बुधवार, 25 जून 2014

मान्यता प्राप्त भगवान!

जयजीत अकलेचा/ Jayjeet Aklecha
'भगवान' की मान्यता के लिए फार्म जमा करते संतनुमा लोग।

एक काउंटर पर बड़ी भीड़ है। काउंटर के बाहर भगवा से लेकर सफेद-पीले-लाल रंग के कपड़े पहने कई संत टाइप लोग लाइन लगाए खड़े हैं। पास में ही दो-चार आवारा कुत्ते झूम रहे हैं। लाइन से उठने वाले गांजे के धुएं का असर उन पर कुछ ज्यादा ही हो रहा है। यह एक्रीडिएशन सेंटर है और ये संतनुमा लोग ‘भगवान’ की मान्यता का फार्म जमा करने के लिए अपने नंबर का इंतजार कर रहे हैं।
‘जी, क्या नाम है आपका?’ खिड़की के भीतर बैठे बाबू ने पान की पीक पास में ही डस्टबीन की तरफ उछालने के बाद पूछा।
‘संत हरिप्रसाद पिता महासंत रामप्रसाद कावड़िया।’ एक मैले से पीले-चितकबरे कपड़े पहना व्यक्ति बोला।
‘इसीलिए...इसीलिए मैं कंफर्म कर रहा था। यहां हरप्रसाद लिख रखा है। महाराज, भगवान बनकर भक्तों को क्या ऐसी ही उल-जुलूल बातें बताओंगे।’ बाबू ने उसे हल्की से झिड़की दी।
‘जी, लाओ फार्म, मैं ठीक कर लूंगा।’
‘नेक्स्ट’ बाबू ने जोरदार आवाज लगाई। एक लंबा-चौड़ा मोटा-ताजा किस्म का बंदा आगे आया। नाम फकीरचंद। हालांकि उनकी तोंद से वे कहीं भी फकीर नजर नहीं आ रहे थे।
‘यह चिलम यहां तो फेेंक दो। आपको पता नहीं है कि सार्वजनिक स्थानों पर धूम्रपान करना प्रतिबंधित है।’ बाबू ने अपना रुतबा झाड़ा।
‘नादान बालक, मुझे रोकता है! भगवान बनते ही सबसे पहले मैं तुझे ही श्राप दूंगा।’
‘महाराज आवाज नीची, अभी आप मान्यता प्राप्त भगवान नहीं बने हैं। फाइल मेरे पास से ही ऊपर
 जाएगी, जान लीजिए।’
‘ओ, मैं तो मजाक कर रहा था बालक। इतनी जल्दी आपा खोना अच्छी बात नहीं है... काम तो हो जाएगा ना?’
‘हूम, नेक्स्ट।’ बाबू जरा जल्दी में है।
अंदर अफसर के पास फाइलों का ढेर लगा है। यहां का सिस्टम बहुत ही क्लियर है। जिसकी जितनी कृपा आएगी, भगवान बनने के उसके चांस उतने ही बढ़ जाएंगे। कई अनुभवी संतनुमा लोग इस सिस्टम का पूरा सम्मान करते हैं। वे तो लाइन में भी नहीं लगते। उन्हें मालूम है कि किस दलाल के माध्यम से वे आसानी से भगवान बन सकते हैं। अफसर भी ऐसे भावी भगवानों की पूरी इज्जत करते हैं। जरूरी है!
और ऊपर देवलोक में नारदजी यह देख-देखकर मुस्कुरा रहे हैं। वैसे तो वे हमेशा ही मुस्कुराते नजर आते हैं, लेकिन ऐसे मौकों पर उनकी मुस्कान कुछ ज्यादा ही चौड़ी हो जाती है। उन्होंने अपनी चिरपरिचित कुटील मुस्कान के साथ पास ही खड़े एक संत से पूछा, ‘महाराज, आपने भी क्या शिरडी में यही सब किया था!’
‘नारदजी, कैसी बात करते हो? मेरे दिल को जो अच्छा लगा, मैंने वह किया, गरीबों को भगवान समझकर उनकी सेवा की। पर देखते ही देखते लोगों ने मुझे भगवान बना दिया। अब इसमें मेरा क्या दोष?’
‘मतलब, आपके पास भगवान का एक्रीडिएशन कार्ड ही नहीं है?’ नारदजी ने हंसते हुए पूछा।
‘मुझे तो यही नहीं मालूम कि यह एक्रीडिएशन कार्ड होता क्या है?’
‘वाह, हमसे ही दिल्लगी कर रहे हो। सोने के सिंहासन पर बैठते हो और कहते हो कि आप भगवान ही नहीं हो।’ नारदजी बोले।
‘इसी बात का तो अफसोस है नारदजी। जिंदगी भर मैं पत्थरों पर सोया लेकिन अब मुझे सोने के सिंहासन पर बैठाया जा रहा है।’
‘तो आपका कहना है कि आपके भक्तों ने आपको तो स्वर्ण सिंहासन पर बैठा दिया और सादगी, गरीबों की सेवा जैसे आपके आदर्श विचारों को सिंहासन के नीचे खिसका दिया?’
‘मैं इस पर कोई कमेंट नहीं करुंगा, चाहे आप मुझे कितना भी उकसा लें। मैं आप जैसे पत्रकारों का मंतव्य खूब समझ रहा हूं। आप तो चाहते ही हैं कि कोई कंट्रोवर्सी पैदा हो। आजकल लोगों की भावनाओं को ठेस पहुंचने में वक्त नहीं लगता। मैं चलता हूं राम-राम।’

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