पास रहा है।
मोदी सरकार से तो वैसे भी किसी सवाल के जवाब की उम्मीद नहीं की जानी चाहिए। लेकिन सवाल यह है कि क्या इस सवाल का जवाब खुद राहुल भी देने का नैतिक साहस करेंगे? क्या वे जवाब देंगे कि आखिर 55 साल तक सत्ता में काबिज उनकी पार्टी की सरकारों ने भी आदिवासियों की हैसियत महज एक वोट बैंक से ज्यादा क्यों नहीं समझी? (बल्कि दलितों, और मुस्लिमों की भी)। तमाम सरकारों ने आदिवासियों और दलितों के लिए महज सरकारी नौकरियों में आरक्षण सुनिश्चित कर यह मान लिया और मनवा लिया कि वे प्रगति की राह पर आगे बढ़ जाएंगे। बेशक,आरक्षण से वंचित तबकों के बड़े हिस्से को एक हद तक आगे बढ़ाना संभव हो सका है, लेकिन घनघोर प्रतिस्पर्धा वाले कॉरपोरेट संसार में ये तरीके काम नहीं आ सकते। क्या कांग्रेस सरकारों ने इसके लिए उन्हें तैयार करने का प्रयास किया या तैयार करने की इच्छाशक्ति दिखाई?
मान लेते हैं, वह जमाना राहुल का नहीं था। लेकिन अब तो पार्टी को कमोबेश राहुल ही लीड कर रहे हैं। उन्होंने जो मोदी सरकार से पूछा, क्या उसका समाधान उनके पास है? इसके जवाब के लिए कांग्रेस का घोषणा-पत्र देखिए। अधिकांश वादे सरकारी नौकरियों में भर्ती और आरक्षण तक सीमित है, जबकि आने वाला दौर कॉरपोरेट का ही है। तो फिर महज चुनावी जुमलेबाजी से क्या हासिल होगा?
पुनश्च... मौजूदा मोदी सरकार अक्सर बड़े गर्व (आप चाहें तो अहंकार भी पढ़ सकते हैं) से कहती है कि हमने एक आदिवासी को राष्ट्रपति बनाया। 'बनाना' और 'बनना', इसमें जमीन-आसमान का फर्क है। कांग्रेस जब सत्ता में होती थी, तब वह भी कुछ ऐसे ही जुमलों का प्रयोग करती थी। जब तक हमारे राजनीतिक दल एहसान जताने वाले शब्दों से ऊपर उठकर वास्तविक सशक्तिकरण के प्रयास नहीं करेंगे, इन वर्गों का कुछ भी भला नहीं हो सकेगा और ये महज सियासी चारा बने रहेंगे। फिर चाहें कितने भी सवाल उठते रहे, उठाते रहें...!