हारकर भी जीत गए थे अटलजी, ये जीतकर भी हार गए...!!!
यहां आपको कॉन्टेंट मिलेगा कभी कटाक्ष के तौर पर तो कभी बगैर लाग-लपेट के दो टूक। वैसे यहां हरिशंकर परसाई, शरद जोशी जैसे कई नामी व्यंग्यकारों के क्लासिक व्यंग्य भी आप पढ़ सकते हैं।
हारकर भी जीत गए थे अटलजी, ये जीतकर भी हार गए...!!!
By Jayjeet Aklecha/ जयजीत अकलेचा
वर्ष 1960 में नॉर्थ टीटी नगर भोपाल स्थित शासकीय आवास में शरद जोशीजी का क्लिककिया गया युवावस्था का एक दुर्लभ फोटो। छायांकन - जगदीश कौशल, भोपाल |
राजनीति के चरित्र में एक ही खूबी है कि उसका कोई चरित्र नहीं होता। न चरित्र होना ही उसका चरित्र है। चरित्रवान लोग जब राजनीति करते हैं, वे निरन्तर अपने को सच्चरित्र और दुश्चरित्र करते हुए एक क़िस्म से चरित्र-रहित हो जाते हैं। व्यक्तित्व जहाँ बेपेंदी के लोटे होने लगते हैं, वहाँ से राजनीति की शुरुआत होती है। राजनीति एक केन्द्रहीन गोल चक्कर या चक्करों का सिलसिला है, जिसका व्यास, परिधि और केन्द्रबिन्दु अनिश्चित होते हैं। दसों दिशाओं में उसकी गति है जो अपने-आपमें दुर्गति है, मगर किया क्या जा सकता है, क्योंकि यही राजनीति है। जहाँ अधोगति अक्सर प्रगति और प्रगति दुर्गति लगती हो, उस बिन्दु को राजनीति कहते हैं। शब्दों के खेल को आगे बढ़ाते हुए कहूँ कि यही उसकी सद्गति है।
राजनीति में शब्द झूठ के माध्यम हैं और वे लगातार भार ढोते हैं। राजनीति में शब्द केंचुए का जीवन जीते हैं, जिनकी न रीढ़ होती है और न दिशा। वे लगातार एक ही गन्दगी पर चल रही सक्रियता की पहचान बने लगातार वहीं-वहीं हिलते चलते रहते हैं। राजनीति में शब्द भूसे के ढेर हैं, जिसमें से एक भी दाना नहीं निकलता। दाना सत्य होता है और सत्य का राजनीति में एक सिरे से अभाव होता है। राजनीति में सत्य का झूठ की तरह इस्तेमाल किया जाता है। यदि ज़रूरत हो तो राजनीतिज्ञ सच बोल जाता है, जिससे वह बाद में इन्कार कर देता है कि यह झूठ है। राजनीति में अपना-अपना झूठ ही अपना-अपना सच होता है। दूसरे का सच अक्सर झूठ और अपना झूठ सदैव सच होता है; अर्थात् पता नहीं, क्या झूठ और क्या सच होता है। शब्द इसका भार ढोते हैं। वे नहीं जानते, वे क्या कर रहे हैं, क्या भार ढो रहे हैं।
राजनीति में झूठ बयान की स्पष्टता और गरिमा से सामने आता है। आकाश में बयानों का मेला-जमघट बना रहता है। बयान से बयान टकराते हैं, कई बार दो बयान मिल कर एक हो जाते हैं, कई बार एक ही बयान दो भागों में बंट जाता है और दोनों भाग एक-दूसरे के खिलाफ बन जाते हैं। बयान होने पर भी निरर्थक होते हैं, निरर्थक होने पर भी बयान होते हैं। अक्सर खामोशी बयान होती है। शब्द अर्थहीन और अर्थ शब्दहीन हो जाता है। दोनों हीन होते हैं, महीन होते हैं, ज़हीन कभी नहीं होते। आकाश में ऐसे बयानों के जमघट और गरज-तरज से राजनीति चूती है, टपकती है, चुचुआती है। लोग आसमान निहारते रहते हैं। वे छाता लगाए आसमान निहारते हैं। वे पूरी आत्म-सुरक्षा के साथ राजनीति के टपकने, धरती तक आने का इन्तज़ार करते हुए बड़ी प्यासी मुद्रा में पानी पी-पी कर आसमान निहारते हैं और कोसते हैं कि वह नहीं टपकती। सब-कुछ होने पर भी न हो सकने का नाम राजनीति है।
राजनीति एक स्त्री है जो ऐसे सुकोमल बच्चों को जन्म देती है, जो आगे चल कर विषैले साँप और भुजंग बन जाते हैं। हम राजनीति को एक खूसट माँ की तरह देखते हैं, जो अपने इन भुजंगों के सिर पर हाथ फेरती रहती है। राजनीति एक वेश्या है, जिसे हर ग्राहक पतिव्रता समझता है। राजनीति निष्ठावानों और ईमानदारों की मालकिन और बेईमानों और धोखेबाज़ों की दासी है। राजनीति सबकी हो कर भी किसी की नहीं है। रात की पार्टी में आई चालू औरत की तरह वह सबको निकटता का आभास देती हुई वाक़ई निकट हो सकती है, मगर वह उसकी नहीं है जिसके निकट है। राजनीति किसी की नहीं, यों जब जिसकी हो जाए, उसकी है। सब अपनी-अपनी राजनीति लिए घूमते हैं। वे नहीं जानते कि वास्तव में राजनीति उन्हें लिए घूम रही है। राजनीति आपको ऐसा सुख देती है, जैसे वह आपकी गोद में बैठी हो।
राजनीति एक कचरापेटी है, जिसे खुली तिजोरी की गरिमा प्राप्त है। कचरापेटी में जो कचरा है, वह तिजोरी का रत्न कहलाता है। यह कचरापेटी लगातार हिलती रहती है और कचरा ऊपर-नीचे होता रहता है अर्थात् रत्नों के ढेर में रत्न देखे-परखे जाते हैं। जिस रत्न का भाग्य होता है, वह मुकुट पर लग जाता है। मुकुट पहनने वाला पूरा देश यह नहीं जान पाता कि वह सिर पर कचरा रखे है। राजनीति कचरे को रत्न का ग्लैमर देती है। पत्थर-कंकड़ सितारे लगने लगते हैं। और उन्हें बरसों बाद पता चलता है कि उनकी गतिविधियों का स्वर्ग वास्तव में एक विराट कचरापेटी है। सिद्धान्त रंग के डिब्बों का विभिन्न नाम है। राजनीति अलग-अलग रंग के डिब्बों का प्रयोग कर कचरापेटी का सौन्दर्य बदलती रहती है।
राजनीति महायात्रा है। वह कुर्सियों के प्रदेश तक भेड़ियों की महायात्रा है। ये भेड़िये बकरियों और भेड़ों के गाँव में अपनी पगडंडियाँ तलाशते लगातार आगे बढ़ते जाते हैं। जिसके कब्ज़े में जितनी भेड़-बकरियाँ आती हैं, उसकी यात्रा उतनी ही सुखद और सुरक्षित हो जाती है। बकरियाँ एक भेड़िये से पीछा छुड़ा, दूसरे भेड़िये के चंगुल में फँस जाती हैं। राजनीति की महायात्रा में भेड़-बकरियों का यही योगदान है। भेड़िये बढ़ते रहते हैं। एक-दूसरे को चकमा देते, भूलभुलैया में डालते, घायल करते, नोचते, मारते वे जल्दी-से-जल्दी कुर्सियों के प्रदेश तक पहुँचना चाहते हैं। महायात्रा की अन्तिम मंज़िलों में भेड़िये वेजीटेरियन हो जाते हैं और बकरियों का विश्वास अर्जित करने लगते हैं।
चॉकलेट की कुर्सी है, जिस पर मावे का बंगला बना है और बाहर आइसक्रीम की कार खड़ी है। मंज़िल एक विशाल केक की तरह सामने है। भेड़िये कुर्सी पर चढ़ बँगले में घुस जाते हैं, अन्दर टुकड़ा खाने के लिए बाहर भेड़-बकरियाँ जय-जयकार के नारे लगाती हैं। भेड़िये प्रसन्न हैं, अपनी मंज़िल पर पहुँच कर। राजनीति ऊष्मा है, गर्मी है, जो चॉकलेट की कुर्सी और मावे के बैंगले को पिघला देती है और चाटता हुआ, मुँह पोंछता हुआ भेड़िया फिर लपलपाती निगाहों से बकरियों की ओर देखता नज़र आता है। अपने उच्चतम रूप में राजनीति सिर्फ इतनी है।
#sharad joshi
By Jayjeet Aklecha
By Jayjeet Aklecha
गुजरात की सूरत लोकसभा सीट से भले ही भाजपा के प्रत्याशी मुकेश दलाल को निर्विरोध विजयी घोषित कर दिया गया है और निर्वाचन आयोग ने उन्हें सर्टिफिकेट भी दे दिया है। फिर भी एक हाइपोथेटिकल स्थिति की कल्पना कर रहा हूं कि अगर यह मामला सुप्रीम कोर्ट में जाता है और कोर्ट कहता है कि NOTA के होते हुए किसी को भी निर्विरोध नहीं चुना जा सकता, तब मामला कितना दिलचस्प हो जाएगा!!
By Jayjeet